बुधवार, 1 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी से डॉ. कृष्णकुमार ’नाज़’ की बातचीत। यह साक्षात्कार उन्होंने सितंबर 2000 में लिया था, जो मुरादाबाद से प्रकाशित समाचार पत्र ’दैनिक आर्यभाषा” के दिनांक 21सितंबर 2000 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद यह साक्षात्कार वर्ष 2023 में प्रकाशित उनके साक्षात्कार-संग्रह “प्रश्न शब्दों के नगर मे” में भी प्रकाशित हुआ है।


 साहित्येतर कारणों से हिंदी कविता का जनसंवाद कम हुआ

*** हिंदी कविता ख़त्म होने की घोषणाएँ उन्हीं लोगों ने कीं, जो उससे जुड़े नहीं रहे

*** अपना माल बेचने वाले दुकानदारों का जमावड़ा हिंदी काव्य-मंच 

*** अपने समय और व्यापक समाज के दुख-दर्द का संवाहक बना है नवगीत।

कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है। यदि यह बात सच है, तो यह भी सत्य है कि दर्पण ज़िंदगी की आवश्यकता है। इस प्रकार साहित्य जि़ंदगी की अहम ज़रूरत हुआ।

हिंदी काव्य साहित्य में गीत का महत्वपूर्ण स्थान है। गीत पर चर्चा हो और नवगीतकार माहेश्वर तिवारी का उसमें जि़क्र न हो, यह असंभव है। एक बातचीत के दौरान जब उनसे यह पूछा जाता है कि हिंदी कविता की वर्तमान में क्या स्थिति है, तो इस प्रश्न का उत्तर वह विस्तार से देते हैं। कहते हैं- ‘‘हिंदी कविता समाप्त हो गई है, वह मर गई है, ऐसी घोषणाएँ पिछले दिनों राजेंद्र यादव और सुधीश पचौरी जैसे लोगों ने कीं। ये घोषणाएँ ऐसे लोगों की थीं जो कविता या उसकी समीक्षा से जुड़े हुए नहीं हैं और समय-समय पर कुछ अप्रत्याशित घोषणाएँ करते हुए चर्चा में बने रहने का प्रयास करते रहते हैं।’’

श्री तिवारी कहते हैं कि कविता आज भी लेखन की केंद्रीय विधा है। प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में प्रकाशित होने वाली पुस्तकें इसका प्रमाण हैं। हालाँकि वह इस बात को भी स्वीकारते हैं कि पुस्तकों की इस ‘बड़ी संख्या’ में कूड़ा करकट भी कम नहीं होता। वह बताते हैं कि आज हिंदी कविता विश्व कविता के समानांतर उससे आँखें मिलाते हुए खड़ी है। यह अलग बात है कि अन्यान्य साहित्येतर कारणों से उसका जन संवाद पहले की अपेक्षा कुछ कम हुआ है। श्री तिवारी कई कवियों के नाम गिनाते हैं कि अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, नरेंद्र जैन, स्वप्निल श्रीवास्तव, ध्रुव नारायण गुप्ता, कात्यायनी, चम्पा वैद्य, गगन गिल जैसे असंख्य मुक्तछंद के कवि ही नहीं, बल्कि डा. शिव बहादुर सिंह भदौरिया, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, कुमार रवींद्र, गुलाब सिंह, अमरनाथ श्रीवास्तव, अवध बिहारी श्रीवास्तव, शतदल, यश मालवीय जैसे अनेक गीत कवि भी महत्वपूर्ण लेखन में निरंतर सक्रिय हैं। उनका कहना है कि डा. रामदास मिश्र, केदारनाथ सिंह आदि ही नहीं, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री से लेकर लीलाधर जगूड़ी, विनोद कुमार शुक्ल, कुमार अंबुज, एकांत श्रीवास्तव, बद्री नारायण आदि तक एक साथ कई पीढि़याँ कविता लेेखन में सक्रिय है।

नवगीत का प्रयोग और वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता के सवाल पर श्री तिवारी कहते हैं कि हिंदी में नवगीत का जन्म ऐतिहासिक कारणों से हुआ। छायावादोत्तर गीत काव्य में जब कविता बेडरूम आदि के चित्रा परोसने में लग गई, तब गीत के नए रूप की तलाश आवश्यक हो गई। कविता के पुराने अलंकरणों को छोड़ने की बात निराला और पंत पहले ही कर चुके थे। वह मुक्त छंद में पहले ही घटित हो गया। इसलिए नई शैली के गीतों को पुराने गीतों से अलग करने के लिए उन्हें ‘नवगीत’ नाम दिया गया।

श्री तिवारी बताते हैं कि नवगीत का स्वरूप अपने कथ्य और बिंब विधान में नया था ही, उसने अपनी छांदसिक बुनावट के लिए निराला के ‘नवगति, नवलय, ताल-छंद नव’ को आधार बनाया। नवगीत जब तक अपने समय और व्यापक समाज के दुख-दर्द का संवाहक बना रहेगा, उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न खड़ा करना स्वयं अप्रासंगिक होगा।

नवगीत के पक्ष में श्री तिवारी कुछ कवियों के नवगीतों की पक्तियाँ भी उदाहरण स्वरूप सुनाते हैं-

पुरखे थे। पेड़ बने

हाथों में पंछी के घोंसले लिए

छाया नीचे, मीठे फल ऊपर

मिल जाते बिन जतन किए,

आँधी में। वे फल टूट झरे

- दिनेश सिंह


क्या बतलाएँ

कुछ भी निश्चित नहीं रहा अब

नंदन वन में

नियम पुराने। टूटे सारे

न जिसकी जो मरज़ी करता है

सूरज। लाता है अंधियारे

बे-मौसम पत्ता झरता है

फूल खिलें। अगले बसंत में नहीं ज़रूरी

- कुमार रवींद्र


पेड़ अब भी आदिवासी हैं

पेड़ खालिस पेड़ हैं अब भी

पेड़ मुल्ला हैं, न पंडित हैं न पासी हैं

- सूर्यभानु गुप्त

श्री तिवारी बताते हैं कि नवगीत में प्रगतिशीलता की चर्चा करते हुए श्री ‘रंग’ ने ‘शताब्दी के अंत में नवगीत का प्रगतिशील पथ और चुनौतियाँ’ शीर्षक वाले लेख में लिखा है कि शताब्दी के अंत में प्रगतिशील गीतकारों ने सामाजिक, सरकारी तंत्र, मानवीय संबंध तथा उत्पादन और उपभोग के समस्त मानवीय चक्र के द्वंद्व को पूरी ईमानदारी से उजागर किया है। 

वर्तमान में नई कविता की स्थिति के विषय में श्री तिवारी कहते हैं कि यह विडंबना है कि प्राध्यापकीय जगत में मुक्तछंद की कविता के प्रति आचार्य रामचंद्र शुक्ल का फ़तवा आज भी सर्वमान्य-सा ही है।

श्री तिवारी कहते है कि मुक्तछंद वाली कविता छंदमुक्त नहीं है, सिर्फ़ यह समझने की ज़रूरत है। वह नई कविता के साथ एक विडंबना और बताते हैं कि इसकी पाठ शैली हिंदी में वैसी विकसित नहीं हुई है, जैसी बंगला में। साथ ही प्रश्न भी करते हैं कि विश्व की तमाम भाषाओं में नई हिंदी कविता के अनुवाद और अनेक देशों में उनका कविता के रूप में ही पठन-पाठन क्या यह सिद्ध नहीं करता कि हिंदी की नई कविता विश्व कविता के परिवार में शामिल हो गई है।

हिंदी काव्य मंचों की वर्तमान स्थिति से श्री तिवारी बेहद चिंतित हैं, कहते हैं कि आज हिंदी काव्य मंचों की स्थिति काफ़ी ख़राब है। इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए, तो हिंदी काव्य मंच अब कविता या कवियों का मंच नहीं रह गया है, वह अपना-अपना माल बेचने वाले दुकानदारों का जमावड़ा बन गया है।

हिंदी कवियों के हास्य कविताओं की ओर बढ़ते रुझान के विषय में श्री तिवारी कहते हैं कि हास्य जीवन के लिए आवश्यक है, लेकिन वह भी जब बाज़ार में बिकने वाली वस्तु बन जाए तो उसके प्रति ऐसे लोगों का रुझान बढ़ेगा ही जो कविता से कम, धनोपार्जन में अधिक दिलचस्पी रखते हैं। हिंदी कवियों का अधिकाधिक हास्य की ओर रुझान बाज़ार की शक्तियों से निर्धारित और प्रेरित हो रहा है, उसके पीछे गहरे साहित्यिक मूल्यों से लगाव नहीं है।

व्यंग्य कविता से क्या अभिप्राय है, इस प्रश्न पर श्री तिवारी का कहना है कि ‘व्यंग्य’ शब्द अंग्रेजी के ‘सटायर’ शब्द के आधार पर निर्मित है। वि+अंग की संधि से व्यंग शब्द बना है, जिसका अर्थ है चुहुल या परिहास अथवा विसंगतियों पर कटाक्ष। इसका प्रयोग वेदों में भी ढूँढा जा सकता है, किंतु नाट्य शास्त्र में इसके स्पष्ट संकेत मिलते हैं।

वर्तमान में अधिकतर कवियों द्वारा अछांदिक कविता लखे जाने के प्रश्न पर श्री तिवारी कहते हैं कि कविता अछांदिक नहीं होती। गड़बड़ी यह हुई कि छांदसिकता के लिए ‘तुक’ को अपरिहार्य मान लिया गया, जबकि ‘लय’ महत्वपूर्ण है। यदि ‘तुक’ को ही आधार माना जाए, तो वैदिक रिचाएँ भी अछांदिक मानी जानी चाहिएँ, जबकि ऐसा नहीं है। यहाँ तक कि लोकगीतों में भी छंद का विधान वैसा नहीं है, जैसा मोटे तौर पर सोचा-समझा जाता है।

इस दौर में काव्य मंच और साहित्य में सामंजस्य समाप्त होता जा रहा है? इस प्रश्न के उत्तर में श्री तिवारी का कहना है कि मंच और साहित्य में सामंजस्य लगभग सन् 1960 तक रहा। बाद में जैसे-जैसे मंच पर बाज़ार हावी होता गया, दोनों के रिश्तों में फ़र्क़ आता गया। यह सामंजस्य फिर से बनाया जा सकता है, पहले छोटी-छोटी गोष्ठियों और फिर व्यापक जन-संवाद के माध्यम से। पहले मंच साहित्य का मंच था, जिसे मनोरंजन के मंच में तब्दील कर दिया गया, जबकि साहित्य का प्रयोजन सस्ता मनोरंजन नहीं, बल्कि अनुरंजन के साथ जन-रुचियों और संस्कारों को उदात्त बनाना रहा है।

वर्तमान में काव्य मंचों पर गीत की स्थिति पर चर्चा करते हुए श्री तिवारी एक पंक्ति सुनाते हैं- ‘अब दादुर वक्ता भए तुमको पूछे कौन’। ठीक इसी जैसी स्थिति मंच पर गीत की है। वह स्वर्गीय वीरेंद्र मिश्र के गीत की पंक्तियाँ भी सुनाते हैं-

गीत वह 

जो पढ़ो झूम लो

सिर्फ़ मुखड़ा पढ़ो

चूम लो

तैरने दो समय की नदी

डूबने का निमंत्रण न दो,

वह कहते हैं कि अब मंच पर गीत के नाम पर ऐसे भी तथाकथित कवि आते जा रहे हैं, जिनकी रचनाएँ समय की नदी में सफलतापूर्वक तैरकर पार हो जाने की जगह अपने श्रोता को सिर्फ़ डुबोती हैं। फिर हास्य और तथाकथित ओज का मंच पर क़ब्ज़ा भी गीत को उसके स्थान पर बेदख़ल करने में ही लगा हुआ है।

कवियों और कविताओं की जनता से क्या अपेक्षाएँ हैं? इस प्रश्न पर श्री तिवारी कहते हैं कि इन्हीं संदर्भों में एक प्रश्न और भी महत्वपूर्ण है कि जनता कविता सुनने आती है या नाटक-नौटंकी का मज़ा लेने? कविता सुनने की कुछ शर्तें होती हैं। उसके लिए श्रोता के मन में कविता के संस्कार होने चाहिएँ। मूँगफली बेचने वालों या चाट का ठेला लगाने वालों में कविता के संस्कार की बात बेमानी है। उन्हें तो चुटकुले और काव्यपाठ में कुछ नाटकीयता भली लगती है। पहले लोग कविता के पास आते थे, अब कविता ही लोगों के पास जाने लगी है। कवि भी वैसा ही तर्क देने लगे हैं, जैसा सिनेमा वाले यानी आम जनता की रुचि की बात। जब कविता जनरुचि से निर्धारित होगी और कला मूल्यों को पीछे छोड़ दिया जाएगा, तो यही होगा जो हो रहा है।

वह कहते हैं कि सीमित वर्ग में गोष्ठियों की बात मैं इसलिए करता हूँ कि वहाँ कविता अपनी शर्तों के साथ लोगों के पास जाएगी, लोगों की रुचि से संचालित होकर नहीं, अन्यथा उसकी भी वही स्थिति होगी, जो बाज़ार में फ़ैशनेबुल साबुनों, तेलों और सौंदर्य प्रसाधनों की है। आम साबुन का गुण अब मैल साफ़ करना नहीं, गोरापन बढ़ाना हो गया है।


हिंदी-ग़ज़ल और उर्दू-गीत की साहित्य में क्या स्थिति है? इस प्रश्न पर श्री तिवारी का कहना है कि हिंदी-ग़ज़ल एक गढ़ा हुआ नाम है। हिंदी कवियों द्वारा लिखी गई ग़ज़ल को मैं ज़्यादा से ज़्यादा हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहता हूँ। 

निराला, त्रिेलोचन, आचार्य जानकी बल्लम शास्त्री, शमशेर बहादुर सिंह, शंभुनाथ शेष, बलवीर सिंह रंग आदि ने तो हिंदी-ग़ज़ल नाम का प्रयोग नहीं किया, फिर आज क्यों? फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने एक बार कहा था कि ग़ज़ल को जि़ंदा रखने की उम्मीद अब हिंदी वालों से है, लेकिन उन्होंने भी इसे हिंदी-ग़ज़ल का नाम नहीं दिया। श्री तिवारी कहते हैं कि हिंदी भाषा की प्रकृति ही ग़ज़ल की बनावट के अनुरूप नहीं है। यह हिंदी कविता की जातीय परंपरा को बाधित या नष्ट करने में भी कारक हो सकती है। फिर ग़ज़ल लिखने वाले हिंदी कवि, पूर्व उल्लिखित कवियों को छोड़ दिया जाए तो ग़ज़ल की परंपरा और उसके व्याकरण से अपरिचित हैं। नये लोगों में कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन क़तार में शामिल तमाम लोग हिंदी-कविता परंपरा ही नहीं, ग़ज़ल के साथ भी दुराचार करने में लीन हैं।

वह उर्दू गीत की स्थिति को तो और भी दयनीय बताते हैं कि उर्दू गीत न तो लोकगीत की परंपरा से प्राणरस ग्रहण करते हैं और न स्वस्थ साहित्यिक गीतों की परंपरा से। वे तो प्राचीन सिनेमा के गीतों के समक्ष भी खड़े नहीं हो पाएँगे। उन्हें सुनकर हँसी आती है।

इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया के कविता पर प्रभाव के विषय में श्री तिवारी कहते हैं कि इलेक्ट्रानिक मीडिया इतना प्रभावशाली नहीं हुआ है कि वह कविता को प्रभावित कर सके। आकाशवाणी का पहले, जब प्रोड्यूसर का पद हुआ करता था और इस कार्य को कोई सृजनधर्मी ही सँभालता था, अवश्य कुछ सीमा तक प्रभाव रहा। तब साहित्यिक प्रसारण लोग ध्यान से सुनते थे। दूरदर्शन के एकाध कार्यक्रम को अपवाद मान लिया जाए तो उसके अधिकतर प्रसारण बाज़ार से उठाए गए माल का उपयोग ही हैं।

उनका कहना है कि प्रिंट मीडिया में ‘आज’ जैसे अख़बार तथा सरस्वती, ज्ञानोदय, कल्पना, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान व वसुधा जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित साहित्य ने नए रचनाकारों को प्रेरित-प्रभावित किया। कुछ हद तक यह कार्य हिंदुस्तान दैनिक तथा जनसत्ता के रविवासरीय अंकों ने भी किया। उस भूमिका में आज कुछ लघु पत्रिकाएँ भी अपना काम कर रही हैं। श्री तिवारी कहते हैं कि अपनी जानकारी के अनुसार मैं यह कह सकता हूँ कि ‘आज’ ने हिंदी के कई कवियों- कथाकारों को स्थापित होने में सहयोग दिया। वर्तमान में इलेक्ट्रानिक मीडिया की स्थिति तो व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं से भी ज़्यादा घटिया है।

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