शनिवार, 23 जनवरी 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज के सत्रह गीत ---------



 **1** जीवन के कुछ चित्र बनाऊँ 


          कुछ पल तुम सँग नाचूँ-गाऊँ

          कुछ पल तुम सँग धूम मचाऊँ

                      सोच रहा हूँ साथ तुम्हारे

                      जीवन के कुछ चित्र बनाऊँ


वो देखो पर्वत के ऊपर 

उड़ते हैं बादल के गोले 

वृक्षों से लिपटी लतिकाएँ

खाती हैं जैसे हिचकोले 

           होठों पर मुस्कान सजाए 

           फूल खिले हैं प्यारे-प्यारे 

                      पहले जीभर तुम्हें निहारुँ

                      फिर इनसे बोलूँ-बतियाऊँ 


आह्लादित करती है मन को 

इस अल्हड़ नदिया की कल-कल

आँखों को अच्छी लगती है 

उस पर ये कुहरे की हलचल 

           लहरों की बाँहों में उतरे 

           इंद्रधनुष को पास बुलाकर 

                     अँजुरी भर-भर रंग उड़ेलूँ 

                     ख़ुद भीगूँ, तुम पर बरसाऊँ 


दूर पहाड़ी पर बैठा है 

वो सुंदर सारस का जोड़ा 

कुछ-कुछ शरमाया लगता है 

सकुचाया भी थोड़ा-थोड़ा 

           क्या है प्रेम, समर्पण क्या है 

           या वो जाने, या हम जानें

                     कुछ पल तुम मुझमें खो जाओ 

                     कुछ पल मैं तुममें खो जाऊँ


तुमसे भी तो परिचित हैं सब 

नीलगगन के राजदुलारे 

अठखेली करता वो चंदा 

झिलमिल-झिलमिल करते तारे 

           कितनी सुंदर, कितनी शीतल, 

           कितनी निर्मल है वो दुनिया 

                     आओ मेरे साथ चलो अब

                     उस दुनिया की सैर कराऊँ

                     

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**2** सुंदरतम रूप तुम्हारा 

अपने हाथों से ईश्वर ने, जिसे सजाया और सँवारा 

बरबस मोहित कर लेता है, प्रिय सुंदरतम रूप तुम्हारा


गालों पर ये लटें सुनहरी, मुखमंडल की छटा निराली 

प्रातःकाल गगन में जैसे, छाई हो सूरज की लाली 

भौंहें जैसे तनी कमानें, आँखें जैसे फूल कमल के 

बिंदी है या चमक रहा है, उन्नत माथे पर ध्रुवतारा


झंकृत कर देती है मन को, यह मुस्कान अधर पर ठहरी 

हँसती हो तो यूँ लगता है, गूँज उठी जैसे स्वरलहरी

गाती हो जब मधुरिम स्वर में, कोयल भी विस्मित हो जाती

जीत उसी की हुई सुनिश्चित, जिसने अपना सब कुछ हारा


अपनी सुघर कल्पनाओं को, मैंने जब-जब भी दुलराया 

तब-तब मेरे हृदय-पटल पर, केवल चित्र तुम्हारा आया 

अपने चंदा से मिलने को, सजती जब संध्या सिंदूरी 

उस पल कुछ ऐसा लगता है, जैसे तुमने मुझे पुकारा


🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

 **3** मेरे गीतों की फुलवारी


          शब्द-शब्द क्या, अक्षर-अक्षर, 

          बसी हुई है गंध तुम्हारी 

                    इसीलिए तो महक रही है, 

                    मेरे गीतों की फुलवारी 


रंग-बिरंगे फूल खिले हैं, 

कितने ही मन के उपवन में 

बाँध लिया है सबने मिलकर, 

मुझको अपने सम्मोहन में 

          भौंरे, तितली, मोर, पपीहा, 

          सब मस्ती में झूम रहे हैं 

                    शीतल मंद पवन के झोंके, 

                    ले आते हैं याद तुम्हारी


जाने क्या कह दिया भोर ने, 

जाकर कलियों के कानों में 

पलक झपकते सभी सज गईं, 

सुंदर-सुंदर परिधानों में 

          सूरज ने जब उनका घूँघट, 

          हौले-हौले सरकाया तो 

                    हँसकर बोलीं आओ प्रियतम, 

                    तुम पर तन-मन है बलिहारी


यह सावन की रिमझिम-रिमझिम, 

यह कोयल की कूक निराली 

ताल-तलैयाँ उफने-उफने, 

चारों ओर घनी हरियाली

          देख घटाएँ श्यामल-श्यामल, 

          नाच उठा है मन मतवाला

                   हर छवि में तुम ही तुम हो प्रिय, 

                   हर छवि लगती प्यारी-प्यारी

                   

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** 4 ** सामर्थ्यवान तुम

    

          शब्दकोश सामर्थ्यवान तुम

          मैं तो एक निरर्थक अक्षर

अपनी शक्ति मुझे भी दे दो

अधिक नहीं, केवल चुटकी-भर


तुम श्रद्धा के पात्र और मैं

निष्ठा से परिपूर्ण पुजारी

तुम सूरज जाज्वल्यमान हो

मैं नन्हीं सी किरण तुम्हारी

         तुम देवालय, तुम्हीं देवता

         मैं तो एक अपावन पत्थर

अपनी शक्ति मुझे भी दे दो

अधिक नहीं, केवल चुटकी-भर


सारे अर्थ निहित हैं तुममें

तुम उदार, करुणा के सागर

मेरा जीवन ऋणी तुम्हारा

भर दो मेरी रीती गागर

          तुम विस्तृत आकाश और मैं

          निर्धन का छोटा-सा छप्पर

अपनी शक्ति मुझे भी दे दो

अधिक नहीं, केवल चुटकी-भर


वेद, पुराण, उपनिषद, गीता,

रामायण में वास तुम्हारा

झलक तुम्हारी पा जाने को

उत्सुक रहता है जग सारा

            तुम सुख की बहती सरिता, मैं-

            दुख का एक चिरंतन निर्झर

अपनी शक्ति मुझे भी दे दो

अधिक नहीं, केवल चुटकी-भर

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** 5 **  मैंने भी तुमको गाया है

मेरे मन का कोना-कोना, जबसे तुमने महकाया है 

साँसों को संगीत बनाकर, मैंने भी तुमको गाया है 


मैं सुधियों के द्वार पहुँचकर, जब-जब ख़ुद से ही घबराया 

उन एकाकी कठिन क्षणों में तुमने मेरा साथ निभाया 

अनदेखे-अनजाने पथ पर, तुम मिल गए अचानक मुझको 

है यह योग पूर्व जनमों का, या फिर ईश्वर की माया है 


प्रेम जहाँ है, वहाँ क्षणिक तो कुछ भी नहीं हुआ करता है 

बूँद विराट रूप धरती है, सागर जब उसको वरता है 

प्रियवर साथ तुम्हारा पाकर, मानो मैं अभिभूत हो गया 

तुमसे ही मेरे चिंतन का रोआँ-रोआँ हर्षाया है 


छू-छूकर प्रतिबिंब तुम्हारा, इतराता है मन का दरपन

और तुम्हारी रूपराशि का करता है वंदन-अभिनंदन

चेतनता के फूल खिले हैं, मादकता की मस्ती छाई

आशाओं के द्वार खुले हैं, जबसे तुमने अपनाया है

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 6 ** जीभर निहारूं

बांधकर भुजपाश में तुमको प्रिये मैं

चाहता हूं आज फिर जीभर निहारूं


वो तुम्हारा मुस्कराना-खिलखिलाना

अनवरत फिर देर तक बातें बनाना

और फिर मेरे निकट आकर ख़ुशी से 

गीत मेरे ही मुझे गाकर सुनाना


हे असीमित प्रेम की देवी बताओ

मैं भला किस नाम से तुमको पुकारूं


ख़ूबसूरत मख़मली लहजा तुम्हारा

बोलने का ये हसीं अंदाज़ प्यारा

लग रही है आंख की पुतली कि जैसे

तैरता हो झील में कोई शिकारा


भाल पर बिखरी हुई स्वर्णिम लटें ये

तुम कहो तो हाथ से अपने संवारूं


रूठ जाना, फिर स्वयं ही मान जाना

सर्दियों की धूप सम नख़रे दिखाना

और फिर दांतों तले उंगली दबाकर

शोख़ नज़रों से मुझे पल-पल रिझाना


सोचता हूं दृष्टि में तुमको बसाकर

मैं तुम्हारी राह पलकों से बुहारूं

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** 7 ** तुम्हारा आगमन

धड़कनें संगीतमय हैं और हर्षित हैं नयन 

दे गया  उपहार कितने ही तुम्हारा आगमन 


भावनाओं ने सजाई है रंगोली प्यार की 

बिछ गई जैसे धरा पर हर ख़ुशी संसार की

कामनाएं हाथ जोड़े कर रहीं शत-शत नमन

दे गया  उपहार कितने ही तुम्हारा आगमन


सज गई है रोशनी से आज मन की हर गली 

झिलमिलाते हैं दिये जैसे कि हो दीपावली

भर रहा फिर-फिर कुलांचें आजकल मन का हिरन

दे गया  उपहार कितने ही तुम्हारा आगमन


यूं लगा जैसे कि पतझर में बहारें आ गईं

और मन की वादियों को दूर तक महका गईं

मुस्कराने लग गए हैं आंख में सुंदर सपन

दे गया  उपहार कितने ही तुम्हारा आगमन

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 8 ** तुमने केवल शब्द पढ़े हैं

मेरे गीतों में बसती हैं, उद्वेलित अभिलाषाएं

तुमने केवल शब्द पढ़े हैं, मैंने बुनीं भावनाएं


प्रीत बावरी क्या होती है, तुम क्या जानो छोड़ो भी

कैसे वो सुधबुध खोती है, तुम क्या जानो छोड़ो भी

एक बार यदि भूले से तुम, मुझको अपना कह देते

छू लेतीं आकाश झूमकर, मेरी सुघर कल्पनाएं


कुटिल निराशाएं जब-जब भी, अपने पर फैलाती हैं 

मन मसोसकर भोली-भाली, आशाएं रह जाती हैं

उदासीन सद-इच्छाओं का, राजतिलक कैसे कर दूं

बैठी हैं कोने-कोने में, मन के सघन वर्जनाएं


याद करो तुम हाथ बढ़ाकर, कितने वादे करते थे 

मेरी आंखों के दर्पण में, सजते और संवरते थे 

वो सुंदरतम पल आंखों में, डेरा डाले बैठे हैं 

आ जाओ, अब आ भी जाओ, कुछ बोलें, कुछ बतियाएं

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 9** मिट्टी में ही खो जाना है

सुन मेरे मन! इस जीवन पर, इतना भी क्या इतराना है 

चलती-फिरती काया को जब, मिट्टी में ही खो जाना है


कभी-कभी आह्लादित होकर, झर-झर झरने-सा बहता है 

और कभी अपनी ही धुन में, खोया-खोया-सा रहता है

संबंधों की बढ़ी भीड़ से, पगले भ्रम में मत पड़ जाना 

वो भी तेरा साथ न देंगे, जिनका भी तू दीवाना है


हंसता है तो यूं लगता है, उपवन-उपवन फूल खिले हों

एकाकी लमहों में लगता, जैसे तेरे होंठ सिले हों

उत्सुकता के साथ यहां पर, मिलता है हर कोई चेहरा 

यह भी समझ नहीं आ पाता, अपना है या बेगाना है


आनंदित करती हैं अब भी, उच्छृंखलताएं बचपन की

हंसा-हंसाकर ख़ूब रुलातीं, धुंधली-सी यादें यौवन की

आख़िर क्यों इस भरी हाट में, ख़ाली हाथ चला आया तू

अब चल उठा पोटली अपनी, सांझ हुई घर भी जाना है

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 10 ** दर्पण चकनाचूर हुआ

मतभेदों के चलते मन का दर्पण चकनाचूर हुआ 

राह तुम्हारी भी बदली है, मैं भी कुछ मजबूर हुआ 


कभी हृदय में संबंधों की धूप गुनगुनी आती थी 

अपनेपन की ख़ुशबू स्वप्निल दुनिया को महकाती थी 

अब अतीत यह पूछ रहा है, वर्तमान से रह-रहकर-

मैंने तुझको जो सौंपा था, कैसे तुझसे दूर हुआ 


कभी वाटिका मन-सुमनों की, इठलाती थी खिली-खिली 

मुझको तुमसे, तुमको मुझसे, एक नई पहचान मिली 

लेकिन यह क्या हुआ अचानक, सावन बाज़ी हार गया

अंतस के कोने-कोने में, पतझर यूं भरपूर हुआ


कभी हृदय में आशाओं के, दीप हज़ारों जलते थे 

आंखों के  आंगन में सुंदर सपने रोज़ टहलते थे

चली गई वो खनक हंसी की, रूठ गईं सब मुस्कानें

सबका-सब शृंगार कभी का, चेहरे से काफ़ूर हुआ

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** 11 ** तुम नहीं आये प्रिये

थी प्रतीक्षा जिस घड़ी की, वो घड़ी भी आ गई 

तुम नहीं आए प्रिये, तो  हर ख़ुशी मुरझा गई 


जानता हूं मैं कि होंगी कुछ विवशताएं मगर 

कुछ अधूरी कामनाएं हो गईं मुखरित इधर

आंसुओं की एक दस्तक, फिर पलक नहला गई

तुम नहीं आए प्रिये, तो  हर ख़ुशी मुरझा गई


अब निराशा की चुभन, आओ कहीं रहने न दें

प्रीत के स्वप्निल भवन साधें, इन्हें ढहने न दें

साफ़ करलें धुंध जो मन के गगन पर छा गई

तुम नहीं आए प्रिये, तो  हर ख़ुशी मुरझा गई


लौट आओ तुम जहां भी हो, तुम्हें सौगंध है

यह जनम क्या, जन्म-जनमों का अमिट संबंध है 

राह तक-तककर समय की आंख भी पथरा गई

तुम नहीं आए प्रिये, तो  हर ख़ुशी मुरझा गई

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** 12 ** छवियां तो छवियां हैं

ओ मेरे मन क्यों छवियों में, 

तू अपनापन ढूंढ रहा है

तप्त मरुस्थल में प्यारे क्यों, 

रिमझिम सावन ढूंढ रहा है


छवियां तो छवियां हैं, इनका- 

सच्चाई से कैसा नाता

पल-पल भेष बदलती हैं ये, 

ये इनका इतिहास बताता

चल इनकी चिंता मत कर अब, 

तू भी अपनी राह बदल ले

क्यों इनके मस्तक-मंडन को

रोली-चंदन ढूंढ रहा है


कभी चिढ़ातीं, कभी रिझातीं, 

कभी लुभातीं, कभी हंसातीं

हृदयहीन होती हैं लेकिन- 

ये गहरा अपनत्व जतातीं

सोच ज़रा क्या मतलब इनका, 

तेरी गहन भावनाओं से

क्यों बदरंग शिलाओं में तू, 

उजले दरपन ढूंढ रहा है


तेरे-मेरे दुख-सुख अपने, 

छवियों के भ्रम में मत पड़ना

भूले से इनके हाथों की, 

कठपुतली तू कभी न बनना

स्वार्थ और छल-छद्म भरा है, 

ओ पगले इनकी नस-नस में

क्यों फिर इनके आलिंगन में, 

तू संजीवन ढूंढ रहा है

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 13 **हार गई लो प्रीत आज फिर 

हार गई लो प्रीत आज फिर, जीत गईं शंकाएं 

होंठों पर सिसकियां सजी हैं, पलकों पर पीड़ाएं 


याद करो तुम ज़रा ध्यान से अपने प्यारे वादे 

याद करो पर्वत जैसे वो अपने अटल इरादे 

याद करो सारी की सारी वो सुंदर घटनाएं 

होंठों पर सिसकियां सजी हैं, पलकों पर पीड़ाएं 


तुम कहती थीं- ’मैं राधा हूं, तू मेरा सांवरिया’

मैं कहता था- ‘तू सागर है, मैं छोटा-सा दरिया’ 

धू-धूकर जल रहीं आज लेकिन सारी आशाएं 

होंठों पर सिसकियां सजी हैं, पलकों पर पीड़ाएं 


तुम कहती थीं- ‘तू है मेरा सचमुच भाग्यविधाता’ 

मैं कहता था- ‘तुझे देखकर चांद बहुत शरमाता’ 

जटिल समय की भेंट चढ़ गईं सब की सब इच्छाएं 

होंठों पर सिसकियां सजी हैं, पलकों पर पीड़ाएं

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** 14 **मन के चंदनवन में 

मेरे मन के चंदनवन में, जो धूप सुनहरी आती है 

वह धूप तुम्हारे चेहरे की आभा से शरमा जाती है 


कुछ तो मौसम अनुकूल हुआ 

कुछ समय निकाला तुमने भी 

दीपक भी जलता रहा मगर 

कर दिया उजाला तुमने भी 

आभास तुम्हारा होता है, जब कोयल गीत सुनाती है


आह्लादित करता है पल-पल 

वह विपुल प्यार, वह क्षणिक मिलन 

दे गई सुगंधे कितनी ही 

वह एक तुम्हारी मधुर छुअन

लो धन्य हुआ जीवन अपना हर सांस यही दोहराती है 


जीवन कुछ ऐसा लगता था 

मानो अभिशप्त हवेली हो 

नर्तन हो गहन निराशा का 

पीड़ाओं की अठखेली हो 

लेकिन तुमको पाकर जाना, हर दिशा आज मुस्काती है 

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** 15 **इतना वक़्त कहां से लाऊं

संग तुम्हारे हंसूं हंसाऊं 

इतना वक़्त कहां से लाऊं


दस बजते ही दफ़्तर जाना 

और फ़ाइलों से बतियाना 

हारे-थके हुए क़दमों से 

शाम ढले घर वापस आना 


सोचो जरा विवशता मेरी 

मैं तुमको कैसे समझाऊं


कभी-कभी तो ये होता है 

मैं जगता हूं, तन सोता है 

हंसती हैं मुझ पर इच्छाएं 

और बिचारा मन रोता है 


रूठ गए जो लोग अकारण

कैसे जाकर उन्हें मनाऊं


मैं क्या जानूं सैर-सपाटे

जीवनभर ढोए सन्नाटे 

क्या बतलाऊं कैसे-कैसे

मौसम मैंने कैसे काटे


चाबी भरे खिलौनों से मैं 

कब तक अपना मन बहलाऊं


सुख ने जब-जब की मनमानी 

दुख ने अपनी चादर तानी 

पीड़ा के छविगृह में उभरीं 

छवियां कुछ जानी-पहचानी


मेरे पास नहीं कुछ ऐसा 

जिस पर पलभर भी इतराऊं

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** 16 **आखि़र मुझको क्या करना है

अपराधी ख़ुद को मानूँ या दोष भाग्य के सिर मढ़ डालूँ

या फिर इस एकाकीपन को जीवन का उद्देश्य बना लूँ

तुम्हीं बताओ, आखि़र मुझको क्या करना है


साथ तुम्हारे इस जीवन में लेशमात्र अवसाद नहीं था

सपने, नींद और आँखों में कोई कटु संवाद नहीं था

एक तुम्हारे जाने-भर से सूनी हुई हवेली मन की

इस निर्जन वीरानी को मैं ठुकरा दूँ या गले लगा लूँ

तुम्हीं बताओ, आखि़र मुझको क्या करना है


हारे-थके क़दम चलने में अब ख़ुद को असमर्थ बताते

अब न महकते-खिलते फूलों वाले उपवन मुझे सुहाते

द्वार खड़ी हैं अभिलाषाएँ ओढ़े हुए उदासी तन पर

इनसे दृष्टि बचाकर निकलूँ या बढ़कर इनको अपना लूँ

तुम्हीं बताओ, आखि़र मुझको क्या करना है


जैसे चातक की तृष्णा को गंगाजल भी बुझा न पाया

वैसे ही जग का आकर्षण मुझे राह से डिगा न पाया

टेर रही है जाने कब से जनम-जनम की विरहाकुलता

पीड़ा व्यक्त करूँ इससे या इससे अपना दर्द छिपा लूँ

तुम्हीं बताओ, आखि़र मुझको क्या करना है

🌹🌹 🌹🌹🌹🌹🌹

** 17 ** देखो आजकल

भावनाओं पर लगा है किस तरह प्रतिबंध

देखो आजकल


 जल रहे हैं दीप भी सहमे-डरे

 आँधियों से कौन अब शिकवा करे

 याचना के हाथ ख़ाली रह गये

 कौन जी पाया किसी के आसरे


जीत ही करने लगी है हार से अनुबंध 

देखो आजकल


 बढ़ गये बोझल चरण ख़ुद ही उधर

 चुप्पियों का था जहाँ कोई नगर

 शब्द परिभाषा न अपनी बन सके

 काँपते ही रह गये उनके अधर


मौन से जुड़ने लगे हैं अर्थ के संबंध

देखो आजकल


 भाव विह्वल हो नदी बहती रही

 गीत गा-गाकर व्यथा कहती रही

 सागरों ने कब सुनी उसकी कथा

 वेदनाएँ सब स्वयं सहती रही


हो गया घायल बदन कटने लगे तटबंध 

देखो आजकल

✍️डा. कृष्ण कुमार ' नाज़'

सी-130, हिमगिरि कालोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.

मोबाइल नंबर  99273 76877

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