शुक्रवार, 1 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी की कविता ------- कोई न कोई जगह तो


 कहीं न कहीं/कोई न कोई/जगह तो
मजदूरों का भी/अपना घर होती है ,
सबकुछ होता है/उनमें भी/घर जैसा ही
बस , गुजर - बसर नहीं होती है ।
ऐसे में भी/रहते आयें हैं ये
इन्हीं घरों में/संतोषी मन से ,
कम्बख़त/पेट नहीं मानता, लेकिन
ले चल पड़ता है/इनको तन से ।
यूं ही कौन छोड़ता है/अपना घर ,
छुड़वा देते हैं, लेकिन/
मजदूरी की/मजबूरी के पर ।
पेट भरण की/आस जहां भी/दिख जाती है,
मन विहीन इन तनों की/
ज़िन्दगी ठिठक/ टिक वहीं जाती है।
कमरतोड़ मेहनत से/जी-तोड़ कमाते,खाते,
जहां टिके होते जाकर/वहीं में रच,बस जाते।
ज़िन्दगी/परवान चढ़ने लगती ,
उम्मीद बढ़ने लगती ।
चाहे जैसी भी हैं, नौकरियां ,
इनकी लाचार कथा-व्यथा रूपों में
शहर-शहर/उग आती हैं/
इनके घर होकर/झुग्गी-झोंपड़िया।
इनमें ही रात कटती है ,
ज़िन्दगी की/हर बात बंटती है।
जिन विवशताओं से ये/चिपटे रहते हैं ,
उनमें इनके/सारे सुख/लिपटे रहते हैं।
ऐसी-वैसी/विपदाओं को तो
ये विपदा ही नहीं मानते ,
क्या होता है कष्ट?
इनके तन-मन/दोनों ही नहीं जानते।
जंगल-जंगल/रंगत-रौनक/चहल-पहल की
मुर्दों में जान पड़ी सी/जो भी हलचल है,
वह सब इनकी ही/कर्मठता का प्रतिफल है।
किन्तु,आज समाना/विपदा काले/
इन पर संकट/गहरा जाता है ,
तब और अधिक,जब/इनकी श्रम बूंदों से/
फलीभूत हुआ भी/कन्नीकाट हुआ होकर/पुकार इनकी पीड़ा की /नहीं है सुनता/
हो निपट बहरा जाता है ।
जब, आशाओं पर/फिर जाता है पानी,
राह भटकते देखे हैं/                           
अच्छे-अच्छे ज्ञानी-ध्यानी।
सब यादों की/छोड़ के दौलत/           
 अपने-अपने नीड़ों में ,
बीबी-बच्चों सहित/कुछ सामानों के
निकल पड़ते हैं ये/होकर शुमार भीड़ों में।
भूखे पेटों का स्वर भी/
मिल जाता है/मन के स्वर से ,
इन्हें पुकार/आने लगती है
अपने उसी पुराने घर से ।
यात्राएं हों/कितनी भी लम्बी
धुन सवार हो जाती है , इन पर/
ये खोकर उसमें/उसके ही हो जाते हैं,
पांव!रेल,बस, गाड़ियां/नहीं होते, लेकिन
जाने कैसे/हो, उड़नखटोला जाते हैं ।
ये तो/कर लेंगे फिर भी/
कर मुकाबला/बड़े-बड़े कहरों का ,
लेकिन,क्या होगा आगे/
इन शहरों के/अंधे,गूंगे, बहरों का ?

✍️  डॉ मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर, कांठ रोड
मुरादाबाद- 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9319086769

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