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बुधवार, 8 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी पर केंद्रित डॉ सोनरूपा विशाल का संस्मरणात्मक आलेख गहरे-गहरे से पदचिह्न


15 सितंबर 2014 की शाम थी वो।शिव मिगलानी जी जो मुरादाबाद के प्रमुख व्यवसायियों में से एक हैं,सामाजिक तौर पर काफ़ी सक्रिय।उनके स्नेह की मैं सदा से पात्र रही हूँ।आज भी पार्किंसन की बीमारी से जूझते हुए अपने अस्थिर हाथों से फोन उठाकर कंपकपाती आवाज़ में मुझे मुरादाबाद आने का न्योता देना नहीं भूलते।ऐसे ही उस शाम उन्होंने मुझे याद किया 'एक शाम सोनरूपा के नाम' कार्यक्रम रखकर।जो मेरे गायन को दृष्टिगत रखकर रखा गया था। हमेशा से मेरा संगीत की ओर झुकाव रहा ही था।संगीत में ही शिक्षा भी ली।बाद में हिन्दी से पी. एच डी की।लेकिन 2010 से लेखन भी मेरे भीतर अंगड़ाइयां लेने लगा था।ये गंभीरता वाला था,इससे पहले बचपन वाला कविता प्रेम था मात्र।

उस कार्यक्रम के साथ मिगलानी जी ने सम्मान समारोह भी रखा था।कार्यक्रम के अध्यक्ष थे नवगीत के शिखर नामों में से एक आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी।विशिष्ट अतिथि थे प्रसिद्ध शायर आदरणीय मंसूर उस्मानी जी।

आज तक बहुत कम ऐसे मंच हुए हैं जिन पर अपनी प्रस्तुति को लेकर मैं शत प्रतिशत संतुष्ट हुई होऊँ।लेकिन उस दिन मैं भीतर से आह्लादित थी।श्रोताओं की प्रतिक्रिया तो थी ही अच्छी मुझे भी स्वयं महसूस हुआ कि सब ठीक था।सबकी प्रशंसा और फोटोज़ लेने इच्छा मुझे अभिभूत तो कर रही थी लेकिन सातवें आसमान पर पहुँचने वाला भाव न पनपा पा रही थी।मेरे ज़हन में ज़मीन जो रहती है।

कार्यक्रम के बाद सम्मान समारोह हुआ,उदबोधन,फोटो सेशन इत्यादि।तिवारी जी और उस्मानी जी से भी शाबाशी मिली।

इस सब के उपरान्त डिनर टेबल पर सौभाग्य से कुछ क्षण ऐसे मिले जिसमें मैं थी,माहेश्वर जी थे और ताई जी (माहेश्वर जी की पत्नी)।

माहेश्वर जी ने बहुत ही सौम्य स्वर में मुझसे कहा - बेटा ,एक बात कहूँ यदि बुरा न मानो।

मैंने कहा - जी ताऊ जी,बिल्कुल कहिये।

वो बोले - सोनरूपा कल ही 'सरस्वती सुमन' पत्रिका का डॉ. उर्मिलेश विशेषांक मुझे मिला है।तुम्हारी संपादन क्षमता ने मुझे बहुत प्रभावित किया और तुम्हारे सम्पादकीय ने भी।इधर यदा कदा पत्रिकाओं में भी तुम्हारे गीत और ग़ज़ल पढ़ता रहता हूँ।उसे देख मुझे लगता है तुम्हें लेखन ही पहचान देगा।संगीत नहीं।फिर अपनी पूरी परम्परा को भी तुम ध्यान में रखो।

'जी ताऊ जी।बिल्कुल।आपकी बात पर मैं सिर्फ विचार ही नहीं अमल भी करने की कोशिश करूँगी।' मैंने कहा।

तभी ताई जी ने एक छोटा सा वाक्य बोला -

'बेटा स्वर तुम्हारे बहुत पक्के हैं, आवाज़ भी मधुर।लेकिन ताऊ जी की बात पर ध्यान देना।'

दोनों ने मेरे सिर पर हाथ रखा और अपने लिए तैयार खड़ी गाड़ी में बैठ कर चले गये।

उस दिन मुरादाबाद से बदायूँ आते हुए मैं लगभग सारी बातों को भूल बस इसी बात को सोचती हुई घर तक आ गयी।

इस बीच मैंने उस शाम को भी दोहरा लिया जो पापा डॉ . उर्मिलेश के नवगीत संग्रह 'बाढ़ में डूबी नदी' के लोकार्पण के अवसर पर बदायूँ क्लब में सजी थी।लोकार्पण और संग्रह पर चर्चा के साथ-साथ पापा के गीतों को गाने का भी एक सेगमेंट रखा गया था।लोकार्पणकर्ता डॉ. माहेश्वर तिवारी थे।पापा और उनका बहुत घनिष्ठ संबंध रहा।

तब मेरे विवाह को लगभग दो तीन वर्ष हुए होंगे।उन दिनों थायरॉयड ने मुझे अपना घोर शिकार बनाया हुआ था।मेरी सधी आवाज़ अब काँपने लगी थी।साँस फूलती थी।वज़न 78 किलो पर पहुँच गया था।

पिता को बेटियां अपनी इन दुविधाओं से उस समय कब अवगत करवाती थीं।सो पापा का आदेश सिर माथे पर लिया मैंने कि तुम्हें भी मेरा एक गीत गाना है।

जैसा मुझे अंदेशा था वैसा ही हुआ।मैं पापा के सुंदर गीत के साथ बिल्कुल न्याय नहीं कर पाई।मेरे साथ ही बैठीं एक और गायिका जिन्होंने पापा की ग़ज़ल गायी थी ' उम्र की धूप चढ़ती रही और हम छटपटाते रहे ' बहुत मधुर गायी।एक थर्मस में वो अपने लिए गुनगुना पानी लाई थीं।जिसको देख मैं मन ही मन सोच रही थी कि देखो ये होता है अपने गले का ध्यान और अपने पैशन की कद्र।


अब कार्यक्रम अपने अंतिम पड़ाव पर था।माहेश्वर जी के हाथों हम सभी को स्मृति चिन्ह दिये जाने थे।

उस दो पल के समय में उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा-बढ़िया गाया और मेहनत कर।


और जब सब याद आ ही रहा है तो मैं दैनिक जागरण के लिए नवगीतकार डॉ. योगेंद्र व्योम जी द्वारा माहेश्वर तिवारी जी का वो महत्वपूर्ण साक्षात्कार कैसे भूल सकती हूँ जिसमें उन्होंने तमाम प्रश्नों के उत्तरों में एक उत्तर गीत की बुनावट पर दिया है।।उनके गीत अधिकतर दो अंतरे के रहे।लेकिन उनका विस्तार असीमित था।शब्दों की मितव्यता उनके गीतों की ख़ासियत है।एक भी अतिरिक्त शब्द उनके गीतों में नहीं नज़र आता है।हर शब्द जैसे मोती सा जड़ा हुआ।बिम्ब अनूठे जो आसानी से कहीं पढ़ने में न आएं।ये साक्षात्कार आज भी मेरे संकलन में रखा हुआ है।

आज जब वो नहीं रहे तो पुन: ये सब स्मृतियाँ जीवंत हो उठी हैं।उसके बाद अनगित बार उनसे भेंट हुई।कई बार कवि सम्मेलनों के मंच पर भी।लेकिन अब ये सोनरूपा दो नावों में सवार नहीं थी।बस लिख ही रही थी वो।

उसने आईसीसीआर के इम्पेनल्ड आर्टिस्ट का रिन्युअल लेटर भी अब फाड़ कर फेंक दिया था।

मेरे गीत संग्रह के लोकार्पण पर भी आये वो।अब वो ठठा कर हँसते हुए कहते - ख़ूब लिख रही है अब।

'कोकिला कुल' किताब के उन्होंने कई लेखिकायें सुझाईं मुझे।

उनके घर का नाम हरसिंगार है।हरसिंगार जो मुझे बहुत प्रिय है उसी के चित्र से साथ स्मृतियों की ये ख़ुशबू आज पन्नों पर भी सहेज रही हूँ और यहाँ भी। दोपहर से लिखना शुरु किया अब शाम घिरने को है।सोच रही हूँ कि हमारे होने में कितने लोगों का होना शामिल होता है।


 ✍️ सोनरूपा विशाल

बदायूं

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते डॉ ओम निश्चल के दो गीत .......


कहां खो गए तुम

मुझे छोड़ कर के 

कहां छुप के बैठे हो

मुंह मोड़ कर के।

 

चलो आओ सम्मुख

 करो मुझसे बातें

 तो बातों से निकलेंगी

 कितनी ही बातें।

वो सदियों के रिश्ते

कभी जोड़ कर के।

कहां खो गए तुम

मुझे छोड़ कर के।


 अकेले हैं कितने

 तुम्हीं जानते हो 

 विकल वेदना मेरी

 पहचानते  हो 

जो वादे किए थे 

उन्हें तोड़ कर के।

कहां खो गए हो 

मुझे छोड़ कर के।


 उदासी का आलम 

 हमेशा न  होगा 

 कहीं  धूप  होगी 

 तो साया भी होगा 

भरोसा  न  तोड़ो 

ये मुंह मोड़ कर के।

कहां खो गए तुम

मुझे छोड़ कर के।

(2)

आई फिर एक और शोक की घड़ी

टूट  गई  एक  और गीत की कड़ी।


बिंबों की मालाएं

जैसे  बनफूल सी

झरती हैं धरती पर

महुए के फूल सी

भूल नहीं पाएंगे हम उनकी बंदिशें

यादों  में  उभरेगी  गीत  की लड़ी।


कवियों के कुल से 

उनका गहरा नाता था

छंदों का साथ रहे

यही उन्हे भाता था

याद बहुत आयेंगी जिंदादिल संध्याएं

बतकहियों, गीत  औ संगीत से भरी।


सरस्वती का आंगन 

कुछ सूना सूना है

उनकी अनुपस्थिति से

मन का दुख दूना है

कौन दुलारेगा अपनी आभा से गीत को

दुख  की   चादर   ओढ़े   वेदना  खड़ी।


हरसिंगार झरता था

ज्यों मन के आंगन में

इंद्रधनुष उग आता 

था नभ के दर्पण में

गीत कौन लिखेगा नदी की उदासी की

कौन  भला  फूंकेगा  लहरों  में बांसुरी।

✍️ ओम निश्चल 

नई दिल्ली

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी को याद करते हुए यश मालवीय का गीत


कोई किरन अकेली करती माहेश्वर को याद


टूट गया है गीतों वाला

बरसों का संवाद

कोई किरन अकेली करती

माहेश्वर को याद


हरसिंगार के फूल से आंसू

झर झर झरते हैं 

चुप रहकर भी जाने कितनी

बातें करते हैं 


सब कुछ सूना लगे

इलाहाबाद, मुरादाबाद


स्वप्न रेत के गीली आंखों में 

भर जाते हैं 

होठों पर लेकिन मीठी

वंशी धर जाते हैं 


धीरे धीरे हो जाता है

पीड़ा का अनुवाद


पोर पोर में जलती सी

समिधाएं होती हैं 

एक नहीं कितनी ही

गीत कथाएं होती हैं 


बदला बदला सा लगता है

छंदों का आस्वाद।


✍️ यश मालवीय

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी पर केंद्रित अर्चना उपाध्याय का संस्मरणात्मक आलेख .......तीन लोगों का समूह था: अब शून्य है

 


बाल पत्रिकाओं से शुरु हुआ मेरा किताबी सफ़र परिपक्वता के साहित्य प्रेम में बदल गया था।

प्रेमचंद से नई वाली हिंदी तक बहुत कुछ पढ़ा- जाना।समय- समय पर छपना- छपाना,पुरस्कार, सम्मान, पत्रिका संपादन आदि बहुत कुछ पर ठहरना भी हुआ।

लेकिन कुछ तो अपने काम की व्यस्तता ने धीमा रखा तो बहुत कुछ साहित्यिक दुनिया की अकथित परिभाषाओं ने असर डाला।

सालों के लंबे समय तक……

फिर मुरादाबाद आना हुआ। यहाँ भी उत्कृष्ट साहित्यिक पृष्ठभूमि थी, लोगों से परिचय तो हुआ लेकिन बढ़ाने की इच्छा नहीं हुई।

आदरणीय माहेश्वर बाबूजी को कौन नहीं जानता, ना भर पाने वाली तकलीफ़ के साथ बाँट रही हूँ कि मैं इस शहर में रहकर भी लंबे समय तक उनसे नहीं मिली थी।एक बार किसी कार्यक्रम में जब उनसे भेंट हुई ।तब उन्हें और क़रीब से जाना-

समझा। उनकी सरलता ने मुझ पर स्थायी प्रभाव छोड़ा था।सब उन्हें सम्मान के साथ दद्दा कह कर संबोधित कर रहे थे और वो अपने सादगी भरे अतुल्य व्यक्तित्व के साथ सभी से जुड़े थे।उनकी मधुर मुस्कान में मिले आशीर्वाद का सम्मोहन आख़िरकार मुझे उनके घर तक खींच ही ले गया।उस दिन उनके फ़ोन पर पता समझाने से लेकर स्वागत तक के अपनेपन ने ही मानो एक स्थायी संबंध का इशारा कर दिया था। कमरे में रखी सरस्वती माँ की मूर्ति और कई सारे पुरस्कार उनका पुनः परिचय देना चाह रहे थे लेकिन मुझे वहाँ कोई बड़ा साहित्यकार नहीं मिला, बल्कि एक स्नेहिल अम्मा- बाबूजी का साथ था। जिनके पास निश्छल प्रेम का एक ऐसा समंदर था जिसमें से मुझे भी अनमोल मोती मिलने वाले थे।वह दिन और आज का दिन , उनका स्नेहपाश आजीवन के लिए मुझे जकड़ चुका था।बीतते समय के साथ लगभग हर दूसरे -तीसरे दिन की बातों ने हमारे रिश्ते पर पड़े साहित्यिक शुरुआत के झीने आवरण को हटा कर पारिवारिक स्निग्धता से ढक दिया। 

उन पति- पत्नी का प्रेम मित्रता के अनूठे स्वाद से भरा था । उनकी चुहल भरी बातें, एक दूसरे का ख़्याल, उपस्थित समय को मंदिर की घंटियों की झंकार जैसे गुंजायमान कर देता।

एक को फ़ोन करो तो वो दूसरे को ज़रूर थमा देता था, एक को मेसेज करो तो जवाब दूसरा देता। इसलिए

जल्दी ही मैंने हम तीनों का एक वाट्स एप ग्रुप बना दिया और उसका नाम रखा अम्मा- बाबूजी । उस दिन वो खिलखिला कर हंसे थे और बोले बिलकुल सही किया हमारी ‘बिट्टू ‘ने।इस संबोधन ने तो मुझे पचास छूती उम्र में भी घर की उस ठुनकती नन्ही बच्ची में बदल दिया जिसके पास ज़िद, दुलार, अधिकार और न जाने कितनी चीजों की अंतहीन सूची होती है और सब पूरी होती है।

जिस दिन वो अपने नए घर के एक कमरे को लाइब्रेरी में बदल रहे थे उस दिन उनके पास ढेरों बातें और एक मासूम उत्साह था ,तब क्या पता था कि जिस लाइब्रेरी में किताबें पढ़ते हुए चाय पीना था वहाँ अब साथ होना भी आभासी है।

मुझे वापस लिखने- पढ़ने से उन्होंने ही जोड़ा।मेरे समूह और प्रयास की सराहना की,मेरी कविताओं - कहानियों को सुनते, मुझे सुझाव देते, साहित्य समर्पण के लिए प्रेरित करते, कभी अपना कोई गीत गाते या कभी अपना कोई संस्मरण सुनाते बाबूजी..

बातों - यादों का कोलाज़ बनाओ तो सब सीमित हो जाता है लेकिन जिए गए विस्तार को कुछ शब्दों में समेट लेना आसान है क्या? 

मेरे लिये तो नहीं।

बाबू जी की गिरती तबियत ने सभी को बेचैन कर दिया था, इस बार जब उन्हें मिलने गई थी तो सुस्त से लेटे थे, मैंने कहा बाबूजी ,ये नहीं चल पाएगा, और सचमुच थोड़ी देर में ही वो उठे , बातें की और बोले अगली बार आओगी तो मैं चलता दिखाई दूँगा,

पर ऐसे चले जाना तो तय नहीं हुआ था।मेरे दिये करौली बाबा के लॉकेट को तकिये के नीचे रखते थे। मैंने कहा कि मन्नत माँगी है आपके ठीक होने पर फिर जाऊँगी, तो बोले -“मुझे ले चलोगी ना।” मैंने कहा- पहले पूरा ठीक होना पड़ेगा।

मैं बाबूजी को ले जाना चाहती थी!

मैं उन्हें ले जाना चाहती हूँ!…


अम्मा बताती हैं कि नवरात्रों में पूजा- पाठ को लेकर बाबूजी बहुत संवेदनशील रहते थे, इस बार भी उन्होंने हवन के लिए पूछा था लेकिन इस बार ख़ुद को ही समिधा होना चुन लिया।अंतिम विदा में भी उनके चेहरे की ओर देखने का साहस मुझसे नही हुआ,

लेकिन तब भी तमाम अधूरे वादों- इरादों की तीखी छुअन मेरी आँखों में चुभ गई है।

अंतिम दिन भी अम्मा को नवरात्रि का पाठ करते,  सुनने वाले बाबूजी के बिना उनकी पूजा अब कभी पूरी हो पाएगी क्या?

इतने पास रहकर भी उनसे इतनी देर से मिल पाने का मलाल कभी मन से भुला पाऊँगी क्या?

एक झटके में पूरा जीवन एक प्रश्न बन जाता है, और हमारे पास कोई उत्तर नहीं होता।

जब तक गाड़ी मुड न जाए तब तक गेट पर खड़े रहने वाले बाबूजी क्या अब भी अपनी बिटिया को ऐसे विदा करेंगे!

अपनों से मिला दुःख बहुत बड़ा होता है, लेकिन बताने के लिए शब्द घट जाते हैं।जो उनसे मिला … जिया…उसे कहने- सुनने की अनुमति मुझे अब सिर्फ़ मन से मन तक ही महसूस हो रही है।

 मेरे इस वाट्स एप ग्रुप की शून्यता मेरे अंतिम समय तक नहीं भर पाएगी।

संस्मरण बाँटना तो स्मृति का अंश भर है, लेकिन पीड़ा उम्र भर की स्मृति।

बाबूजी की बिट्टू

 अर्चना उपाध्याय 









शुक्रवार, 3 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता प्रख्यात साहित्यकार राजेंद्र गौतम का आलेख ....जीवन के खुरदुरेपन में मिठास पैदा करने वाला कवि। उनका यह आलेख प्रकाशित हुआ है दैनिक ट्रिब्यून चंडीगढ़ के 21 अप्रैल 2024 के अंक में


 16 अप्रैल 2024 को माहेश्वर तिवारी के निधन के साथ समकालीन नवगीत का उच्चतम शिखर ढह गया। इसके साथ उनकी सात दशक की काव्य-यात्रा का अवसान हो गया। तिवारीजी की रचनाएँ छठे दशक से ही ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। 'पांच जोड़ बांसुरी', 'नवगीत दशक-दो', 'यात्रा में साथ-साथ', 'गीतायन' जैसे सभी प्रतिनिधि नवगीत संकलनों में उनके गीत शामिल हैं। उनके नवगीत-संग्रह हैं: ‘हरसिंगार कोई तो हो', 'सच की कोई शर्त नहीं', 'नदी का अकेलापन' और 'फूल आये हैं कनेरों में'। इन संग्रहों का  समकालीन कविता के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। काव्य-मंचों पर भी निरंतर उनकी उपस्थिति रही। उनका जन्म 22 जुलाई 1939 को बस्ती, (उ.प्र) में हुआ था। कुछ समय तक उन्होंने विदिशा में अध्यापन भी किया। उनकी संगीत-विशारद पत्नी विशाखा जी को चलने में कठिनाई थी। वे भी कॉलेज में पढ़ाती थीं। उनकी सुविधा का ध्यान रखते हुए माहेश्वर जी ने अध्यापन छोड़कर काव्य-मंचों को आजीविका का साधन बनाया लेकिन कभी मंचीय कवियों की तरह कविता के स्तर से समझौता नहीं किया।

माहेश्वर तिवारी के गीतों की ज़मीन बहुत विशिष्ट रही है। उन्होंने कृत्रिमताओं और बड़बोलेपन से दूर जीवन के ऐसे सहज चित्र प्रस्तुत किए, जिनमें पाठक के साथ चलने, उसकी संवेदना का हिस्सा बनने की अद्भुत क्षमता है। यह शक्ति उनकी काव्य-भाषा की बिंबात्मकता में निहित है। वे इसे नवगीत की काव्य-भाषा की विशिष्टता मानते हुए कहते हैं: “नवगीत एक बिंबप्रधान काव्य-रूप है। उसमें सहजता तो अभिप्रेय है लेकिन सपाटबयानी नहीं। सपाट सिर्फ़ गद्य हो सकता है कविता नहीं।... कविता... जितना व्यक्त करती है उतना ही अनकहा भी छोड़ देती है। दरअसल यह अनकहा ही तो कविता है”। नवगीत के विरोधियों ने इसकी प्रासंगिकता को नकारते हुए एक भ्रामक तस्वीर गढ़ने की कोशिश की लेकिन भ्रम को तोड़ते हुए माहेश्वर तिवारी ने स्पष्ट किया: “नवगीत नई कविता से मुकाबले के लिए ओढ़ा गया कोई आवरण नहीं है। कविता के इतिहास में यथार्थ के दबाव से इसका जन्म हुआ”। कम ही नवगीतकार ज़िंदगी के उतना निकट हैं, जितना माहेश्वर तिवारी। अति साधारण दृश्यों और घटनाओं से असाधारण संवेदना को व्यंजित करने वाले गीतों की रचना उनकी मौलिकता का आधार है। आश्वस्ति के स्पर्श में और रीढ़ को सिहरने वाले भय में क्या रिश्ता है, इसे परिवेश की हल्की रेखाओं से उभरने वाले बिंबों से वे कैसे चित्रित करते हैं, इसे ऐसे गीतों से समझा जा सकता है: 

उंगलियों से कभी

हल्का-सा छुएँ भी तो

झील का ठहरा हुआ जल

काँप जाता है।

मछलियाँ बेचैन हो उठतीं

देखते ही हाथ की परछाइयाँ

एक कंकड़ फेंक कर देखो

काँप उठती हैं सभी गहराइयाँ

और उस पल

झुका कन्धों पर क्षितिज की

हर लहर के साथ

बादल काँप जाता है।

हम जिस खूंखार समय में जी रहे हैं, उसमें सत्ता और व्यवस्था के दानवी शिकंजे हमें कसे हैं। इस भयावह वातावरण में कविता का काम सबसे जटिल और कठिन है। माहेश्वर तिवारी इस चुनौती को स्वीकार करते हैं और बहुत धारदार शैली में अपने वक़्त के वहशी चेहरे को बेनकाब करते हैं। खौफ़ के इस मंज़र की एक मुकम्मिल तस्वीर वे पाठक के सामने रखते हैं। विशेष यह है कि यह न तो नारेबाजी है और न नक्काशी। कविता की अनिवार्य उपस्थिती का नाम ही माहेश्वर तिवारी है। झुलसते हुए बारूदी सुरंगों के सफ़र को तय किया जाने का यह बयान बहुत मर्मस्पर्शी है: 

हम पसरती आग में

जलते शहर हैं

... हम झुलसते हुए

बारूदी सुरंगों के

सफ़र हैं 

कल उगेंगे

फूल बनकर हम

जमीनों में 

सोच को

तब्दील करते

फिर यकीनों में

आज तो

ज्वालामुखी पर

थरथराते हुए घर हैं  

नवगीत की रचना-प्रक्रिया में बिंबात्मकता के अतिरिक्त भाषा का रूपकात्मक और प्रतीकगर्भित प्रयोग इसकी नयी शैली का निर्माण करता है। जहां ये प्रयोग सहज एवं संवेदनाश्रित हैं, वहाँ वे इसकी उपलब्धि बने हैं, जहां उन्हें चमत्कार का जामा पहनाया गया है, वहाँ वे खिलवाड़ लगते हैं। माहेश्वर तिवारी के काव्य में प्रकृतिधर्मी प्रतीकों का अद्भुत प्रयोग नवगीत ही नहीं, समूची हिन्दी कविता में एक विशिष्ट स्थान रखता है। जिजीविषा और  संघर्ष को प्रकृतिधर्मी प्रतीकों से माहेश्वर तिवारी ने ऐसे अद्भुत गीतों की रचना की है:  

कुहरे में सोये हैं पेड़

पत्ता-पत्ता नम है

यह सबूत क्या कम है

लगता है

लिपट कर टहनियों से

बहुत बहुत

रोये हैं पेड़

जंगल का घर छूटा

कुछ कुछ भीतर टूटा

शहरों में 

बेघर होकर जीते

सपनों में खोये हैं पेड़

यद्यपि माहेश्वर तिवारी ने रूमान को अभिव्यक्त करते ‘याद तुम्हारी जैसे कोई/कंचन-कलश भरे’। जैसे कालजयी गीतों की भी रचना की है लेकिन एक बहुत बड़ी संख्या उनके ऐसे गीतों की है, जिनमें अपने समय का दर्द गूँजता है। अपनी समस्त सौंदर्य-चेतना के बावजूद कविता यदि गूँगों की ज़ुबान नहीं बन पाती तो उसकी प्रासंगिकता संदिग्ध है। तिवारीजी के गीतों में मौजूद गहरा चिंतन हालात की प्रामाणिक तस्वीर ही नहीं है, सामाजिक संघर्ष का दस्तावेज़ भी है। समय के दर्द को आवाज देना पलायन नहीं अपितु मनुष्यता-विरोधी ताकतों को पहचान कर आम  आदमी को सुन्न कर देने वाले उस दर्द का अहसास भी करवाना है, जिसका प्रतीकार अपेक्षित है। यह माहेश्वर ने ऐसे गीतों से बखूबी किया है। 

 अंतत: माहेश्वर तिवारी द्वारा अपनी कविता के प्रेरणा-स्रोतों का यह उल्लेख उन्हें जीवन से जुड़ा हुआ कवि ही सिद्ध करता है: “मैं अपने कथ्य अपने समकालीन जनजीवन से उठाता हूँ। मुझे बिंब और भाषा के लिए किसी द्राविड़प्राणायाम की आवश्यकता महसूस नहीं होती। हमारे आसपास होती बतियाहट, जीवन के रस में डूबी शब्द संपदा स्वयँ यह मिठास भर देती है। कविता में मैंने भवानी प्रसाद मिश्र और ठाकुरप्रसाद सिंह से मिठास को पहचानना और अपनाना सीखा है, मैंने कुमार गंधर्व, पं. जसराज, किशोरी अमोनकर से संगीत की मिठास को अपने में महसूस किया है और फिर उसे अपने शब्दों, बिंबों में पिरोने का प्रयास किया है। जिस तरह गन्ने से मिठास पाई जाती है ऊपर का सख़्त छिलका, गांठें हटाकर। उसी तरह मैंने जीवन के खुरदुरेपन में भी मिठास पाने का प्रयत्न किया है। मैंने जीवन में रिश्तों को बहुत महत्व दिया है। सबको प्यार, अपनापन देने और सबसे पाने का आग्रही रहा हूँ। यह मिठास वहाँ से भी मिलती है। मेरे लिए घर मिठास का सबसे बड़ा स्रोत है। वहाँ से भाषा भी मिलती है और विचार भी”। 

✍️ राजेंद्र गौतम 

 

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता मीनाक्षी ठाकुर का गीत ....


एक तुम्हारे जाने भर से

सूनापन उतरा मन में । 


गीत थमा, संगीत थमा है, 

शब्द अचंभित मौन खड़े। 

धूल- धूसरित भाव हो गये, 

व्याकुलता के भरे घड़े। 

फूल कनेरों के सूखे हैं, 

सन्नाटा है आँगन में। 

एक तुम्हारे जाने भर से

सूनापन उतरा मन में ।। 


उखड़ गया वट वृक्ष पुराना, 

कुटिल -काल के अंधड़ में। 

 डाली से टूटा है पत्ता, 

 इस मौसम के पतझड़ में। 

हरसिंगारों के मुँह उतरे

क्रंदन करते हैं वन में। 

एक तुम्हारे जाने भर से

सूनापन उतरा मन में।। 


आज अकेली नदी हो गयी

चला गया जो था अपना। 

 मंद हुई चिड़िया की धड़कन

टूट गया सुंदर सपना। 

पर्वत कोई गिरा यहाँ पर

हलचल सी है इस वन में। 

एक तुम्हारे जाने भर से

सूनापन उतरा मन में ।। 


✍️ मीनाक्षी ठाकुर 

मिलन विहार

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता डॉ बुद्धि नाथ मिश्र का गीत ......

 




जी भर रोया

रोज एक परिजन को खोया

पाकर लम्बी उमर आज मैं

जी भर रोया।


जिनके साथ उठा-बैठा

पर्वत-शिखरों पर

उनको आया सुला

दहकते अंगारों पर

जो था मुझे जगाता

सारी रात हँसा कर

वह है खुद लहरों पर सोया।


एक-एक कर तजे सभी

सम्मोहन घर का

रहा देखता मैं निरीह

सुग्गा पिंजर का

हुआ अचंभित फूल देखकर

टूट गया वह धागा

जिसमें हार पिरोया।


किसके-किसके नाम

दीप लहरों पर भेजूँ

टूटे-बिखरे शीशे

कितने चित्र सहेजूँ

जिसने चंदा बनने का

एहसास कराया

बादल बनकर वही भिगोया। 


✍️ बुद्धिनाथ मिश्र

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी को श्रद्धा सुमन अर्पित करता डॉ अजय अनुपम का गीत ......



...खुशबुओं के बीच माहेश्वर


बन उतरती धूप 

जिसके गीत में अक्षर

बो गये हैं खुशबुओं के बीज

माहेश्वर


चेतना में चांदनी की

दमकती काया

भाव से जिसने सहज ही

नेह बरसाया

खोल मन की बात

मिलना नेह में भरकर


आंँसुओं को गीत के कपड़े

पिन्हाते थे

गुनगुना कर चांँद-तारों को

बुलाते थे

अब बनाया चांँद-तारों में

उन्होंने घर


वह कनेरों के बगीचे के

दुलारे थे

फूल खुशबू या कि चमकीले

सितारे थे

बन गये नवगीत का पर्याय

शाश्वत-स्वर

खो गये हैं खुशबुओं के बीच

माहेश्वर


✍️डॉ. अजय अनुपम

मुरादाबाद


मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी जी से लिया गया यह साक्षात्कार बरेली से प्रकाशित दैनिक अमर उजाला के 24 मई 1987 के रविवासरीय परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ था । उस समय मैं एम ए का विद्यार्थी था । 37 वर्ष पूर्व लिया गया यह साक्षात्कार आज भी प्रासंगिक है ––

लोक से ही मिलते हैं कविता के संस्कार


■■ आपने किस आयु से लिखना प्रारंभ किया तथा लेखन की प्रेरणा किससे मिली?

□□ बारह वर्ष की आयु से। पहला छन्द एक समस्या पूर्ति के रूप में था। प्रेरणा के बारे में कई बातें हैं। पहली--मेरे चाचाजी को गीत-गोविन्द आदि के पद कंठस्थ थे। वे जब उन्हें सस्वर गाया करते थे तब मैं भी उनके साथ बैठ जाया करता था जिसके कारण संस्कार मेरे वहीं से पड़ गये।

     उसके बाद जब मैं जूनियर हाईस्कूल में पढ़ने गया तो वहां रामदेव सिंह कलाधर नामक के एक अध्यापक थे जो स्वयं सनेही जी के मण्डल के समर्थ रचनाकारों में से एक थे। चूंकि वहां उस समय कोई विशिष्ट श्रोता नहीं थे अतः उनके छात्र ही उनकी रचनाओं के प्रथम श्रोता होते थे। उसी दौरान में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की प्रथमा की परीक्षा में बैठा और रामचन्द्र शुक्ल 'सरस' का खण्ड काव्य को जो 'अभिमन्यु' से संबंधित था, पढ़ा। उसे  पढ़ते समय मुझे अचानक लगा मैं भी कुछ  लिख सकता हूं। संयोग है कि पहला छन्द जो मैंने लिखा वह अभिमन्यु से ही संबंधित था। इस बारे में जैसे ही श्री कलाधर जी को मेरे बारे में जानकारी मिली तो उन्होंने न केवल मुझे प्रोत्साहित किया बल्कि छन्द शास्त्र की अलग से शिक्षा भी देनी प्रारंभ कर दी। इसलिये प्रेरक या काव्य गुरु अगर मैं किसी को कह सकता हूं तो श्री रामदेव सिंह कलाधर जी को ही। हालांकि प्राथमिक संस्कार मुझे परिवार से ही मिले।

■■ आपने अधिकतर नवगीत ही लिखे हैं। क्या सोच-समझकर या लिखने के बाद आपको लगा कि यह नवगीत हो गये हैं?

□□ दरअसल नवगीत के साथ मैं सन् 1969 से जुड़ा। उससे पहले छायावाद उत्तर गाथा से ही जुड़ा हुआ था। लिखने के साथ-साथ पढ़ने की रुचि मुझमें शुरू से थी उस समय मैं प्रकाशित रचनाओं को सिर्फ पढ़ता ही नहीं था, उन पर सोचता भी था और इस सोचने के क्रम में मुझे ऐसा लगा यदि हिन्दी गीत को अपने समय के साथ साँस लेनी है तो उसे उपस्थित चुनौतियों से जूझना पड़ेगा और उस समय हिन्दी गीत के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी--'नयी कविता' यदि हिन्दी गीत उस समय नयी कविता के अभिव्यक्ति कौशल को और समकालीन रचना के मुहावरों को नहीं पकड़ता तो इसके अप्रासंगिक हो जाने की पूरी-पूरी संभावनाएं थीं। दूसरी चुनौती थी मंच से पढ़े जाने वाले गीतों में निरन्तर रचनात्मकता का ह्रास होना। प्रमुख रूप से इन दो चुनौतियों ने मुझे नवगीत से जोड़ दिया। इसके अलावा मुझे वातावरण भी कुछ ऐसा मिला। देवेन्द्र कुमार, डा. परमानन्द श्रीवास्तव, ब्रजराज तिवारी, रामसेवक श्रीवास्तव, भगवान सिह आदि युवा रचनाकार मेरे महाविद्यालय के सहपाठी थे।

 ■■ गीत से नवगीत की पृथकता की पहचान के लिये आप किन-किन आधारों को स्वीकार करेंगे?

□□ देखिये, नवगीत ने आधुनिक बोध को ग्रहण किया है जबकि परम्परावादी गीत में आधुनिक बोध नहीं है। नवगीत में संभवतः पहली बार रागात्मकता को दाम्पत्य तथा पारिवारिकता से जोड़ा गया है जबकि परम्परावादी गीतों में आध्यात्म तथा प्रेम का ही बखान प्रमुख रूप से हुआ है। नवगीत ने छन्द में आवश्यक परिवर्तन किये हैं और छोटा किया है जबकि परम्परावादी गीत लम्बे-लम्बे लिखे जाते रहे हैं। नवगीत ने नये प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से अपनी रचनात्मकता को सुधारा है।

दूसरी बात--नवगीत ने शब्दों के  संभावित अर्थों को साथ-साथ अपनाया है। इसके अलावा लोक से ही कविता को आदिशक्ति और संस्कार मिलते रहे हैं। नवगीत अपनी तलाश में उसी ओर लौटा जबकि परम्परावादी गीतों में यह लोक चेतना या लोक संस्कृति, लोक भाषा अथवा लोकलय अनुपस्थित रही।

■■ आपकी दृष्टि में श्रेष्ठ कविता के लिये किन-किन गुणों का समावेश होना जरूरी है?

□□ सबसे पहली चीज है, रचना की विषय वस्तु। दरअसल जब तक रचना से यह स्पष्ट न हो कि वह आपके निजत्व को तोड़कर उसे कितना सामाजिक बनाती है तथा अपने समय के साथ अपनी प्रांसगिकता को सिद्ध करती है तब तक रचना शिल्प की दृष्टि से कितनी ही प्रौढ़ और परिपक्व क्यों न हो वह एक कमजोर रचना ही मानी जायेगी। शिल्पगत निखार उसका एक उपकरण है लेकिन वह सबसे ज्यादा जरूरी और सबसे बड़ा उपकरण नहीं है। प्रमाण देना यदि किसी रचना की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये शिल्पगत आग्रह ही प्रमुख होते तो कबीर को या तो कवि ही नहीं माना जाता और यदि माना जाता तो एक घटिये दर्जे का।

      मात्राएं गिनकर हम सिर्फ कविता का ढाँचा खड़ा कर सकते हैं उससे कविता नहीं खड़ी कर सकते। हिन्दी साहित्य की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि उसके तमाम रचनाकार शब्द और अर्थ की लय को भूलकर मात्राओं के तानपुरे में ज्यादा उलझे रहते हैं। इसीलिये आज के बहुत से गीतों में सिर्फ साज बजते हैं, गीत नहीं सुनाई देता।

■■ क्या कोई विचारधारा अथवा सिद्धान्त आपके विचारों को बल देता है और क्या उसका उपयोग आप अपने लेखन में करते हैं ?

□□ हाँ, सन् 1970 तक कलावादियों की तरह सिर्फ कलागत आग्रह ही मेरी रचनाओं के मूलबिन्दु थे। कोई भी विचारधारा अलग से स्पष्ट नहीं थी। 1970 के बाद प्रगतिशील विचारधारा से समता के कारण यह स्पष्ट हो गया कि रचना की सबसे बड़ी और केन्द्रीय चुनौती और चिन्ता उसके सामाजिक चुनौती और चिन्ता उसके सामाजिक सरोकारों से जुड़कर प्रासंगिकता ग्रहण करती है। उसका परिणाम यह हुआ कि मैं अपने लेखन में सामाजिक चिन्ताओं को ही अभिव्यक्ति देने लगा।

■■ आदरणीय तिवारी जी, क्या आप मानते हैं कि कविता से सामाजिक क्रान्ति संभव है?

□□ कविता से सामाजिक बदलाव दूसरी प्रक्रियाओं की अपेक्षा ठोस किन्तु धीमी होती है। रचना अपने आप में पूर्ण होती है और अपने समय के मनुष्य के मन और मस्तिष्क को तैयार करती है और इसके लिये उसे व्यक्ति के मन में बैठे पूर्व संस्कारों से जूझना पड़ता है।

■■ आप कवि सम्मेलनों से भी बहुत जुड़े हुए हैं। क्या आप आज के कवि सम्मेलनों के स्वरूप से सन्तुष्ट हैं?

□□ मैं नितान्त असन्तुष्ट हूं। सबसे पहले तो घटिया रचनाकारों की मंच से छंटाई होनी  चाहिये और दूसरे घटिया कवियों ने जिन श्रोताओं और पाठकों के मन बिगाड़ दिये हैं उनको संस्कारित करने के लिये बड़ी गोष्ठियां आयोजित की जायें।

■■ चलते-चलते, एक प्रश्न नवोदित रचनाकारों की ओर से कि आप उन्हें क्या सुझाव देना चाहेंगे?

□□ नवोदित रचनाकारों को मेरा सुझाव है - कि वे जिस भी विधा में लिख रहे हों उस विधा के पुराने से लेकर नये तक के साहित्य को गंभीरता से पढ़ें और उस पर चिन्तन करें। 



सोमवार, 29 अप्रैल 2024

मुरादाबाद मंडल के नजीबाबाद ( जनपद बिजनौर) से अमन कुमार के संपादन में प्रकाशित राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र ओपन डोर का संयुक्तांक (वर्ष चार अंक 10– 11) 21 एवं 28 अप्रैल 2024 नवगीतकार माहेश्वर तिवारी को भावभीनी श्रद्धांजलि अंक के रूप में प्रकाशित हुआ है । 36 पेज के इस महत्वपूर्ण एवं संग्रहणीय अंक में हैं –– राजेंद्र गौतम, डॉ मक्खन मुरादाबादी, राजीव प्रखर, अर्चना उपाध्याय, डॉ अशोक रस्तोगी, सोनरूपा विशाल, प्रदीप गुप्ता, बाल सुंदरी तिवारी, जिया जमीर, श्रीकृष्ण शुक्ल, ओंकार सिंह ओंकार, डॉ शंकर लाल शर्मा क्षेम, प्रो ममता सिंह, डॉ अनिल शर्मा अनिल, ए टी ज़ाकिर, डॉ रीता सिंह, योगेंद्र वर्मा व्योम, दयानंद पांडेय, राशिद हुसैन, डॉ राहुल अवस्थी, डॉ मनोज रस्तोगी, डॉ मोहम्मद जावेद और अशोक विश्नोई के श्रद्धांजलि आलेख, मीनाक्षी ठाकुर, योगेंद्र वर्मा व्योम, ओम निश्चल, डॉ अजय अनुपम, बुद्धि नाथ मिश्र, यश मालवीय और जय कृष्ण राय तुषार के श्रद्धांजलि गीत, डॉ कृष्ण कुमार नाज और डॉ मनोज रस्तोगी द्वारा माहेश्वर तिवारी से लिए गए साक्षात्कार, मुरादाबाद में हुई श्रद्धांजलि सभा का समाचार। इसके अतिरिक्त स्मृति शेष माहेश्वर तिवारी का साहित्यिक परिचय, 26 दोहे ,12 ग़ज़लें और 10 नवगीत..... साथ में है दुर्लभ चित्र तथा अंतिम विदाई के दुखद पल .....


 पूरा अंक पढ़ने के लिए क्लिक कीजिए 

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:::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

संस्थापक

साहित्यिक मुरादाबाद शोधालय

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नंबर 9456687822

रविवार, 21 अप्रैल 2024

मुरादाबाद के साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाज द्वारा साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी की स्मृति में 21 अप्रैल 2024 को श्रद्धांजलि सभा का आयोजन



‘याद तुम्हारी जैसे कोई कंचन कलश भरे, जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे’, अब तो केवल यादें ही शेष रह गई हैं सुप्रसिद्ध गीतकार कीर्तिशेष दादा माहेश्वर तिवारी जी की। लोगों की जुबान पर बसे उनके गीत, सभी के प्रति उनकी आत्मीयता, उनकी मनमोहक छवि, उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व और उनके चिर-परिचित ठहाके, सभी कुछ जीवित है, जीवंत है यत्र-त़त्र-सर्वत्र। उनकी यादें तैरती रहेंगी उन्हीं के शब्दों में, ‘...पत्ता-पत्ता नम है, ये सुबूत क्या कम है।’ 

    मुरादाबाद के समूचे साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाज द्वारा उनकी स्मृति में रविवार 21 अप्रैल 2024 को एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन महानगर स्थित स्वतंत्रता सेनानी भवन पर किया गया, जिसमें महानगर के साहित्यिक, शैक्षिक, संगीत एवं सांस्कृतिक समाज सहित हर वर्ग से जुड़ी विभूतियों ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अपनी संवेदनाएं व्यक्त कीं। 

    श्रद्धांजलि सभा में ‘एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है, बेजुबान छत-दीवारों को घर कर देता है’ सहित दादा तिवारी जी की कुछ लोकप्रिय रचनाओं का ऑडियो प्रस्तुतिकरण भी किया गया। 

वरिष्ठ लेखक एवं शिक्षाविद् डॉ. रामानंद शर्मा का कहना था कि ‘कीर्तिशेष माहेश्वर जी का सृजन देश एवं देश से बाहर भी साहित्य साधकों के लिए अनुकरणीय रहा।’ 

   मशहूर शायर मंसूर उस्मानी का कहना था कि ‘दादा एक बड़े गीतकार तो थे ही, बहुत बड़े इंसान भी थे। वह अपने उच्च विचारों एवं साहित्यिक समर्पण के चलते हम सभी के दिलों में हमेशा उपस्थित रहेंगे।’ 

वरिष्ठ शिक्षाविद डॉ. विशेष गुप्ता ने कहा कि ‘दादा न केवल एक महान साहित्यकार थे अपितु एक महान चिन्तक भी थे जिन्होंने अपनी विचारधारा से समाज को उन्नति की ओर ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।’ 

  वरिष्ठ कवयित्री डॉ. प्रेमवती उपाध्याय ने अपने श्रद्धाभाव अर्पित करते हुए कहा कि ‘देश के साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाज की चर्चा जब भी होगी, वह तिवारी जी की चर्चा के बिना अधूरी ही रहेगी।’ 

वरिष्ठ रंगकर्मी डॉ. प्रदीप शर्मा ने अपने उद्बोधन में कहा कि ‘दादा माहेश्वर जी साहित्य के साथ-साथ रंगमंच में भी रुचि लेते थे। उनके सानिध्य में महानगर में कई रंगमंचीय प्रस्तुतियां हुईं।’ 

 दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय के प्रबंधक उमाकांत गुप्ता ने कहा उनसे हमारा पारिवारिक रिश्ता था । उनका आशीष सदैव हमें मिलता रहा।   

 वरिष्ठ समाजसेवी डॉ. के.के. मिश्रा ने भाव अर्पित करते हुए कहा कि ‘दादा माहेश्वर जी जीवन पर्यन्त साहित्य एवं संस्कृति की सेवा में तत्पर रहे। उनका यह समर्पण एवं साधना समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहेगी।’

    धर्मगुरू एवं कथा वाचक आचार्य धीरशांत दास ने कहा कि ‘माहेश्वर तिवारी जी जैसा कवि युगों के बाद जन्म लेता है, वह सदा अपने गीतों में जीवित रहेंगे।’ 

    सुप्रसिद्ध संगीतज्ञा एवं दादा की धर्मपत्नी  बाल सुंदरी तिवारी जी ने भावुक होते हुए कहा कि ‘विपरीत परिस्थितियों में भी सकारात्मक रहना दादा की विशेषता थी।’ 

   कवयित्री डॉ. पूनम बंसल ने अपनी भावांजलि अर्पित करते हुए कहा कि ‘मेरी साहित्यिक यात्रा में कीर्तिशेष दादा की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही और मेरा मानना है कि मेरे प्रत्येक गीत में उनकी सुगंध बसती है।’ 

वरिष्ठ गजलकार डाॅ. कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि ‘दादा तिवारी जी के साथ बैठकर बतियाने का मतलब साहित्य के एक युग के साथ बतियाना था।’    

वरिष्ठ रचनाकार अशोक विश्नोई ने कहा कि ‘विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य रखना दादा की विशेषता रही।’ 

सुप्रसिद्ध संगीतकार आदर्श भटनागर का कहना था कि ‘दादा मुरादाबाद एवं यहाॅं के लोगों से बेहद स्नेह करते थे। एक उच्च कोटि का साहित्यकार होने के साथ-साथ उन्हें संगीत की भी गहरी जानकारी थी।’ 

    वरिष्ठ रंगकर्मी धनसिंह धनेंद्र ने कहा प्रयास द्वारा मंचित प्रत्येक नुक्कड़ नाटक में उनकी उपस्थिति मुझे सदैव प्रेरित करती रही ।

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मनोज रस्तोगी ने अत्यधिक भावुक होते हुए कहा कि ‘दादा की साहित्यिक यात्रा एक अद्भुत व प्रेरक दस्तावेज बनाकर हमें उनका स्मरण कराती रहेगी।’ 

  नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का कहना था कि ‘दादा माहेश्वर तिवारी जी भौतिक रूप से भले ही हमारे बीच उपस्थित न हों परंतु अपने रचनाकर्म एवं प्रेरक जीवन शैली के माध्यम से वह हम सभी के हृदय में सदैव उपस्थित रहेंगे।’ 

दोहाकार राजीव प्रखर ने अपने भाव व्यक्त करते हुए कहा कि ‘व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों ही दृष्टियों से इतनी ऊँचाई पर होते हुए भी दादा आजीवन अपनी जड़ और जमीन से जुड़े रहे। इस महान गौरवशाली यात्रा को चंद शब्दों में समेट पाना संभव नहीं, वह हमेशा हमारे दिलों में अमर रहेंगे।’

 शायर जिया जमीर ने कहा कि ‘वह एक महान गीतकार होने के साथ-साथ बहुत अच्छे गजलकार भी थे। उनके जाने के पश्चात् हम सभी का यह दायित्व बनता है कि उनके अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित करा कर साहित्यिक समाज के सम्मुख लाया जाए।’ 

    कला भारती के संस्थापक बाबा संजीव आकांक्षी ने दादा का भावपूर्ण स्मरण करते हुए कहा कि ‘दादा जीवन पर्यन्त समाज के प्रत्येक वर्ग के हितार्थ अपना सृजन करते रहे। एक आम व्यक्ति का जीवन उनकी रचनाओं में स्पष्ट दिखाई देता है।’

 गीतकार मयंक शर्मा ने कहा कि ‘दादा माहेश्वर जी वरिष्ठ एवं कनिष्ठ सभी में समान रूप से लोकप्रिय रहे।’ 

कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर ने कहा कि ‘छोटे-बड़े सभी रचनाकारों से स्नेह करना दादा की विशेषता थी। उनका जाना समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए एक अपूर्णीय क्षति है।’ 

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी संगठन के धवल दीक्षित ने कहा कि ‘कीर्तिशेष माहेश्वर दादा की सीधी-सरल जीवन शैली एवं कठिन साधना संपूर्ण साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान रखती है।’ 

कवि दुष्यंत बाबा का कहना था कि ‘साहित्य एवं संस्कृति के प्रति दादा का प्रेम उनकी रचनाओं में मुखर होकर हमारे समक्ष आता है। साहित्य जगत् में उनका नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जा चुका है।’ 

नवोदित कवयित्री अभिव्यक्ति सिन्हा ने अपनी भावांजलि अर्पित करते हुए कहा कि ‘महानगर में किसी मार्ग का नाम कीर्तिशेष माहेश्वर दादा के नाम पर रखा जाना चाहिए।’ 

इसके अतिरिक्त अर्जुनवीर वर्मा,फक्कड़ मुरादाबादी, विवेक निर्मल, डॉ राकेश चक्र, सुनील शर्मा, पूजा राणा, राशिद हुसैन, सरदार गुरविंदर सिंह, राम सिंह निशंक, नेपाल सिंह, रामदत्त द्विवेदी, विजय दिव्य, डॉ. शलभ गुप्ता, मनोज व्यास, राहुल श्रीवास्तव, सरिता लाल, डॉ. आसिफ हुसैन, फरहत अली खान, श्रीकृष्ण शुक्ल, शिवम वर्मा, शुभम कश्यप, अरुण मोहन शंखधर, अनिल कांत बंसल, संतोष गुप्ता, शिखा रस्तोगी डॉ चंद्र भान, अनिमेष शर्मा, अनिल शर्मा, संजय स्वामी, राजेंद्र मोहन शर्मा, इशिका, लिपिका आदि ने भी दादा का भावपूर्ण श्रवण करते हुए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। अंत में कीर्तिशेष माहेश्वर तिवारी जी की स्मृति में दो मिनट का मौन रखते हुए सभा समापन पर पहुंची। श्रद्धांजलि सभा का संचालन संयुक्त रूप से डॉ. मनोज रस्तोगी एवं धवल दीक्षित ने किया।