ख़ूब मिलीं सौग़ातें हमको, अपनी लापरवाई में
उँगली घायल कर बैठे हम, ज़ख़्मों की तुरपाई में
इक छोटा-सा कमरा दिल का, यादों के झूमर रंगीन
पूरा वक़्त गुज़र जाता है, इनकी साफ़-सफ़ाई में
किसको वो आवाज़ लगाए, किससे दिल की बात कहे
इक दीवाना सोच रहा है, जंगल की तनहाई में
जाने क्यों गूँगे बन बैठे, शोर मचाने वाले लफ़्ज़
ख़ूब चहकते थे पहले तो, ये अपनी चतुराई में
उस बदसूरत-सी लड़की की, शादी तो हो जाने दो
कितने ही तोहफ़े आएँगे, उसकी मुँह दिखलाई में
जिसने जीने की ख़्वाहिश में अपनी जान गँवा दी 'नाज़'
ढूँढ रहा हूँ उस दरिया को, सागर की गहराई में
**डॉ कृष्णकुमार 'नाज़'
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें