शनिवार, 16 मई 2020

मुरादाबाद के हिंदीसेवी स्मृतिशेष दयाशंकर पांडेय पर केंद्रित डॉ कृष्ण कुमार नाज द्वारा लिखा गया संस्मरणात्मक आलेख ----- ‘...... हो सके तो लौट के आना'


       कई साल पहले की बात है। शाम के क़रीब सात और आठ के बीच का समय होगा, मेरे घर की कालबेल बजी। मैंने दरवाज़ा खोला तो महानगर के हास्य-व्यंग्य कवि श्री कृष्ण बिहारी दुबे के साथ एक सज्जन खड़े थे। ठिगनी क़द-काठी, दुबला-पतला शरीर, क्लीनशेव चेहरा, खिचड़ी बाल, सर पर गांधी टोपी, खादी की सफे़द पैंट-शर्ट पहने, कंधे पर थैला लटकाए थे। मैंने उन्हें अभिवादन किया और आदर-सत्कार के साथ बैठक में बैठाया। थोड़ी ही देर में चाय आ गई। चाय की चुस्कियों के बीच दुबे जी ने उनसे परिचय कराया- श्री दयाशंकर पांडेय, रेल विभाग से सेवानिवृत्त, महानगर की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ‘राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति’ के संस्थापक व अध्यक्ष। मैं बहुत ख़ुश हुआ। पांडेय जी ने बग़ैर किसी लाग-लपेट के अपनी बात शुरू की- ‘'नाज़ साहब मैं आपको हिंदी प्रचार समिति का सचिव बनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं, समिति की जो गतिविधियां मद्धमगति से चल रही हैं, उनमें तेज़ी आए।’' उनकी आंखों में विश्वास की चमक, लहजे में दृढ़ता, व्यवहार में अपनत्व व निश्छलता और मातृभाषा के प्रति उनका समर्पण देखकर मैंने बग़ैर किसी हील-हुज्जत के जवाब दिया- ‘'मैं हाज़िर हूं, आप जो भी आदेश देंगे सर-आंखों पर।’' शायद मुझसे उन्हें इसी उत्तर की अपेक्षा थी, इसलिए उनकी प्रसन्नता उनके चेहरे पर स्पष्ट झलकने लगी। उन्होंने मुझे तत्काल समिति की पंजिकाएं सौंप दीं। पांडेय जी ने बताया कि समिति की गोष्ठियाँ प्रतिमाह 14 तारीख़ को शाम पांच बजे दूरभाष केंद्र स्थित शिवमंदिर प्रांगण में होती हैं।

    पांडेय जी से इस ख़ूबसूरत मुलाक़ात के बाद आने वाली 14 तारीख़ के दृष्टिगत मैंने समिति सचिव की हैसियत से महानगर के अपने सभी कवि साथियों को निमंत्रण पत्र भेजे। इस गोष्ठी में कुछ शायरों को भी आमंत्रित किया गया। चूंकि यह मेरी ख़ुशकि़स्मती है कि महानगर के सभी रचनाकारों का मुझे हमेशा प्यार मिला है, इसलिए मेरा अनुरोध सभी ने स्वीकार किया और सभी काव्यगोष्ठी में उपस्थित हुए। रचनाकारों की संख्या को देख पांडेय जी भी ख़ुश हुए। गोष्ठी के दौरान ही निकट स्थित होटल से चाय मंगा ली गई। इसी बीच पाँडेय जी ने अपने थैले से बिस्कुट के दो पैकेट निकाले और खोलकर रचनाकारों के सामने रख दिए। वह समिति के हर कार्यक्रम में अपने थैले में बिस्कुट के दो पैकेट ज़रूर डालकर लाते थे। इसी परिवारिक माहौल में समय बीतता गया, हर माह 14 तारीख़ आती रही और समिति के कार्यक्रम होते रहे। उसके पश्चात अपनी कुछ अत्यधिक व्यस्तता के चलते मैं समिति को पूरा समय नहीं दे सका और पांडेय जी से क्षमायाचना करते हुए सचिव पद छोड़ दिया।

    यहां मैं बड़ी विनम्रता के साथ एक बात और कहना चाहूंगा कि जीवन की साठ से अधिक सीढ़ियां चढ़ने के बाद भी पाँडेय जी को थकन नाम के किसी शब्द ने छुआ तक नहीं था। उनमें ग़ज़ब की लगन और इच्छाशक्ति थी। उनके प्रति मन इसलिए भी नतमस्तक हो उठता है कि वह न तो कवि थे, न कहानीकार और न ही हिंदी की किसी अन्य लेखन विधा से संबद्ध, इसके बावजूद हिंदी के प्रति उन्हें हृदय की गहराइयों के साथ लगाव था। हिंदी उनके लिए ‘मातृभाषा’ थी, ‘मात्र भाषा’ नहीं। पांडेय जी का हिंदी प्रेम उन ‘फ़ैशनेबुल’ और ‘दिखावापसंद’ लोगों के मुंह पर तमाचा है, जो रोटी तो हिंदी की खाते हैं और गुणगान दूसरी भाषाओं का करते हैं।

    काश, पांडेय जी की तरह देश का हर व्यक्ति मातृभाषा से प्यार करे, तो किसी भी भाषा की हिम्मत नहीं कि हिंदी को उसके सिंहासन से उतारने का प्रयास कर सके।

  यद्यपि पांडेय जी ने 06 नवंबर, 2002 को हमारा साथ छोड़कर उस दुनिया में अपना आशियाना बना लिया, जहां देर-सबेर सभी को पहुंचना है। हालांकि उनकी याद किसे विह्नल नहीं कर देती। आज भी मन कह उठता है- ‘...... ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना।’ पांडेय जी की प्रेरणा आज भी हमें ऊर्जावान बनाए हुए है।

✍️ डॉ. कृष्णकुमार 'नाज़'
 सी-130, हिमगिरि कालोनी
कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.
मोबाइल नंबर  99273 76877

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