::::::: आज जन्मदिन पर विशेष::::::::
गेहुँआ रंग, उभरा हुआ माथा, काले रँगे हुए बाल, क्लीनशेव चेहरा, होंठों पर निरन्तर तैरती मुस्कान, हर समय कुछ न कुछ खोजती रहने वाली चमकदार आँखें; ये सब बातें यदि किसी अच्छे चित्रकार को बता दी जाएँ तो वह अपनी तूलिका से जो चित्र तैयार करेगा, वह निस्सन्देह श्री कृष्णबिहारी ‘नूर’ का होगा। चूड़ीदार पाजामा, ढीला कुर्ता और उस पर जैकेट पहने नूरसाहब जब मुशायरों और कवि-सम्मेलनों के मंचों पर जाते, तो पहली नज़र में ही ऐसा लगने लगता था कि जैसे लखनवी नज़ाकत और नफ़ासत सिमटकर उनकी आग़ोश में आ गयी हो। कपड़ों पर यदि तनिक भी दाग़-धब्बा लग गया, तो तुरन्त ही पोशाक बदलते थे। रहन-सहन, खाने-पीने और पहनने-ओढ़ने के मामले में उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उनके व्यक्तित्व, बोलचाल और रहन-सहन में लखनऊ की वह तहज़ीब बसती थी, जो आज उँगलियों पर गिने जाने वाले लोगों को ही मयस्सर है। नूरसाहब के व्यक्तित्व और सबको साथ लेकर चलने वाली उनकी जीवनशैली से प्रभावित लोगों का एक बड़ा समूह है। हालाँकि आज शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसका कोई विरोधी न हो, लेकिन मैं यह देखता था कि उनके विरोधी उनके सामने आते ही इस प्रकार हो जाते थे, जैसे मैगज़ीन के पन्ने ट्रेन की खिड़की से आती हवा में फड़फड़ाकर अपनी खीझ प्रकट करते हैं।
उनकी दोस्ती हर धर्म और हर वर्ग के लोगों से थी और वह इस बात का ख़याल भी रखते थे कि बातचीत के दौरान कहीं किसी को भावनात्मक ठेस न पहुँचे। एक घटना मुझे याद आ रही है। मैं नूरसाहब के साथ ही उनके ड्राइंगरूम में बैठा हुआ था। तभी उनके एक परिचित आये और अपनी कम्पनी का नववर्ष का कलेण्डर ड्राइंगरूम में टाँग दिया। नूरसाहब ने जब देखा कि कलेण्डर पर देवी-देवताओं के चित्र हैं, तो उनसे बोले-‘‘भई देखो हमारे ड्राइंगरूम में हर मज़हब के लोग आते हैं। इस कलेण्डर को देखकर हो सकता है किसी को ठेस पहुँचे, इसलिए इसे घर के भीतर टाँग दो और ड्राइंगरूम के लिए कोई ख़ूबसूरत सीनरी ले आओ।’’ यह था नूरसाहब का व्यक्तित्व और उनकी भावना।
नूरसाहब समय का बहुत ख़याल रखते थे। अगर मिलने के लिए किसी को समय दिया है, तो निश्चित समय पर उस व्यक्ति की प्रतीक्षा करते थे। यदि अकारण ही वह व्यक्ति विलम्ब से आये तो उसे नूरसाहब की नाराज़गी सहनी पड़ती थी।
नूरसाहब वादे की क़ीमत भी जानते थे और अहमियत भी। यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता ही थी कि बाज़ार में जो चीज़ उन्हें पसन्द आ गयी, उसे ख़रीदते समय कभी उसका मूल्य नहीं पूछा, कभी मोल-भाव नहीं किया। दुकानदार ने क़ीमत बताई और नूरसाहब ने चुकता करदी। नूरसाहब के ही एक मित्र बताते हैं कि वह और नूरसाहब लखनऊ में मीना बाज़ार में घूम रहे थे। तभी एक दुकान पर उन्हें शोकेस में रखा कपड़ा पसन्द आ गया। नूरसाहब दुकान पर गये, कपड़ा लिया और दुकानदार द्वारा बतायी गयी क़ीमत चुका कर चल दिये। थोड़ी दूर जाकर उनके मित्र ने कहा- ‘‘नूरसाहब, अगर आप कुछ मिनट ठहरें तो यही कपड़ा उसी दुकान से मैं कम क़ीमत पर ला सकता हूँ।’’ यह सुनकर नूरसाहब हँसे और बोले- ‘‘यह काम तो हम भी कर सकते थे, लेकिन पसन्द आयी चीज़ का मोलभाव करना पसन्द की तौहीन है।’’ यह थी नूरसाहब की विशेषता और मूल्यों का रखरखाव। क्रोध के क्षणों में भी उनके होंठों पर कभी अमर्यादित शब्द नहीं आये।
नूरसाहब बहुत विनम्र और सरल स्वभाव के सादगीपसन्द व्यक्ति थे। असल में यही सादगी और विनम्रता उनकी शायरी का केन्द्र है। नूरसाहब ने निरन्तर सफलता की ऊँचाइयों को छुआ, लेकिन अपनी ज़मीन को, अपने आधार को कभी पाँवों से नहीं खि़सकने दिया। जहाँ उन्होंने बड़ों को सम्मान दिया, वहीं छोटों को बेपनाह मुहब्बतें दीं, प्यार लुटाया। यह उनके व्यक्तित्त्व का बड़प्पन था। शायद इन्हीं सब बातों ने उन्हें साधारण इंसान से सन्त की श्रेणी में ला खड़ा किया।
नूरसाहब के व्यक्तित्त्व के सम्बन्ध में प्रसिद्ध इतिहासकार डा. योगेश प्रवीन कहते हैं- "20वीं सदी के अज़ीम शायर कृष्णबिहारी ‘नूर’ साहब एक बड़े शायर ही नहीं, एक आला दरजे की इंसानियत का मर्तबा रखने वाले इंसान थे। उनके पास अच्छी निगाह थी, रेशमी अहसास थे और सुनहरी क़लम थी, जिससे उन्होंने जो कुछ भी लिखा वो अमर हो गया। उन्होंने फूल की पंखुड़ियों पर भी लिखा है, चाँदनी की सतह पर भी लिखा है और सबसे बड़ी बात है कि हमारे आपके दिल के वरक़ पर भी लिखा है।’’
झाँसी से प्रकाशित ‘मार्गदर्शक’ साप्ताहिक की लेखमाला में श्री ओमशंकर ‘असर’ लिखते हैं- "नूरसाहब ज़िन्दगी में बहुत आम आदमी हैं, मगर शायरी में वे असाधारण ही हैं। साधारण और असाधारण दोनों गुण एक साथ अगर देखने हों, तो नूरसाहब का व्यक्तित्व और फिर उनकी शायरी का मज़ा लें। आम-फ़हम होने के नाते वे बहुत सादा ज़ुबान अपने शेरों में पिरोते हैं और असाधारण होने के नाते उनके विचार बहुत गहरे भी हैं और ऊँचे भी।’’
यक़ीनन नूरसाहब जितने बड़े शायर थे, उतने ही बड़े इंसान भी। उनके व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व में अन्तर तलाश पाना असम्भव है। मैंने स्वयं कविसम्मेलन और मुशायरों के मंचों पर देखा है कि नये से नये शायर ने अगर अच्छी कविता लिखी है, तो उसे भरपूर प्रोत्साहित किया करते थे, जबकि बड़े से बड़े शायर की नीरस और अर्थहीन कविता पर वे ख़ामोशी ओढ़ लिया करते थे। अपने से बड़ों को भरपूर सम्मान देना तथा छोटों से बड़े प्यार के साथ मिलना उनके व्यक्तित्त्व का विशेष गुण था।
नूरसाहब का लेखन चूँकि अध्यात्म और भारतीय दर्शन पर आधारित है, इसलिए उनकी कविता के चाहने वालों में बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों की संख्या अधिक है। इस बात को नूरसाहब बख़ूबी जानते थे और इसकी पुष्टि एक छोटे से संस्मरण से भी हो जाती है-
बात सन् 1990 की है। मैं मुरादाबाद के ही महाराजा हरिश्चन्द्र डिग्री कालेज से उर्दू में एम.ए. कर रहा था। यूँ कहिये कि एम.ए. के द्वितीय वर्ष की परीक्षा देने के बाद मैं ‘वायवा’ के लिए कालेज गया था। जैसे ही मेरा नम्बर आया और मैं कमरे में दाखि़ल हुआ तो वहाँ उर्दू विभागाध्यक्ष साबिर हसन साहब ने परीक्षक महोदय से मेरा परिचय कराया- सर, ये मिस्टर कृष्णकुमार हैं और हमारे कालेज के अकेले नाॅन मुस्लिम कैंडिडेट हैं।
परीक्षक महोदय ने बड़े प्यार के साथ कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा- तशरीफ़ रखिये। मैं कुर्सी पर बैठ गया, लेकिन दिल धड़क रहा था कि कहीं वह कोई ऐसा सवाल न पूछ बैठें जो मुझे नहीं आता हो। तभी उन्होंने कहा- ‘आप किसी शायर के दो शेर सुनाइये।’ मैंने उनसे निवेदन किया- सर, अगर आप इजाज़त दें, तो मैं अपने ही दो शेर पेश कर दूँ। उन्होंने ख़ुश होते हुए पूछा- क्या आप भी शेर कहते हैं? मैंने कहा- जी सर, थोड़ी-बहुत जोड़-तोड़ कर लेता हूँ। वह बोले- सुनाइये। मैंने धड़कते दिल से दो शेर सुना दिये। सुनकर बोले- वाह-वाह, दो शेर और सुनाइये। मैंने दो शेर और सुना दिये। उन्होंने फिर दाद दी और पूछा- आप इसलाह किनसे लेते हैं? मैंने कहा- जनाब कृष्णबिहारी ‘नूर’ से।
यक़ीन जानिये, नूरसाहब का नाम सुनते ही वे दोनों हत्थे पकड़कर कुर्सी से खड़े हो गये और बोले- "अरे भई! वाह-वाह, आपने उस्ताद के रूप में ऐसे शायर का इन्तख़ाब किया है, जो अपने तरीक़े का हिन्दुस्तान का अकेला शायर है। शुक्रिया, आपका वायवा हो गया।" मेरी सारी मुश्किल आसान हो गयी।
शायर मेराज फ़ैज़ाबादी नूरसाहब को चचा कहते थे और उनका बड़ा सम्मान करते थे। नूरसाहब भी उन्हें बहुत प्यार करते थे। मेराज साहब का नूरसाहब के व्यक्तित्त्व के प्रति अद्भुत दृष्टिकोण है। वह कहते हैं- ‘‘होठों पर मुस्तकि़ल खेलती हुई हँसी, ज़िन्दगी से भरपूर मुस्कराहट, चेहरे पर ऋषियों जैसा सुकून और पवित्रता, आँखों में लमहाभर चमककर बुझ जाने वाले दुखों के साये, कृष्णबिहारी ‘नूर’ तारीकियों के इस युग में बीती हुई पुरनूर सदियों का सफ़ीर (राजदूत), एक फ़नकार, एक इंसान, एक फ़क़ीर और मुशायरे के माइक पर एक फि़क्रोफ़न का दरिया।’’
प्रसिद्ध कवि एवं पत्रकार कन्हैयालाल नंदन लिखते हैं- ‘‘लखनऊ ऑल इंडिया रेडियो ने एक कवि-सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें हिन्दी-उर्दू दोनों की नुमाइंदगी की गयी। बाईपास सर्जरी के बाद पहला मुशायरा पढ़ने आये थे इसमें नूरसाहब। दिल्ली से मैं भी शरीके-महफि़ल था, सो चश्मदीद वाक़या बयान कर रहा हूँ कि जब नूरसाहब को पढ़ने की दावत दी गई तो रेडियो ने उन्हें सहूलियत से काम-अंजाम देने के लिए जहाँ बैठे थे, वहीं से पढ़ने की सुविधा देनी चाही। नूरसाहब ने अपना बाईपास रखा किनारे और हाज़रीन से मुख़ातिब होते हुए बोले- ‘आप माफ़ी दें, डाक्टरों ने दिल चीर के रख दिया, लेकिन उन्हें क्या पता कि मेरा दिल मेरे पास है ही नहीं, वह तो मेरे चाहने वाले आप जैसे लोगों के पास है, सो शेर मुलाहज़ा हो ...’ और फिर तो साहब नूरसाहब ने ऐसे पढ़ा जैसे पिंजरे से निकल के परिन्दे ने बेख़ौफ़ उड़ानें भरी हों। ग़ज़ल भी वो पढ़ी जो उनकी ग़ज़लों में मेरी सबसे पसन्दीदा ग़ज़ल है। बल्कि उसका एक शेर तो मेरे जीवन के दर्शन का हिस्सा बन चुका है-
मैं एक क़तरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समन्दर, मेरी तलाश में है"
प्रख्यात संगीतकार एवं गीतकार श्री रवीन्द्र जैन कुछ यूं फ़रमाते हैं- "नूरसाहब यूँ तो तहत में पढ़ते थे, लेकिन पढ़ने के अंदाज़ से तरन्नुम में पढ़ने वाले मात खा जाते थे। मुशायरा मुंबई में हो या मुंबई के आसपास, नूरसाहब का क़याम अक्सर और पेशतर मेरे छोटे से आशियाने में हुआ करता था। घर में क़याम तो जिस्मानी तौर पर था, नूरसाहब तो रूह की गहराइयों में उतर चुके थे। न सिर्फ़ अपने, बल्कि हम दोनों अपने पसंदीदा शायरों के शेर एक-दूसरे से बाँटते थे, जब कभी मेरा लखनऊ प्रवास होता, नूरसाहब मेरी सिदारत में अपने दौलतख़ाने पर मेरे एज़ाज़ में नशिस्त रखते। वो शायरी जिसका हम मुंबई में तसव्वुर भी नहीं कर सकते, लखनऊ के शोअरा से सुनने को मिलती, भाभीजान के हाथ के बने मूँगफली के क़बाब मैं आज भी नहीं भूला हूँ। मुंबई-लखनऊ में मिलने का सिलसिला अब भी बरक़रार रहता, अगर दयाहीन मृत्यु उन्हें यूँ अचानक न ले जाती।
अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है
रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है
नश्शे में डूबे कोई, कोई जिये, कोई मरे
तीर क्या-क्या तेरी आँखों की कमाँ छोड़ती है
बंद आँखों को नज़र आती है, जाग उठती हैं
रोशनी ऐसी हर आवाज़े-अज़ाँ छोड़ती है
ख़ुद भी खो जाती है, मिट जाती है, मर जाती है
जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बाँ छोड़ती है
आत्मा नाम ही रखती है न मज़हब कोई
वो तो मरती भी नहीं, सिर्फ़ मकाँ छोड़ती है
एक दिन सबको चुकाना है अनासिर का हिसाब
ज़िंदगी छोड़ भी दे, मौत कहाँ छोड़ती है
मरने वालों को भी मिलते नहीं मरने वाले
मौत ले जाके ख़ुदा जाने कहाँ छोड़ती है
ज़ब्ते-ग़म खेल नहीं है अभी कैसे समझाऊँ,
देखना मेरी चिता कितना धुआँ छोड़ती है
और अंत में श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए अपनी बात समाप्त करता हूं…
वो जिसने ज़िंदगीभर छांव बांटी
मैं पत्ता हूं उसी बूढ़े शजर का
✍️डा. कृष्ण कुमार ' नाज़'
सी-130, हिमगिरि कालोनी
कांठ रोड, मुरादाबाद-244 001.मोबाइल नंबर 99273 76877
जानकर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएं