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रविवार, 20 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की कविता ----पिता ही बस एक परम है

 


पिता पर कविता लिखना

सहज नहीं है , दुष्कर है ,
भले ही
पिता को जीने
और पिता होने का
कितना ही
अनुभव भीतर है ।                                                  
मां कृपा से जब
हुई उधेड़बुन भीतर
पिता को कहने में ,
खड़ी विवशताएं
दीखीं उस क्षण
पिता सा रहने में ।
मां बोली,तू अपनी बुन,
पर पहले मेरी सुन ।
पिता,बरहे चलता
वह पानी है,जो
मुरझाई धूप से
दूब में जीवन भरता है,
पिता,वह साधन है
जो थाम थमा उंगली से
बच्चों को खड़ा करता है।
पिता,वह सपना है
जो अपने आप, आप को
छोटा करके
बच्चों को
रोज़ बड़ा करता है।
पिता,वह संयम है,जो
जिद पर बच्चों की
अपनी जिद पर
नहीं अड़ा करता है ,
पिता ही तो
संपूर्ण पराग फूलों का
जो बच्चों पर
घड़ी घड़ी हर पल
दिन रात झड़ा करता है।
पिता-
गरम नरम है
धरम करम है ,
सोचें तो
पिता ही बस
एक परम है ।।
    डॉ.मक्खन मुरादाबादी
   झ-28, नवीन नगर
   कांठ रोड, मुरादाबाद
   मोबाइल:9319086769

रविवार, 6 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत ---मिटा रहे हैं उनको ही हम जिन-जिनका करना था पूजन-


मिटा रहे हैं उनको ही हम

जिन-जिनका करना था पूजन।


वृक्ष हमारे देव तुल्य हैं

इनमें बसी हमारी सांसें।

कैसे हमको सांसें दें, ये

रोज़ कटन को अपनी खांसें।।

हवस हमारी खा बैठी है

हर पंछी का कलरव कूजन।


जल जीवन है, कहते लेकिन

जल के स्रोत स्वयं ही प्यासे।

सब पट्टों में कटे पड़े हैं

मुंह दुबकाये सकल धरा से।।

इन्हें बांटकर निगल गये हैं

इधर-उधर के चतरू जन।।


पर्वत भी डकराये हैं, जब

उनको काट सुरंगें निकलीं।

कांप रहे हैं अब भी निशि दिन

सड़कें आकर इनमें टिकलीं।।

धाराओं से रोये हैं ये

उतरी नहीं आंख की सूजन।

✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी, नवीन नगर, कांठ रोड, मुरादाबाद 

बुधवार, 2 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की कविता ---रथ पर चढ़ो----------


हे!

भारत महान

तुम्हें मिलते रहते हैं

दीपक भी,

घंटे-घड़ियाल

और थाली भी।

तुम!कितने महान हो 

कुछ बोलते ही नहीं

खाते रहते हो गाली भी।।

ऐसी क्या विवशता है

जो तुम,

जी लेते हो घुट-घुटकर भी।

सहनशीलता तुमने

त्यागी ही नहीं

लुट-लुटकर भी।।

अब,

ये वाली महानता तो

छोड़ ही दो।

शांति दूत मौनी बाबा!

बेचारी शांति की सोचो

और,मौन

तोड़ ही दो।।

कुछ शाश्वत भी है

जिसे,

गिल्ली-डंडा खेलने वाले

बच्चे भी खूब जानते हैं।

लातों के भूत

बातों से नहीं मानते हैं।।

सहनशीलता से

सुचेष्टाओं की

कुचेष्टाओं पर

जीत नहीं होती है।

तुलसीदास की मानों

भय बिन प्रीत नहीं होती है?

यह किस्सा नहीं है केवल

आज का, अभी का।

तुम तो सम्मान 

करते आ रहे हो सभी का।।

फिर भी,

कुछ आगबबूले

तुमसे,

स्थाई रूप से क्रुद्ध हैं।

उन्हें ही,

झेले जा रहे हो

जिन्होंने तुम्हारे भीतर

जमकर, 

बैठाए कई युद्ध हैं।।

तुमने गीता सुनी थी

उसी को फिर से पढ़ो।

सारथी कृष्ण हैं तुम्हारे

रथ पर चढ़ो----------।।

✍️ डॉ.मक्खन मुरादाबादी, नवीन नगर ,कांठ रोड, मुरादाबाद 244001

Email:

 makkhan.moradabadi@gmail.com

Mobile: 9319086769

मंगलवार, 2 मार्च 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत ---कसा शिकंजा एक दिशा पर पागल हो, सब उठीं दिशाएं


कसा शिकंजा एक दिशा पर

पागल हो, सब उठीं दिशाएं


गीत,खेल,फिल्मों के ट्वीटर

क्या दे देंगे माल बज़ीफ़ा

पर्यावरण राह से आये

लिबरल होकर मियां ख़लीफा

घूम रहीं समझौता करती

उड़ती फिरती पस्त हवाएं


सत्ता सुख सुविधा से ख़ारिज

पचा न पाए कंगाली को

सोन चिरैया आती दीखी

मना न पाए दीवाली को

गढ़ते गाली रोज़ निराली

विचलित फिर भी नहीं ऋचाएं


पूंछ भैंस की पकड़ चाहते

चतरू खुद को पार लगाना

डुबक भैंसिया कब जायेगी                 

संभव नहीं जान यह पाना

अतिशयता में अनगिन डूबे

अनदेखी कर सत्य कथाएं

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी

झ-28, नवीन नगर, कांठ रोड, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश,भारत, मोबाइल : 9319086769

रविवार, 11 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का अभिनव गीत -----जीना - मरना राम हवाले अस्पताल में जाकर । पहाड़ सरीखे भुगतानों की सभी ख़ुराकें खाकर ।। जिनमें सांसे अटकी हैं,उन परचों के पास चलें ।


मिले न कल तो घर पर शायद

परसों के पास चलें ।

दिन जिनमें फुलवारी थे , उन

बरसों के पास चलें ।।


बिगड़ू मौसम घात लगाए

उपचार , स्वयं रोगी ।

मिलीभगत में सभी व्यस्त हैं

जोग-साधना , जोगी ।।

हार , समय भी तोड़ गया दम

नरसों के पास चलें ।


जीना - मरना राम हवाले

अस्पताल में जाकर ।

पहाड़ सरीखे भुगतानों की

सभी ख़ुराकें खाकर ।।

जिनमें सांसे अटकी हैं,उन

परचों के पास चलें ।


भगवान धरा के सब,जैसे

खाली पड़े समुन्दर ।

नदियों से अब पेट न भरते

इनके , सुनो पयोधर ।।

छींटें मारें इनके मुंह पर

गरजों के पास चलें ।

✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी

मुरादाबाद 244001

सोमवार, 14 सितंबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन 'मुरादाबादी' को साहित्यिक संस्था हिंदी साहित्य संगम ने "हिन्दी साहित्य गौरव सम्मान" से किया सम्मानित


 हिन्दी दिवस की पूर्वसंध्या  13 सितंबर 2020 को  साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम  की ओर से सुप्रसिद्ध व्यंग्यकवि डॉ.मक्खन मुरादाबादी को "हिन्दी साहित्य गौरव सम्मान" से सम्मानित किया गया।‌
  कोरोना काल में सभी आवश्यक दिशा-निर्देशों का पूर्णतः पालन करते हुए नवीन नगर स्थित  डॉ मक्खन 'मुरादाबादी' जी के आवास पर आयोजित  'सम्मान-अर्पण' कार्यक्रम में उन्हें यह सम्मान अर्पित किया गया। संस्था द्वारा सम्मान स्वरूप उन्हें अंगवस्त्र, मानपत्र, श्रीफल एवं प्रतीक चिह्न अर्पित किए गए। कवि राजीव 'प्रखर' द्वारा प्रस्तुत  माँ शारदे की वंदना  से आरम्भ हुए कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने सम्मानित डॉ.मक्खन 'मुरादाबादी' जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए उन्हें व्यंग्य विधा का एक सशक्त हस्ताक्षर बताया। कार्यक्रम का संचालन राजीव 'प्रखर' द्वारा किया गया।
कार्यक्रम में बतौर अतिथिगण  सुप्रसिद्ध शायर डॉ.कृष्ण कुमार 'नाज़' एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.मनोज रस्तोगी ने हिन्दी दिवस  पर अपने विचार व्यक्त किए।
सम्मान अर्पण कार्यक्रम के पश्चात् एक संक्षिप्त काव्य-गोष्ठी का भी आयोजन हुआ । गोष्ठी में
राजीव 'प्रखर' ने दोहा प्रस्तुत करते हुए कहा -
मानो मुझको मिल गये, सारे तीरथ-धाम।
जब हिन्दी में लिख दिया, मैंने अपना नाम।।

जितेन्द्र 'जौली' का कहना था --
हिन्दी दिन-प्रतिदिन प्रगति कर रही है। वर्तमान में हिंदी सोशल मीडिया की भाषा बनती जा रही है।

 योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने कहा ---
हिन्दी का यह दिवस तो, आता है हर वर्ष।
फिर भी हिन्दी कर रही, अपनों से संघर्ष।।

 डॉ मनोज रस्तोगी ने सुनाया --
उड़ रही रेत गंगा किनारे
महकी आकाश में चांदनी की गंध
अंधेरों की देहरी लांघ आये छंद
गंगा जल से छलके नेह के पिटारे।

डॉ कृष्ण कुमार 'नाज़' ने ताजा ग़ज़ल पढ़ते हुए कहा ----
राख ने मेरी ही ढक रक्खा है मुझको आजकल
वरना तो ख़ुद में सुलगता एक अंगारा हूँ मैं।

सम्मानित साहित्यकार डॉ मक्खन 'मुरादाबादी' का कहना था ---
ऐसा चमत्कार दुनिया में हिन्दी का ही।
है सम्मान सुरक्षित जिसमें, बिन्दी का भी।।

कार्यक्रम में प्रत्यक्ष त्यागी, अक्षिमा त्यागी, मणिका त्यागी भी उपस्थित रहे। संस्था के महासचिव कवि जितेन्द्र 'जौली' द्वारा आभार अभिव्यक्त किया गया।










:::::प्रस्तुति :::::
जितेन्द्र कुमार जौली
महासचिव
हिन्दी साहित्य संगम मुरादाबाद
सम्पर्क सूत्र: 9358854322


सोमवार, 13 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी के 10 गीतों पर "मुरादाबाद लिटरेरी क्लब" द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा----


        वाट्सएप पर संचालित समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा 'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत 11 व 12 जुलाई 2020 को मुरादाबाद के विख्यात व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी के दस गीतों पर ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा की गई । सबसे पहले डॉ मक्खन मुरादाबादी द्वारा दस गीत पटल पर प्रस्तुत किये गए-----

*गीत - 1*

शहरों से जो
मिली चिट्ठियां
गांव - गांव के नाम ।
पढ़ने में बस
आंसू आये
अक्षर मिटे तमाम ।।
           हर चिट्ठी पर
           पुता मिला है
           धूल - गर्द का लेप ।
           शारीरिक सब
           भाषाओं की
           बिगड़ गई है शेप ।
           यात्राओं की
           पीड़ाओं से
           कहां अभी आराम ।।
           शहरों से जो-------।।
मेहनत करके
अर्जित करना
जिया एक ही राग ।
लिख आईं ये
भाग सभी के
लिखा न अपना भाग।।
जिनके बल पर
वैभव , उनके
भूले - बिसरे     नाम ।
शहरों से जो---------।।
           आशाएं थीं
           सब आयेंगी
           होकर मालामाल ।
           गांव दुखी हैं
          दुख के मारे
          सोच - सोच कर हाल।।
          वज्रपात ने
          कौड़ी - कौड़ी
          करके भेजे दाम ।
          शहरों से जो-----।

*गीत : 2*

हर दोपहरी बाट जोहती
है वृक्षों की छांव ।
चल देहात नगर से, जाने
कब लौटेंगे गांव ।।
खंडहर के सन्नाटों से जा
मांगे अन्धा भीख।
आकर झोली में पड़ती पर
दो दो मुट्ठी चीख ।।
लेकर आशा घोर निराशा
लौटे उल्टे पांव ।
सब देहात------।।
चमक दमक ने हम सबकी ही
आंखें दी थीं फोड़ ।
गुणा भाग सब और घटाना
ठीक नहीं था जोड़।।
जो सपनों में महल बुने सब
उल्टे लगते दांव ।
सब देहात------।।
ताल तलैया कुएं पोखरे
गई नदी तक सूख ।
मिड-डे मील पढ़ाने निकला
ले सुरसाई भूख ।।
मूल बुलाता सूद बिना सब
आओ अपने ठांव।
सब देहात -------।।

*गीत : 3*

ठहर सतह पर रुक मत जाना
मन से मन को छूना ।
भीतर भीतर बजती रहती
कोई पायल मुझमें ।
प्रेम परिंदा घर कर बैठा
होकर घायल मुझमें।।
परस भाव से अपनेपन के
पन से पन को छूना ।
ठहर---------------।।
अंतर्मन में चाह उमगना
दुविधा भर जाता है ।
कुछ-कुछ जी उठता है भीतर
कुछ-कुछ मर जाता है।।
आगा पीछा सोच समझकर
तन से तन को छूना ।
ठहर---------------।।
घने अभावों में मुट्ठी भर
भावों का मिल जाना।
चिथड़े-चिथड़े पहरन के ज्यों
दो कपड़े सिल जाना।।
उल्लासों के मेले छड़ियां
कन से कन को छूना ।
ठहर----------------।।

*गीत : 4*

मौसम जब मनचले हुए तो
डांट दिए रितुओं ने मौसम।
ड्योढ़ी ड्योढ़ी यौवन आहट
जात उमंगित न्यारी न्यारी ।
हाव भाव में भरी चुलबुली
मिसर उठी पतियाती क्यारी।।
सूंघ महकते संवादों को
सांट दिए रितुओं ने मौसम।
डांट दिए------------------।।
उमड़ घुमड़ कर रस आया तो
रसने अधर,अधर को आए ।
कातर कातर सहमे सहमे
नीचे पड़ कर नयन लजाए।।
सोच समझ कर इस भाषा को
चांट दिए रितुओं ने मौसम।
डांट दिए-----------------।।
मनमौजी  मनमाने पंछी
बहुत मनाए पर कब माने।
चुपके छुपके देखभाल कर
चुगने लगे प्रेम के दाने ।।
विपरीती परिणाम दिखे तो
फांट दिए रितुओं ने मौसम ।
डांट दिए------------------।।

*गीत- 5*

*गीत पेड़ से गुज़रा*
 
अमरूदों को कुछ तोतों ने
कुतर कुतर फिर,कुतरा।
दुख दारुण हो टपक टपक कर
पेड़ गीत से गुज़रा।।
टहनी टहनी अपना दुखड़ा
कहती फिरती रो कर।
पगलाई वह लुटी पिटी सी
अपना सबकुछ खोकर।।
तड़क भड़क कर हार गईं पर
तोता एक न सुधरा।
पेड़ गीत से गुज़रा ।।
पत्तों में भी खुसर फुसर यह
जो थे रतन छिपाए।
हम रखवाले तो भी उनको
रक्ष नहीं कर पाए।।
क़ौम दगीली आज हुई है
हर पत्ता नाशुकरा।
पेड़ गीत से गुज़रा।।
सहमी सहमी कलियां बोलीं
धर्म हमारा खिलना।
उन्हें मुबारक उनकी करनी
जिनसे छल ही मिलना।।
हाथ छुआएं अब तोड़ेंगी
उन छैलों के थुथरा।
पेड़ गीत से गुज़रा ।।
       
*गीत - 6*

आस पास में इसीलिए तो
रहती चहल पहल है।
पीड़ाओं को लगता,मेरा
घर आनन्द महल है।।
मिलता कब है लाचारी को
सम्मान जनक आसन।
भोर हुए से दिन ढलने तक
करती चौका बासन।।
मेरे घर में इनके ही तो
मन का सुखद महल है।
घर आनन्द महल है।।
घर से निकलूं तो मिल जाती
भिखमंगी मजबूरी।
धर्मपरायण मर्मशास्त्र भी
चलें बनाकर दूरी।।
मेरे दर पर इन दुखियों की
होती रही टहल है।
घर आनन्द महल है।।
थक हारी पड़ जातीं कुछ तो
फुटपाथी बिस्तर पर।
तम को गाने लग जातीं फिर
अपना सगा समझकर।।
इनकी भूकंपी सांसों की
मुझ तक रही दहल है।
घर आनन्द महल है।

*गीत : 7*

बाहर हैं,पर दिखे नहीं हों
ये सबके भीतर होते हैं।
मानो या मत मानो लेकिन
गीतों के भी घर होते हैं।।
गीत लोक के वंशज ठहरे
हर मौसम में गाये जाते।
कभी कभी तो खुलते पूरे
कभी कभी सकुचाये जाते।
पानी पानी पानी मांगे
जब जब गान मुखर होते हैं।
गीतों के------------------।।
मचले जो ये रीति रंग में                             
रचने में ही लीन हो गए।
भक्त हुए तो ऐसे जिनके
प्राण बांसुरी बीन हो गए।।
भटके को जो राह दिखादें
इनमें इतर असर होते हैं।
गीतों के----------------।।
चलते चलते घर पाने को
गीत अगीत प्रगीत हुए हैं।
पी ली नीमों की ठंडाई
तब जाकर नवगीत हुए हैं।।
दिशाहीन रसपानों की ये
रचते धुकर पुकर होते हैं।
गीतों के ------------------।।

*गीत : 8*

मोबाइल के नोट पैड की
खिलकर आई भीत।
दक्ष पोरुए टाइप करके
चले गए कुछ गीत।।
चंद्रयान से चली चांदनी
उतरी तम के द्वार ।
किरणयान का टिकिट कटा तम
पहुंचा पल्ली पार।।
दिवस रात सब अभिनय करके
ऐसे जाते बीत ।
दक्ष पोरुए----  ।।
मन विह्वल में कतरे पर के
उठते नहीं उड़ाव ।
पर कतरों का षड्यंत्रों से
गहरा बहुत जुड़ाव।।
इनकी ढाल बनी दृढ़ रहती
ग़जट हुई हर नीत।
दक्ष पोरुए-------।।
आय योजना तो उसमें को
कितने पड़ते कूद।
गाय दुखी है हर खूंटे पर
देना पड़ता दूध।।
शिष्टाचारित मन से होती
भ्रष्टाचारित जीत।
दक्ष पोरुए-------।।

*गीत : 9*

यह जो चीनी गुब्बारा है
इसकी हवा निकालो ।
बहुत पतंगें उड़ लीं इसकी
उनका अब उड़ना क्या।
इसका मांझा इसकी गर्दन
और अधिक करना क्या।
कंधे बहुत उचकते इसके
उनका खवा निकालो।
इसकी--------------।।
         जितनी पैठ बनाई इसने
         बाजारों में अपने।
         अपनी बढ़ा दुकानें कर दो
         लंगड़े दूषित सपने।।
         फूं - फूं बड़ी दिखाता
         फिरता
         फूं - फूं सवा निकालो।
         इसकी---------------।।
दूध न देती आसानी से
नये ब्यांत की झुटिया।
जबरन भी यदि दुहना चाहो
खाली रहती लुटिया ।।
रवेदार बनता फिरता है
इसका रवा निकालो ।
इसकी--------------।।
          चीलें चमगादड़ चूहे सब
          जिसके तोते-मिट्ठू।
          अपने घर ही भरे पड़े हैं
          इस शातिर के पिट्ठू।।
          एक बार ही फंद कटें सब
          ऐसी दवा निकालो।
          इसकी----------- ।।

*गीत : 10*

किया उजागर कोरोना ने
आडम्बर का बौनापन।
बिंदी जैसी सेवाओं के
सूरज जैसे विज्ञापन।।
चुग्गा होता जिनका हिस्सा
जाल तने रहते उनपर।
अर्थमुखी खा उसको जाते
बाने में ताना बुनकर।।
बनकर बन्दर सब गांधी के
गड्डी गिनते नियमासन।
बिंदी जैसी------------।।
डाल डाल पर हावी होकर
लुक में अपने रहता है।
इर्द गिर्द का मौसम चाहे
किलच किलच कर डहता है।।
इन जैसों की लाबिंग तगड़ी
साधा सबने ऊंटासन।
विंदी जैसी-----------।।
स्कूलमुखी सड़कें तो देखो
लिप्त पड़ीं हुड़दंगों में ।
कहां मिलेगा अनुशासन जो
रहा संटियों अण्डों में ।।
ब्रेन खिड़कियां कैसे खोले
पड़ा रिटायर मुर्गासन।
बिंदी जैसी----------।।
इन गीतों पर चर्चा करते हुए प्रख्यात साहित्यकार यशभारती माहेश्वर तिवारी ने कहा कि हिंदी की हास्य व्यंग्य कविता में पिछले  दशकों में तेजी से अपनी पहचान बना चुके डॉ. मक्खन मुरादाबादी अपने ढंग के अकेले रचनाकार हैं ।पिछले दिनों आये उनके पहले संग्रह से इसकी  पुष्टि होती है ।इस बीच उन्होंने गीतलिखना शुरू किया है  ।उन्होंने अपने लेखन का आरम्भ छंदोबद्ध रूप से किया यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता ।जिन हास्य व्यंग्य के कवियों ने  अपना लेखन गीतकार के रूप में किया उनमें स्व.सुरेंद्र मोहन मिश्र ,श्री सुरेश उपाध्याय तथा सुरेंद्र दुबे से मेरा परिचय रहा ।इन लोगों  ने सिर्फ आस्वाद बदलने के लिए नहीं बल्कि रचनात्मक दबाव के तहत गीत के आंगन में गाते गुनगुनाते रहे ।इस बीच प्रवीण शुक्ल की गुनगुनाहट के स्वर सुनाई देने लगे हैं ।मक्खन मुरादाबादी की गीत के घर आमद नई है  ।मक्खन ने पटल पर प्रस्तुत अपने गीतों में  कुछ खूबसूरत  बिम्बों के प्रयोग किये हैंजो उनके भीतर बैठे गीत कवि की संभावनापूर्ण आश्वस्ति को बल देते हैं।
 वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि गीत हमेशा गीत ही है। लय के साथ भावों की प्राणवत्ताही उन्हें पाठक/श्रोता के मन के भीतर तक सम्प्रेषित करती है। गीत कार अपने परिवेश को जीता है तब गीत रचना होती है। मक्खन जी ने गीत में समकालीन समाज की सुखद परिस्थितियों के साथ विद्रूप का भी सुंदर चित्रण किया है। एकदम नवीन खरेऔर ताज़ा तरीनबिम्ब मक्खन जी को गीतकारों की अग्रिम पंक्ति में ले जा रहे हैं। आगे क्याहोताहै इसकी प्रतीक्षा काव्य जगत करेगा। मैं भी उनमें शामिल हूं। मक्खन जी को हार्दिक बधाई के शब्द कम पड़ रहे हैं।
मशहूर शायरा डॉ मीना नक़वी ने कहा कि आदरणीय डॉ.मक्खन मुरादाबादी जी के गीतों को पढ़ कर नि:शब्द हूँ। हम अब तक उन्हे सशक्त समर्थ और उत्कृष्ट व्यंग्यकार और हास्य कवि के रूप ही जानते हैं। आज उनके दस गीतों को पढ़ कर महसूस हुआ कि उनका गीतकार कितना समर्थ और सशक्त है। अब तक उनकी व्यंग्य की चुटीली सुनारों वाली चोट पर गीतों की मधुरता की यह लोहारी चोट बहुत मनोहारी है। व्यंग्य पर सशक्त पकड़ रखने वाले ख्याति प्राप्त कवि ने गीतों में  विस्मयकारी इतिहास रच दिया है।
मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि आदरणीय मक्खन जी भी छंदमुक्त से छन्दयुक्त कविता की तरफ़ आए और इस यात्रा के आरंभ में ही शानदार गीतों की रचना की। लोगों ने उनकी छंदमुक्त कविताएं तो पढ़ी और सुनी हैं, लेकिन यह पहला अवसर होगा, जब लोग उनके गीत भी पढ़ेंगे। चूंकि मक्खन जी व्यंग्य कवि हैं, इसलिए उनके गीतों में भी सशक्त व्यंग्य के दर्शन होते हैं। उनके यहां आम आदमी की दौड़-धूप, उसकी समस्याएं और उन समस्याओं का निदान आसानी से देखा जा सकता है। उन्होंने शब्दों को भाषा की दृष्टि से नहीं, बल्कि उपयोग की दृष्टि से देखा है, इसीलिए उनके यहां अंग्रेज़ी, उर्दू आदि के अतिरिक्त देशज शब्द भी प्रचुर संख्या में मिलते हैं।
मशहूर शायर डॉ मुजाहिद फ़राज़ ने कहा कि सब की तरह मैंने भी मक्खन जी को हमेशा एक व्यंग्य के कवि के रूप में देखा और सुना है।लेकिन अब उन्हें एक गीतकार के रूप में पढ़ कर अचम्भा भी नहीं हुआ।क्योंकि असल चीज़ सृजन है। मक्खन जी के गीत पढ़ कर यह कहीं नहीं लगता कि वह इस डगर के नए मुसाफिर हैं।हाँ उन की व्यंग्यात्मक शैली गीतों में भी झलक पड़ती है।और यह होना स्वाभाविक भी है।क्योंकि व्यंग्य उनका पहला प्यार जो ठहरा। गीत का ख़्याल मन में आते ही सोई हुई सी रक्तकोशिकाओ में एक प्रवाह सा महसूस होता है। ठहरी हुई ज़िन्दगी में एक लहर सी उठती है। अब अगर मक्खन जी के गीतों को पढ़ा जाए तो वह इस कसौटी पर पूरे उतरते हैं।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि हास्य व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी का नया काव्य रूप गीतकार। लगता है कि गीतों की पायल उनके मन में बहुत पहले से ही बजती रही है।  इसका आभास तो बीते साल ही प्रख्यात साहित्यकार यश भारती माहेश्वर तिवारी के जन्मदिन पर आयोजित पावस गोष्ठी में उस समय हो गया था जब उन्होंने श्रंगार रस का एक गीत सुनाया था। पटल पर प्रस्तुत उनके सभी 10 गीत मन को भीतर तक छू लेते हैं। उनके अंतर्मन रूपी घर में बरसों से सकुचाए बैठे गीत अब खुलकर मुखर हो गए हैं और मोबाइल फोन के नोटपैड पर थिरकने लगे हैं। मानों या मत मानों उनके गीतों में वही कसमसाहट ,तिलमिलाहट, पैनापन ,नीम की ठंडाई, संवेदना, भावविह्वलता दिखाई देती है जो उनकी व्यंग्य कविताओं में है।
वरिष्ठ कवि डॉ शिशुपाल मधुकर ने कहा कि मुरादाबाद लिटरेरी क्लब के रचनाकारों की समीक्षा कार्यक्रम के क्रम में डॉ कारेंद्र देव त्यागी उर्फ मक्खन मुरादाबादी जी के दस नवगीत पढ़ने को मिलना एक अप्रत्याशित घटना है।अप्रत्याशित इसलिए कि अभी तक हमने उनका यह रूप कभी नहीं देखा।कवि गोष्ठियों या मंचों पर उन्होंने हमेशा गद्यात्मक व्यंग रचनाओं का ही पाठ किया है।अचानक इतने गंभीर और उत्कृष्ट शैली में नवगीतों की रचना अपने आप में अविश्वस्नीय सी लगती है। बड़ा ही सुखद लगा कि मक्खन जी ने गीत की दुनिया में सशक्त रूप से धमाकेदार एंट्री की है।सभी दस गीतों को कई बार पढ़ा।सभी गीत नवगीत की सभी शर्तों को उत्कृष्ट रूप से पूरा करते है।
प्रसिद्ध कवियत्री डॉ पूनम बंसल ने कहा कि  मेरे अग्रज आदरणीय मक्खन भाई साहब जी के गीतकार के रूप के नये अवतार को नमन करती हूं। उनके सशक्त गीतों पर कुछ समीक्षा कर सकूँ अभी इस काबिल नहीं हूं ।हाँ गीतों को पढ़कर बहुत आनंदित हूं और हृदय की अतल गहराइयों से अपनी अनंत शुभकामनाएं प्रेषित कर रही हूं।
प्रसिद्ध नवगीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि आदरणीय डॉ. मक्खन मुरादाबादी के सभी 10 गीतों से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उनकी यह अभिनव गीत-यात्रा भी लोकरंजन से लेकर लोकमंगल तक की वैचारिक पगडंडियों से होती हुई निरंतर आगे बढ़ी है। उनके गीतों में वर्तमान के त्रासद समय में उपजीं कुंठाओं, चिन्ताओं, उपेक्षाओं, विवशताओं और आशंकाओं सभी की उपस्थिति के साथ-साथ गीत के परंपरागत स्वर में लोकभाषा के शब्दों की मिठास भरी सुगन्ध भी है। व्यंग्य कविता-यात्रा की पांच दशकीय अवधि में प्रचुर मात्रा में मुक्तछंद में कविताई करने वाला लेकिन हर क्षण कविता के हर स्वरूप को जीने वाला रचनाकार जब अचानक छंद की ओर लौटता है और वह भी गीत की ओर तो सभी का चौंकना भी स्वभाविक है और गीत की शक्ति का स्वप्रमाणित होना भी।
युवा शायर राहुल शर्मा ने कहा कि डॉ मक्खन मुरादाबादी उन्होंने सिद्ध कर दिया कि गुणवत्ता की चमक कभी फीकी नहीं होती उत्पाद चाहे जो भी हो। एक ही झटके में उन्होंने आवरण उतारा तो  व्यंग कवि के भीतर बैठे एक अद्भुत, विलक्षण, कल्पना तीत रूप से रहस्यमयी गीतकार के दर्शन हुए जिसकी आभा ने सभी की आंखों को चौंधिया दिया।  पटल पर प्रस्तुत मक्खन जी के दसों गीत अपनी गीतात्मकता में बेजोड़ हैं, लेकिन मुझे सबसे अधिक चमत्कृत किया उनकी गांव की मिट्टी में सनी भाषा ने। यह वह भाषा है जो इतनी सादा और देसी है कि  उसे समझना अपने आप में कभी-कभी बड़ा क्लिष्ट  होता है। आप देशज हुए बिना उसे न तो महसूस कर सकते हैं और न ही समझ सकते हैं।
कवि श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि दादा के सभी गीत पढ़ने के बाद यह भी प्रतीत होता है कि सभी गीत अभी के लिखे हुए हैं। उनके गीतों में भी उनकी व्यंग की शैली स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है जो स्वाभाविक भी है। अपने दसों गीतों में मक्खन जी ने विविध विषयों पर लेखनी चलाई है। प्रवासी मजदूर हों, प्रेम हो, शोषण  हो, अभाव ग्रस्त जीवन हो, चीन द्वारा सीमाओं पर अतिक्रमण के कारण उत्पन्न आक्रोश हो, या आपदकाल में सरकारी सहायता और घोषणाओं की वास्तविकता के धरातल पर स्थिति हो, हर विषय पर गीतों के माध्यम से आपने सशक्त अभिव्यक्ति की है। कुल मिलाकर सभी गीत वर्तमान परिस्थितियों से उत्पन्न सामाजिक परिदृश्य को अभिव्यक्ति देते हैं।
समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि  आदरणीय डॉक्टर मक्खन मुरादाबादी जी जोकि हास्य व्यंग के सशक्त हस्ताक्षर हैं,उनके द्वारा रचित नवगीत पढ़कर आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक है। परंतु मुझे कोई आश्चर्य इसलिए नहीं है क्योंकि मेरा मानना है कि एक हास्य व्यंग का कवि जितनी खूबी के साथ अपनी बातों को इशारों इशारों में कहने पर पकड़ रखता है अर्थात प्रतीकों और बिंबो के प्रयोग करने का हुनर रखता है उसके लिए नवगीत कोई बड़ी बात नहीं है। क्योंकि इन दोनों चीजों की प्रधानता ही गीत को नवगीत बनाती है। आदरणीय मक्खन जी इसमें सिद्धहस्त हैं। ये ऐसे नवगीत हैं जो हम जैसे साहित्य के विद्यार्थियों को बहुत कुछ सीखने और समझने का अवसर प्रदान करते हैं।
युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि  चूँकि श्रद्धेय मक्खन जी मूलतः एक व्यंग्य कवि हैं, यही कारण है उनके इन उत्कृष्ट गीतों में पूरी गंभीरता के साथ व्यंग्य का पुट भी दृष्टिगोचर होता है। बिंदी, गांधी बन्दर, सूरज जैसे विज्ञापन, चीनी गुब्बारा जैसे सशक्त एवं अनोखे बिंबों से सजी एवं आम जनमानस की भाषा से ओतप्रोत उनकी ये अभिव्यक्तियाँ यह दर्शा रही हैं कि उनके भीतर एक उत्कृष्ट गीतकार भी रहता है, जो उनके गौरवशाली रचना कर्म के इस मोड़ पर, सशक्त रूप से हमारे सम्मुख आया है। ये गीत इस बात की घोषणा कर रहे हैं कि अब दादा मक्खन जी की लेखनी से उत्कृष्ट गीतों की भी एक ऐसी अविरल धारा अपनी यात्रा का शुभारंभ कर चुकी है जो वर्तमान एवं भावी दोनो ही पीढ़ियों को प्रेरित करेगी।
युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि मुझे लगा था कि दादा की व्यंग्य कविताएं पढ़ने को मिलेंगीं लेकिन जिस तरह देश भर में पिछले कुछ दिनों से अप्रत्याशित घटित हो रहा है उसी तरह इस पटल पर भी हो गया। ख़ैर दादा की लेखनी का ये नया रूप भी बहुत अच्छा है। हर गीत अलग तेवर और कलेवर का है।
समीक्षक डॉ अज़ीमुल हसन ने कहा कि आदरणीय डॉ मक्खन  मुरादाबादी काव्य के  आसमान पर चमकता हुआ एक ऐसा तारा हैं जिसकी चमक से व्यंगात्मक काव्य में मुरादाबाद सदा जगमगाता रहा है। आपके गीत वर्तमान समाज का दर्पण हैं जो समाज को उसका सही प्रतिबिम्ब दिखाने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं। समाज पर व्यंग का एक ऐसा आघात है जिससे समाज अपने भीतर झाँकने पर विवश हो जाता है। हमें आशा है कि हमारा समाज आपके गीतों से सदा लाभान्वित होता रहेगा।
युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि श्री कारेन्द्र देव त्यागी जी के गीत अप्रत्याशित भले ही हों पर उनके उच्च गुणवत्तायुक्त होने पर संशय किया ही नहीं जा सकता। वह हमेशा कहते रहे हैं कि मैं छंद के बारे में अधिक नहीं जानता या मैं छंद में नहीं लिखता लेकिन जब छंदबद्ध उनके गीत पटल पर आए तो लगा कि वास्तव में किसी विधा का ज्ञाता होने का दम्भ भरना और किसी विधा को सचमुच आत्मसात कर लेना दोनों ही कितनी अलग बातें हैं। भाव पक्ष हो अथवा कला पक्ष दोनों ही दृष्टि से आदरणीय मक्खन जी के गीत श्रेष्ठ हैं।
युवा कवियत्री मीनाक्षी ठाकुर ने कहा कि  आदरणीय मक्खन मुरादाबादी आपके गीत एक नहीं कई कई बार पढ़े। जितनी बार पढ़े, हर बार नवीन गूढ़ रहस्य नज़र आये। नये विम्ब दिखे। आपके अद्भुत गीतों की चमकदार माला देखकर आँखें विस्मित हैं,अभी तक जब भी गीत पढ़े वे प्रिय, प्रियतमा ,साढ़, सावन ,भादो,प्रृकति चित्रण, विरह वेदना पर ही अधिकांशतः केंद्रित होते  देखे हैं,शायद प्रथम बार ऐसे गीत पढ़ने को मिले हैं, जिनमें मन की पीड़ा व्यंग्य के तरकश से निकलकर घातक मार करती हुई लक्ष्य प्राप्त करती है। मुझे गीतों के बारे में बहुत कुछ नहीं पता परंतु इतना अवश्य ही पता चल गया कि गीत इतने सादगी भरे भी हो सकते हैं। निःसंदेह आपके ये गीत हर मौसम में गाये जायेंगे।
डॉ ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि मुझे कहने दीजिए कि कहीं से ऐसा नहीं लग रहा कि ये गीत किसी ऐसे रचनाकार ने लिखे हैं जिसने कई वर्षों से गीत नहीं लिखे या कभी गीत लिखे ही नहीं। गीतों की भाषा में और गीत का जो रंग है जो रूप है वो हमें गांव की तरफ ले जाता है। अक्सर गीतों के शब्दों में और शब्दों के बीच जो ख़ामोशी है, उसमें हमें गांव की मिट्टी की सौंधी-सौंधी खु़शबू महसूस होती है। गांव और शहर का जो रिश्ता है। वो खट्टा भी है और मीठा भी। जिसमें आशा भी है और निराशा भी, वह इतनी मज़बूती और इतने रचाव के साथ इन गीतों में बयान किया गया है कि देखते ही बनता है। गीत लिखते हुए किसी तरह के काव्यात्मक तकल्लुफ़ का कोई प्रयोग नहीं किया गया है। ज़ुबान आसान है, बहुत मुश्किल नहीं है। क्योंकि व्यंग के कवि हैं इसलिए गीतों में कहीं-कहीं व्यंग भी बहुत खूबसूरती से परोसा गया है। लेकिन वह इतना शुगर कोटेड है कि निगलते हुए कड़वाहट का एहसास नहीं होता।

-ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
मुरादाबाद 244001
मो० 7017612289

सोमवार, 22 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की काव्य कृति "कड़वाहट मीठी सी" की योगेंद्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा ------ कड़वे यथार्थ की चित्रकारी......

      भारतीय साहित्य में व्यंग्य लेखन की परंपरा बहुत समृद्ध रही है। ऐसा माना जाता है कि यह कबीरदास, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’, प्रतापनारायण मिश्र से आरंभ हुई, कालान्तर में शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, हरिशंकर परसाई, रवीन्द्रनाथ त्यागी, लतीफ घोंघी, बेढब बनारसी के धारदार व्यंग्य-लेखन से संपन्न होती हुई यह परंपरा वर्तमान समय में ज्ञान चतुर्वेदी, सूर्यकुमार पांडेय, सुभाष चंदर, ब्रजेश कानूनगो आदि के सृजन के रूप में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करा रही है, किन्तु व्यंग्य-कविता लेखन में माणिक वर्मा, प्रदीप चौबे, कैलाश गौतम, मक्खन मुरादाबादी सहित कुछ ही नाम हैं जिन्होंने अपनी कविताओं में विशुद्ध व्यंग्य लिखा है। कवि सम्मेलनीय मंचों पर मक्खन मुरादाबादी के नाम से पर्याप्त ख्याति अर्जित करने वाले डॉ. कारेन्द्रदेव त्यागी की लगभग 5 दशकीय कविता-यात्रा में प्रचुर सृजन उपरान्त सद्यः प्रकाशित प्रथम व्यंग्यकाव्य-कृति ‘कड़वाहट मीठी सी’ की 51 कविताओं से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उन्होंने समाज के, देश के, परिवेश के लगभग हर संदर्भ में अपनी तीखी व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया कविता के माध्यम से अभिव्यक्त की है।
गीतों के अनूठे रचनाकार रामअवतार त्यागी की धरती पर जन्मे, पले, बढ़े मक्खनजी की सभी कविताएं स्वतः स्फूर्तरूप से सृजित मुक्तछंद कविताएं हैं छंदमुक्त नहीं हैं संभवतः इसीलिए उनकी कविताओं में एक विशेष प्रकार की छांदस खुशबू के यत्र-तत्र-सर्वत्र विचरते रहने के कारण सपाटबयानी या गद्य भूले से भी घुसपैठ नहीं कर सका है। पुस्तक में अपने 15 पृष्ठीय बृहद आत्मकथ्य में अपने अनेक संस्मरणों के साथ-साथ अपनी कविता-यात्रा के संदर्भ में उन्होंने कहा भी है कि ‘कविता टेबल वर्क नहीं है। कविता हो या शायरी, वह गढ़ी-मढ़ी नहीं जाती क्योंकि गढ़ना-मढ़ना इनके धर्म नहीं हैं। ये होती तो हैं की नहीं जातीं। होने और किए जाने के अंतर को समझकर ही इन्हें बेहतरी से समझा जा सकता है। आधुनिक कविता छंद, मुक्तछंद और छंदमुक्त तीनों ही स्वरूपों में समृद्ध हुई है।’ दरअस्ल यह सत्य भी है कि कविता में व्यंग्य-लेखन आसान नहीं है क्योंकि संदर्भों और विषयों पर सृजन करने हेतु व्यंग्य-दृष्टि हर किसी रचनाकार के पास नहीं होती। कविता में व्यंग्य को जीना मतलब एक अलग तरह की बेचैनी को जीना, सामान्य में से विशेष को खोजना और साधारण को असाधारण तरीक़े से अभिव्यक्त करना होता है। हम सबने बचपन से नारा सुना है-‘हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई/आपस में सब भाई-भाई’, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है ? हर किसी को लगता है कि यह भाव अब सिर्फ़ नारे में ही सिमटकर रह गया है, व्यवहारिकता में अधिकांश जगह स्थिति उलट ही है। कृति के कवि मक्खनजी द्वारा अपनी कविता ‘मुझे अंधा हो जाना चाहिए’ में इस नारे का पोस्टमार्टम करते हुए नारे को बिल्कुल अनूठे ढंग से व्याख्यायित करना उनकी विशुद्ध व्यंग्यात्मक -दृष्टि का वैशिष्ट्य नहीं तो और क्या है-
‘तुम सवर्ण हो, अवर्ण हो तुम
तुम अर्जुन हो, कर्ण हो तुम
तुम ऊँच हो, नीच हो तुम
तुम आँगन हो, दहलीज़ हो तुम
तुम बहु, अल्पसंख्यक हो तुम
तुम धर्म हो, मज़हब हो तुम
कहने को तो नारों में भाई-भाई हो तुम
पर असलियत में
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई हो तुम’

      मक्खनजी की कविताएं पाठक और श्रोता के साथ जुड़कर सीधा संवाद करती हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से आज तक भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति भयावहता के चरम पर है। यह उस असाध्य बीमारी की तरह हो चुका है जिसका उपचार संभव प्रतीत नहीं हो रहा है, मतलब ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’। ‘मैं हूँ तब ही तो’ शीर्षक से कविता के माध्यम से अपनी अनूठी व्यंग्यात्मक शैली में मक्खनजी भ्रष्टाचार का बयान दिलवाते हैं-
‘भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार
चिल्लाते रहते हो बरखुरदार
सोचो तो, मेरी अगर बात न होती
तुम्हारी भी आज के जैसी
हरगिज औकात न होती
मेरे कारण नेताओं के
अपने-अपने रजवाड़े हैं
अधिकरियों ने राजमहल बनवाने को
जाने कितने नक्शे फाड़े हैं
कर्मचारियों के भी मंसूबे
अधिकारियों को छूते हैं
सबके बढ़े हौंसले मेरे ही बलबूते हैं
मेरे प्रति जनमानस में
इसीलिए पैदा विश्वास हुआ है
मैं हूँ तब ही तो
इतना सारा विकास हुआ है’

      सुपरिचित ग़ज़लकार डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’ का एक शे’र है-‘मैं अपनी भूख को ज़िन्दा नहीं रखता तो क्या करता/थकन जब हद से बढ़ती है तो हिम्मत को चबाती है।’ यह भूख ही है जिसे शान्त करने के लिए व्यक्ति सुबह से शाम तक हाड़तोड़ मेहनत करता है, फिर भी उसे पेटभर रोटी मयस्सर नहीं हो पाती। देश में आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं जो भूखे ही सो जाते हैं, वहीं कुछ लोग छप्पनभोग जीमते हैं और अपनी थाली में जूठन छोड़कर रोटियां बर्बाद करते हैं। आज का सबसे बड़ा संकट रोटी का है और चिंताजनक यह है कि व्यवस्था के ज़िम्मेदार लोगों के हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने के कारण इस समस्या का निदान दिखाई नहीं दे रहा है। ‘नेताओं का भावी प्लान’ कविता में मक्खनजी अपनी चिरपरिचित शैली में भूख की मुश्किलों और व्यवस्था की बिद्रूपताओं पर व्यंग्य कसते हैं-
‘भूख, अभी तो एक समस्या है
भविष्य में, भयंकर बीमारी बनेगी
भूख से लड़ते इंसान की लाचारी बनेगी
क्या कहा, आप रोज़ खाना खाते हो
तभी तो आए दिन बीमार पड़ जाते हो
अपनी औकात पहचान लो
चादर जितनी है उतनी तान लो
मंथली पाते हो न, मंथली खाने की आदत डाल लो’

      आज की युवा पीढी के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या बेरोज़गारी है। महँगाई आसमान पर है और जीवन-यापन के श्रोत प्रतिस्पर्धा के शिकार हैं। व्यापार करना आसान नहीं रह गया है और नौकरी पाना दूभर। सरकारी नौकरी के लिए एक पद हेतु लाखों आवेदन पहुँचते हैं और सिफारिशें भी, ऐसे में ‘चैक-बैक-जैक’ की त्रासदी झेलते ईमानदारी के मूल्यों को जीने वाले एक आम शिक्षित युवा की पीड़ा को उकेरते हुए मक्खनजी आईना दिखाते हैं समाज को अपनी कविता ‘आज़ादी के बाद की कहानी’ में-
‘मेरे देश के नगर-नगर में
एक मंजिल वाले सब
दुमंजिले, तीमंजिले, चौमंजिले और
कई-कई मंजिल ऊँचे मकान हो गए हैं
लेकिन इसमें रहने वाले
अपने अतीत को पीकर, वर्तमान को जीकर
भविष्य के प्रति निराश हो गए हैं
क्योंकि इन्हीं में एक मंजिल में बैठा
पढ़ा-लिखा नवयुवक अपनी खुली कमीज पर
बेरोज़गारी के बटन टाँक रहा है’

       एक अन्य कविता ‘बेईमानी भी ईमानदारी से’ में वह इस विभीषिका को और भी अधिक प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करते हैं-
‘मैंने ईमानदारी से तंग आकर
ज़िन्दगी को बेईमानी की ओर मोड़ा था
बिकलांगों के लिए नौकरी में प्राथमिता विज्ञापन
समाचारपत्र में पढ़कर
यह हाथ जानबूझ कर तोड़ा था
लेकिन दोस्त, वहाँ
विकलांगों की बहुत लम्बी लाइन थी
जाने कितने मेरी तरह भटके
जाने किसने नौकरी ज्वाइन की
अब आप पूछेंगे कि उसे
सचमुच हाथ तोड़ लेने पर भी
नौकरी क्यों नहीं मिली थी
क्योंकि उसने बेईमानी भी
ईमानदारी से की थी’

       मक्खनजी की कविताओं में समाज और देश में व्याप्त अव्यवस्थाओं, विद्रूपताओं, विषमताओं के विरुद्ध एक तिलमिलाहट, एक कटाक्ष, एक चेतावनी दिखाई देती है, यही कारण है कि उनकी कविताओं में विषयों, संदर्भों का वैविध्य पाठक को पुस्तक के आरंभ से अंत तक जोड़े रखता है।  संग्रह की कई कविताओं में मक्खनजी अनायास ही दार्शनिक होते हुए कुछ सूत्र-वाक्य देते हैं समाज को मथने के लिए-‘लोकतंत्र में/ज़मीन का दरकना ठीक नहीं है‘, ‘व्यवहार नहीं होते/ तो भाषा गूंगी हो जाती’, ‘कर्ज की भाँति बढ़ते हुए बच्चे’, ‘धर्मनिरपेक्षता ग़लत परिभाषित अंधा कुँआ है’, ‘सांसें हैं पर इनमें ज़िन्दगी नहीं है’, ‘हँसी का पूरा संसार बसाइए’, ‘बेईमानी भी ईमानदारी से की थी’। अपने समय के कैनवास पर कड़वे यथार्थ की चित्रकारी करतीं संग्रह की कविताएं ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ को सही अर्थों में चरितार्थ करती हैं। यहाँ यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि संग्रह की अनेक कविताएं विस्तृत चर्चा और विमर्श की अपेक्षा रखती हैं। निश्चित रूप से मक्खनजी की यह कृति ‘कड़वाहट मीठी सी’ साहित्य-जगत में पर्याप्त चर्चित होगी तथा सराहना पायेगी, यह मेरी आशा भी है और विश्वास भी।




*कृति -‘कड़वाहट मीठी सी’ (व्यंग्य कविता-संग्रह)
*रचनाकार   - डॉ. मक्खन मुरादाबादी
प्रकाशक    - अनुभव प्रकाशन, साहिबाबाद, ग़ाज़ियाबाद।
प्रकाशन वर्ष - दिसम्बर, 2019
मूल्य       - ₹ 250/-(हार्ड बाईन्ड)
समीक्षक - योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
ए.एल.-49, उमा मेडिकोज़ के पीछे,
दीनदयाल नगर-।, काँठ रोड,
मुरादाबाद- 244001 (उ0प्र0)
मोबाइल-9412805981

शुक्रवार, 1 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की कविता ------- कोई न कोई जगह तो


 कहीं न कहीं/कोई न कोई/जगह तो
मजदूरों का भी/अपना घर होती है ,
सबकुछ होता है/उनमें भी/घर जैसा ही
बस , गुजर - बसर नहीं होती है ।
ऐसे में भी/रहते आयें हैं ये
इन्हीं घरों में/संतोषी मन से ,
कम्बख़त/पेट नहीं मानता, लेकिन
ले चल पड़ता है/इनको तन से ।
यूं ही कौन छोड़ता है/अपना घर ,
छुड़वा देते हैं, लेकिन/
मजदूरी की/मजबूरी के पर ।
पेट भरण की/आस जहां भी/दिख जाती है,
मन विहीन इन तनों की/
ज़िन्दगी ठिठक/ टिक वहीं जाती है।
कमरतोड़ मेहनत से/जी-तोड़ कमाते,खाते,
जहां टिके होते जाकर/वहीं में रच,बस जाते।
ज़िन्दगी/परवान चढ़ने लगती ,
उम्मीद बढ़ने लगती ।
चाहे जैसी भी हैं, नौकरियां ,
इनकी लाचार कथा-व्यथा रूपों में
शहर-शहर/उग आती हैं/
इनके घर होकर/झुग्गी-झोंपड़िया।
इनमें ही रात कटती है ,
ज़िन्दगी की/हर बात बंटती है।
जिन विवशताओं से ये/चिपटे रहते हैं ,
उनमें इनके/सारे सुख/लिपटे रहते हैं।
ऐसी-वैसी/विपदाओं को तो
ये विपदा ही नहीं मानते ,
क्या होता है कष्ट?
इनके तन-मन/दोनों ही नहीं जानते।
जंगल-जंगल/रंगत-रौनक/चहल-पहल की
मुर्दों में जान पड़ी सी/जो भी हलचल है,
वह सब इनकी ही/कर्मठता का प्रतिफल है।
किन्तु,आज समाना/विपदा काले/
इन पर संकट/गहरा जाता है ,
तब और अधिक,जब/इनकी श्रम बूंदों से/
फलीभूत हुआ भी/कन्नीकाट हुआ होकर/पुकार इनकी पीड़ा की /नहीं है सुनता/
हो निपट बहरा जाता है ।
जब, आशाओं पर/फिर जाता है पानी,
राह भटकते देखे हैं/                           
अच्छे-अच्छे ज्ञानी-ध्यानी।
सब यादों की/छोड़ के दौलत/           
 अपने-अपने नीड़ों में ,
बीबी-बच्चों सहित/कुछ सामानों के
निकल पड़ते हैं ये/होकर शुमार भीड़ों में।
भूखे पेटों का स्वर भी/
मिल जाता है/मन के स्वर से ,
इन्हें पुकार/आने लगती है
अपने उसी पुराने घर से ।
यात्राएं हों/कितनी भी लम्बी
धुन सवार हो जाती है , इन पर/
ये खोकर उसमें/उसके ही हो जाते हैं,
पांव!रेल,बस, गाड़ियां/नहीं होते, लेकिन
जाने कैसे/हो, उड़नखटोला जाते हैं ।
ये तो/कर लेंगे फिर भी/
कर मुकाबला/बड़े-बड़े कहरों का ,
लेकिन,क्या होगा आगे/
इन शहरों के/अंधे,गूंगे, बहरों का ?

✍️  डॉ मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर, कांठ रोड
मुरादाबाद- 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9319086769

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

दुर्लभ चित्र : बांये से : स्मृति शेष दिग्गज मुरादाबादी , डॉ मक्खन मुरादाबादी , स्मृति शेष हुल्लड़ मुरादाबादी, स्मृति शेष पं.मदन मोहन व्यास, स्मृति शेष सर्वेश्वर सरन सर्वे., डॉ एच.सी. वैश्य (स्वास्थ्य अधिकारी, नगरपालिका,जो महानिदेशक स्वास्थ्य ,उ.प्र.के पद से रिटायर हुए।)


डॉ मक्खन मुरादाबादी जी के अनुसार यह चित्रसम्भवतः वर्ष 1974 का है । डॉ वैश्य जी के मकान की छत पर कविसम्मेलन हुआ था । यह चित्र हमें  स्मृतिशेष पंडित मदन मोहन व्यास जी के सुपुत्र मनोज व्यास जी से प्राप्त हुआ है ।

रविवार, 12 अप्रैल 2020

मुरादाबाद मंडल के कुरकावली ( जनपद सम्भल ) निवासी साहित्यकार स्मृति शेष रामावतार त्यागी की पुण्यतिथि 12 अप्रैल पर डॉ मक्खन मुरादाबादी का विशेष आलेख --- पीड़ा को गीत बनाने में सिद्धहस्त साधक थे रामावतार त्यागी


      आज 12 अप्रैल , 2020 की तारीख हिन्दी साहित्य के लिए बहुत अहम है।आज की ही तारीख को 1985 में आधुनिक हिंदी गीत के शिरोमणि आदरणीय रामावतार त्यागी ने पीड़ाओं को गाते - गाते इस संसार से विदा ली थी। वह मार्च 1925 में  तत्कालीन जनपद मुरादाबाद की सम्भल तहसील ( वर्तमान जनपद )के गांव कुरकावली में जन्में थे। कुरकावली सम्भल - हसनपुर मार्ग पर नौवें माइल स्टोन पर स्थित है ।
      रामावतार त्यागी की डेढ़ दर्जन से भी अधिक सृजित कृतियां हैं। देश भर में छोटी कक्षाओं से लेकर विश्वविद्यालय - कक्षाओं तक के पाठ्यक्रमों में उनकी रचनाओं ने आदर पाया है।वह दिनकर , बच्चन , नेपाली , नरेन्द्र शर्मा , शिवमंगल सिंह सुमन , बलवीर सिंह रंग , देवराज दिनेश , वीरेन्द्र मिश्र आदि की पीढ़ी के अनूठे गीतकार हैं और इन सभी से प्रदत्त अपने अनुपम और अद्भुत होने के प्रमाण -  पत्र भी उनके ललाट पर मुकुट - रूप में  शोभायमान हैं। आधुनिक हिन्दी गीत का इतिहास भी जब  कायदे से लिखा जायेगा तो हिन्दी गीत रामावतार त्यागी के नाम से ही करवट लेता हुआ दिखाई पड़ेगा।
        शिव विष पीकर उसको कंठ ही में सोखकर नीलकंठ हो जाते हैं । निराला पीड़ाओं को बिछा - ओढ़ कर महाप्राण हो जाते हैं तो रामावतार त्यागी पीड़ाओं को दुलार - पुचकार कर उनमें ही रमकर, उन्हीं को पी - जी कर आत्मसात करके उनके साथ सोकर और जागकर पीड़ा के महागायक होकर हिन्दी गीत के महानायक होकर सामने आते हैं -
     शिशुपालसिंह ' निर्धन ' जी की पंक्तियां याद आ रही हैं -
एक पुराने दु:ख ने पूछा क्या तुम अभी वहीं रहते हो ।
उत्तर दिया चले मत आना मैंने वह घर बदल दिया है ।।
       लेकिन रामावतार त्यागी तो इससे भी बहुत आगे निकल गए हैं--
मैं न जन्म लेता तो शायद
रह जातीं विपदाएं  क्वारीं
मुझको याद नहीं है मैंने
सोकर कोई रात गुज़ारी
 
इतना ही नहीं । अपनी पीड़ाओं को ऐसा सादर सम्मान देने वाला हिन्दी साहित्य जगत में कहीं नहीं मिलने वाला --
सारी रात जागकर मन्दिर
कंचन को तन रहा बेचता
मैं पहुंचा जब दर्शन करने
तब दरवाजे बन्द हो गये ।
छल को मिली अटारी सुख की
मन को मिला  दर्द का  आंगन
नवयुग के लोभी पंचों ने
ऐसा ही कुछ किया विभाजन
शब्दों में अभिव्यक्ति देह की
सुनती रही शौक से दुनिया
मेरी पीड़ा अगर गा उठी
दूषित सारे छन्द हो गये ।
 
    रामावतार त्यागी पीड़ा को गीत बनाने में सिद्धहस्त साधक थे।ध्यान से देखेंगे तो भी पता नहीं लगा पायेंगे कि उन्होंने अपनी पीड़ा को गाया है या उनकी पीड़ा ने उनको गाया है।उनके गीतों में यह तत्त्व गहरे शोध का विषय है। उनके गीत - गीत को बार-बार पढ़ कर देखिए तो सही , आपको लगेगा कि उन्होंने जो कहा है वह संभवतः पहली - पहली बार कहा गया है। कविता में  यह आभास रचनाकार की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है जो उसे वास्तव में अप्रतिम बनाती है।
     मध्यम कद और सांवली सूरत वाला  अक्कखड़, तुनकमिजाज , बेपरवाह, शुष्क - शुष्क सा , घमंडी कहा जाने वाला आत्माभिमान से लबालब दो टूक अपने को प्रस्तुत करने वाला अजीबोगरीब यह आदमी बड़ों - बड़ों का और अपने श्रोताओं तथा पाठकों का कितना प्रिय होकर उभरा है,यह तो किसी की भी सोच के परे की स्थिति है। रामावतार त्यागी के सामने मैंने स्वयं अच्छों - अच्छों को पानी भरते देखा है।क्यों ? क्योंकि पीड़ा का यह गायक पीड़ाओं में से जीवन का  यह दर्शन भी निकालना जानता है --       
गजब का एक सन्नाटा, कहीं पत्ता नहीं हिलता
किसी कमजोर तिनके का समर्थन तक नहीं मिलता
कहीं उन्माद हंसता है कहीं उम्मीद रोती है
यहीं से,हां यहीं से ज़िन्दगी प्रारंभ होती है।
     
     रामावतार त्यागी उस उदधि के जैसे हैं जिसकी तरंग - तरंग में पीड़ा ही पीड़ा है। तरंगों का उछाल वाष्पीकृत होकर जब बादलों में तब्दील होता है तब उससे मूसलाधार पीड़ाएं बरस कर रामावतार त्यागी का गीत हो जाती हैं।उनका गीत संसार पीड़ाओं की मूसलाधार बरसात से कमाई गई खेती है।   


✍️  डॉ मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर, कांठ रोड
मुरादाबाद- 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9319086769

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की कविता --- नौ मिनट में ...


एक - एक
दीया क्या जला ,
बहुतों को
बहुत ही खला ।
माथे पर
पड़ बल गये,
आह्वान के
क्षण से ही
होने लगी थी
जलन
जला तो ,
सिर से
पांव तक जल गये ।
कोई उनसे
कुछ पूछता है तो
उसी को झिड़क देते हैं,
कहते हैं,
हम आपसे
बात नहीं करेंगे
आप बातों - बातों में
हमारे जले पर
नमक छिड़क देते हैं ।
हमारे पास
करने को
छोड़ा ही क्या है
न हिन्दू छोड़ा,न मुसलमान ,
न तीन सौ सत्तर का
सदाबहार भवन आलीशान ।
न नमस्ते छोड़ी है
न ही छोड़ी राम-राम है ,
तुम्ही बताओ
हमारे पास
जलने के अलावा अब
बचा हुआ
कौन सा काम है ।
हमारी
हर उम्मीद पर
पानी फेर कर रख दिया
हमारी हर कोशिश
दीये जलवाकर
नौ मिनट में धू-धू करवा दी ,
बची - बचाई
बस जमात थी
उसकी भी थू-थू करवा दी ।

*** डॉ मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर, कांठ रोड
मुरादाबाद- 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9319086769

गुरुवार, 12 मार्च 2020

गजल एकेडमी की ओर से डॉ मक्खन मुरादाबादी , कंचन खन्ना और निकखत मुरादाबादी को किया गया सम्मानित

ग़ज़ल एकेडमी मुरादाबाद की ओर से रविवार आठ मार्च 2020  को स्वतंत्रता सेनानी भवन में होली के रंग मक्खन के संग "जश्न ए मक्खन मुरादाबादी'' उर्दू हिंदी फेस्टिवल के अंतर्गत आयोजित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता दिल्ली से पधारे शोएब फारूकी ने की। मुख्य अतिथि के रूप में डॉ जयपाल सिंह व्यस्त एमएलसी, विशेष अतिथि प्रख्यात साहित्यकार यश भारती माहेश्वर तिवारी, डॉ अनुराग अग्रवाल, डॉ संजय शाह ,डॉ एस के सिंह, डॉ सैयद हिलाल वारसी, संजीव आकांक्षी, मजाहिर खां, अरविंद कुमार वर्मा , राकेश चंद्र शर्मा, गोपी किशन,  नावेद सिद्दीकी, उपस्थित रहे । कार्यक्रम का शुभारंभ नाते पाक व सरस्वती वंदना से हुआ।
कार्यक्रम में हास्य व्यंग्य के प्रख्यात कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी को सम्मानित किया गया। इस अवसर पर डॉ मक्खन मुरादाबादी सम्मान सुश्री कंचन खन्ना व निकखत मुरादाबादी को दिया गया।
  डॉ मक्खन मुरादाबादी को प्रदत्त सम्मान पत्र पढ़ते हुये साहित्यकार योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा -भारतीय साहित्य में कबीरदास, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’, प्रतापनारायण मिश्र से आरंभ हुई व्यंग्य लेखन की परंपरा बहुत समृद्ध रही है, कालान्तर में शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, हरिशंकर परसाई, रवीन्द्रनाथ त्यागी, लतीफ घोंघी, बेढब बनारसी के धारदार व्यंग्य-लेखन से संपन्न होती हुई यह परंपरा वर्तमान समय में ज्ञान चतुर्वेदी, सूर्यकुमार पांडेय, सुभाष चंदर, ब्रजेश कानूनगो आदि के सृजन के रूप में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करा रही है, किन्तु व्यंग्य-कविता लेखन में माणिक वर्मा, प्रदीप चौबे, कैलाश गौतम, डॉ मक्खन मुरादाबादी सहित कुछ ही नाम हैं जिन्होंने अपनी कविताओं में विशुद्ध व्यंग्य लिखा है। व्यंग्य का सच्चा धर्म निभाने वाली मक्खन जी की अनेक कविताएं अत्यधिक लोकप्रिय एवं चर्चित हुईं किन्तु लगभग 5 दशकीय कविता-यात्रा में प्रचुर सृजन उपरान्त 51 कविताओं का प्रथम संग्रह ‘कड़वाहट मीठी सी’ के रूप में हाल ही में प्रकाशित हुआ है। आपकी कविताओं को पढ़कर साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि कविताओं के माध्यम से समाज के, देश के, परिवेश के लगभग हर संदर्भ में अपनी तीखी व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया अभिव्यक्त की गई है और ये सभी कविताएं स्वतः स्फूर्तरूप से सृजित मुक्तछंद कविताएं हैं छंदमुक्त नहीं हैं संभवतः इसीलिए आपकी  कविताओं में एक विशेष प्रकार की छांदस खुशबू के यत्र-तत्र-सर्वत्र विचरते रहने के कारण सपाटबयानी या गद्य भूले से भी घुसपैठ नहीं कर सका है।
राजीव प्रखर ने कहा -
हास्य-व्यंग्य के रत्न वो, मक्खन जी अनमोल।
कड़वाहट मीठी लिये, जिनके प्यारे बोल।
रहती हो इस वक़्त की, चाहे जैसी चाल।
मक्खन जी की ताज़गी, खुद में एक कमाल‌।


वीरेन्द्र सिंह बृजवासी ने कहा -
शब्द शब्द में भर  रहे
हास्य  व्यंग्य का भाव
मक्खन जी से है यहां
सबको   बड़ा  लगाव
नमन उनको करते हैं
बनें प्रेरणा श्रोत दुआ
हम   सब  करते   हैं।


मोनिका मासूम का कहना था -
व्यंग्य विधा के बड़े धुरंधर मक्खन जी
अंजुलियों में भरें समंदर मक्खन जी
सर्द ज़रा सी हवा चले तो जम जाते
गर्मी में बह जाएं पिघल कर मक्खन जी
भरकर लाए हैं "कड़वाहट मीठी सी"
वर्षों के अनुभव से मथकर मक्खन जी


कंचन खन्ना ने कहा -
उसकी सादगी, उसका व्यक्तित्व, व्यवहार जुदा है
बात फन की चले तो वो अकेला फनकार जुदा है।
आसान  नहीं कोई लफ़्ज़ों का जादूगर हो जाये।
मीठी सी दे जो कड़वाहट ऐसा वो दिलफरेब कलाकार जुदा है।


हेमा तिवारी भट्ट का कहना था -
हो शुष्कता जो पास, तो मक्खन लगाइए।
जब हो न कोई आस, तो मक्खन लगाइए।
छपतीं किताबें इतनी कि, दीमक अघा गए।
हाँ पढ़ना हो गर ख़ास, तो मक्खन लगाइए ।


डॉ अजय अनुपम का कहना था -
भाव में व्यवहार में स्वाधीन मक्खनजी
मित्रता के हैं सदा आधीन मक्खनजी
हास्य में चिन्ता उठाते व्यंग्य में चिन्तन
हैं सभी में लोकप्रिय शालीन
मक्खनजी


मयंक शर्मा ने कहा -
छल प्रपंच मन में नहीं, रखते हैं पट खोल
सौम्य भाव से बोलते, मिसरी जैसे बोल,
तरकश में अपने रखें, हास्य व्यंग्य के बाण,
मक्खन जी के काव्य के, शब्द-शब्द अनमोल


अनवर कैफ़ी ने कहा -
जश्न मिल कर यूं मनाएं आप 'मक्खन' और हम
प्यार के कुछ गीत गायें आप 'मक्खन' और हम
जब 'कशिश' आवाज़ दें 'अनवर' मुहब्बत से हमें
मिल के सब होली मनायें आप 'मक्खन' और हम


अरविंद शर्मा आनन्द का कहना था -
बेरंग होके भी मै हर रंग हो गया।
मुरादाबादी जब से संग हो गया।
मन झूम उठा है जश्ने मक्खन  में
देख जिसे हर कोई दंग हो गया।


शोएब फारुखी ने कहा -
इल्मो अदब की शान हमारे मक्खन जी
शहरे जिगर की शान हमारे मक्खन जी
हिंदी उर्दू जिन पर दोनों नाज़
करें
फख्रे हिंदुस्तान हमारे मक्खन जी


कशिश वारसी के संचालन में आयोजित इस कार्यक्रम में गगन भारती , मुईन शादाब डॉ शाकिर , डॉ कृष्ण कुमार नाज़ , नसीम वारसी ,रिफत मुरादाबादी , साहिल कुरेशी ,फरहत खान आरिफा मसूद आदि ने काव्य पाठ किया।
इस अवसर पर मुख्य रूप से नूर जमाल नूर, डॉ मनोज रस्तोगी, राशिद मुरादाबादी, अंकित भटनागर, शावेज़ एडवोकेट,   शहजाद क़मर, उबेद वारसी ,पुलकित भटनागर ,तंजीम शास्त्री ,राहुल शर्मा ,  वसीम अली, अशोक विश्नोई , प्रशांत मिश्र, आवरण अग्रवाल, चांद मियां खान,  डॉ पूनम बंसल, उमेश प्रसाद कैरे ,अखिलेश शर्मा , उमाकांत गुप्ता, मधु मिश्रा, बृजपाल सिंह यादव,अशोक विद्रोही, केपी सिंह सरल, डॉ अर्चना गुप्ता ,पंकज दर्पण ,डॉ जगदीप भटनागर ,डॉ राकेश चक्र आदि उपस्थित थे।
ग़ज़ल एकेडमी के अध्यक्ष शफक शादानी  और   हकीम अहमद मुरादाबादी  ने  आभार व्यक्त किया।

::::::::: प्रस्तुति :::::::
कशिश वारसी
सचिव
गजल एकेडमी
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत