रचना रचनाकार के व्यक्तित्व का परिचायक होती है, मुरादाबाद के ख्यातिलब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों में श्री दयानंद गुप्त जी का साहित्य अविस्मरणीय है ।वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे ,साहित्य सृजन के साथ ही उन्होंने समाज सेवा व शिक्षा जगत को अपने औदात्य व्यक्तित्व से उज्ज्वल और प्रशस्त किया है।जीवन की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार कर उनका सामना करने को निरंतर तत्पर रहते थे । उनके व्यक्तित्व पर तत्कालीन परिवेश का गहरा प्रभाव पड़ा ,जिससे गांधी जी के आवाहन पर स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति में अपने जीवन की आहुति देने को तैयार हो गये । पेशे से वकील होते हुए भी साहित्यिक अभिरुचि रखते थे । "नैवेद्य" उनकी कविताओं का संकलन है, जिसमें जीवन के अनेक रंग देखने को मिलते हैं ।हिंदी साहित्य की दृष्टि से देखा जाय तो गुप्त जी का लेखन काल छायावाद ,प्रगतिवाद से गुजरते हुए प्रयोगवाद के समानांतर चलता रहा है जबकि उनका स्पष्ट मानना था कि मुझे किसी वाद में न बाँधा जाय ,परन्तु इन सभी रूपों का प्रभाव उनके साहित्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान निराला जैसे प्रतिष्ठित कवि के छत्रछाया में रहकर उनका कृपा प्राप्त करना किसी भी व्यक्ति के लिए गौरव का पल हो सकता है निराला जी का आशीर्वाद उनको निरन्तर मिलता रहा । उनके काव्य कृति की भूमिका निराला जी ने लिखकर उनके साहित्य को और भी प्रधान बना दिया ।
'कारवां ' ,'शृंखलाएँ ' व 'मंजिल' उनके कहानी संग्रह हैं ,जिसकी कुछ कहानियां पाठकों पर अपना अमिट छाप छोड़ती हैं ।' नेता' कहानी राजनीतिक परिपेक्ष्य को लेकर लिखी गयी कहानी है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि राजनीति के पंकिल जीवन में व्यक्ति देश सेवा के नाम पर कितना स्वार्थी हो सकता है, वह राष्ट्र ,समाज और यहां तक कि परिवार के साथ भी छल करता रहता है ,सेठ दामोदर दास जैसे पात्र जिनके लिए परिवार और स्वार्थ से ऊपर और कुछ भी नहीं है ,देश काल की दृष्टि से वह काल राजनीतिक उथल- पुथल और आजादी की क्रांतिकारी चेतना से भरा पड़ा था ,व्यक्ति और समाज के लिए राष्ट्र हित सर्वोपरि था परिवार गौण हो गया था, अपना पूरा जीवन राष्ट्रहित में समर्पण करते हुए हमारे महापुरुषों और राजनेताओं ने अपने जीवन की आहुति दे दी थी ।सेठ दामोदरदास गांधीवादी विचार धारा से प्रभावित थे ,अपनी पार्टी में प्रभावशाली स्थान रखते थे, उनकी व्यस्तता व दैनिक क्रियाकलाप उनके देशप्रेमी होने के प्रमाण देते हैं ,यहाँ तक कि अपनी पत्नी और पुत्री के लिए भी उनके पास समय नहीं होता था ,उनका कहना था कि - " हमें मानव में विभिन्नता पैदा करने का अधिकार कहाँ ? अपने सम्बन्धियों को औरों से अधिक प्रेम करने का हमें कोई हक नहीं ।" इस सम्वाद से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन परिवेश में ईमानदारी और सच्चरित्र कितना मायने रखता था, उनका पूरा जीवन देशहित व सामाजिक उत्थान के लिए होम हो जाता है।सेठ दामोदरदास अपने परिवार में पत्नी व छोटी बच्ची से प्रेम तो बहुत करते हैं ,पर उसे प्रकट करने का उनके पास समय न होता था, उनके इस व्यवहार से उनकी पत्नी का हृदय बहुत ही आहत होता था । गीत सुनने का आग्रह करना, और उस भावनात्मक वक़्त में भी, उन्हें अपने भाषण के लिए नोट तैयार करते देख पत्नी को चोट पहुंचती है -- गीत तो आप कहीं भी सुन सकते थे, मेरी ही क्या जरूरत थी .....उनके अपमानित स्त्रीत्व की ज्वाला निकल रही थी ।
' विद्रोही ' कहानी में गुप्त जी ने एक कलाकार की सौंदर्यात्मक दृष्टि पर प्रकाश डाला है, कि कैसे एक कलाकार सौंदर्य के कल्पना लोक में विचरता रहता है और रूप के मादकता में डूबा रहता है।सौंदर्य प्रिय कलाकार अपने निर्मित छायाचित्र में इतना तल्लीन रहता है कि उसका सामाजिक यथार्परक जीवन से कोई वास्ता नहीं रह जाता है, वह चाहता है कि इस सौंदर्य साधना को समाज का हर व्यक्ति समझे ,उपेक्षित दुराग्रह से वह कुंठित मानसिकता से ग्रस्त हो जाता है, क्योंकि जिस तरह की कला को वह श्रेष्ठ समझता है वह सामाजिक धरातल पर अश्लीलता की श्रेणी में आता है।धीरे -धीरे कुंठित होता हुआ कलाकार की चेतना ,अवचेतन मन मे संग्रहित होती विचारधारा में अपने जीवन का स्वर्णिम पल हारने लगता है, क्योंकि जीवन में हर व्यक्ति के लिए सौंदर्य की अलग -अलग सत्ता होती है, हतोत्साहित कलाकार विद्रोही हो समाज से कटने लगता है ।
'नया अनुभव ' कहानी लेखक की गांधीवादी विचारधारा को स्पष्ट करती है ,कहानी का मुख्य पात्र रामजीमल अनेक बुराइयों से ग्रस्त है, चोरी के इल्जाम में उसे जेल भी जाना पड़ता है ,जेल से लौटने के बाद उसे कोई नौकरी या काम धंधा देने को तैयार नहीं होता है, थका हारा ,भूखा -प्यासा एक मन्दिर में शरण लेता है ,पर उसकी लोलुप दृष्टि मंदिर में रुपयों से भरी थैली पर रहती है और रात में सबके सो जाने के बाद मौका देख कर उसे लेकर भाग जाता है, महंत के शिष्यों द्वारा पकड़े जाने पर, उसे जब महंत के पास लाया जाता है तो महंत उसका पक्ष लेते हुए कहते हुए कहते हैं कि यह थैली मैंने स्वयं ही इस को दिया है, यह सुनते ही रामजीमल के जीवन में नवीन चेतना जन्म लेती है ,उसको लगता है कि जिस समाज में अभी तक उसे उपेक्षित होना पड़ रहा था ,महंत जी के बदले हुये व्यवहार ने उसके अंदर एक नया अनुभव जागृत किया ,ग्लानि और आत्मविश्वास से भरा एक नये जीवन का जन्म होता है, जैसे लेखक यह कहना चाहता हो कि - पाप से घृणा करो ,पापी से नहीं ,महंत उसे सुधरने का एक मौका देता है ।
'न मंदिर न मस्जिद ' कहानी में लेखक को धार्मिक उन्माद में आशावाद और सकारात्मक चेतना का स्पष्ट दर्शन दिखता है ,लगातार कम हो रहे एहसास और अपनेपन के प्रति गुप्त जी चिंतित तो हैं ही,हमारे सामाजिक परिवेश में छिन्न - भिन्न होती नैतिकता को लेकर अशांत है, आज की विद्रूप व्यवस्था, जहां समस्याओं का अंबार तो है, लेकिन समाधान नहीं है ।आज हम समस्याओं से दुखी नहीं, बल्कि समस्या हमारी मूर्खताओं से दुखी है, जहां हम समस्या को समस्या की तरह न लेकर उसका समाधान केवल धर्म या राजनीति में ही खोजते हैं, जिससे समस्या दुखी होती है और समाधान नदारद । धार्मिक उन्माद किस तरह समाज को खोखला बनाकर, व्यक्ति को सामाजिक जीवन मूल्यों से दूर कर देती है। धर्म के ठेकेदार धर्म के आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं और आम आदमी को हिंदू-मुस्लिम या मंदिर-मस्जिद के नाम पर मतभेद पैदा करते हैं,इस कहानी के माध्यम से गुप्त जी के विचार हिंदू-मुस्लिम एकता के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए देखा जा सकता है, आज वर्तमान में इस कहानी की प्रासंगिकता सिद्ध होती दिखती है, क्योंकि आज धर्म के नाम पर ओछी राजनीति समाज की एक बहुत बड़ी समस्या है ।
' परीक्षा ' कहानी भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक छाप छोड़ती है ,बनारस के गौरवशाली संगीत परम्परा में नृत्य का एक स्वर्णिम अतीत रहा है एक नर्तकी जिसके लिए धन -दौलत और रूप का लावण्य ही सर्वोपरि है। एक भिक्षु के निवेदन पर सशर्त अपना जीवन नये दृष्टि कोण से जीना चाहती है। नर्तकी कनक की सभा में एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली व वैभव सम्पन्न संगीत प्रेमियों का तांता लगा रहता है, वहाँ पर एक भिक्षुक का आना अप्रत्याशित सा लगता है, परन्तु कनक उसकी चुनौती को सहर्ष स्वीकार करती है और भिक्षुक के बनाये शर्तों के अनुरुप जीवन यापन करने को तैयार हो जाती है, किस प्रकार वासना पूरित जीवन कुछ ही दिनों में वैरागी हो जाता है ,जो नर्तकी नाच - गाने को अपने जीवन का श्रेष्ठतम मानती हो ,वहीं उन सबसे दूर रहकर भक्ति में तल्लीन हो जाती है और उसका हृदय परिवर्तन हो उठता है, अन्ततः उस भिक्षु को अपना गुरु मानते हुए सारा ऐश्वर्य छोड़कर विलासिता के जीवन से विमुख हो जाती है, सारा राग -रंग विलुप्त होने लगता है, इस प्रकार मोह -माया का जीवन त्याग कर भक्ति- मार्ग पर निकल पड़ती है ,यह कहानी गौतम बुद्ध और आम्रपाली की यादों को ताजा कर देती है गुप्त जी की यह कहानी स्त्री जीवन के सुधारात्मक पक्ष को प्रस्तुत करती है । वास्तव में जो लोग सामाजिक मान्यताओं से ऊपर उठकर जीवन जीते हैं के सामान्य स्थिति व असमान्य स्थिति दोनों में ही अलग दिखाई देते हैं ।
गुप्त जी भी सामान्य जीवन व आचार- विचार का समर्थन करते हुए दिखते हैं जो उनके वैचारिक रूप से सम्पन्न भाव व आम आदमी की पीड़ा को कोरी कल्पना शीलता से अधिक मानते हैं, यथार्थ जीवन से लगाव ,उनका स्वभाव बन चुका था, उनकी कहानियां सीधी -सरल भाषा में हमारे नैराश्य जीवन के अन्तस् में झांककर हमें नई आशा के प्रति एक आश्वस्ति- बोध भरती है जो कि एक अनूठापन है। जीवन का आपाधापी और अंधापन ,जहां हर व्यक्ति इतनी जल्दी में हो कि वह हर लक्ष्य पर नैराश्य ही अनुभव कर रहा है ,आज प्रेम महज औपचारिकता के कुछ भी नहीं है, हमारा अनुभव चूक चला है और भरोशे प्रायः खत्म हो चुके हैं, ऐसे में उनकी सीधी -सरल भाषा कहानी में सपाट बयानी की एकता का रूपक गढ़ रही है ।एक सच्चे साहित्यकार का जीवन कबीर का जीवन है जो कर्तव्य के साथ -साथ समाज को दिशा देने का संकल्प लेकर निरन्तर चलता रहता है और ये कार्य गुप्त जी अपनी प्रखर चेतना से कर रहे थे ,इस प्रकार उनकी कहानियों में जीवन अनेक रूपों में रूपांतरित हुआ है ।
✍️ डॉ मीरा कश्यप, विभागाध्यक्ष हिंदी, के .जी .के .महाविद्यालय, मुरादाबाद 244001,उत्तर प्रदेश, भारत
बहुत-बहुत सारगर्भित विस्तृत आलेख। हार्दिक धन्यवाद व शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद ।
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