शनिवार, 1 अप्रैल 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी के पंद्रह नवगीत

 


(1) 

हम स्वयं से

हारते पल-पल

दिग्विजय के लिए निकले हैं


खोखली-सी

विजय-यात्राएं

हर पदानिक की

नजर में है

बैरकों से

निकलकर

सैनिक टुकड़ियां

यक्ष-प्रश्नों-सी

नगर में हैं

चुप्पियों को

सौंपकर हलचल

दिग्विजय के लिए निकले हैं


हवाओं में

तैरती कुछ

घोषणाएं हैं

अपीलें हैं

आसमानों में

कबूतर हैं ना गौरैया

सिर्फ उड़ती हुई

चीलें हैं

पांँव के नीचे

लिए दलदल

दिग्विजय के लिए निकले हैं


(2) 

बदल रही है

धीरे-धीरे

भीतर बाहर की सब दुनिया


कोने-कोने

टूट-फूट

मलवा बिखरा है

कुचला हुआ

पड़ा आखिर

किसका चेहरा है

गुमसुम बैठे

सोच रहे हैं

रामू-मुनिया


है दिमाग में

खालों में भुस

भरने की पूरी तैयारी

शो पीसों में

होंगे सब तब्दील

लग रहा बारी-बारी

आम आदमी

बुत परस्त हो

या निर्गुनिया


(3) 

बहुत दिनों के बाद

लौट कर

घर में आना

लगता किसी पेड़ का

फूलों, पत्तों, चिड़ियों से भर जाना


कपड़ों, बैग,

देह से सारी

गर्द झाड़ना गए सफर की

फिर से

शामिल हो जाना

उठ करके

दिनचर्या में घर की

लगता सब

छिलके उतारकर

अपने में अपने को पाना


जिन्हें पहनकर

बाहर निकले

वे चेहरे जारी लगते हैं

थम से गए

गीत के टुकड़े

कंठों में जारी लगते हैं

बातचीत के टुकड़े

बहसों का बुनकर

कुछ ताना-बाना


(4) 

पेड़ों का गाना

सुना है क्या


पत्तियां ताली

बजाती हैं

और सुर में सुर

मिलाती हैं

यह कभी हमने

गुना है क्या


दे हवा जब

टहनियों पर थाप

राग सजने लगे

अपने आप

क्षण कभी ऐसा

बुना है क्या


कंठ में लेकर

जिसे चिड़िया

घोंसले में देर तक

जिसको जिया

गीत वह हमने

चुना है क्या


(5) 

आ गए सपने सजा कर

बेचने वाले


तितलियों के पंख

गंधों की कथा

सोनपंखी धूप का

जो आंख में प्रतिबिंब था

आ गए सब कुछ उठा कर

बेचने वाले


हो गए तब्दील सारे

घर नई दूकान में

सज गए रिश्ते करीने से

रखे सामान में

आ गए सब कुछ चुराकर

बेचने वाले


(6) 

हम विनम्रता ओढ़े

कड़ी धूप में

खड़े रह


फूलों के मोहक

पहनावे

सुख के

बड़े-बड़े सब दावे

छाती-छाती धंँसे

हुए

दलदल में पड़े रहे


बातों के

पुल टूट गए हैं

लोग तटों पर

छूट गए हैं

धाराओं के

बीच सेतु

टूटे जो बड़े रहे


(7) 

मन के भीतर बैठी

नन्हीं चिड़िया गाती है

नए-नए रिश्ते

रचती

फसलों से, दानों से

सन्नाटे को चोंच

मारती

नए बहानों से

फूलों-पत्तों से बतियाती

फिर उड़ जाती है


सपने बुनती है

उड़ान के

सपनों में आकर

जब होता उदास मन

ऐसा करती है

अक्सर

आसमान को नाप-जोख कर

फिर आ जाती है


(8) 

रंगों से भर गई उंगलियां फिर

तितली के पर छूने वाली


कल थीं जो

खुरदुरे लगावों से छिलल गई

आज वही रंगों के

झरनों से मिल गई

फूलों सा आज हमें

कर गई उंगलियां फिर

तितली के पर छूने वाली


हंँसी हुई जंगल के

फूलों की ताज़गी

हो गई हथेली सूरज

मन सूरजमुखी

सूनेपन को आकर

भर गई उंगलियां फिर

तितली के पर छूने वाली


(9) 

इस तरफ हैं आज भी

सूखे दरख़्तों की कतारें

क्या पता नदियांँ कहांँ पर

रेत को नम कर रही हैं


बंद हैं अब भी

हरेपन से सभी संवाद

हर नया दिन धूप

पतझड़ का महज अनुवाद

पड़ रही है खेत में

हर रोज कुछ लंबी दरारें

क्या पता नदियांँ कहांँ पर

रेत को नम कर रही हैं


एक-सा चेहरा हुआ

कोंपल पुराने पात का

अब उजाला मानता

कहना अंँधेरी रात का

हर तरफ तुलसी बड़ी कातर

निगाहों से निहारे

क्या पता नदियांँ कहांँ पर

रेत को नम कर रही है


(10) 

हम नदी में पड़े पत्थर से

यहां से बहकर कहांँ जाएं


थरथरी बोकर

गुजर जातीं

सभी लहरें

हम नहीं बेतट

जहांँ कुछ देर तक

ठहरें

उम्र की चादर बहुत छोटी

मिली हमको

किस तरह से पांँव फैलाएं


पास आता है कभी

बहता हुआ तिनका

नाम दे जाता

हमें कुछ

फूल पत्तों का

है पड़े इस जल महल में कैद

वर्षों से मुक्ति के क्षण किस तरह आएं


(11) 

देखती है फूलघर को

टकटकी बांँधे

यह उतरती दोपहर-सी जिंदगी


फूलघर जो

एक सपना था सुबह का

हो गया है

अक्स उसका बहुत हल्का

मिली हमको

बंधु बचपन से अभी तक

एक रेगिस्तान के

लंबे सफर-सी जिंदगी


रेत जैसे

दांँत में चिपके हुए किस्से

बन गए सब

उम्र भर के हादसे-हिस्से

हम ना निर्वासित

नहीं है कैद फिर भी

जी रहे हम भी जफर-सी जिंदगी


(12) 

एक तुम्हारा होना क्या से

क्या कर देता है

बेज़ुबान छत-दीवारों को

घर कर देता है


खाली शब्दों में आता है

ऐसा अर्थ पिरोना

गीत बन गया-सा लगता है

घर का कोना-कोना

एक तुम्हारा होना

सपनों को स्वर देता है


आरोहों अवरोहों से

समझाने लगती हैं

तुमसे जुड़कर चीज़ें भी

बतियाने लगती हैं

एक तुम्हारा होना

अपनापन भर देता है


(13) 

मन का वृन्दावन हो जाना

कितना अच्छा है

धुला-धुला दर्पन हो जाना

कितना अच्छा है


चारों तरफ धुंध की

काली चादर फैली है

पूरनमासी खिली

चाँदनी मैली-मैली है

वंशी बनकर तुम्हें बुलाना

कितना अच्छा है

तुममें ही मिलकर खो जाना

कितना अच्छा है


सांस-सांस फिर महारास की

राधा बन जाना

जैसे मन का कोई 

पूरा हो जाए सपना

चले न कोई और बहाना

कितना अच्छा है

तुमको पड़े मुझे अपनाना

कितना अच्छा है


(14) 

बहुत दिन बीते

कि आया ख़त नहीं

कोई तुम्हारा


डाकिया चुपचाप आकर

गुज़र जाता है

दोपहर की धूप

तीखी और लगती

पूछने पर जब कभी वह

मुस्कुराता है

अक्षरों की खुशबुएँ

ताज़ा गुलाबों-सी

क्यों नहीं मिलतीं भला

हमको दोबारा


तीर-सी चुभने लगें

पुरवाईयाँ भी

ऊब उकताहट भरी-सी

चुप्पियों में ठूंठ होकर

रह गईं अमराईयाँ भी

धड़कनों में

आहटें बुनता हुआ

गांधार कोमल

खो गया संगीत

जो कल था

हमारा


(15) 

मैना री

पिंजरे की भाषा मत बोल


सारा आकाश यह

तुम्हारा है

फूलों की खुशबू से तर

आवाज़ों की कोमल टहनी

धड़कन तेरी

हरियाली है तेरा घर

मैना री

अपने को भीतर से खोल


भला नहीं लगता है

कण्ठ से तुम्हारे अब

सुने हुए को बस दुहराना

स्वर के गोपन रेशे-रेशे से

परिचित हो

ठीक नहीं उसे भूल जाना

मैना री

ऐसे घट जाएगा मोल


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें