डॉ कृष्ण कुमार नाज लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
डॉ कृष्ण कुमार नाज लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 23 जनवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज के सत्रह गीत ---------



 **1** जीवन के कुछ चित्र बनाऊँ 


          कुछ पल तुम सँग नाचूँ-गाऊँ

          कुछ पल तुम सँग धूम मचाऊँ

                      सोच रहा हूँ साथ तुम्हारे

                      जीवन के कुछ चित्र बनाऊँ


वो देखो पर्वत के ऊपर 

उड़ते हैं बादल के गोले 

वृक्षों से लिपटी लतिकाएँ

खाती हैं जैसे हिचकोले 

           होठों पर मुस्कान सजाए 

           फूल खिले हैं प्यारे-प्यारे 

                      पहले जीभर तुम्हें निहारुँ

                      फिर इनसे बोलूँ-बतियाऊँ 


आह्लादित करती है मन को 

इस अल्हड़ नदिया की कल-कल

आँखों को अच्छी लगती है 

उस पर ये कुहरे की हलचल 

           लहरों की बाँहों में उतरे 

           इंद्रधनुष को पास बुलाकर 

                     अँजुरी भर-भर रंग उड़ेलूँ 

                     ख़ुद भीगूँ, तुम पर बरसाऊँ 


दूर पहाड़ी पर बैठा है 

वो सुंदर सारस का जोड़ा 

कुछ-कुछ शरमाया लगता है 

सकुचाया भी थोड़ा-थोड़ा 

           क्या है प्रेम, समर्पण क्या है 

           या वो जाने, या हम जानें

                     कुछ पल तुम मुझमें खो जाओ 

                     कुछ पल मैं तुममें खो जाऊँ


तुमसे भी तो परिचित हैं सब 

नीलगगन के राजदुलारे 

अठखेली करता वो चंदा 

झिलमिल-झिलमिल करते तारे 

           कितनी सुंदर, कितनी शीतल, 

           कितनी निर्मल है वो दुनिया 

                     आओ मेरे साथ चलो अब

                     उस दुनिया की सैर कराऊँ

                     

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

**2** सुंदरतम रूप तुम्हारा 

अपने हाथों से ईश्वर ने, जिसे सजाया और सँवारा 

बरबस मोहित कर लेता है, प्रिय सुंदरतम रूप तुम्हारा


गालों पर ये लटें सुनहरी, मुखमंडल की छटा निराली 

प्रातःकाल गगन में जैसे, छाई हो सूरज की लाली 

भौंहें जैसे तनी कमानें, आँखें जैसे फूल कमल के 

बिंदी है या चमक रहा है, उन्नत माथे पर ध्रुवतारा


झंकृत कर देती है मन को, यह मुस्कान अधर पर ठहरी 

हँसती हो तो यूँ लगता है, गूँज उठी जैसे स्वरलहरी

गाती हो जब मधुरिम स्वर में, कोयल भी विस्मित हो जाती

जीत उसी की हुई सुनिश्चित, जिसने अपना सब कुछ हारा


अपनी सुघर कल्पनाओं को, मैंने जब-जब भी दुलराया 

तब-तब मेरे हृदय-पटल पर, केवल चित्र तुम्हारा आया 

अपने चंदा से मिलने को, सजती जब संध्या सिंदूरी 

उस पल कुछ ऐसा लगता है, जैसे तुमने मुझे पुकारा


🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

 **3** मेरे गीतों की फुलवारी


          शब्द-शब्द क्या, अक्षर-अक्षर, 

          बसी हुई है गंध तुम्हारी 

                    इसीलिए तो महक रही है, 

                    मेरे गीतों की फुलवारी 


रंग-बिरंगे फूल खिले हैं, 

कितने ही मन के उपवन में 

बाँध लिया है सबने मिलकर, 

मुझको अपने सम्मोहन में 

          भौंरे, तितली, मोर, पपीहा, 

          सब मस्ती में झूम रहे हैं 

                    शीतल मंद पवन के झोंके, 

                    ले आते हैं याद तुम्हारी


जाने क्या कह दिया भोर ने, 

जाकर कलियों के कानों में 

पलक झपकते सभी सज गईं, 

सुंदर-सुंदर परिधानों में 

          सूरज ने जब उनका घूँघट, 

          हौले-हौले सरकाया तो 

                    हँसकर बोलीं आओ प्रियतम, 

                    तुम पर तन-मन है बलिहारी


यह सावन की रिमझिम-रिमझिम, 

यह कोयल की कूक निराली 

ताल-तलैयाँ उफने-उफने, 

चारों ओर घनी हरियाली

          देख घटाएँ श्यामल-श्यामल, 

          नाच उठा है मन मतवाला

                   हर छवि में तुम ही तुम हो प्रिय, 

                   हर छवि लगती प्यारी-प्यारी

                   

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 4 ** सामर्थ्यवान तुम

    

          शब्दकोश सामर्थ्यवान तुम

          मैं तो एक निरर्थक अक्षर

अपनी शक्ति मुझे भी दे दो

अधिक नहीं, केवल चुटकी-भर


तुम श्रद्धा के पात्र और मैं

निष्ठा से परिपूर्ण पुजारी

तुम सूरज जाज्वल्यमान हो

मैं नन्हीं सी किरण तुम्हारी

         तुम देवालय, तुम्हीं देवता

         मैं तो एक अपावन पत्थर

अपनी शक्ति मुझे भी दे दो

अधिक नहीं, केवल चुटकी-भर


सारे अर्थ निहित हैं तुममें

तुम उदार, करुणा के सागर

मेरा जीवन ऋणी तुम्हारा

भर दो मेरी रीती गागर

          तुम विस्तृत आकाश और मैं

          निर्धन का छोटा-सा छप्पर

अपनी शक्ति मुझे भी दे दो

अधिक नहीं, केवल चुटकी-भर


वेद, पुराण, उपनिषद, गीता,

रामायण में वास तुम्हारा

झलक तुम्हारी पा जाने को

उत्सुक रहता है जग सारा

            तुम सुख की बहती सरिता, मैं-

            दुख का एक चिरंतन निर्झर

अपनी शक्ति मुझे भी दे दो

अधिक नहीं, केवल चुटकी-भर

 🌹🌹 🌹🌹🌹🌹

** 5 **  मैंने भी तुमको गाया है

मेरे मन का कोना-कोना, जबसे तुमने महकाया है 

साँसों को संगीत बनाकर, मैंने भी तुमको गाया है 


मैं सुधियों के द्वार पहुँचकर, जब-जब ख़ुद से ही घबराया 

उन एकाकी कठिन क्षणों में तुमने मेरा साथ निभाया 

अनदेखे-अनजाने पथ पर, तुम मिल गए अचानक मुझको 

है यह योग पूर्व जनमों का, या फिर ईश्वर की माया है 


प्रेम जहाँ है, वहाँ क्षणिक तो कुछ भी नहीं हुआ करता है 

बूँद विराट रूप धरती है, सागर जब उसको वरता है 

प्रियवर साथ तुम्हारा पाकर, मानो मैं अभिभूत हो गया 

तुमसे ही मेरे चिंतन का रोआँ-रोआँ हर्षाया है 


छू-छूकर प्रतिबिंब तुम्हारा, इतराता है मन का दरपन

और तुम्हारी रूपराशि का करता है वंदन-अभिनंदन

चेतनता के फूल खिले हैं, मादकता की मस्ती छाई

आशाओं के द्वार खुले हैं, जबसे तुमने अपनाया है

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 6 ** जीभर निहारूं

बांधकर भुजपाश में तुमको प्रिये मैं

चाहता हूं आज फिर जीभर निहारूं


वो तुम्हारा मुस्कराना-खिलखिलाना

अनवरत फिर देर तक बातें बनाना

और फिर मेरे निकट आकर ख़ुशी से 

गीत मेरे ही मुझे गाकर सुनाना


हे असीमित प्रेम की देवी बताओ

मैं भला किस नाम से तुमको पुकारूं


ख़ूबसूरत मख़मली लहजा तुम्हारा

बोलने का ये हसीं अंदाज़ प्यारा

लग रही है आंख की पुतली कि जैसे

तैरता हो झील में कोई शिकारा


भाल पर बिखरी हुई स्वर्णिम लटें ये

तुम कहो तो हाथ से अपने संवारूं


रूठ जाना, फिर स्वयं ही मान जाना

सर्दियों की धूप सम नख़रे दिखाना

और फिर दांतों तले उंगली दबाकर

शोख़ नज़रों से मुझे पल-पल रिझाना


सोचता हूं दृष्टि में तुमको बसाकर

मैं तुम्हारी राह पलकों से बुहारूं

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 7 ** तुम्हारा आगमन

धड़कनें संगीतमय हैं और हर्षित हैं नयन 

दे गया  उपहार कितने ही तुम्हारा आगमन 


भावनाओं ने सजाई है रंगोली प्यार की 

बिछ गई जैसे धरा पर हर ख़ुशी संसार की

कामनाएं हाथ जोड़े कर रहीं शत-शत नमन

दे गया  उपहार कितने ही तुम्हारा आगमन


सज गई है रोशनी से आज मन की हर गली 

झिलमिलाते हैं दिये जैसे कि हो दीपावली

भर रहा फिर-फिर कुलांचें आजकल मन का हिरन

दे गया  उपहार कितने ही तुम्हारा आगमन


यूं लगा जैसे कि पतझर में बहारें आ गईं

और मन की वादियों को दूर तक महका गईं

मुस्कराने लग गए हैं आंख में सुंदर सपन

दे गया  उपहार कितने ही तुम्हारा आगमन

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 8 ** तुमने केवल शब्द पढ़े हैं

मेरे गीतों में बसती हैं, उद्वेलित अभिलाषाएं

तुमने केवल शब्द पढ़े हैं, मैंने बुनीं भावनाएं


प्रीत बावरी क्या होती है, तुम क्या जानो छोड़ो भी

कैसे वो सुधबुध खोती है, तुम क्या जानो छोड़ो भी

एक बार यदि भूले से तुम, मुझको अपना कह देते

छू लेतीं आकाश झूमकर, मेरी सुघर कल्पनाएं


कुटिल निराशाएं जब-जब भी, अपने पर फैलाती हैं 

मन मसोसकर भोली-भाली, आशाएं रह जाती हैं

उदासीन सद-इच्छाओं का, राजतिलक कैसे कर दूं

बैठी हैं कोने-कोने में, मन के सघन वर्जनाएं


याद करो तुम हाथ बढ़ाकर, कितने वादे करते थे 

मेरी आंखों के दर्पण में, सजते और संवरते थे 

वो सुंदरतम पल आंखों में, डेरा डाले बैठे हैं 

आ जाओ, अब आ भी जाओ, कुछ बोलें, कुछ बतियाएं

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 9** मिट्टी में ही खो जाना है

सुन मेरे मन! इस जीवन पर, इतना भी क्या इतराना है 

चलती-फिरती काया को जब, मिट्टी में ही खो जाना है


कभी-कभी आह्लादित होकर, झर-झर झरने-सा बहता है 

और कभी अपनी ही धुन में, खोया-खोया-सा रहता है

संबंधों की बढ़ी भीड़ से, पगले भ्रम में मत पड़ जाना 

वो भी तेरा साथ न देंगे, जिनका भी तू दीवाना है


हंसता है तो यूं लगता है, उपवन-उपवन फूल खिले हों

एकाकी लमहों में लगता, जैसे तेरे होंठ सिले हों

उत्सुकता के साथ यहां पर, मिलता है हर कोई चेहरा 

यह भी समझ नहीं आ पाता, अपना है या बेगाना है


आनंदित करती हैं अब भी, उच्छृंखलताएं बचपन की

हंसा-हंसाकर ख़ूब रुलातीं, धुंधली-सी यादें यौवन की

आख़िर क्यों इस भरी हाट में, ख़ाली हाथ चला आया तू

अब चल उठा पोटली अपनी, सांझ हुई घर भी जाना है

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 10 ** दर्पण चकनाचूर हुआ

मतभेदों के चलते मन का दर्पण चकनाचूर हुआ 

राह तुम्हारी भी बदली है, मैं भी कुछ मजबूर हुआ 


कभी हृदय में संबंधों की धूप गुनगुनी आती थी 

अपनेपन की ख़ुशबू स्वप्निल दुनिया को महकाती थी 

अब अतीत यह पूछ रहा है, वर्तमान से रह-रहकर-

मैंने तुझको जो सौंपा था, कैसे तुझसे दूर हुआ 


कभी वाटिका मन-सुमनों की, इठलाती थी खिली-खिली 

मुझको तुमसे, तुमको मुझसे, एक नई पहचान मिली 

लेकिन यह क्या हुआ अचानक, सावन बाज़ी हार गया

अंतस के कोने-कोने में, पतझर यूं भरपूर हुआ


कभी हृदय में आशाओं के, दीप हज़ारों जलते थे 

आंखों के  आंगन में सुंदर सपने रोज़ टहलते थे

चली गई वो खनक हंसी की, रूठ गईं सब मुस्कानें

सबका-सब शृंगार कभी का, चेहरे से काफ़ूर हुआ

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 11 ** तुम नहीं आये प्रिये

थी प्रतीक्षा जिस घड़ी की, वो घड़ी भी आ गई 

तुम नहीं आए प्रिये, तो  हर ख़ुशी मुरझा गई 


जानता हूं मैं कि होंगी कुछ विवशताएं मगर 

कुछ अधूरी कामनाएं हो गईं मुखरित इधर

आंसुओं की एक दस्तक, फिर पलक नहला गई

तुम नहीं आए प्रिये, तो  हर ख़ुशी मुरझा गई


अब निराशा की चुभन, आओ कहीं रहने न दें

प्रीत के स्वप्निल भवन साधें, इन्हें ढहने न दें

साफ़ करलें धुंध जो मन के गगन पर छा गई

तुम नहीं आए प्रिये, तो  हर ख़ुशी मुरझा गई


लौट आओ तुम जहां भी हो, तुम्हें सौगंध है

यह जनम क्या, जन्म-जनमों का अमिट संबंध है 

राह तक-तककर समय की आंख भी पथरा गई

तुम नहीं आए प्रिये, तो  हर ख़ुशी मुरझा गई

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 12 ** छवियां तो छवियां हैं

ओ मेरे मन क्यों छवियों में, 

तू अपनापन ढूंढ रहा है

तप्त मरुस्थल में प्यारे क्यों, 

रिमझिम सावन ढूंढ रहा है


छवियां तो छवियां हैं, इनका- 

सच्चाई से कैसा नाता

पल-पल भेष बदलती हैं ये, 

ये इनका इतिहास बताता

चल इनकी चिंता मत कर अब, 

तू भी अपनी राह बदल ले

क्यों इनके मस्तक-मंडन को

रोली-चंदन ढूंढ रहा है


कभी चिढ़ातीं, कभी रिझातीं, 

कभी लुभातीं, कभी हंसातीं

हृदयहीन होती हैं लेकिन- 

ये गहरा अपनत्व जतातीं

सोच ज़रा क्या मतलब इनका, 

तेरी गहन भावनाओं से

क्यों बदरंग शिलाओं में तू, 

उजले दरपन ढूंढ रहा है


तेरे-मेरे दुख-सुख अपने, 

छवियों के भ्रम में मत पड़ना

भूले से इनके हाथों की, 

कठपुतली तू कभी न बनना

स्वार्थ और छल-छद्म भरा है, 

ओ पगले इनकी नस-नस में

क्यों फिर इनके आलिंगन में, 

तू संजीवन ढूंढ रहा है

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 13 **हार गई लो प्रीत आज फिर 

हार गई लो प्रीत आज फिर, जीत गईं शंकाएं 

होंठों पर सिसकियां सजी हैं, पलकों पर पीड़ाएं 


याद करो तुम ज़रा ध्यान से अपने प्यारे वादे 

याद करो पर्वत जैसे वो अपने अटल इरादे 

याद करो सारी की सारी वो सुंदर घटनाएं 

होंठों पर सिसकियां सजी हैं, पलकों पर पीड़ाएं 


तुम कहती थीं- ’मैं राधा हूं, तू मेरा सांवरिया’

मैं कहता था- ‘तू सागर है, मैं छोटा-सा दरिया’ 

धू-धूकर जल रहीं आज लेकिन सारी आशाएं 

होंठों पर सिसकियां सजी हैं, पलकों पर पीड़ाएं 


तुम कहती थीं- ‘तू है मेरा सचमुच भाग्यविधाता’ 

मैं कहता था- ‘तुझे देखकर चांद बहुत शरमाता’ 

जटिल समय की भेंट चढ़ गईं सब की सब इच्छाएं 

होंठों पर सिसकियां सजी हैं, पलकों पर पीड़ाएं

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 14 **मन के चंदनवन में 

मेरे मन के चंदनवन में, जो धूप सुनहरी आती है 

वह धूप तुम्हारे चेहरे की आभा से शरमा जाती है 


कुछ तो मौसम अनुकूल हुआ 

कुछ समय निकाला तुमने भी 

दीपक भी जलता रहा मगर 

कर दिया उजाला तुमने भी 

आभास तुम्हारा होता है, जब कोयल गीत सुनाती है


आह्लादित करता है पल-पल 

वह विपुल प्यार, वह क्षणिक मिलन 

दे गई सुगंधे कितनी ही 

वह एक तुम्हारी मधुर छुअन

लो धन्य हुआ जीवन अपना हर सांस यही दोहराती है 


जीवन कुछ ऐसा लगता था 

मानो अभिशप्त हवेली हो 

नर्तन हो गहन निराशा का 

पीड़ाओं की अठखेली हो 

लेकिन तुमको पाकर जाना, हर दिशा आज मुस्काती है 

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 15 **इतना वक़्त कहां से लाऊं

संग तुम्हारे हंसूं हंसाऊं 

इतना वक़्त कहां से लाऊं


दस बजते ही दफ़्तर जाना 

और फ़ाइलों से बतियाना 

हारे-थके हुए क़दमों से 

शाम ढले घर वापस आना 


सोचो जरा विवशता मेरी 

मैं तुमको कैसे समझाऊं


कभी-कभी तो ये होता है 

मैं जगता हूं, तन सोता है 

हंसती हैं मुझ पर इच्छाएं 

और बिचारा मन रोता है 


रूठ गए जो लोग अकारण

कैसे जाकर उन्हें मनाऊं


मैं क्या जानूं सैर-सपाटे

जीवनभर ढोए सन्नाटे 

क्या बतलाऊं कैसे-कैसे

मौसम मैंने कैसे काटे


चाबी भरे खिलौनों से मैं 

कब तक अपना मन बहलाऊं


सुख ने जब-जब की मनमानी 

दुख ने अपनी चादर तानी 

पीड़ा के छविगृह में उभरीं 

छवियां कुछ जानी-पहचानी


मेरे पास नहीं कुछ ऐसा 

जिस पर पलभर भी इतराऊं

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 16 **आखि़र मुझको क्या करना है

अपराधी ख़ुद को मानूँ या दोष भाग्य के सिर मढ़ डालूँ

या फिर इस एकाकीपन को जीवन का उद्देश्य बना लूँ

तुम्हीं बताओ, आखि़र मुझको क्या करना है


साथ तुम्हारे इस जीवन में लेशमात्र अवसाद नहीं था

सपने, नींद और आँखों में कोई कटु संवाद नहीं था

एक तुम्हारे जाने-भर से सूनी हुई हवेली मन की

इस निर्जन वीरानी को मैं ठुकरा दूँ या गले लगा लूँ

तुम्हीं बताओ, आखि़र मुझको क्या करना है


हारे-थके क़दम चलने में अब ख़ुद को असमर्थ बताते

अब न महकते-खिलते फूलों वाले उपवन मुझे सुहाते

द्वार खड़ी हैं अभिलाषाएँ ओढ़े हुए उदासी तन पर

इनसे दृष्टि बचाकर निकलूँ या बढ़कर इनको अपना लूँ

तुम्हीं बताओ, आखि़र मुझको क्या करना है


जैसे चातक की तृष्णा को गंगाजल भी बुझा न पाया

वैसे ही जग का आकर्षण मुझे राह से डिगा न पाया

टेर रही है जाने कब से जनम-जनम की विरहाकुलता

पीड़ा व्यक्त करूँ इससे या इससे अपना दर्द छिपा लूँ

तुम्हीं बताओ, आखि़र मुझको क्या करना है

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 17 ** देखो आजकल

भावनाओं पर लगा है किस तरह प्रतिबंध

देखो आजकल


 जल रहे हैं दीप भी सहमे-डरे

 आँधियों से कौन अब शिकवा करे

 याचना के हाथ ख़ाली रह गये

 कौन जी पाया किसी के आसरे


जीत ही करने लगी है हार से अनुबंध 

देखो आजकल


 बढ़ गये बोझल चरण ख़ुद ही उधर

 चुप्पियों का था जहाँ कोई नगर

 शब्द परिभाषा न अपनी बन सके

 काँपते ही रह गये उनके अधर


मौन से जुड़ने लगे हैं अर्थ के संबंध

देखो आजकल


 भाव विह्वल हो नदी बहती रही

 गीत गा-गाकर व्यथा कहती रही

 सागरों ने कब सुनी उसकी कथा

 वेदनाएँ सब स्वयं सहती रही


हो गया घायल बदन कटने लगे तटबंध 

देखो आजकल

✍️डा. कृष्ण कुमार ' नाज़'

सी-130, हिमगिरि कालोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.

मोबाइल नंबर  99273 76877

सोमवार, 23 नवंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज की ग़ज़ल ------बंद कमरे में जो जलता था बड़ी शान के साथ वो दिया सहन में जलते हुए घबराता है


जब कोई अक्स निगाहों में ठहर जाता है

दिल तमन्नाओं को कपड़े नये पहनाता है 


ज़िंदगी होती है जब मौत की आग़ोश में गुम 
पंछी उड़कर कहीं आकाश में खो जाता है 

खाइयाँ लेती हैं बरसात के पानी का मज़ा 
ये हुनर ख़ुश्क पहाड़ों को कहाँ आता है 

बंद कमरे में जो जलता था बड़ी शान के साथ 
वो दिया सहन में जलते हुए घबराता है

आसमाँ आ गया क़दमों में ज़मीं के, वो देख 
तेरी औक़ात ही क्या, किसलिए इतराता है 

कौन दे पाया उसे उसके सवालों के जवाब
इस क़दर बातों ही बातों में वो उलझाता है

✍️ डा. कृष्णकुमार 'नाज़', मुरादाबाद

रविवार, 8 नवंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज का आलेख ----- "कृष्णबिहारी ‘नूर’ : संतत्व को प्राप्त व्यक्तित्त्व"


::::::: आज जन्मदिन पर विशेष::::::::

गेहुँआ रंग, उभरा हुआ माथा, काले रँगे हुए बाल, क्लीनशेव चेहरा, होंठों पर निरन्तर तैरती मुस्कान, हर समय कुछ न कुछ खोजती रहने वाली चमकदार आँखें; ये सब बातें यदि किसी अच्छे चित्रकार को बता दी जाएँ तो वह अपनी तूलिका से जो चित्र तैयार करेगा, वह निस्सन्देह श्री कृष्णबिहारी ‘नूर’ का होगा। चूड़ीदार पाजामा, ढीला कुर्ता और उस पर जैकेट पहने नूरसाहब जब मुशायरों और कवि-सम्मेलनों के मंचों पर जाते, तो पहली नज़र में ही ऐसा लगने लगता था कि जैसे लखनवी नज़ाकत और नफ़ासत सिमटकर उनकी आग़ोश में आ गयी हो। कपड़ों पर यदि तनिक भी दाग़-धब्बा लग गया, तो तुरन्त ही पोशाक बदलते थे। रहन-सहन, खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने के मामले में उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उनके व्यक्तित्व, बोलचाल और रहन-सहन में लखनऊ की वह तहज़ीब बसती थी, जो आज उँगलियों पर गिने जाने वाले लोगों को ही मयस्सर है। नूरसाहब के व्यक्तित्व और सबको साथ लेकर चलने वाली उनकी जीवनशैली से प्रभावित लोगों का एक बड़ा समूह है। हालाँकि आज शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसका कोई विरोधी न हो, लेकिन मैं यह देखता था कि उनके विरोधी उनके सामने आते ही इस प्रकार हो जाते थे, जैसे मैगज़ीन के पन्ने ट्रेन की खिड़की से आती हवा में फड़फड़ाकर अपनी खीझ प्रकट करते हैं।

उनकी दोस्ती हर धर्म और हर वर्ग के लोगों से थी और वह इस बात का ख़याल भी रखते थे कि बातचीत के दौरान कहीं किसी को भावनात्मक ठेस न पहुँचे। एक घटना मुझे याद आ रही है। मैं नूरसाहब के साथ ही उनके ड्राइंगरूम में बैठा हुआ था। तभी उनके एक परिचित आये और अपनी कम्पनी का नववर्ष का कलेण्डर ड्राइंगरूम में टाँग दिया। नूरसाहब ने जब देखा कि कलेण्डर पर देवी-देवताओं के चित्र हैं, तो उनसे बोले-‘‘भई देखो हमारे ड्राइंगरूम में हर मज़हब के लोग आते हैं। इस कलेण्डर को देखकर हो सकता है किसी को ठेस पहुँचे, इसलिए इसे घर के भीतर टाँग दो और ड्राइंगरूम के लिए कोई ख़ूबसूरत सीनरी ले आओ।’’ यह था नूरसाहब का व्यक्तित्व और उनकी भावना।

नूरसाहब समय का बहुत ख़याल रखते थे। अगर मिलने के लिए किसी को समय दिया है, तो निश्चित समय पर उस व्यक्ति की प्रतीक्षा करते थे। यदि अकारण ही वह व्यक्ति विलम्ब से आये तो उसे नूरसाहब की नाराज़गी सहनी पड़ती थी। 

 नूरसाहब वादे की क़ीमत भी जानते थे और अहमियत भी। यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता ही थी कि बाज़ार में जो चीज़ उन्हें पसन्द आ गयी, उसे ख़रीदते समय कभी उसका मूल्य नहीं पूछा, कभी मोल-भाव नहीं किया। दुकानदार ने क़ीमत बताई और नूरसाहब ने चुकता करदी। नूरसाहब के ही एक मित्र बताते हैं कि वह और नूरसाहब लखनऊ में मीना बाज़ार में घूम रहे थे। तभी एक दुकान पर उन्हें शोकेस में रखा कपड़ा पसन्द आ गया। नूरसाहब दुकान पर गये, कपड़ा लिया और दुकानदार द्वारा बतायी गयी क़ीमत चुका कर चल दिये। थोड़ी दूर जाकर उनके मित्र ने कहा- ‘‘नूरसाहब, अगर आप कुछ मिनट ठहरें तो यही कपड़ा उसी दुकान से मैं कम क़ीमत पर ला सकता हूँ।’’ यह सुनकर नूरसाहब हँसे और बोले- ‘‘यह काम तो हम भी कर सकते थे, लेकिन पसन्द आयी चीज़ का मोलभाव करना पसन्द की तौहीन है।’’ यह थी नूरसाहब की विशेषता और मूल्यों का रखरखाव। क्रोध के क्षणों में भी उनके होंठों पर कभी अमर्यादित शब्द नहीं आये।

  नूरसाहब बहुत विनम्र और सरल स्वभाव के सादगीपसन्द व्यक्ति थे। असल में यही सादगी और विनम्रता उनकी शायरी का केन्द्र है। नूरसाहब ने निरन्तर सफलता की ऊँचाइयों को छुआ, लेकिन अपनी ज़मीन को, अपने आधार को कभी पाँवों से नहीं खि़सकने दिया। जहाँ उन्होंने बड़ों को सम्मान दिया, वहीं छोटों को बेपनाह मुहब्बतें दीं, प्यार लुटाया। यह उनके व्यक्तित्त्व का बड़प्पन था। शायद इन्हीं सब बातों ने उन्हें साधारण इंसान से सन्त की श्रेणी में ला खड़ा किया। 

    नूरसाहब के व्यक्तित्त्व के सम्बन्ध में प्रसिद्ध इतिहासकार डा. योगेश प्रवीन कहते हैं- "20वीं सदी के अज़ीम शायर कृष्णबिहारी ‘नूर’ साहब एक बड़े शायर ही नहीं, एक आला दरजे की इंसानियत का मर्तबा रखने वाले इंसान थे। उनके पास अच्छी निगाह थी, रेशमी अहसास थे और सुनहरी क़लम थी, जिससे उन्होंने जो कुछ भी लिखा वो अमर हो गया। उन्होंने फूल की पंखुड़ियों पर भी लिखा है, चाँदनी की सतह पर भी लिखा है और सबसे बड़ी बात है कि हमारे आपके दिल के वरक़ पर भी लिखा है।’’

  झाँसी से प्रकाशित ‘मार्गदर्शक’ साप्ताहिक की लेखमाला में श्री ओमशंकर ‘असर’ लिखते हैं- "नूरसाहब ज़िन्दगी में बहुत आम आदमी हैं, मगर शायरी में वे असाधारण ही हैं। साधारण और असाधारण दोनों गुण एक साथ अगर देखने हों, तो नूरसाहब का व्यक्तित्व और फिर उनकी शायरी का मज़ा लें। आम-फ़हम होने के नाते वे बहुत सादा ज़ुबान अपने शेरों में पिरोते हैं और असाधारण होने के नाते उनके विचार बहुत गहरे भी हैं और ऊँचे भी।’’

   यक़ीनन नूरसाहब जितने बड़े शायर थे, उतने ही बड़े इंसान भी। उनके व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व में अन्तर तलाश पाना असम्भव है। मैंने स्वयं कविसम्मेलन और मुशायरों के मंचों पर देखा है कि नये से नये शायर ने अगर अच्छी कविता लिखी है, तो उसे भरपूर प्रोत्साहित किया करते थे, जबकि बड़े से बड़े शायर की नीरस और अर्थहीन कविता पर वे ख़ामोशी ओढ़ लिया करते थे। अपने से बड़ों को भरपूर सम्मान देना तथा छोटों से बड़े प्यार के साथ मिलना उनके व्यक्तित्त्व का विशेष गुण था।

    नूरसाहब का लेखन चूँकि अध्यात्म और भारतीय दर्शन पर आधारित है, इसलिए उनकी कविता के चाहने वालों में बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों की संख्या अधिक है। इस बात को नूरसाहब बख़ूबी जानते थे और इसकी पुष्टि एक छोटे से संस्मरण से भी हो जाती है-

     बात सन् 1990 की है। मैं मुरादाबाद के ही महाराजा हरिश्चन्द्र डिग्री कालेज से उर्दू में एम.ए. कर रहा था। यूँ कहिये कि एम.ए. के द्वितीय वर्ष की परीक्षा देने के बाद मैं ‘वायवा’ के लिए कालेज गया था। जैसे ही मेरा नम्बर आया और मैं कमरे में दाखि़ल हुआ तो वहाँ उर्दू विभागाध्यक्ष साबिर हसन साहब ने परीक्षक महोदय से मेरा परिचय कराया- सर, ये मिस्टर कृष्णकुमार हैं और हमारे कालेज के अकेले नाॅन मुस्लिम कैंडिडेट हैं।

   परीक्षक महोदय ने बड़े प्यार के साथ कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा- तशरीफ़ रखिये। मैं कुर्सी पर बैठ गया, लेकिन दिल धड़क रहा था कि कहीं वह कोई ऐसा सवाल न पूछ बैठें जो मुझे नहीं आता हो। तभी उन्होंने कहा- ‘आप किसी शायर के दो शेर सुनाइये।’ मैंने उनसे निवेदन किया- सर, अगर आप इजाज़त दें, तो मैं अपने ही दो शेर पेश कर दूँ। उन्होंने ख़ुश होते हुए पूछा- क्या आप भी शेर कहते हैं? मैंने कहा- जी सर, थोड़ी-बहुत जोड़-तोड़ कर लेता हूँ। वह बोले- सुनाइये। मैंने धड़कते दिल से दो शेर सुना दिये। सुनकर बोले- वाह-वाह, दो शेर और सुनाइये। मैंने दो शेर और सुना दिये। उन्होंने फिर दाद दी और पूछा- आप इसलाह किनसे लेते हैं? मैंने कहा- जनाब कृष्णबिहारी ‘नूर’ से।

   यक़ीन जानिये, नूरसाहब का नाम सुनते ही वे दोनों हत्थे पकड़कर कुर्सी से खड़े हो गये और बोले- "अरे भई! वाह-वाह, आपने उस्ताद के रूप में ऐसे शायर का इन्तख़ाब किया है, जो अपने तरीक़े का हिन्दुस्तान का अकेला शायर है। शुक्रिया, आपका वायवा हो गया।" मेरी सारी मुश्किल आसान हो गयी। 

    शायर मेराज फ़ैज़ाबादी नूरसाहब को चचा कहते थे और उनका बड़ा सम्मान करते थे। नूरसाहब भी उन्हें बहुत प्यार करते थे। मेराज साहब का नूरसाहब के व्यक्तित्त्व के प्रति अद्भुत दृष्टिकोण है। वह कहते हैं- ‘‘होठों पर मुस्तकि़ल खेलती हुई हँसी, ज़िन्दगी से भरपूर मुस्कराहट, चेहरे पर ऋषियों जैसा सुकून और पवित्रता, आँखों में लमहाभर चमककर बुझ जाने वाले दुखों के साये, कृष्णबिहारी ‘नूर’ तारीकियों के इस युग में बीती हुई पुरनूर सदियों का सफ़ीर (राजदूत), एक फ़नकार, एक इंसान, एक फ़क़ीर और मुशायरे के माइक पर एक फि़क्रोफ़न का दरिया।’’

   प्रसिद्ध कवि एवं पत्रकार कन्हैयालाल नंदन लिखते हैं- ‘‘लखनऊ ऑल इंडिया रेडियो ने एक कवि-सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें हिन्दी-उर्दू दोनों की नुमाइंदगी की गयी। बाईपास सर्जरी के बाद पहला मुशायरा पढ़ने आये थे इसमें नूरसाहब। दिल्ली से मैं भी शरीके-महफि़ल था, सो चश्मदीद वाक़या बयान कर रहा हूँ कि जब नूरसाहब को पढ़ने की दावत दी गई तो रेडियो ने उन्हें सहूलियत से काम-अंजाम देने के लिए जहाँ बैठे थे, वहीं से पढ़ने की सुविधा देनी चाही। नूरसाहब ने अपना बाईपास रखा किनारे और हाज़रीन से मुख़ातिब होते हुए बोले- ‘आप माफ़ी दें, डाक्टरों ने दिल चीर के रख दिया, लेकिन उन्हें क्या पता कि मेरा दिल मेरे पास है ही नहीं, वह तो मेरे चाहने वाले आप जैसे लोगों के पास है, सो शेर मुलाहज़ा हो ...’ और फिर तो साहब नूरसाहब ने ऐसे पढ़ा जैसे पिंजरे से निकल के परिन्दे ने बेख़ौफ़ उड़ानें भरी हों। ग़ज़ल भी वो पढ़ी जो उनकी ग़ज़लों में मेरी सबसे पसन्दीदा ग़ज़ल है। बल्कि उसका एक शेर तो मेरे जीवन के दर्शन का हिस्सा बन चुका है-

मैं एक क़तरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है

हुआ करे जो समन्दर, मेरी तलाश में है"


प्रख्यात संगीतकार एवं गीतकार श्री रवीन्द्र जैन कुछ यूं फ़रमाते हैं- "नूरसाहब यूँ तो तहत में पढ़ते थे, लेकिन पढ़ने के अंदाज़ से तरन्नुम में पढ़ने वाले मात खा जाते थे। मुशायरा मुंबई में हो या मुंबई के आसपास, नूरसाहब का क़याम अक्सर और पेशतर मेरे छोटे से आशियाने में हुआ करता था। घर में क़याम तो जिस्मानी तौर पर था, नूरसाहब तो रूह की गहराइयों में उतर चुके थे। न सिर्फ़ अपने, बल्कि हम दोनों अपने पसंदीदा शायरों के शेर एक-दूसरे से बाँटते थे, जब कभी मेरा लखनऊ प्रवास होता, नूरसाहब मेरी सिदारत में अपने दौलतख़ाने पर मेरे एज़ाज़ में नशिस्त रखते। वो शायरी जिसका हम मुंबई में तसव्वुर भी नहीं कर सकते, लखनऊ के शोअरा से सुनने को मिलती, भाभीजान के हाथ के बने मूँगफली के क़बाब मैं आज भी नहीं भूला हूँ। मुंबई-लखनऊ में मिलने का सिलसिला अब भी बरक़रार रहता, अगर दयाहीन मृत्यु उन्हें यूँ अचानक न ले जाती।


अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है

रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है


नश्शे में डूबे कोई, कोई जिये, कोई मरे

तीर क्या-क्या तेरी आँखों की कमाँ छोड़ती है


बंद आँखों को नज़र आती है, जाग उठती हैं

रोशनी ऐसी हर आवाज़े-अज़ाँ छोड़ती है


ख़ुद भी खो जाती है, मिट जाती है, मर जाती है

जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बाँ छोड़ती है


आत्मा नाम ही रखती है न मज़हब कोई

वो तो मरती भी नहीं, सिर्फ़ मकाँ छोड़ती है


एक दिन सबको चुकाना है अनासिर का हिसाब

ज़िंदगी छोड़ भी दे, मौत कहाँ छोड़ती है


मरने वालों को भी मिलते नहीं मरने वाले

मौत ले जाके ख़ुदा जाने कहाँ छोड़ती है


ज़ब्ते-ग़म खेल नहीं है अभी कैसे समझाऊँ,

देखना मेरी चिता कितना धुआँ छोड़ती है


और अंत में श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए अपनी बात समाप्त करता हूं…


वो जिसने ज़िंदगीभर छांव बांटी 

मैं पत्ता हूं उसी बूढ़े शजर का


✍️डा. कृष्ण कुमार ' नाज़'

सी-130, हिमगिरि कालोनी

कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.
मोबाइल नंबर  99273 76877


मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज की ग़ज़ल ए टी ज़ाकिर के स्वर में


 


✍️डॉ कृष्ण कुमार नाज
🎤  ए टी ज़ाकिर
फ्लैट नम्बर 43, सेकेंड फ्लोर
पंचवटी, पार्श्वनाथ कालोनी
ताजनगरी फेस 2, फतेहाबाद रोड
आगरा -282 001
मोबाइल फ़ोन नंबर। 9760613902,
847 695 4471.
मेल- atzakir@gmail.com

शनिवार, 16 मई 2020

मुरादाबाद के हिंदीसेवी स्मृतिशेष दयाशंकर पांडेय पर केंद्रित डॉ कृष्ण कुमार नाज द्वारा लिखा गया संस्मरणात्मक आलेख ----- ‘...... हो सके तो लौट के आना'


       कई साल पहले की बात है। शाम के क़रीब सात और आठ के बीच का समय होगा, मेरे घर की कालबेल बजी। मैंने दरवाज़ा खोला तो महानगर के हास्य-व्यंग्य कवि श्री कृष्ण बिहारी दुबे के साथ एक सज्जन खड़े थे। ठिगनी क़द-काठी, दुबला-पतला शरीर, क्लीनशेव चेहरा, खिचड़ी बाल, सर पर गांधी टोपी, खादी की सफे़द पैंट-शर्ट पहने, कंधे पर थैला लटकाए थे। मैंने उन्हें अभिवादन किया और आदर-सत्कार के साथ बैठक में बैठाया। थोड़ी ही देर में चाय आ गई। चाय की चुस्कियों के बीच दुबे जी ने उनसे परिचय कराया- श्री दयाशंकर पांडेय, रेल विभाग से सेवानिवृत्त, महानगर की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ‘राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति’ के संस्थापक व अध्यक्ष। मैं बहुत ख़ुश हुआ। पांडेय जी ने बग़ैर किसी लाग-लपेट के अपनी बात शुरू की- ‘'नाज़ साहब मैं आपको हिंदी प्रचार समिति का सचिव बनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं, समिति की जो गतिविधियां मद्धमगति से चल रही हैं, उनमें तेज़ी आए।’' उनकी आंखों में विश्वास की चमक, लहजे में दृढ़ता, व्यवहार में अपनत्व व निश्छलता और मातृभाषा के प्रति उनका समर्पण देखकर मैंने बग़ैर किसी हील-हुज्जत के जवाब दिया- ‘'मैं हाज़िर हूं, आप जो भी आदेश देंगे सर-आंखों पर।’' शायद मुझसे उन्हें इसी उत्तर की अपेक्षा थी, इसलिए उनकी प्रसन्नता उनके चेहरे पर स्पष्ट झलकने लगी। उन्होंने मुझे तत्काल समिति की पंजिकाएं सौंप दीं। पांडेय जी ने बताया कि समिति की गोष्ठियाँ प्रतिमाह 14 तारीख़ को शाम पांच बजे दूरभाष केंद्र स्थित शिवमंदिर प्रांगण में होती हैं।

    पांडेय जी से इस ख़ूबसूरत मुलाक़ात के बाद आने वाली 14 तारीख़ के दृष्टिगत मैंने समिति सचिव की हैसियत से महानगर के अपने सभी कवि साथियों को निमंत्रण पत्र भेजे। इस गोष्ठी में कुछ शायरों को भी आमंत्रित किया गया। चूंकि यह मेरी ख़ुशकि़स्मती है कि महानगर के सभी रचनाकारों का मुझे हमेशा प्यार मिला है, इसलिए मेरा अनुरोध सभी ने स्वीकार किया और सभी काव्यगोष्ठी में उपस्थित हुए। रचनाकारों की संख्या को देख पांडेय जी भी ख़ुश हुए। गोष्ठी के दौरान ही निकट स्थित होटल से चाय मंगा ली गई। इसी बीच पाँडेय जी ने अपने थैले से बिस्कुट के दो पैकेट निकाले और खोलकर रचनाकारों के सामने रख दिए। वह समिति के हर कार्यक्रम में अपने थैले में बिस्कुट के दो पैकेट ज़रूर डालकर लाते थे। इसी परिवारिक माहौल में समय बीतता गया, हर माह 14 तारीख़ आती रही और समिति के कार्यक्रम होते रहे। उसके पश्चात अपनी कुछ अत्यधिक व्यस्तता के चलते मैं समिति को पूरा समय नहीं दे सका और पांडेय जी से क्षमायाचना करते हुए सचिव पद छोड़ दिया।

    यहां मैं बड़ी विनम्रता के साथ एक बात और कहना चाहूंगा कि जीवन की साठ से अधिक सीढ़ियां चढ़ने के बाद भी पाँडेय जी को थकन नाम के किसी शब्द ने छुआ तक नहीं था। उनमें ग़ज़ब की लगन और इच्छाशक्ति थी। उनके प्रति मन इसलिए भी नतमस्तक हो उठता है कि वह न तो कवि थे, न कहानीकार और न ही हिंदी की किसी अन्य लेखन विधा से संबद्ध, इसके बावजूद हिंदी के प्रति उन्हें हृदय की गहराइयों के साथ लगाव था। हिंदी उनके लिए ‘मातृभाषा’ थी, ‘मात्र भाषा’ नहीं। पांडेय जी का हिंदी प्रेम उन ‘फ़ैशनेबुल’ और ‘दिखावापसंद’ लोगों के मुंह पर तमाचा है, जो रोटी तो हिंदी की खाते हैं और गुणगान दूसरी भाषाओं का करते हैं।

    काश, पांडेय जी की तरह देश का हर व्यक्ति मातृभाषा से प्यार करे, तो किसी भी भाषा की हिम्मत नहीं कि हिंदी को उसके सिंहासन से उतारने का प्रयास कर सके।

  यद्यपि पांडेय जी ने 06 नवंबर, 2002 को हमारा साथ छोड़कर उस दुनिया में अपना आशियाना बना लिया, जहां देर-सबेर सभी को पहुंचना है। हालांकि उनकी याद किसे विह्नल नहीं कर देती। आज भी मन कह उठता है- ‘...... ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना।’ पांडेय जी की प्रेरणा आज भी हमें ऊर्जावान बनाए हुए है।

✍️ डॉ. कृष्णकुमार 'नाज़'
 सी-130, हिमगिरि कालोनी
कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.
मोबाइल नंबर  99273 76877

शुक्रवार, 8 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार मंसूर उस्मानी की कृति 'अमानत' की डॉ कृष्ण कुमार 'नाज' द्वारा की गई समीक्षा---- मुहब्बतों का मुकम्मल दस्तावेज़ है अमानत

    मंसूर भाई ऐसे शायर हैं, जिनकी पहुंच सिर्फ़ मुशायरों तक नहीं, बल्कि कवि-सम्मलेनों तक भी है, हिंदी के कार्यक्रमों में भी वो बड़े सम्मान के साथ आमंत्रित किए जाते हैं। इसका एकमात्र कारण यही है कि भाषाओं के प्रति उन्होंने कभी दुराग्रहपूर्ण रवैया इखि़्तयार नहीं किया। सहजता और सरलता के साथ जिस भाषा का भी शब्द शेर कहते वक़्त उनके ज़ह्न में आया, प्रयोग कर लिया। वो चाहे हिंदी का हो, उर्दू का हो, अंग्रेज़ी का हो या लोकभाषा का। और फिर, हिंदी और उर्दू में धाार्मिकता की दूरबीन लगाकर अंतर तलाशने वाले लोग एक दिन ख़ुद ही पस्त होकर धराशायी हो जाएंगे। आखि़र कोई फ़र्क़ है भी कहां हिंदी और उर्दू में। हिंदी अगर दिल है, तो उर्दू उसकी धड़कन; हिंदी अगर शरीर है तो उर्दू उसकी आत्मा, हिंदी अगर आंख है तो उर्दू उसकी रोशनी। एक-दूसरे के बग़ैर दोनों का अस्तित्व बचा पाना मुश्किल ही नहीं, असंभव है। साहित्यिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिस रचनाकार ने हिंदू या मुसलमान बनकर साहित्य सृजन किया, वह अतीत की गर्त में खो गया और जिन्होंने इंसान बनकर मानवमात्र के कल्याण के लिए सार्वभौमिक साहित्य रचा, उनकी आवाज़, उनके विचार सदियों बाद आज भी ज़िंदा हैं और हमारी आने वाली नस्लें उन आवाज़ों को, उन विचारों को सदियों तक महफ़ूज़ रखेंगी।
    हालांकि, यह सामाजिक विडंबना ही है कि यहां प्यार चोरी-छिपे करना पड़ता है, सबसे नज़रें बचाकर; जबकि नफ़रत खुलेआम की जा सकती है, उस पर कोई प्रतिबंध नहीं है। इसके लिए न किसी से नज़र बचानी है, न किसी से छिपना है। लेकिन, यह भी वास्तविकता है कि मुहब्बत करने वाले मुहब्बत कर रहे हैं। समाज को अम्न और शांति का संदेश दे रहे हैं, भले ही सामाजिक अव्यवस्थाएं उन्हें सूली पर क्यों न लटका दें, लेकिन सूली पर लटकने वाली आवाज़ चीख़-चीख़कर कहेगी कि उसने कोई जुर्म नहीं किया, कोई पाप नहीं किया। उस आवाज़ का साथ देने के लिए हज़ारों आवाज़ें नारों का रूप ले लेंगी। वह घायल आवाज़ ज़ालिमों के मुंह पर यह कहकर तमाचा मारेगी-

    तुमने दुनिया को अदावत के तरीक़े बांटे
    हमने दुनिया में लुटाई है ग़ज़ल की ख़ुशबू

    उसको हर दौर ने ऐज़ाज़ दिया है ‘मंसूर’
    जिसने लफ़्ज़ों में छुपाई है ग़ज़ल की ख़ुशबू

मंसूर भाई ने कभी समझौतावादी शायरी नहीं की। उन्होंने समाज में रहते हुए जो भी देखा, उसी का शब्दों के माध्यम से चित्रण किया। उनकी शायरी मात्र उनका अपना चिंतन नहीं, हर उस फटे हाल, तंगदस्त और अव्यवस्थाओं से दुखी आदमी की बात है, जो अपने से चंद सीढ़ियां ऊँचे आदमी से गिड़गिड़ाकर अपने कर्तव्यों की दुहाई देते हुए रहम की भीख मांग रहा है। उन्होंने इंसानियत से ख़ाली धर्म को मात्र दिखावा क़रार दिया है। उनके चंद ख़ूबसूरत अशआर प्रस्तुत हैं, जो मानवमात्र को संदेश देते हुए नज़र आते हैं-
    कांधों पे सब ख़ुदा को उठाए फिरे मगर
    बंदों का एहतराम किसी ने नहीं किया

    उसी से खाता हूं अक्सर फ़रेब मंज़िल का
    मैं जिसके पांव से कांटा निकाल देता हूं

    अब ऐसे ख़्वाब में नींदे ख़राब मत कीजे
    जो सारे शह्र को पागल बनाए देता है
    समझो कि ज़िंदगी की वहीं शाम हो गई
    किरदार बेचने का जहां भी सवाल आय

    ग़र्क़ हो जाती है जब नींद में सारी दुनिया
    जाग उठते हैं अदीबों के क़लम रात गए

    इतना धुंधला गए हैं आईने
    अपना चेह्रा नज़र नहीं आता

    वो दरख़्त आज कहां है जो कहा करता था
    मेरे साये में भी कुछ देर ठहरते जाओ

    मंसूर साहब ने अपने प्रिय की ख़ूबसूरती का बयान बड़े ख़ूबसूरत तरीक़े से किया है। एक शेर प्रस्तुत है-
 
            कैसा हसीन अक्स तुम्हारी हंसी का था
    साया कहीं पे धूप, कहीं चांदनी का था

    मंसूर भाई से मेरा परिचय क़रीब दो दशक पुराना है। यह उनकी मुहब्बतों का ही नतीजा है कि इस अंतराल में मैं उनके क़रीब से क़रीबतर होता गया। दोस्तों के बीच बैठकर गपशप करना, बात-बात पर चुटकुले सुनाकर सबको हंसाना और उनकी हंसी में बेबाकियत के साथ शरीक होना उनकी पहचान में शामिल है। वह स्थान चाहे उनके घर का ख़ूबसूरत ड्राइंगरूम हो या दफ़्तर का छोटा-सा तंग कमरा। लेकिन, मैंने अक्सर ये भी महसूस किया है कि उनके पुर-सुकून, मुस्कुराते चेह्रे के पीछे एक टूटा-फूटा वजूद, एक ठहरा हुआ ग़म का दरिया और दबा हुआ दर्द का एक तूफ़ान ज़रूर छिपा हुआ है, जो कभी पहलू बदलता है तो समय की चादर पर कुछ अशआर बिखर जाते हैं। ये दुनिया जिसकी एक झलक ही देख पाती है, बस।
    देशभर में अपनी उत्कृष्ट शायरी के ज़रिये धूम मचाने वाले और मुरादाबादी साहित्यिक गरिमा को और मज़बूत, और सुंदर बनाने वाले मंसूर भाई ने अनेक देशों की साहित्यिक यात्राएं की हैं और मुरादाबाद के साथ ही हिंदुस्तान का नाम रोशन किया है।
    ‘अमानत’ मंसूर साहब की पांचवीं किताब है। इससे पहले उनकी चार किताबें ‘मैंने कहा’, ‘जुस्तजू’, ‘ग़ज़ल की ख़ूशबू’ और ‘कशमकश’ ग़ज़ल के पाठकों में बहुत चर्चित हुई हैं। 140 पृष्ठीय इस पुस्तक में 89 ग़ज़लें, 26 क़तआत, 10 दोहे शामिल हैं। इसके अलावा 126 शेर ऐसे हैं जिन्हें मुतफ़र्रिक अशआर की श्रेणी में सम्मिलित किया जा सकता है। पुस्तक के आरंभ में सर्वश्री धर्मपाल गुप्त ‘शलभ’, पद्मश्री बेकल उत्साही, प्रो. मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद, पद्मभूषण गोपालदास ‘नीरज’, प्रो. वसीम बरेलवी, ज़ुबैर रिज़वी, डा. राहत इंदौरी, मुनव्वर राना, डा. उर्मिलेश, डा. कुंअर बेचैन, कृष्णकुमार ‘नाज़’, नित्यानंद तुषार और दीक्षित दनकौरी जैसे विद्वानों और साहित्यकारों की संक्षिप्त टिप्पणियां हैं, जिनमें मंसूर साहब के कृतित्व और व्यक्तित्व का उल्लेख किया गया है।


**कृति : अमानत
**रचनाकार : मंसूर उस्मानी
**प्रथम संस्करण : 2010
**प्रकाशक : वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली 110002
**मूल्य: 95₹
**समीक्षक : डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’
           सी-130, हिमगिरी कालोनी, कांठ रोड                       मुरादाबाद 244001
                  उत्तर प्रदेश, भारत

                       

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज की गजल --- जाने क्यों गूँगे बन बैठे, शोर मचाने वाले लफ़्ज़ ख़ूब चहकते थे पहले तो, ये अपनी चतुराई में


ख़ूब मिलीं सौग़ातें हमको, अपनी लापरवाई में
उँगली घायल कर बैठे हम, ज़ख़्मों की तुरपाई में

इक छोटा-सा कमरा दिल का, यादों के झूमर रंगीन
पूरा वक़्त गुज़र जाता है, इनकी साफ़-सफ़ाई में

किसको वो आवाज़ लगाए, किससे दिल की बात कहे
इक दीवाना सोच रहा है, जंगल की तनहाई में

जाने क्यों गूँगे बन बैठे, शोर मचाने वाले लफ़्ज़
ख़ूब चहकते थे पहले तो, ये अपनी चतुराई में

उस बदसूरत-सी लड़की की, शादी तो हो जाने दो
कितने ही तोहफ़े आएँगे, उसकी मुँह दिखलाई में

जिसने जीने की ख़्वाहिश में अपनी जान गँवा दी 'नाज़'
ढूँढ रहा हूँ उस दरिया को, सागर की गहराई में


**डॉ कृष्णकुमार 'नाज़'
मुरादाबाद  244001
उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 19 मार्च 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज की नज़्म : ज़रूरत और मुहब्बत


मुहब्बत का यहां पर, अजब दस्तूर देखा
जिसे शिद्दत से चाहा, वही मग़रूर देखा

मचलती आरज़ूओ! ज़रा तो रहम खाओ
मेरे हालात पर यूं, ठहाके मत लगाओ
किसी से क्या करूं अब, कोई शिकवा-शिकायत
न छोड़ेगी कहीं का, मुझे मेरी शराफ़त
उफनती हसरतों को, बहुत मजबूर देखा
जिसे शिद्दत से चाहा, वही मग़रूर देखा

नज़ारा तो यहां का, बड़ा ही दिलनशीं है
खिले हैं फूल लाखों, मगर ख़ुशबू नहीं है
पता क्या था लबों से हंसी भी छीन लेगा
ये मौसम खुदग़रज़ है, ये रोने भी न देगा
सहारा था जो दिल का, उसी को दूर देखा
जिसे शिद्दत से चाहा, वही मग़रूर देखा

ख़यालों से मैं अपने, पुराना आदमी हूं
मुसलसल हूं सफ़र में, कोई बहती नदी हूं
कसे फ़िकरे किसी ने, किसी ने आज़माया
सफ़र की उलझनों ने, गले हंसकर लगाया
हर इक इंसां का चेहरा, यहां बेनूर देखा
जिसे शिद्दत से चाहा, वही मग़रूर देखा

तुम्हीं क्या इस जहां में, ग़ज़ब की है ये फ़ितरत
कि जब तक है ज़रूरत, तभी तक है मुहब्बत
रखे क्यों ध्यान कोई, किसी की तिश्नगी का
ये रेगिस्तान ठहरा, हुआ ये कब किसी का
खरोंचों में भी दिल की, छुपा नासूर देखा
जिसे शिद्दत से चाहा, वही मग़रूर देखा

**डॉ कृष्णकुमार 'नाज़'
मुरादाबाद  244001
उत्तर प्रदेश, भारत