::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
संस्थापक
साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
संस्थापक
साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
*** हिंदी कविता ख़त्म होने की घोषणाएँ उन्हीं लोगों ने कीं, जो उससे जुड़े नहीं रहे
*** अपना माल बेचने वाले दुकानदारों का जमावड़ा हिंदी काव्य-मंच
*** अपने समय और व्यापक समाज के दुख-दर्द का संवाहक बना है नवगीत।
कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है। यदि यह बात सच है, तो यह भी सत्य है कि दर्पण ज़िंदगी की आवश्यकता है। इस प्रकार साहित्य जि़ंदगी की अहम ज़रूरत हुआ।
हिंदी काव्य साहित्य में गीत का महत्वपूर्ण स्थान है। गीत पर चर्चा हो और नवगीतकार माहेश्वर तिवारी का उसमें जि़क्र न हो, यह असंभव है। एक बातचीत के दौरान जब उनसे यह पूछा जाता है कि हिंदी कविता की वर्तमान में क्या स्थिति है, तो इस प्रश्न का उत्तर वह विस्तार से देते हैं। कहते हैं- ‘‘हिंदी कविता समाप्त हो गई है, वह मर गई है, ऐसी घोषणाएँ पिछले दिनों राजेंद्र यादव और सुधीश पचौरी जैसे लोगों ने कीं। ये घोषणाएँ ऐसे लोगों की थीं जो कविता या उसकी समीक्षा से जुड़े हुए नहीं हैं और समय-समय पर कुछ अप्रत्याशित घोषणाएँ करते हुए चर्चा में बने रहने का प्रयास करते रहते हैं।’’
श्री तिवारी कहते हैं कि कविता आज भी लेखन की केंद्रीय विधा है। प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में प्रकाशित होने वाली पुस्तकें इसका प्रमाण हैं। हालाँकि वह इस बात को भी स्वीकारते हैं कि पुस्तकों की इस ‘बड़ी संख्या’ में कूड़ा करकट भी कम नहीं होता। वह बताते हैं कि आज हिंदी कविता विश्व कविता के समानांतर उससे आँखें मिलाते हुए खड़ी है। यह अलग बात है कि अन्यान्य साहित्येतर कारणों से उसका जन संवाद पहले की अपेक्षा कुछ कम हुआ है। श्री तिवारी कई कवियों के नाम गिनाते हैं कि अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, नरेंद्र जैन, स्वप्निल श्रीवास्तव, ध्रुव नारायण गुप्ता, कात्यायनी, चम्पा वैद्य, गगन गिल जैसे असंख्य मुक्तछंद के कवि ही नहीं, बल्कि डा. शिव बहादुर सिंह भदौरिया, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, कुमार रवींद्र, गुलाब सिंह, अमरनाथ श्रीवास्तव, अवध बिहारी श्रीवास्तव, शतदल, यश मालवीय जैसे अनेक गीत कवि भी महत्वपूर्ण लेखन में निरंतर सक्रिय हैं। उनका कहना है कि डा. रामदास मिश्र, केदारनाथ सिंह आदि ही नहीं, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री से लेकर लीलाधर जगूड़ी, विनोद कुमार शुक्ल, कुमार अंबुज, एकांत श्रीवास्तव, बद्री नारायण आदि तक एक साथ कई पीढि़याँ कविता लेेखन में सक्रिय है।
नवगीत का प्रयोग और वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता के सवाल पर श्री तिवारी कहते हैं कि हिंदी में नवगीत का जन्म ऐतिहासिक कारणों से हुआ। छायावादोत्तर गीत काव्य में जब कविता बेडरूम आदि के चित्रा परोसने में लग गई, तब गीत के नए रूप की तलाश आवश्यक हो गई। कविता के पुराने अलंकरणों को छोड़ने की बात निराला और पंत पहले ही कर चुके थे। वह मुक्त छंद में पहले ही घटित हो गया। इसलिए नई शैली के गीतों को पुराने गीतों से अलग करने के लिए उन्हें ‘नवगीत’ नाम दिया गया।
श्री तिवारी बताते हैं कि नवगीत का स्वरूप अपने कथ्य और बिंब विधान में नया था ही, उसने अपनी छांदसिक बुनावट के लिए निराला के ‘नवगति, नवलय, ताल-छंद नव’ को आधार बनाया। नवगीत जब तक अपने समय और व्यापक समाज के दुख-दर्द का संवाहक बना रहेगा, उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़ा करना स्वयं अप्रासंगिक होगा।
नवगीत के पक्ष में श्री तिवारी कुछ कवियों के नवगीतों की पक्तियाँ भी उदाहरण स्वरूप सुनाते हैं-
पुरखे थे। पेड़ बने
हाथों में पंछी के घोंसले लिए
छाया नीचे, मीठे फल ऊपर
मिल जाते बिन जतन किए,
आँधी में। वे फल टूट झरे
- दिनेश सिंह
क्या बतलाएँ
कुछ भी निश्चित नहीं रहा अब
नंदन वन में
नियम पुराने। टूटे सारे
न जिसकी जो मरज़ी करता है
सूरज। लाता है अंधियारे
बे-मौसम पत्ता झरता है
फूल खिलें। अगले बसंत में नहीं ज़रूरी
- कुमार रवींद्र
पेड़ अब भी आदिवासी हैं
पेड़ खालिस पेड़ हैं अब भी
पेड़ मुल्ला हैं, न पंडित हैं न पासी हैं
- सूर्यभानु गुप्त
श्री तिवारी बताते हैं कि नवगीत में प्रगतिशीलता की चर्चा करते हुए श्री ‘रंग’ ने ‘शताब्दी के अंत में नवगीत का प्रगतिशील पथ और चुनौतियाँ’ शीर्षक वाले लेख में लिखा है कि शताब्दी के अंत में प्रगतिशील गीतकारों ने सामाजिक, सरकारी तंत्र, मानवीय संबंध तथा उत्पादन और उपभोग के समस्त मानवीय चक्र के द्वंद्व को पूरी ईमानदारी से उजागर किया है।
वर्तमान में नई कविता की स्थिति के विषय में श्री तिवारी कहते हैं कि यह विडंबना है कि प्राध्यापकीय जगत में मुक्तछंद की कविता के प्रति आचार्य रामचंद्र शुक्ल का फ़तवा आज भी सर्वमान्य-सा ही है।
श्री तिवारी कहते है कि मुक्तछंद वाली कविता छंदमुक्त नहीं है, सिर्फ़ यह समझने की ज़रूरत है। वह नई कविता के साथ एक विडंबना और बताते हैं कि इसकी पाठ शैली हिंदी में वैसी विकसित नहीं हुई है, जैसी बंगला में। साथ ही प्रश्न भी करते हैं कि विश्व की तमाम भाषाओं में नई हिंदी कविता के अनुवाद और अनेक देशों में उनका कविता के रूप में ही पठन-पाठन क्या यह सिद्ध नहीं करता कि हिंदी की नई कविता विश्व कविता के परिवार में शामिल हो गई है।
हिंदी काव्य मंचों की वर्तमान स्थिति से श्री तिवारी बेहद चिंतित हैं, कहते हैं कि आज हिंदी काव्य मंचों की स्थिति काफ़ी ख़राब है। इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो हिंदी काव्य मंच अब कविता या कवियों का मंच नहीं रह गया है, वह अपना-अपना माल बेचने वाले दुकानदारों का जमावड़ा बन गया है।
हिंदी कवियों के हास्य कविताओं की ओर बढ़ते रुझान के विषय में श्री तिवारी कहते हैं कि हास्य जीवन के लिए आवश्यक है, लेकिन वह भी जब बाज़ार में बिकने वाली वस्तु बन जाए तो उसके प्रति ऐसे लोगों का रुझान बढ़ेगा ही जो कविता से कम, धनोपार्जन में अधिक दिलचस्पी रखते हैं। हिंदी कवियों का अधिकाधिक हास्य की ओर रुझान बाज़ार की शक्तियों से निर्धारित और प्रेरित हो रहा है, उसके पीछे गहरे साहित्यिक मूल्यों से लगाव नहीं है।
व्यंग्य कविता से क्या अभिप्राय है, इस प्रश्न पर श्री तिवारी का कहना है कि ‘व्यंग्य’ शब्द अंग्रेजी के ‘सटायर’ शब्द के आधार पर निर्मित है। वि+अंग की संधि से व्यंग शब्द बना है, जिसका अर्थ है चुहुल या परिहास अथवा विसंगतियों पर कटाक्ष। इसका प्रयोग वेदों में भी ढूँढा जा सकता है, किंतु नाट्य शास्त्र में इसके स्पष्ट संकेत मिलते हैं।
वर्तमान में अधिकतर कवियों द्वारा अछांदिक कविता लखे जाने के प्रश्न पर श्री तिवारी कहते हैं कि कविता अछांदिक नहीं होती। गड़बड़ी यह हुई कि छांदसिकता के लिए ‘तुक’ को अपरिहार्य मान लिया गया, जबकि ‘लय’ महत्वपूर्ण है। यदि ‘तुक’ को ही आधार माना जाए, तो वैदिक रिचाएँ भी अछांदिक मानी जानी चाहिएँ, जबकि ऐसा नहीं है। यहाँ तक कि लोकगीतों में भी छंद का विधान वैसा नहीं है, जैसा मोटे तौर पर सोचा-समझा जाता है।
इस दौर में काव्य मंच और साहित्य में सामंजस्य समाप्त होता जा रहा है? इस प्रश्न के उत्तर में श्री तिवारी का कहना है कि मंच और साहित्य में सामंजस्य लगभग सन् 1960 तक रहा। बाद में जैसे-जैसे मंच पर बाज़ार हावी होता गया, दोनों के रिश्तों में फ़र्क़ आता गया। यह सामंजस्य फिर से बनाया जा सकता है, पहले छोटी-छोटी गोष्ठियों और फिर व्यापक जन-संवाद के माध्यम से। पहले मंच साहित्य का मंच था, जिसे मनोरंजन के मंच में तब्दील कर दिया गया, जबकि साहित्य का प्रयोजन सस्ता मनोरंजन नहीं, बल्कि अनुरंजन के साथ जन-रुचियों और संस्कारों को उदात्त बनाना रहा है।
वर्तमान में काव्य मंचों पर गीत की स्थिति पर चर्चा करते हुए श्री तिवारी एक पंक्ति सुनाते हैं- ‘अब दादुर वक्ता भए तुमको पूछे कौन’। ठीक इसी जैसी स्थिति मंच पर गीत की है। वह स्वर्गीय वीरेंद्र मिश्र के गीत की पंक्तियाँ भी सुनाते हैं-
गीत वह
जो पढ़ो झूम लो
सिर्फ़ मुखड़ा पढ़ो
चूम लो
तैरने दो समय की नदी
डूबने का निमंत्रण न दो,
वह कहते हैं कि अब मंच पर गीत के नाम पर ऐसे भी तथाकथित कवि आते जा रहे हैं, जिनकी रचनाएँ समय की नदी में सफलतापूर्वक तैरकर पार हो जाने की जगह अपने श्रोता को सिर्फ़ डुबोती हैं। फिर हास्य और तथाकथित ओज का मंच पर क़ब्ज़ा भी गीत को उसके स्थान पर बेदख़ल करने में ही लगा हुआ है।
कवियों और कविताओं की जनता से क्या अपेक्षाएँ हैं? इस प्रश्न पर श्री तिवारी कहते हैं कि इन्हीं संदर्भों में एक प्रश्न और भी महत्वपूर्ण है कि जनता कविता सुनने आती है या नाटक-नौटंकी का मज़ा लेने? कविता सुनने की कुछ शर्तें होती हैं। उसके लिए श्रोता के मन में कविता के संस्कार होने चाहिएँ। मूँगफली बेचने वालों या चाट का ठेला लगाने वालों में कविता के संस्कार की बात बेमानी है। उन्हें तो चुटकुले और काव्यपाठ में कुछ नाटकीयता भली लगती है। पहले लोग कविता के पास आते थे, अब कविता ही लोगों के पास जाने लगी है। कवि भी वैसा ही तर्क देने लगे हैं, जैसा सिनेमा वाले यानी आम जनता की रुचि की बात। जब कविता जनरुचि से निर्धारित होगी और कला मूल्यों को पीछे छोड़ दिया जाएगा, तो यही होगा जो हो रहा है।
वह कहते हैं कि सीमित वर्ग में गोष्ठियों की बात मैं इसलिए करता हूँ कि वहाँ कविता अपनी शर्तों के साथ लोगों के पास जाएगी, लोगों की रुचि से संचालित होकर नहीं, अन्यथा उसकी भी वही स्थिति होगी, जो बाज़ार में फ़ैशनेबुल साबुनों, तेलों और सौंदर्य प्रसाधनों की है। आम साबुन का गुण अब मैल साफ़ करना नहीं, गोरापन बढ़ाना हो गया है।
हिंदी-ग़ज़ल और उर्दू-गीत की साहित्य में क्या स्थिति है? इस प्रश्न पर श्री तिवारी का कहना है कि हिंदी-ग़ज़ल एक गढ़ा हुआ नाम है। हिंदी कवियों द्वारा लिखी गई ग़ज़ल को मैं ज़्यादा से ज़्यादा हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहता हूँ।
निराला, त्रिेलोचन, आचार्य जानकी बल्लम शास्त्री, शमशेर बहादुर सिंह, शंभुनाथ शेष, बलवीर सिंह रंग आदि ने तो हिंदी-ग़ज़ल नाम का प्रयोग नहीं किया, फिर आज क्यों? फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने एक बार कहा था कि ग़ज़ल को जि़ंदा रखने की उम्मीद अब हिंदी वालों से है, लेकिन उन्होंने भी इसे हिंदी-ग़ज़ल का नाम नहीं दिया। श्री तिवारी कहते हैं कि हिंदी भाषा की प्रकृति ही ग़ज़ल की बनावट के अनुरूप नहीं है। यह हिंदी कविता की जातीय परंपरा को बाधित या नष्ट करने में भी कारक हो सकती है। फिर ग़ज़ल लिखने वाले हिंदी कवि, पूर्व उल्लिखित कवियों को छोड़ दिया जाए तो ग़ज़ल की परंपरा और उसके व्याकरण से अपरिचित हैं। नये लोगों में कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन क़तार में शामिल तमाम लोग हिंदी-कविता परंपरा ही नहीं, ग़ज़ल के साथ भी दुराचार करने में लीन हैं।
वह उर्दू गीत की स्थिति को तो और भी दयनीय बताते हैं कि उर्दू गीत न तो लोकगीत की परंपरा से प्राणरस ग्रहण करते हैं और न स्वस्थ साहित्यिक गीतों की परंपरा से। वे तो प्राचीन सिनेमा के गीतों के समक्ष भी खड़े नहीं हो पाएँगे। उन्हें सुनकर हँसी आती है।
इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया के कविता पर प्रभाव के विषय में श्री तिवारी कहते हैं कि इलेक्ट्रानिक मीडिया इतना प्रभावशाली नहीं हुआ है कि वह कविता को प्रभावित कर सके। आकाशवाणी का पहले, जब प्रोड्यूसर का पद हुआ करता था और इस कार्य को कोई सृजनधर्मी ही सँभालता था, अवश्य कुछ सीमा तक प्रभाव रहा। तब साहित्यिक प्रसारण लोग ध्यान से सुनते थे। दूरदर्शन के एकाध कार्यक्रम को अपवाद मान लिया जाए तो उसके अधिकतर प्रसारण बाज़ार से उठाए गए माल का उपयोग ही हैं।
उनका कहना है कि प्रिंट मीडिया में ‘आज’ जैसे अख़बार तथा सरस्वती, ज्ञानोदय, कल्पना, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान व वसुधा जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित साहित्य ने नए रचनाकारों को प्रेरित-प्रभावित किया। कुछ हद तक यह कार्य हिंदुस्तान दैनिक तथा जनसत्ता के रविवासरीय अंकों ने भी किया। उस भूमिका में आज कुछ लघु पत्रिकाएँ भी अपना काम कर रही हैं। श्री तिवारी कहते हैं कि अपनी जानकारी के अनुसार मैं यह कह सकता हूँ कि ‘आज’ ने हिंदी के कई कवियों- कथाकारों को स्थापित होने में सहयोग दिया। वर्तमान में इलेक्ट्रानिक मीडिया की स्थिति तो व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं से भी ज़्यादा घटिया है।
(1)
मुड़ गये जो रास्ते चुपचाप
जंगल की तरफ ।
ले गये वे एक जीवित भीड़
दलदल की तरफ ।
आहटें होने लगीं सब
चीख में तब्दील
है टंगी सारे घरों में
दर्द की कन्दील
मुड़ गया इतिहास फिर
बीते हुये कल की तरफ ।
हैं खड़े कुछ लोग उस
अंधे कुंये के पास
रोज जिससे है निकलती
एक फूली लाश
फैंक देते हैं उठाकर जिसे
हलचल की तरफ ।
(2)
एक अराजक संशय में
घिरे हुये हैं सब
रंगों से, ध्वनियों से भरे हुये लोग ।
भरी-भरी आंखों से
पेड़ को निहारते
बार-बार रिश्तों का
नाम ले पुकारते
आंधी में
पत्तों से
झरे हुए लोग ।
संवेदनशून्य हुई
खाली आकृतियां
आसपास घूम रहीं
काली आकृतियाँ
बैठे हैं
चिड़ियौ से
डरे हुए लोग ।
(3)
अक्सर हम
तनहा होते हैं जब
एक प्रश्न बार-बार
खुद को दुहराता है।
पंजों में दाब कर
हवा उड़ती
जली हुई चमड़ी की गन्ध
रोक नहीं पाते हैं उसे
इत्र में डूबे
रूमालों वाले ये
अनगिन प्रतिबन्ध
कौन हमें
चूल्हे की आंच में
जिन्दा खरगोश सा पकाता है ।
अपनी ही
आन्तरिक हिफाजत में
हो जाते हैं हम सब कैद
लट्ठे के थान सा
धुला हुआ
लगता आकाश यह सफेद
तेज आँच में
सारी हड्डियाँ तड़कती हैं
कौन इस तरह हमको
भीड़ में बजाता है ।
(4)
कुछ नहीं है,
बाँझ सी यह हवा
बैठी डाल पर टांगें हिलाती है।
एक कोई बात थी
जो अभी कौवे के गले से
फूट कर निकली
कर रही है वह तभी से
पत्तियों के कान में
बारीक सी चुगली
पंख खोले धूप में कब से
एक गौरैया नहाती है ।
बोलते कुछ भी नहीं है
ताल के तट पर
पड़े घोंघे
न जाने किन खूंटियों के
आसरे
पेड़ है : आकाश में
लटके हुए चोंगे
एक मछली डूब कर गहरे
फिर सतह पर लौट आती है।
(5)
मेरे भीतर एक अभंग
जगाता है कोई
बतियाता है
हल्के सुर में
उठती जैसे
ध्वनि नूपुर में
मेरे अंग-अंग में बैठा
गाता है कोई
अब अनहद का
स्वर हूं केवल
लगता स्वर ही
स्वर हूं केवल
स्वर के कपड़े लाकर मुझे
पिन्हाता है कोई।
(6)
आसपास
जंगली हवाएँ हैं,
मैं हूँ।
पोर-पोर
जलती समिधाएँ हैं
मैं हूँ।
आड़े-तिरछे
लगाव
बनते आते
स्वभाव
सिर धुनतीं
होठ की ऋचाएँ हैं
मैं हूँ।
अगले घुटने
मोड़े
झाग उगलते
घोड़े
जबड़ों में
कसती वल्गाएँ हैं
मैं हूँ।
(7)
हम पसरती आग में
जलते शहर हैं।
एक बिल्ली
रात भर चक्कर
लगाती है
और दहशत
जिस्म सारा
नोच जाती है
हम झुलसते हुए
वारूदी सुरंगों के
सफर हैं।
कल उगेंगे
फूल बनकर हम
जमीनों में,
सोच को
तब्दील करते
फिर यकीनों में
आज तो
ज्वालामुखी पर
थरथराते हुए घर हैं।
(8)
घर न रह गए
अब, घर जैसे
जीवन के हरियालेपन पर
उग आए हों
बंजर जैसे।
रिश्तों की
कोमल रचनाएँ
हमको अधिक
उदास बनाएँ
दादी वाली
किस्सागोई
शापग्रस्त है
पत्थर जैसे।
बाहर हँसते
भीतर रोते
नींद उचटती
सोते-सोते
शब्द बने परिवार
टूटकर
बिखर रहे हैं
अक्षर जैसे।
कोने-कोने
लहू-लहू है
जलते चमड़े की
बदबू है
संज्ञाएँ उड़ रहीं
हवा में
चिड़ियों के
टूटे पर जैसे।
(9)
खुद से खुद की
बतियाहट
हम, लगता भूल गए।
डूब गए हैं
हम सब इतने
दृश्य कथाओं में
स्वर कोई भी
बचा नहीं है
शेष, हवाओं में
भीतर के जल की
आहट
हम, लगता भूल गए।
रिश्तों वाली
पारदर्शिता लगे
कबंधों-सी
शामें लगती हैं
थकान से टूटे
कंधों-सी
संवादों की
गरमाहट
हम, लगता भूल गए।
(10)
इस रेतीले मौसम में
धारदार कोई तो हो
सिर से पाँवों तक
नहला दे
मूर्छित विश्वासों वाले पठार
ढक जायें
आकर हाथों से
सहला दे
पातहीन डालों की भीड़ में
हरसिंगार कोई तो हो
उलझे बालों में
कंघी जैसा
फँसा रहे
तार-तार सुलझाने तक
खिंचा रहे
क्षितिजों पर
इन्द्रधनुष
अगली ऋतु आने तक
अपने में अपने को
ढूँढता बार-बार
कोई तो हो।
:::::प्रस्तुति::::;
डॉ मनोज रस्तोगी
संस्थापक
साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
मुरादाबाद
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' के तत्वावधान में गौड़ ग्रीशियस काँठ रोड, मुरादाबाद स्थित 'हरसिंगार' भवन में साहित्यकार माहेश्वर तिवारी के जन्मदिन एवं उनकी रचनाधर्मिता के सात दशक पूर्ण होने के अवसर पर पावस-गोष्ठी, संगीत संध्या एवं सम्मान समारोह का आयोजन किया गया जिसमें वरिष्ठ साहित्यकार डॉ अजय अनुपम को अंगवस्त्र, प्रतीक चिन्ह, मानपत्र, श्रीफल तथा सम्मान राशि भेंटकर "माहेश्वर तिवारी साहित्य सृजन सम्मान" से सम्मानित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता देहरादून निवासी देश के सुप्रसिद्ध गीतकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने की। मुख्य अतिथि विख्यात व्यंग्यकवि डॉ.मक्खन मुरादाबादी रहे। कार्यक्रम का संचालन योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने किया।
कार्यक्रम का शुभारंभ सुप्रसिद्ध संगीतज्ञा बालसुंदरी तिवारी एवं उनकी संगीत छात्राओं- लिपिका सक्सेना, संस्कृति, प्राप्ति गुप्ता, सिमरन, आदया एवं तबला वादक लकी वर्मा द्वारा प्रस्तुत संगीतबद्ध सरस्वती वंदना से हुआ। इसके पश्चात उनके द्वारा सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी के गीतों की संगीतमय प्रस्तुति हुई- "बादल मेरे साथ चले हैं परछाई जैसे/सारा का सारा घर लगता अंगनाई जैसे।" और- "याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे/जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे।"
पावस गोष्ठी में यश भारती से सम्मानित सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने गीत पढ़ा-
"आज गीत गाने का मन है,
अपने को पाने का मन है।
अपनी चर्चा है फूलों में,
जीना चाह रहा शूलों में,
मौसम पर छाने का मन है।"
सुप्रसिद्ध गीतकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने गीत प्रस्तुत किया-
"प्यास हरे कोई घन बरसे,
तुम बरसो या सावन बरसे,
एक सहज विश्वास संजोकर,
चातक ने व्रत ठान लिया है,
अब चाहे नभ से स्वाती की,
बूँद गिरे या पाहन बरसे।"
विख्यात कवि डॉ.मक्खन मुरादाबादी ने गीत प्रस्तुत किया-
"उन गीतों में मिला महकता,
इस माटी का चंदन,
जिनका अपना ध्येय रहा है,
सौंधी गंधों का वंदन।"
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अजय 'अनुपम' ने सुनाया-
"राह कांँटों भरी थी सहल हो गई,
चाह मेरी कुटी से महल हो गई,
मैं झिझकता रहा बात कैसे करूं,
आज उनकी तरफ़ से पहल हो गई।"
मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज ने ग़ज़ल पेश की-
"ज़िंदगी तेरे अगर क़र्ज़ चुकाने पड़ जाएं,
अच्छे-अच्छों को यहां होश गंवाने पड़ जाएं,
साफ़गोई है किसी अच्छे तअल्लुक़ की शर्त,
वादे ऐसे भी न हों जो कि पुराने पड़ जाएं।"
कवयित्री विशाखा तिवारी ने रचना प्रस्तुत की-
"आज व्याकुल धरती ने
पुकारा बादलों को।
मेरी शिराओं की तरह
बहती नदियाँ जलहीन पड़ी हैं।"
वरिष्ठ ग़ज़लकार ओंकार सिंह 'ओंकार' ने सुनाया-
"बारिश में सड़कें हुई हैं गड्ढों से युक्त।
जाम लग रहे हर जगह वाहन सरकें सुस्त।
हरियाली फैला रही चहुंदिसि ही आनंद।
बूँदों से हर खेत में, महक उठे है छंद।
कवि वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी ने गीत सुनाया-
"मुँह पर गिरकर बूँदों ने बतलाया है,
देखो कैसे सावन घिरकर आया है।
बौछारों से तन-मन ठंडा करने को,
डाल-डाल झूलों का मौसम आया है।"
कवयित्री डॉ पूनम बंसल ने सुनाया-
"कभी गरजते कभी बरसते,
रंग जमाते हैं बादल।
सदियों से इस तृषित धरा का,
द्वार सजाते हैं बादल।"
कवि समीर तिवारी ने सुनाया-
"बदल गया है गगन सारा,सितारों ने कहा।
बदल गया है चमन हमसे बहारों ने कहा।
वैसे मुर्दे है वही सिर्फ अर्थियां बदली।
फ़क़ीर ने पास में आकर इशारों से कहा।"
कवि डॉ.मनोज रस्तोगी ने रचना प्रस्तुत की-
"नहीं गूंजते हैं घरों में अब,
सावन के गीत
खत्म हो गई है अब,
झूलों पर पेंग बढ़ाने की रीत
नहीं होता अब हास परिहास,
दिखता नहीं कहीं सावन का उल्लास।"
कवि योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने पावस दोहे प्रस्तुत किये-
"भौचक धरती को हुआ, बिल्कुल नहीं यक़ीन।
अधिवेशन बरसात का, बूँदें मंचासीन।
पल भर बारिश से मिली, शहरों को सौगात।
चोक नालियां कर रहीं, सड़कों पर उत्पात।"
" शायर ज़िया ज़मीर ने ग़ज़ल पेश की-
"हमारे शहर में बादल घिरे हैं, तुम्हारे शहर में क्या हो रहा है।
वो आंखें ऐसी भी प्यारी नहीं हैं,न जाने यह हमें क्या हो रहा है।"
दोहाकार राजीव 'प्रखर' ने दोहे प्रस्तुत किए-
"मीठी कजरी-भोजली, बल खाती बौछार।
तीनों मिलकर कर रहीं, सावन का शृंगार।
मानुष मन है अश्व सा, इच्छा एक लगाम।
जिसने पकड़ी ठीक से, जीत लिया संग्राम।"
कवि मनोज मनु ने गीत सुनाया-
"रिमझिम बरखा आई, झूम रे मन मतवाले,
काले काले बदरा घिर-घिर के आते हैं,
अंजुरी में भर-भर के बूंद-बूंद लाते हैं,
बूंद -बूंद भर देती खाली मन के प्याले, "
प्रो ममता सिंह ने सुनाया-
"मोरे जियरा में आग लगाय गयी रे, सावन की बदरिया।
मोहिं सजना की याद दिलाय गयी रे, सावन की बदरिया।
जब जब मौसम ले अंगडाई और चले बैरिनि पुरवाई।
मोरी धानी चुनरिया उड़ाय गयी रे सावन की बदरिया।"
हेमा तिवारी भट्ट ने सुनाया-
"बोया था रवि बीज मैंने,
रात्रि की कोमल मृदा में,
तम गहन ऊर्जा में ढलकर,
अंकुरा देखो दिवस बन।"
काशीपुर निवासी डॉ ऋचा पाठक ने सुनाया-
"एक बदरिया आँखों में ही सूख गयी ज्यों न दिया।
पकी फ़सल कैसे ढोये, अब सोचे हारा हरिया।
बामन ने ये साल तो पर कै भला बताये रे।"
मयंक शर्मा ने सुनाया-
"प्रिय ने कुंतल में बँधी खोली ऐसे डोर।
मानो सावन की घटा घिर आई चहुँओर।
बूँदों के तो घर गई एक रंग की धूप।
लेकर निकली द्वार से इंद्रधनुष का रूप।"
संतोष रानी गुप्ता, माधुरी सिंह, डी पी सिंह एवं इं० उमाकांत गुप्त ने पावस के संदर्भ में अपने विचार प्रस्तुत किये। कार्यक्रम संयोजक आशा तिवारी एवं समीर तिवारी द्वारा आभार-अभिव्यक्ति प्रस्तुत की गई।
(1)
हम स्वयं से
हारते पल-पल
दिग्विजय के लिए निकले हैं
खोखली-सी
विजय-यात्राएं
हर पदानिक की
नजर में है
बैरकों से
निकलकर
सैनिक टुकड़ियां
यक्ष-प्रश्नों-सी
नगर में हैं
चुप्पियों को
सौंपकर हलचल
दिग्विजय के लिए निकले हैं
हवाओं में
तैरती कुछ
घोषणाएं हैं
अपीलें हैं
आसमानों में
कबूतर हैं ना गौरैया
सिर्फ उड़ती हुई
चीलें हैं
पांँव के नीचे
लिए दलदल
दिग्विजय के लिए निकले हैं
(2)
बदल रही है
धीरे-धीरे
भीतर बाहर की सब दुनिया
कोने-कोने
टूट-फूट
मलवा बिखरा है
कुचला हुआ
पड़ा आखिर
किसका चेहरा है
गुमसुम बैठे
सोच रहे हैं
रामू-मुनिया
है दिमाग में
खालों में भुस
भरने की पूरी तैयारी
शो पीसों में
होंगे सब तब्दील
लग रहा बारी-बारी
आम आदमी
बुत परस्त हो
या निर्गुनिया
(3)
बहुत दिनों के बाद
लौट कर
घर में आना
लगता किसी पेड़ का
फूलों, पत्तों, चिड़ियों से भर जाना
कपड़ों, बैग,
देह से सारी
गर्द झाड़ना गए सफर की
फिर से
शामिल हो जाना
उठ करके
दिनचर्या में घर की
लगता सब
छिलके उतारकर
अपने में अपने को पाना
जिन्हें पहनकर
बाहर निकले
वे चेहरे जारी लगते हैं
थम से गए
गीत के टुकड़े
कंठों में जारी लगते हैं
बातचीत के टुकड़े
बहसों का बुनकर
कुछ ताना-बाना
(4)
पेड़ों का गाना
सुना है क्या
पत्तियां ताली
बजाती हैं
और सुर में सुर
मिलाती हैं
यह कभी हमने
गुना है क्या
दे हवा जब
टहनियों पर थाप
राग सजने लगे
अपने आप
क्षण कभी ऐसा
बुना है क्या
कंठ में लेकर
जिसे चिड़िया
घोंसले में देर तक
जिसको जिया
गीत वह हमने
चुना है क्या
(5)
आ गए सपने सजा कर
बेचने वाले
तितलियों के पंख
गंधों की कथा
सोनपंखी धूप का
जो आंख में प्रतिबिंब था
आ गए सब कुछ उठा कर
बेचने वाले
हो गए तब्दील सारे
घर नई दूकान में
सज गए रिश्ते करीने से
रखे सामान में
आ गए सब कुछ चुराकर
बेचने वाले
(6)
हम विनम्रता ओढ़े
कड़ी धूप में
खड़े रह
फूलों के मोहक
पहनावे
सुख के
बड़े-बड़े सब दावे
छाती-छाती धंँसे
हुए
दलदल में पड़े रहे
बातों के
पुल टूट गए हैं
लोग तटों पर
छूट गए हैं
धाराओं के
बीच सेतु
टूटे जो बड़े रहे
(7)
मन के भीतर बैठी
नन्हीं चिड़िया गाती है
नए-नए रिश्ते
रचती
फसलों से, दानों से
सन्नाटे को चोंच
मारती
नए बहानों से
फूलों-पत्तों से बतियाती
फिर उड़ जाती है
सपने बुनती है
उड़ान के
सपनों में आकर
जब होता उदास मन
ऐसा करती है
अक्सर
आसमान को नाप-जोख कर
फिर आ जाती है
(8)
रंगों से भर गई उंगलियां फिर
तितली के पर छूने वाली
कल थीं जो
खुरदुरे लगावों से छिलल गई
आज वही रंगों के
झरनों से मिल गई
फूलों सा आज हमें
कर गई उंगलियां फिर
तितली के पर छूने वाली
हंँसी हुई जंगल के
फूलों की ताज़गी
हो गई हथेली सूरज
मन सूरजमुखी
सूनेपन को आकर
भर गई उंगलियां फिर
तितली के पर छूने वाली
(9)
इस तरफ हैं आज भी
सूखे दरख़्तों की कतारें
क्या पता नदियांँ कहांँ पर
रेत को नम कर रही हैं
बंद हैं अब भी
हरेपन से सभी संवाद
हर नया दिन धूप
पतझड़ का महज अनुवाद
पड़ रही है खेत में
हर रोज कुछ लंबी दरारें
क्या पता नदियांँ कहांँ पर
रेत को नम कर रही हैं
एक-सा चेहरा हुआ
कोंपल पुराने पात का
अब उजाला मानता
कहना अंँधेरी रात का
हर तरफ तुलसी बड़ी कातर
निगाहों से निहारे
क्या पता नदियांँ कहांँ पर
रेत को नम कर रही है
(10)
हम नदी में पड़े पत्थर से
यहां से बहकर कहांँ जाएं
थरथरी बोकर
गुजर जातीं
सभी लहरें
हम नहीं बेतट
जहांँ कुछ देर तक
ठहरें
उम्र की चादर बहुत छोटी
मिली हमको
किस तरह से पांँव फैलाएं
पास आता है कभी
बहता हुआ तिनका
नाम दे जाता
हमें कुछ
फूल पत्तों का
है पड़े इस जल महल में कैद
वर्षों से मुक्ति के क्षण किस तरह आएं
(11)
देखती है फूलघर को
टकटकी बांँधे
यह उतरती दोपहर-सी जिंदगी
फूलघर जो
एक सपना था सुबह का
हो गया है
अक्स उसका बहुत हल्का
मिली हमको
बंधु बचपन से अभी तक
एक रेगिस्तान के
लंबे सफर-सी जिंदगी
रेत जैसे
दांँत में चिपके हुए किस्से
बन गए सब
उम्र भर के हादसे-हिस्से
हम ना निर्वासित
नहीं है कैद फिर भी
जी रहे हम भी जफर-सी जिंदगी
(12)
एक तुम्हारा होना क्या से
क्या कर देता है
बेज़ुबान छत-दीवारों को
घर कर देता है
खाली शब्दों में आता है
ऐसा अर्थ पिरोना
गीत बन गया-सा लगता है
घर का कोना-कोना
एक तुम्हारा होना
सपनों को स्वर देता है
आरोहों अवरोहों से
समझाने लगती हैं
तुमसे जुड़कर चीज़ें भी
बतियाने लगती हैं
एक तुम्हारा होना
अपनापन भर देता है
(13)
मन का वृन्दावन हो जाना
कितना अच्छा है
धुला-धुला दर्पन हो जाना
कितना अच्छा है
चारों तरफ धुंध की
काली चादर फैली है
पूरनमासी खिली
चाँदनी मैली-मैली है
वंशी बनकर तुम्हें बुलाना
कितना अच्छा है
तुममें ही मिलकर खो जाना
कितना अच्छा है
सांस-सांस फिर महारास की
राधा बन जाना
जैसे मन का कोई
पूरा हो जाए सपना
चले न कोई और बहाना
कितना अच्छा है
तुमको पड़े मुझे अपनाना
कितना अच्छा है
(14)
बहुत दिन बीते
कि आया ख़त नहीं
कोई तुम्हारा
डाकिया चुपचाप आकर
गुज़र जाता है
दोपहर की धूप
तीखी और लगती
पूछने पर जब कभी वह
मुस्कुराता है
अक्षरों की खुशबुएँ
ताज़ा गुलाबों-सी
क्यों नहीं मिलतीं भला
हमको दोबारा
तीर-सी चुभने लगें
पुरवाईयाँ भी
ऊब उकताहट भरी-सी
चुप्पियों में ठूंठ होकर
रह गईं अमराईयाँ भी
धड़कनों में
आहटें बुनता हुआ
गांधार कोमल
खो गया संगीत
जो कल था
हमारा
(15)
मैना री
पिंजरे की भाषा मत बोल
सारा आकाश यह
तुम्हारा है
फूलों की खुशबू से तर
आवाज़ों की कोमल टहनी
धड़कन तेरी
हरियाली है तेरा घर
मैना री
अपने को भीतर से खोल
भला नहीं लगता है
कण्ठ से तुम्हारे अब
सुने हुए को बस दुहराना
स्वर के गोपन रेशे-रेशे से
परिचित हो
ठीक नहीं उसे भूल जाना
मैना री
ऐसे घट जाएगा मोल
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था 'अक्षरा' की ओर से वसंतपंचमी की पूर्वसंध्या पर सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी के नवीन नगर स्थित आवास पर बुधवार 25 जनवरी 2023 को 'वासंती-स्वर' (काव्य-गोष्ठी) का आयोजन किया गया जिसमें उपस्थित स्थानीय कवियों ने वसंत पर केन्द्रित काव्य पाठ किया।
संस्था के संयोजक योगेन्द्र वर्मा व्योम के संचालन में कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वंदना से आरम्भ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डा.आर सी शुक्ल ने सुनाया....
"भ्रमण करके विश्व का
एक माॅं की कोख से पैदा हुआ
आज बैठा वृद्ध सूखी-सी धरा पर
प्रश्न स्वयं से पूछता हूॅं।"
मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध हास्य व्यंग्य कवि डा. मक्खन मुरादाबादी का कहना था ....
"समर्थ पाँव
रेल,बस, विमानों में नहीं रहते
खुली छत के शौकीन
मकानों में
नहीं रहते।।"
सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने वसंत-गीत प्रस्तुत किया-
"खत्म नहीं होगा बसंत का आना यह हर बार
खत्म नहीं होगा पलाश के फूलों वाला रंग
पतझरों को रौंद विहँसने-गाने का यह ढंग
खत्म नहीं होगा मनुष्य से फूलों का व्यवहार।"
वरिष्ठ कवयित्री विशाखा तिवारी ने कविता पढ़ी-
"पेड़ों को
नव पल्लवों से
सजाने वाले
मन में होरी-ठुमरी की मिठास
घोलने वाले
ऋतुराज
तुम कहाँ विलय हो गये।"
वरिष्ठ कवि रामदत्त द्विवेदी ने गीत प्रस्तुत किया-
"पीढ़ियां दर पीढ़ियां दर पीढ़ियां बीतीं/
पर गरीबी हो न पाई तनिक भी रीती।"
कवि शिशुपाल 'मधुकर' ने पढ़ा-
"बुझे हुए शोले को मैं अंगार बनाने निकला हूँ
कुंद पड़ी कलमों की अब नई धार बनाने निकला हूँ
मानवता की रक्षा हेतु मैं अपना फ़र्ज़ निभाने को
काट दे हर बंधन को वो तलवार बनाने निकला हूँ।"
कवयित्री डा. पूनम बंसल ने रचना प्रस्तुत की-
"अभिनंदन है शुभ वंदन है,स्वागतम ऋतुराज तुम्हारा।
प्रेमपाश में बंधी धरा अब महक उठा है ये जग सारा।
आनंदित है सारी सृष्टि बहती सात सुरों की धारा।"
वरिष्ठ शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने ग़ज़ल पेश की-
"एक मछली जो मर्तबान में है
कोई दरिया भी उसके ध्यान में है
तेग़ जौहर दिखा के म्यान में है
जीत के जश्न की थकान में है
बादलों ने लिखी है नज़्म कोई
ये जो तस्वीर आसमान में है।"
कवयित्री डॉ अर्चना गुप्ता ने रचना प्रस्तुत की-
पुष्प महके हर तरफ उपवन बसंती हो गया
खुशबुओं में डूबकर ये मन बसंती हो गया
पात पीले झर गये/खिलने लगीं कोपल नयी
भूल सब संताप ये जीवन बसंती हो गया।"
साहित्यकार डॉ. मनोज रस्तोगी ने रचना प्रस्तुत की-
"बीत गए कितने ही वर्ष ,
हाथों में लिए डिग्रियां
कितनी ही बार जलीं
आशाओं की अर्थियां
आवेदन पत्र अब लगते
तेज कटारों से"
कवि समीर तिवारी ने मुक्तक प्रस्तुत किया-
"चाँदनी दीवार-सी ढहने लगी है
नींद सपनों की कथा कहने लगी है
एक चिड़िया पंख फैलाये हुए
आँख के भीतर कहीं रहने लगी है।"
कवि योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने वासंती दोहे प्रस्तुत किए-
"खुश हो कहा वसंत ने, देख धरा का रूप
ठिठुरन के दिन जा चुके, जिओ गुनगुनी धूप
यत्र-तत्र-सर्वत्र ही, करते सब उल्लेख
जब-जब लिखे वसंत ने, खुशबू के आलेख।"
कवि राजीव 'प्रखर' ने दोहे पढ़े-
"गूंज उठा चहुॅं ओर है, वासंती मृदुगान
चल सर्दी अब बांध ले, तू अपना सामान
मानुष-मन है अश्व सा, इच्छा एक लगाम
जिसने पकड़ी ठीक से, जीत लिया संग्राम।"
शायर ज़िया ज़मीर ने ग़ज़ल पेश की-
"है डरने वाली बात मगर डर नहीं रहे
बेघर ही हम रहेंगे अगर घर नहीं रहे
हैरत की बात यह नहीं ज़िंदा नहीं हैं हम
हैरत की बात यह है कि हम मर नहीं रहे।"
कवि मनोज वर्मा मनु ने गीत प्रस्तुत किया-
"आ गये ऋतुराज लो मौसम सुहाना आ गया,
फूल, तरु, पल्लव, कली को मुस्कराना आ गया,
खिल उठीं कलियां कि फिर भोरों ने की गुस्ताखियाँ,
प्रेम-विहवल पंछियों को चहचहाना आ गया।"
ग़ज़लकार राहुल शर्मा ने सुनाया-
"नहीं मतलब अदब तहजीब ओ फन से
फकत फैशन में स्टाइल में गुम है
यतीमों सी भटकती है विरासत
नई पीढ़ी तो मोबाइल में गुम है।"
कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने रचना प्रस्तुत की-
जल रहा है ढल रहा है और फिर उग आएगा।
हौसला सूरज है मेरा दिन नये गढ़ जाएगा।।
हटे विचारों से शिशिर,हो बसंत सी भोर।
हेमा मन रवि यदि बढ़े,सम्यक पथ की ओर।।
कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर ने सुनाया-
"ऋतुओं के राजा से छीनी
किसने माला फ़ूलों की
गाँव शहर से हाथ मिलाकर
जंगल को लुटवा बैठे
खेतों की धानी चूनर को
टुकड़ो मे कटवा बैठे।"
कवयित्री शशि ने सुनाया-
"जीने कहाँ देते हैं, वो चार लोग
सुनने में अभी तक यही मिला है
कि क्या कहेंगे चार लोग।"
आभार अभिव्यक्ति आशा तिवारी ने प्रस्तुत की।
:::::प्रस्तुति:::::
योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
संयोजक
साहित्यिक संस्था 'अक्षरा'
मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल- 9412805981