(1)
मुड़ गये जो रास्ते चुपचाप
जंगल की तरफ ।
ले गये वे एक जीवित भीड़
दलदल की तरफ ।
आहटें होने लगीं सब
चीख में तब्दील
है टंगी सारे घरों में
दर्द की कन्दील
मुड़ गया इतिहास फिर
बीते हुये कल की तरफ ।
हैं खड़े कुछ लोग उस
अंधे कुंये के पास
रोज जिससे है निकलती
एक फूली लाश
फैंक देते हैं उठाकर जिसे
हलचल की तरफ ।
(2)
एक अराजक संशय में
घिरे हुये हैं सब
रंगों से, ध्वनियों से भरे हुये लोग ।
भरी-भरी आंखों से
पेड़ को निहारते
बार-बार रिश्तों का
नाम ले पुकारते
आंधी में
पत्तों से
झरे हुए लोग ।
संवेदनशून्य हुई
खाली आकृतियां
आसपास घूम रहीं
काली आकृतियाँ
बैठे हैं
चिड़ियौ से
डरे हुए लोग ।
(3)
अक्सर हम
तनहा होते हैं जब
एक प्रश्न बार-बार
खुद को दुहराता है।
पंजों में दाब कर
हवा उड़ती
जली हुई चमड़ी की गन्ध
रोक नहीं पाते हैं उसे
इत्र में डूबे
रूमालों वाले ये
अनगिन प्रतिबन्ध
कौन हमें
चूल्हे की आंच में
जिन्दा खरगोश सा पकाता है ।
अपनी ही
आन्तरिक हिफाजत में
हो जाते हैं हम सब कैद
लट्ठे के थान सा
धुला हुआ
लगता आकाश यह सफेद
तेज आँच में
सारी हड्डियाँ तड़कती हैं
कौन इस तरह हमको
भीड़ में बजाता है ।
(4)
कुछ नहीं है,
बाँझ सी यह हवा
बैठी डाल पर टांगें हिलाती है।
एक कोई बात थी
जो अभी कौवे के गले से
फूट कर निकली
कर रही है वह तभी से
पत्तियों के कान में
बारीक सी चुगली
पंख खोले धूप में कब से
एक गौरैया नहाती है ।
बोलते कुछ भी नहीं है
ताल के तट पर
पड़े घोंघे
न जाने किन खूंटियों के
आसरे
पेड़ है : आकाश में
लटके हुए चोंगे
एक मछली डूब कर गहरे
फिर सतह पर लौट आती है।
(5)
मेरे भीतर एक अभंग
जगाता है कोई
बतियाता है
हल्के सुर में
उठती जैसे
ध्वनि नूपुर में
मेरे अंग-अंग में बैठा
गाता है कोई
अब अनहद का
स्वर हूं केवल
लगता स्वर ही
स्वर हूं केवल
स्वर के कपड़े लाकर मुझे
पिन्हाता है कोई।
(6)
आसपास
जंगली हवाएँ हैं,
मैं हूँ।
पोर-पोर
जलती समिधाएँ हैं
मैं हूँ।
आड़े-तिरछे
लगाव
बनते आते
स्वभाव
सिर धुनतीं
होठ की ऋचाएँ हैं
मैं हूँ।
अगले घुटने
मोड़े
झाग उगलते
घोड़े
जबड़ों में
कसती वल्गाएँ हैं
मैं हूँ।
(7)
हम पसरती आग में
जलते शहर हैं।
एक बिल्ली
रात भर चक्कर
लगाती है
और दहशत
जिस्म सारा
नोच जाती है
हम झुलसते हुए
वारूदी सुरंगों के
सफर हैं।
कल उगेंगे
फूल बनकर हम
जमीनों में,
सोच को
तब्दील करते
फिर यकीनों में
आज तो
ज्वालामुखी पर
थरथराते हुए घर हैं।
(8)
घर न रह गए
अब, घर जैसे
जीवन के हरियालेपन पर
उग आए हों
बंजर जैसे।
रिश्तों की
कोमल रचनाएँ
हमको अधिक
उदास बनाएँ
दादी वाली
किस्सागोई
शापग्रस्त है
पत्थर जैसे।
बाहर हँसते
भीतर रोते
नींद उचटती
सोते-सोते
शब्द बने परिवार
टूटकर
बिखर रहे हैं
अक्षर जैसे।
कोने-कोने
लहू-लहू है
जलते चमड़े की
बदबू है
संज्ञाएँ उड़ रहीं
हवा में
चिड़ियों के
टूटे पर जैसे।
(9)
खुद से खुद की
बतियाहट
हम, लगता भूल गए।
डूब गए हैं
हम सब इतने
दृश्य कथाओं में
स्वर कोई भी
बचा नहीं है
शेष, हवाओं में
भीतर के जल की
आहट
हम, लगता भूल गए।
रिश्तों वाली
पारदर्शिता लगे
कबंधों-सी
शामें लगती हैं
थकान से टूटे
कंधों-सी
संवादों की
गरमाहट
हम, लगता भूल गए।
(10)
इस रेतीले मौसम में
धारदार कोई तो हो
सिर से पाँवों तक
नहला दे
मूर्छित विश्वासों वाले पठार
ढक जायें
आकर हाथों से
सहला दे
पातहीन डालों की भीड़ में
हरसिंगार कोई तो हो
उलझे बालों में
कंघी जैसा
फँसा रहे
तार-तार सुलझाने तक
खिंचा रहे
क्षितिजों पर
इन्द्रधनुष
अगली ऋतु आने तक
अपने में अपने को
ढूँढता बार-बार
कोई तो हो।
:::::प्रस्तुति::::;
डॉ मनोज रस्तोगी
संस्थापक
साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
मुरादाबाद
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