चंदौसी का परदेसी : दुष्यंत कुमार
अलस्सुबह चना पीसते मुलायम हाथ
✍️सुरेंद्र मोहन मिश्र
(कोई भी रचनाकार जब पाठकों के बीच जाना जाने लगता है तब तक वह काफी परिपक्व हो चुका होता है. लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए उसे किन रास्तों से गुजरना पड़ा, यह जानकारी भी पाठक के लिए उसकी रचनाओं से कम महत्त्वपूर्ण नहीं होती. दुष्यंत कुमार के बारे में ऐसी ही कुछ जानकारियां दे रहे हैं उनके छात्र जीवन के एक साथी.)
बात लगभग सन् '48 की है. मैं तब चंदौसी के एस. एम. कालेज की आठवीं कक्षा का छात्र था. उन्हीं दिनों पुलिस और छात्रों का संघर्ष बरेली में हुआ. साइकिल पर दो सवारियां बैठने पर प्रतिबंध लगाया गया था. इसी प्रतिबंध को लेकर पुलिस छात्र संघर्ष हुआ. सहानुभूति में चंदौसी के छात्रों ने हड़ताल की, नगर के सभी बाजार बंद कराये गये. पांच छात्र स्थिति का निरीक्षण करने बरेली गये. कालेज के प्रांगण में सैकड़ों छात्र बरेली के समाचार पाने के लिए एकत्रित थे. तभी घोषणा हुई कि कवि दुष्यंत कुमार 'परदेसी' बरेली का विवरण कविता में सुनायेंगे, अभी थोड़ी प्रतीक्षा करें. फिर घोषणा हुई कि दुष्यंत कुमार 'परदेसी' अपनी कविता सुनाने आ रहे हैं.
सारी सभा की नजरें हैली हॉस्टल के मुख्य द्वार की ओर उठ गयीं. मैं भी उस सभा में था. तब तक मेरे काव्य-जीवन का आरंभ नहीं हुआ था. बड़ी जिज्ञासा थी कि कवि नाम का प्राणी कैसा होता है?
तभी शोर मचा 'कविजी आ रहे हैं'. मैंने देखा - गौर वर्ण का एक तरुण खद्दर का कुर्ता - पाजामा और जवाहर-कट पहने बड़ी मस्ती से भीड़ चीरता हुआ मंच की ओर बढ़ रहा है.
कविता आरंभ हुई. उस कविता में पुलिस के अत्याचारों का अतिशयोवित-पूर्ण विवरण था.
कविता कैसी थी, यह मुझे अब स्मरण नहीं है पर कवि का व्यक्तित्व और उसका प्रभाव मेरे जीवन पर अमिट छाप छोड़ गये. इसी वर्ष मेरे काव्य-जीवन का भी आरंभ हुआ और मेरी प्रथम कविता दैनिक 'सन्मार्ग' (दिल्ली) में छपी.
चंदौसी से इसी वर्ष एक मासिक पत्रिका 'पुकार' का प्रकाशन आरंभ हुआ. संपादक थे स्वर्गीय रामकुमार राजपूत. यह पत्रिका एक वर्ष चली. दुष्यंत कुमार इसमें लिखते भी थे और संपादन में भी सहयोगी थे. मैं प्रायः पत्रिका के कार्यालय में जाता. मेरी आयु उस समय तेरह वर्ष की रही होगी. उन दिनों 'परदेसी' की लोक-प्रियता भी चंदौसी में खूब थी. स्थानीय आर्य-समाज मंदिर में गोष्ठियां होतीं. मैं तो उन दिनों अपने पारिवारिक बंधनों के कारण किसी भी गोष्ठी में सम्मिलित नहीं हो पाता था पर मित्रों से इतना पता मिलता रहता था कि 'परदेसी' पर मुग्ध होनेवाली लड़कियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है.
दुष्यंत चंदौसी में उस समय नायक का जीवन जी रहे थे. उनके पास आने वाले प्रेम-पत्रों की संख्या काफी बड़ी थी. दुष्यंतजी के दूसरे मित्र महावीर सिंह उन दिनों बड़ी अच्छी कविता कर रहे थे. ये दोनों घंटों बैठे-बैठे अपने प्रेम-प्रसंगों की चर्चा करते रहते थे. मैं तब तक प्रेम की पीर से परिचित नहीं था. मुझे इन दोनों की बेचैनी समझ में नहीं आती थी. दोनों ही कवि विवाहित थे. घर पर सुशील और सुंदर पत्नियां होते हुए भी प्रेमिकाओं के प्रति उनका आकर्षण आज मुझे जितना स्वाभाविक लगता है, तब नहीं लगता था.
मुझे ठीक याद है कि दुष्यंतजी की एक प्रशंसिका इन पर इतना अधिक पागल हो गयी थी कि इनके साथ भागने को तैयार हो गयी थी. सारी योजना बन गयी. प्रातः 4 बजे की गाड़ी से दोनों को मुरादाबाद होकर कहीं निकल जाना था. रात्रि को महावीर सिंह ने देर तक दुष्यंतजी को समझाया. पत्नी के प्रति ही कर्तव्य की भावना को सजग किया. दुष्यंतजी तो मान गये पर इस घटना के दो वर्ष बाद ठा. महावीर सिंह ने अपनी एक प्रेमिका के द्वार पर सत्याग्रह कर ही दिया.
कई हजार उत्सुक दर्शकों के बीच ठा. महावीरजी धरना दिये हुए थे. एक तो कन्या ब्राह्मणों की थी, दूसरे ठा. महावीरजी विवाहित थे, अतः उनके इस कृत्य में कोई भी सहयोगी नहीं हो सकता था. मैं इस दृश्य को प्रत्यक्ष देखना चाहकर भी प्रत्यक्ष न देख सका था पर इतना पता लगा कि लड़की पर जब मां-बाप ने बहुत दबाव डाला तो उसने द्वार की झिरखी के पीछे खड़े होकर कह दिया, "मेरा आपसे कोई संबंध नहीं है, न मैं आपके साथ जाना ही चाहती हूं, आप यहां से चले जायें." ठाकुर साहब उस समय यह कहकर चले गये, "प्रिय, मैं जानता हूं, ये सारे शब्द तुमसे बलात कहलवाये जा रहे हैं. तुम मेरी हो और मेरी ही रहोगी."
उसी रात को 2 बजे के लगभग ठाकुर साहब घोड़ा-तांगा लेकर आये. कन्या को शायद किसी माध्यम से सूचना दे दी गयी थी. वह छत पर खड़ी प्रतीक्षा में थी. कन्या को छत से ही तांगे पर उतार लिया था. वह कन्या आज भी उनकी पत्नी है. कई बच्चों की मां है. दोनों पत्नियां साथ-साथ रह रही हैं.
..ठाकुर साहब छात्र-जीवन में अच्छे कवि थे. उनकी एक कविता कभी बड़ी प्रसिद्ध रही :
यौवन क्षणिक खुमार
कामिनी, करो न इतना मान.
दुष्यंतजी के एक कवि-मित्र थे-अभिमन्यु कुमार, आज भी हैं पर कविता नहीं लिखते.
चंदौसी का एस. एम. इंटर कॉलिज हिंदी के अनेक प्रसिद्ध साहित्यकारों, कवियों और पत्रकारों का आरंभिक साधना-स्थल रहा है. हिंदी के मूर्धन्य आलोचक डा. नगेंद्र जब यहां छात्र थे तो नगेंद्र नागायच 'अमल' के नाम से कविता करते थे.
स्व. श्री भारतभूषण अग्रवाल और डा. रामानंद तिवारी की आरंभिक साधना-स्थली चंदौसी ही रही. पत्रकारों में श्री महावीर अधिकारी का नाम लिया जा सकता है. दुष्यंत कुमार के काल में ही हिंदी के वरिष्ठ और अपने ढंग के अकेले ही गीतकार रामावतार त्यागी भी अपने गीतों की भूमिका तैयार कर रहे थे. कवि सम्मेलनों के अलावा बालीबाल टूर्नामेंट में भी उनकी आशु-कविता जो खिलाड़ियों से संबंधित होती थी, सुनने को मिल जाती थी.
दुष्यंतजी चंदौसी में गीत लिखते थे. पूरा नाम था दुष्यंत कुमार सिंह त्यागी. यों उनका 'परदेसी' उपनाम ही अधिक लोकप्रिय रहा.
चंदौसी से दुष्यंत कुमार प्रयाग विश्वविद्यालय पहुंचे और वहां से "विहान' नामक पत्रिका का एक अंक निकाला जिसमें कमलेश्वर और मार्कडेय भी सहयोगी थे. आगे चलकर ये तीनों ही संपादक अपनी विधाओं के अग्रणीय लेखक बने.
दुष्यंत कुमार की मुक्तछंद की कविता प्रथम बार 'विहान' में ही देखने को मिली. कविता कुछ यों थी :
पौ फूटी है
दर्द टीसने लग गया,
अलस्सवेरे बहुत मुलायम हाथ
चना पीसने लग गया.
चंदौसी के साथ दुष्यंतजी की अनेक मधुर स्मृतियां जुड़ी हुई हैं. जब भी कभी चंदौसी आते थे, अपनी पूर्व प्रेमिकाओं के कुशलक्षेम अवश्य पूछ लेते थे. पीने का शौक प्रयाग की ही देन रहा जिसने मृत्युपर्यंत दुष्यंत को नहीं छोड़ा. यही शौक हिंदी गजलों के इस अकेले मनचले सम्राट को हमारे बीच से असमय उठा ले गया.
हिंदी संसार का दुष्यंत कुमार, पर चंदौसी का 'परदेसी' इतनी शीघ्र हम सबसे 'परदेसी' हो जायेगा, यह किसे कल्पना थी.
:::: प्रस्तुति::::
डॉ मनोज रस्तोगी
संस्थापक
साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
वाट्स एप नम्बर 9456687822


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