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मुरादाबाद इन अर्थों में विशेष रूप से सौभाग्यशाली रहा है कि यहाँ जन्में अथवा रहे हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं के अनेक रचनाकारों ने अपने कृतित्व से न केवल राष्ट्रीय स्तर पर साहित्य को समृद्ध किया वरन मुरादाबाद की प्रतिष्ठा को भी समृद्ध किया है। साहित्य की समृद्धि और प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि का यह क्रम आज भी अनवरत रूप से प्रवाहमान है। डाॅ. आर.सी.शुक्ल मुरादाबाद के वर्तमान समय के वरिष्ठ और महत्वपूर्ण रचनाकारों में शुमार ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने हिन्दी व अंग्रेज़ी में समान रूप से उल्लेखनीय सृजन किया है। उनकी अंग्रेज़ी में 10 पुस्तकें तथा हिन्दी में 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
हिन्दी के विख्यात कवि डा. शोभनाथ शुक्ल ने कहा है कि ‘कविता तो जीवन की व्याख्या है, विसंगतियों एवं जटिल-कुटिल परिस्थितियों में जीवन जीने की कला और संवेदना का लवालब संसार होती है कविता। मानव के लघुतर होते जाते कलेवर का पुनः सृजन करती है और सूखते जाते रिश्तों के तट पर फिर से लहरों की छुवन को महसूस कराती है’। हिन्दी के वरिष्ठ कवि डाॅ. आर.सी.शुक्ल की सद्यः प्रकाशित काव्यकृति ‘ज़िन्दगी एक गड्डी है ताश की’ की रचनाओं से गुजरते हुए भी यही महसूस होता है कि उनके सृजन लोक में जीवन-जगत से जुड़ा और जीवन-जगत से परे का हर छोटा-बड़ा परिदृश्य यहाँ-वहाँ चहलकदमी करता हुआ दिखाई देता है। संग्रह की शीर्षक रचना में शुक्ल जी संकेत में गहरी बात कहते हैं-
हमारी ज़िन्दगी की सूरत
इस बात पर निर्भर करती है कि
हमारा राजा कैसा है
सूरज अगर बेईमान हो जाय
तो खेतों में खड़ी फसलें तो
बर्बाद हो ही जायेंगी
पुरुषों और स्त्रियों के जिस्मों में भी
लग जायेगी फफूँद
इस संग्रह से पहले शुक्लजी की दो लम्बी कविता की कृतियाँ ‘मृगनयनी से मृगछाला’ और ‘मैं बैरागी नहीं’ आयी हैं जो दर्शन की पगडंडियों पर दैहिक प्रेमानुभूतियों और परालौकिक आस्था के बीच की उस दिव्ययात्रा की साक्षी हैं जिसे कवि ने अपने कल्पनालोक में बैराग्य के क्षितिज तक जाकर जिया है। लगभग ऐसे ही बैराग्य के दर्शन शुक्लजी की इस काव्य-कृति में भी होते हैं लेकिन अलग तरह से-
भवन कितना भी ऊँचा क्यूँ न हो
पर्वत नहीं हो सकता
सिर्फ़ ऊँचाई ही नहीं
पर्वत में गहराई भी होती है
भवन विक्षिप्त रहता है शहर के शोर-शराबे से
पर्वत शान्त होता है किसी ऋषि की तरह
भवन आवास होता है सांसारिक लोगों का
पर्वत पर देवता भी आते हैं
पर्वत बहुत प्रिय है बर्फ़ को
जो प्रतीक है तपस्या की
ओशो की दार्शनिक विचारधारा से भीतर तक प्रभावित शुक्लजी की जीवन-जगत को देखने की दृष्टि भी बिल्कुल अलग है। पुस्तक में संग्रहीत अनेक रचनाएं जीवन के विभिन्न पहलुओं को अपने अलग अंदाज़ में अभिव्यक्त करती हैं। शुक्लजी ‘मनुष्य का जीवन’ शीर्षक से कविता में कहते हैं-
मनुष्य का जीवन
एक मैदान है रेत का
जिस पर आकांक्षाओं के ऊँट
चलते रहते हैं निरंतर
यह मनुष्य ज़िद्दी तो है ही
अज्ञानी भी है
इस मैदान को
हरा-भरा करने के लिए
वह जीवन-भर लगाता रहता है
पौधे मोह के
जो मुरझाकर गिर जाते हैं
कुछ ही समय पश्चात
अनेक विद्वानों ने अपने-अपने तरीके से मृत्यु को परिभाषित और व्याख्यायित किया है। मृत्यु के संदर्भ में अनेक लेखकों के साथ-साथ अनेक कवियों ने भी अपनी कविताओं में अपने भावों और विचारों को महत्वपूर्ण रूप से अभिव्यक्त किया है, किन्तु मुझे लगता है कि शुक्लजी ने अपने कल्पना-लोक में मृत्यु को अपेक्षाकृत अधिक और भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से सोचा है, उसे अनुभूत किया है। परिणामतः उनकी लेखनी से मृत्यु को केन्द्र में अनेक रचनाएं प्रस्फुटित हुई हैं जिनका एक अलग संग्रह ‘मृत्यु के ही सत्य का बस अर्थ है’ शीर्षक से आया है। मृत्यु पर केन्द्रित उनकी एक कविता देखिए जिसमें वह अपने मन का पूर्ण बैराग्य अभिव्यक्त कर रहे हैं-
मृत्यु
किसी दूसरे ग्रह से नहीं आती है
हमें लेने के लिए
वह सदैव मौजूद रहती है
इसी भौतिक जगत में
मृत्यु एक भयप्रद तस्वीर है उस वृक्ष की
जो निर्जीव हो जाता है
उस चिड़िया के उड़ने के पश्चात
जिसने एक लम्बे समय तक बनाए रखा था
उसे अपना आवास
अलवर के कवि विनय मिश्र ने कहा है कि ‘कविता कवि की आत्मा का चित्र है।’ वरेण्य रचनाकार डाॅ. आर.सी.शुक्ल की कविताएं भी उनकी आत्मा के ही शब्दचित्र हैं जिसमें उन्होंने अपनी भावभूमि पर अपने आत्मसत्य और बेचैनी को ही शब्दांकित कर चित्रित किया है। शुक्लजी की अन्य कृतियों की भाँति यह महत्वपूर्ण कृति भी साहित्य-जगत में अपार सराहना पायेगी, ऐसी आशा भी है और विश्वास भी।
रचनाकार - डाॅ. आर.सी.शुक्ल
प्रकाशन वर्ष - 2022
प्रकाशक - प्रकाश बुक डिपो, बरेली-243003
मूल्य - 650 ₹ (पेपर बैक)
समीक्षक - योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल-9412805981
लखनऊ की वरिष्ठ गीत-कवयित्री डाॅ. रंजना गुप्ता ने कहा है कि ‘गीत मन की रागात्मक अवस्था है। मन के सम्मोहन की ऐसी दशा जब मन परमानंद की अवस्था में लगभग पहुँच जाता है, हम ज्यों-ज्यों गीत के अनुभूतिपरक सूक्ष्म तत्वों के निकट जाते हैं त्यों-त्यों जीवन का अमूल्य रहस्य परत-दर-परत हमारी आँखों के सामने खुलने लगता है और हम एक अवर्णनीय आनंद में सराबोर होने लगते हैं।’
वरिष्ठ कवयित्री डाॅ. पूनम बंसल के गीत-संग्रह ‘चाँद लगे कुछ खोया-खोया’ की दो ‘सरस्वती-वंदनाओं’ से आरंभ होकर ‘जो सलोने सपन’ तक के 78 गीतों से गुज़रते हुए डाॅ. पूनम बंसल के मन की रागात्मकता तथा संगीतात्मकता की मधुर ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है, ऐसा महसूस होता है कि ये सभी गीत गुनगुनाकर लिखे गए हैं। संग्रह के गीतों का विषय वैविध्य कवयित्री की सृजन-क्षमता को प्रतिबिंबित करता है। इन गीतों में जहाँ एक ओर प्रेम की सात्विक उपस्थिति है तो वहीं दूसरी ओर भक्तिभाव से ओतप्रोत अभिव्यक्तियाँ भी हैं, हमारे त्योहारों-पर्वों के महत्व को रेखांकित करते मिठास भरे गीत हैं तो दार्शनिक अंदाज़ में जीवन-जगत के मूल्यों को व्याख्यायित करते गीत भी। कवयित्री ने शिल्पगत प्रयोग भी किए हैं जो संग्रह को महत्वपूर्ण बनाते हैं। ऐसे ही सार्थक प्रयोगों के प्रमाण स्वरूप दोहा-छंद में लिखे एक गीत ‘कल की कर चिन्ता नहीं’ में कवयित्री जीवन को सकारात्मकता के साथ जीने के संदेश को व्याख्यायित करती हैं-
कल की कर चिन्ता नहीं, कड़वा भूल अतीत
वर्तमान को जी यहाँ, जीवन तो संगीत
अनुभव की छाया तले, पलता है विश्वास
कर्मभूमि है ज़िन्दगी, होता यह आभास
दही बिलोने से सदा, मिलता है नवनीत
इसी तरह जीवन की वास्तविकताओं को शब्दायित करते हुए जीवन-दर्शन को अभिव्यक्त करता संग्रह का एक अन्य गीत ‘दुख के बाद सुखों का आना’ पाठक को मंथन के लिए विवश करता है-
दुख के बाद सुखों का आना, जीवन का यह ही क्रम है
साथ नहीं कुछ तेरे जाना, क्यों पाले मन में भ्रम है
जन्म-मृत्यु दो छोर सृष्टि के, बहता यह अविरल जल है
मरकर होता पार जगत से, पाता एक नया तल है
रूप बदलकर जीव विचरता, फिर भी आँख करे नम है
हिन्दी गीति-काव्य में प्रेमगीतों का भी अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है, छायावादोत्तर काल में विशेष रूप से। पन्त, बच्चन, प्रसाद, नीरज आदि की लम्बी शृंखला है जिन्होंने अपने सृजन में प्रेम को भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया। प्रेम मात्र एक शब्द ही नहीं है, प्रेम एक अनुभूति है समर्पण, त्याग, मिलन, विरह और जीवन के क्षितिजहीन विस्तार को एकटक निहारने, उसमें डूब जाने की। कवयित्री के प्रेम गीतों में भावनायें अनुभूतियों में विलीन होकर पाठक को भी उसी प्रेम की मिठास-भरी अनुभूति तक पहुंचाने की यात्रा सफलतापूर्वक तय करती हैं। प्रेमगीतों के परंपरागत स्वर को अभिव्यक्त करता कवयित्री का एक हृदयस्पर्शी गीत देखिए-
चाँदनी रात में चाँद के साथ में
गीत को स्वर मिले हैं तुम्हारे लिए
रास्ते दूर तक थे कटीले बने
प्रेम के स्वप्न फिर भी सजीले बने
भावनाएँ सुगंधित समर्पित सभी
फूल मन में खिले हैं तुम्हारे लिए
इसी प्रकार प्रेम में विरह की संवेदना को कवयित्री डाॅ. पूनम बंसल जब अपने गीत ‘साजन अब तो आ भी जाओ’ में गाती हैं तो लगता है कि जैसे कोई शब्दचित्र उभर रहा हो मन की सतह पर-
प्यार हमारा कहीं न बनकर रह जाये रुसवाई
साजन अब तो आ भी जाओ याद तुम्हारी आई
सपन-सलोने आँखों में आ-आकर हैं शर्माते
साँसों में घुल-मिलकर देखो गीत नया रच जाते
पर खुशियों के आसमान पर ग़म की बदरी छाई
उत्सवधर्मिता भारतीय संस्कृति में रची-बसी वह जीवनदायिनी घुट्टी है जो पग-पग पर हर पल नई ऊर्जा देती रहती है। हमारे देश में, समाज में उत्सवों की एक समृद्ध परंपरा है, वर्ष के आरंभ से अंत तक लोकमानस को विविधवर्णी उल्लास से सराबोर रखने वाले ये उत्सव अवसाद पर आह्लाद प्रतीक होते हैं। वसन्तोत्सव का आगमन अनूठे आनंद की अनुभूति का संचार तो करता ही है। वसंतोत्सव का पर्व तन की मन की व्याधियों को भूलकर हर्ष और उल्लास के सागर में डूब जाने का पर्व है। वसंत अर्थात चारों ओर पुष्प ही पुष्प, पीली सरसों की अठखेलियां, आमों के बौर की मनमोहक महक, कोयल का सुगम गायन सभी कुछ नई ऊर्जा देने वाला पर्व। संग्रह के एक गीत ‘मन के खोलो द्वार सखी री’ में डाॅ. पूनम बंसल भी वसंत को याद करते हुए अपनी भावनाएं कुछ इस तरह से अभिव्यक्त करती हैं-
मन के खोलो द्वार सखी री, लो वसंत फिर आया है
धरती महकी अम्बर महका, इक खुमार-सा छाया है
पीत-हरित परिधान पहनकर, उपवन ने शृंगार किया
प्रणय-निवेदन कर कलियों से भौंरांे ने गुंजार किया
इन प्यारे बिखरे रंगों ने, अभिनव चित्र बनाया है
वर्तमान में तेज़ी के साथ छीजते जा रहे मानवीय मूल्यों, आपसी सदभाव और संस्कारों के कारण ही दिन में भी अँधियारा हावी हो रहा है और भावी भयावह परिस्थितियों की आहटें पल प्रति पल तनाव उगाने में सहायक हो रही हैं। सांस्कृतिक-क्षरण और मानवीय मूल्यों का पतन के रूप में आज के समय के सबसे बड़े संकट और सामाजिक विद्रूपता के प्रति अपनी चिन्ता को कवयित्री गीत में ढालकर कहती हैं-
भौतिकता ने पाँव पसारे, संस्कृति भी है भरमाई
मौन हुई है आज चेतना, देख धुंध पूरब छाई
नैतिकता जब हुई प्रदूषित, मूल्यों का भी ह्रास हुआ
मात-पिता का तिरस्कार तो मानवता का त्रास हुआ
पश्चिम की इस चकाचौंध में लाज-हया भी शरमाई
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि समर्थ गीत-कवयित्री डाॅ. पूनम बंसल का व्यक्तित्व भी उनके गीतों की ही तरह निश्छल, संवेदनशील और आत्मीयता की ख़ुशबुओं से भरा हुआ है। उनके इस प्रथम गीत-संग्रह ‘चाँद लगे कुछ खोया-खोया’ में संग्रहीत उनके मिठास भरे और छंदानुशासन को प्रतिबिम्बित करते गीत पाठक-समुदाय को अच्छे लगेंगे और हिन्दी साहित्य-जगत में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करायेंगे, ऐसी आशा भी है और विश्वास भी।
कवयित्री - डाॅ. पूनम बंसल
प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद-244105
प्रकाशन वर्ष - 2022
मूल्य - 200 ₹
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल- 9412805981
ग़ज़ल के संदर्भ में वरिष्ठ साहित्यकार कमलेश्वर ने कहा है- ‘ग़ज़ल एकमात्र ऐसी विधा है जो किसी ख़ास भाषा के बंधन में बंधने से इंकार करती है। इतिहास को ग़ज़ल की ज़रूरत है, ग़ज़ल को इतिहास की नहीं। ग़ज़ल एक साँस लेती, जीती-जागती तहजीब है।’ मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर के ग़ज़ल-संग्रह ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’ की 92 ग़ज़लों से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उनकी शायरी में बसने वाली हिन्दुस्तानियत और तहजीब की खुशबू उनकी ग़ज़लों को इतिहास की ज़रूरत बनाती है। इसका सबसे बड़ा कारण उनके अश’आर में अरबी-फारसी की इज़ाफ़त वाले अल्फ़ाज़ और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्द दोनों का ही घुसपैठ नहीं कर पाना है। उनकी शायरी को पढ़ने और समझने के लिए किसी शब्दकोष की ज़रूरत नहीं पड़ती। यही उनकी शायरी की खासियत भी है। सादाज़बान में कहे गए अश’आर की बानगी देखिए जिनकी वैचारिक अनुगूँज दूर तक जाती है और ज़हन में देर तक रहती है-
है डरने वाली बात मगर डर नहीं रहे
बेघर ही हम रहेंगे अगर घर नहीं रहे
मंज़र जिन्होंने आँखों को आँखें बनाया था
आँखें बची हुईं हैं वो मंज़र नहीं रहे
हैरत की बात ये नहीं ज़िंदा नहीं हैं हम
हैरत की बात ये है कि हम मर नहीं रहे
बचपन ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक ऐसा अनमोल उपहार है जिसे हर कोई एक बार नहीं कई बार जीना चाहता है परन्तु ऐसा मुमक़िन हो नहीं पाता। जीवन का सबसे स्वर्णिम समय होता है बचपन जिसमें न कोई चिन्ता, न कोई ज़िम्मेदारी, न कोई तनाव। बस शरारतों के आकाश में स्फूर्त रूप से उड़ना, लेकिन यह क्या ! आज के बच्चे खेल़ना, उछलना, कूदना भूलकर अपना बचपन मानसिक बोझों के दबाव में जी रहे हैं। शायर ज़िया ज़मीर भी स्वभाविक रूप से अपने बचपन के दिनों को याद करके अपने बचपन की आज के बचपन से तुलना करने लगते हैं लेकिन अलग अंदाज़ से-
इक दर्द का सहरा है सिमटता ही नहीं है
इक ग़म का समन्दर है जो घटता ही नहीं है
स्कूली किताबों ज़रा फुरसत उसे दे दो
बच्चा मेरा तितली पे झपटता ही नहीं है
इसी संवेदना का एक और शे’र देखिए-
बच्चे को स्कूल के काम की चिंता है
पार्क में है और चेहरे पे मुस्कान नहीं
वह अपनी ग़ज़लों में कहीं-कहीं सामाजिक विसंगतियों पर चिंतन भी करते हैं। वर्तमान में तेज़ी के साथ छीजते जा रहे मानवीय मूल्यों, आपसी सदभाव और संस्कारों के कारण ही दिन में भी अँधियारा हावी हो रहा है और भावी भयावह परिस्थितियों की आहटें पल प्रतिपल तनाव उगाने में सहायक हो रही हैं। आज के विद्रूप समय की इस पीड़ा को शायर बेहद संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त करता है-
ये जो हैं ज़ख़्म, मसाहत के ही पाले हुए हैं
बैठे-बैठे भी कहीं पाँव में छाले हुए हैं
कोई आसां है भला रिश्ते को क़ायम रखना
गिरती दीवार है हम जिसको संभाले हुए हैं
इसी पीड़ा का एक और शे’र देखिए-
उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम
बैठेंगे कभी साथ तो तन्हाई बनेगी
वरिष्ठ ग़ज़लकार कमलेश भट्ट कमल ने अपने एक शे‘र में कहा भी है-’पीड़ा, आंसू, ग़म, बेचैनी, टूटन और घुटन/ये सारा कुछ एक जगह शायर में मिलता है’। अपनी मिट्टी से गहरे तक जुड़े ज़िया ज़मीर की शायरी में ज़िन्दगी का हर रंग अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी जी का बहुत चर्चित और लोकप्रिय गीत है- ‘एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है/बेज़बान छत-दीवारों को घर कर देता है’। यह घर हर व्यक्ति के भीतर हर पल रहता है। परिणामतः हर रचनाकार और उसकी रचनाओं के भीतर घर किसी ना किसी रूप में हाज़िर रहता ही है। वर्तमान समय में घरों के भीतर की स्थिति की हकीकत बयान करती हुई ये पंक्तियाँ बड़ी बात कह जाती हैं-
नन्हे पंछी अभी उड़ान में थे
और बादल भी आसमान में थे
किसलिए कर लिए अलग चूल्हे
चार ही लोग तो मकान में थे
घर के संदर्भ में एक और कड़वी सच्चाई-
मुल्क तो मुल्क घरों पर भी है कब्जा इसका
अब तो घर भी नहीं चलते हैं सियासत के बगैर
ग़ज़ल का मूल स्वर ही शृंगारिक है, प्रेम है। कोई भी रचनाकार ग़ज़ल कहे और उसमें प्रेम की बात न हो ऐसा संभव नहीं है। किन्तु प्रेम के संदर्भ में हर रचनाकार का अपना दृष्टिकोण होता है, अपना कल्पनालोक होता है। वैसे भी प्रेम तो मन की, मन में उठे भावों की महज अनुभूति है, उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना बहुत ही कठिन है। बुलबुले की पर्त की तरह सुकोमल प्रेम को जीते हुए ज़िया ज़मीर अपनी ग़ज़लों में कमाल के शे’र कहते हैं या यों कहें कि वह अपनी शायरी में प्रेम के परंपरागत और आधुनिक दोनों ढंग से विलक्षण शब्दचित्र बनाते हैं-
वो लड़की जो होगी नहीं तक़दीर हमारी
हाथों में लिए बैठी है तस्वीर हमारी
आँखों से पढ़ा करते हैं सब और वो लड़की
होठों से छुआ करती है तहरीर हमारी
प्रेम का आधुनिक रंग जो शायरी में मुश्किल से दिखता है-
तनहाइयों की चेहरे पे ज़र्दी लिए हुए
दरवाज़े पर खड़ा हूँ मैं चाबी लिए हुए
सुनते हैं उसकी लम्बी-सी चोटी है आजकल
और घूमती है हाथ में टैडी लिए हुए
उनकी ग़ज़लों को पढ़ते हुए महसूस होता है कि ये ग़ज़लें गढ़ी हुई या मढ़ी हुई नहीं हैं। खुशबू के सफर की इन ग़ज़लों के अधिकतर अश्’आर पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपनी आहट से ऐसी अमिट छाप छोड़ जाते हैं जिनकी अनुगूँज काफी समय तक मन को मंत्रमुग्ध रखती है। वह कहते भी हैं-
‘हमारे शे’र हमारे हैं तरजुमान ज़िया
हमारे फन में हमारा शऊर बोलता है’।
निश्चित रूप से यह ग़ज़ल-संग्रह साहित्यिक समाज में अपार सराहना पायेगा और अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करेगा। बहरहाल, भाई ज़िया ज़मीर की बेहतरीन शायरी के ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’।
ग़ज़लकार - ज़िया ज़मीर
प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद। मोबाइल-9927376877
प्रकाशन वर्ष - 2022
मूल्य - 200₹
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल-9412805981
टांडा बादली जिला-रामपुर के प्रतिष्ठित स्वर्णकार परिवार में 2 सितम्बर, 1974 को जन्मे मनोज मनु ने उर्दू शायरी व हिन्दी कविता के क्षेत्र में समान रूप से स्वस्थ- सृजन किया है। हालांकि मनोज मनु मूलतः शायर हैं और गूढ़ शायर हैं जिनकी गज़लें परंपरागत शायरी की मिठास लिए हुए होती हैं लेकिन जब वह हिन्दी कविता के नगर में चहलकदमी करते हैं तो उस समय वह कविता का विविध रंगी इंद्रधनुष गढ़ते हुए नज़र आते हैं। मातृभूमि के प्रति श्रद्धा से नत मस्तक हो वह अपनी राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत रचना में अपने भाव व्यक्त करते हैं
स्वर्ग से महान स्वर्ण-सी प्रभा लिए हुए
वो भावना प्रशस्त कर रही है स्वर पगे हुए
कि तृप्त सप्तस्वर हों इस वसुंधरा पे शास्वत
धरा तुझे नमन सतत् धरा तुझे नमन सतत
लखनऊ की सुप्रसिद्ध कवयित्री संध्या सिंह ने कविता को बिल्कुल अनूठे ढंग से व्याख्यायित करते हुए कहा है कि 'कविता/ अपनी नर्म उँगलियों से सहला कर / आहिस्ता आहिस्ता / करती है मालिश / बेतरतीब विचारों की/कविता/करती है बड़े प्यार से कंघी /सुलझाते हुए एक-एक गुच्छा / झड़ने देती है कमजोर शब्दों को/ और बना देती है/पंक्तियों को लपेट कर एक गुंथा हुआ जूड़ा / अनुभूतियों के कंधे पर/कविता/लगाती है/ संवेदना के चारों तरफ शब्दों का महकता गजरा/और खोंस देती हैं/शिल्प की नुकीली पिनें भी / उसे टिकाऊ और सुडौल बनाने के लिए / यद्यपि / शब्दों की अशर्फियों से भरा है। कविता का बटुआ / मगर खरचती है/ एक-एक गिन्नी तोलमोल कर/ कंजूस नहीं है मगर किफायती है कविता।'
मनोज मनु की हिन्दी कविताओं से गुजरते हुए भी उनकी अनुभूतियों के वैविध्य और संवेदनाओं के कोमल व्याख्यानों के दर्शन होते हैं, चाहे गीत हों, दोहे हों, मुक्तक हों या मुक्तछंद की कविताएं हों। समय को केन्द्र में रखकर रचा गया उनका यह गीत अपनी प्रभावशाली अभिव्यक्ति के साथ-साथ बहुत कुछ अनकहा भी छोड़ जाता है पाठक को मंथन के लिए-
मैं समय हूँ चल रहा हूँ क्या करूँ
भूत को रचना था जो सो रच गया
और भविष्य कल्पना में बस गया
मैं कहाँ ठहरूँ मेरा आधार क्या
हिम सदृश बस गल रहा हूँ क्या करूँ
मनोज मनु वैसे तो स्वान्तः सुखाय रचनाकर्म करने वाले रचनाकार हैं किन्तु उनका सृजन- लोक समसामयिक संदर्भों से विरत नहीं रहा है। गजलों की ही भाँति उनके गीतों में, दोहों में अपने समय की विसंगतियों, कुंठाओं, चिन्ताओं, उपेक्षाओं, विवशताओं और आशंकाओं सभी की उपस्थिति को महसूस किया जा सकता है। आज के विद्रूपताओं भरे अंधकूप समय में मानवीय मूल्यों के साथ-साथ सांस्कृतिक मूल्य भी कहीं खो से गए हैं, रिश्तों से अपनत्व की भावना और संवेदनाएं कहीं अंतर्ध्यान होती जा रही हैं और संयुक्त परिवार की परंपरा लगभग टूट चुकी है लिहाजा आँगन की सौंधी सुगंध अब कहीं महसूस नहीं होती। ऐसे असहज समय में एक सच्चा रचनाकार मौन नहीं रह सकता, मनोज मनु भी अपनी रचनात्मक जिम्मेदारी को बखूबी निभाते हुए बड़ी बेबाकी के साथ आज की कड़वी सच्चाई को बयान करते हैं-
जंगल जैसा राज यहाँ
आपस में सन्नाटा
घर के अन्दर कमरों के
दरवाज़ों पर परदा
कफ़न पहन कर खड़ा
आपसी रिश्तों का मुरदा
कुछ बातों ने तन के भीतर
मन को भी बाँटा
प्रेम यानी कि एक शब्द ! एक अनुभूति एक राग ! एक त्याग! एक जिज्ञासा! एक मिलन! एक जीवन ! एक धुन ! एक विरह! एक सुबह ! एक यात्रा ! एक लोक!... कितना क्षितिजहीन विस्तार है प्रेम की अनगिन अनुभूतियों का। इसी तरह एक आयुविशेष में भीतर पुष्पित पल्लवित होने वाले और पानी के किसी बुलबुले की पर्त की तरह सुकोमल प्रेम की नितांत पवित्रानुभूति कराता है मनु जी का यह प्रेमगीत-
कसमसाती कल्पना में
वास्तविक आधार भर दो
यह मेरा प्रणय निवेदित
स्वप्न अब साकार कर दो
भावना विह्वल हृदय की
जान भी जाओ प्रिय तुम
है वही सावन सहज
मल्हार फिर गाओ प्रिय तुम
प्रणय कम्पित चेतना के
तार में झंकार भर दो
जीवन के लगभग हर पहलू पर अपनी सशक्त रचनात्मक अभिव्यक्ति करने वाले मनोज मनु एक प्रतिभा सम्पन्न बहुआयामी रचनाकार हैं जिनकी लेखनी से जहाँ एक ओर देवनदी गंगा की स्तुति में
'त्रिभुवन तारिणी तरल तरंगे
हर हर गंगे... हर हर गंगे...
पाप विनाशिनी शुभ्र विहंगे...
हर हर गंगे... हर हर गंगे...'
जैसा कालजयी गीत सृजित हुआ, वहीं दूसरी ओर जगजननी माँ दुर्गा की स्तुति पुस्तक 'दुर्गा सप्तशती' का काव्यानुवाद का भी महत्वपूर्ण सृजन हुआ है। नारी सशक्तीकरण पर केन्द्रित लघु फिल्म 'आई एम नॉट ए मैटीरियल' के लिए गीत लिखने वाले और अनेकानेक सम्मानों से सम्मानित मनोज मनु की रचना - यात्रा इसी तरह उत्तरोत्तर समृद्धि और प्रतिष्ठा पाती रहे, यही कामना है।
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
लखनऊ की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था सर्वजन हिताय साहित्यिक समिति की ओर से रविवार नौ अक्टूबर 2022 को लखनऊ में हज़रतगंज स्थित प्रेस क्लब सभागार में आयोजित भव्य सारस्वत सम्मान समारोह में प्रख्यात साहित्यकार माहेश्वर तिवारी को वर्ष 2020 का 'डॉ. अम्बिका प्रसाद गुप्त स्मृति सम्मान' प्रदान किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं विचारक प्रोफेसर सूर्य प्रसाद दीक्षित, विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. विश्वम्भर शुक्ल, नवगीतकार वीरेंद्र आस्तिक तथा संस्था के उपाध्यक्ष जगमोहन नाथ कपूर सरस, रामेश्वर प्रसाद द्विवेदी प्रलयंकर, राकेश बाजपेई के कर कमलों से समारोह के मुख्य अतिथि नवगीतकार माहेश्वर तिवारी को अंगवस्त्र, मानपत्र, प्रतीक चिह्न एवं सम्मान राशि भेंट कर सम्मानित किया गया। कार्यक्रम का संचालन संस्था के संस्थापक व संयोजक राजेन्द्र शुक्ल राज ने किया। कार्यक्रम में सम्मानित माहेश्वर तिवारी ने अपने नवगीत पढ़े-
"एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है
बेज़ुबान छत दीवारों को घर कर देता है
आरोहों अवरोहों से बतियाने लगती हैं
तुमसे जुड़कर चीज़ें भी बतियाने लगती हैं
एक तुम्हारा होना अपनापन भर देता है"।
इस अवसर पर लखनऊ के स्थानीय कवियों शिव भजन कमलेश, डॉ रंजना गुप्ता, सोम दीक्षित, अम्बरीष मिश्र आदि अनेक कवियों ने कविता पाठ किया।
श्री माहेश्वर तिवारी को लखनऊ में डॉ. अम्बिका प्रसाद गुप्त स्मृति सम्मान से सम्मानित किए जाने पर मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा, हस्ताक्षर एवं मुरादाबाद लिटरेरी क्लब की ओर से डॉ. अजय अनुपम, डॉ. मक्खन मुरादाबादी, डॉ. कृष्ण कुमार नाज़, योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', ज़िया ज़मीर, राजीव प्रखर, हेमा तिवारी, डॉ. पूनम बंसल, डॉ. प्रेमवती उपाध्याय, डॉ. मनोज रस्तोगी, मनोज मनु, मयंक शर्मा, फरहत अली, राहुल शर्मा आदि ने बधाई दी।
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योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
संयोजक- अक्षरा, मुरादाबाद
मोबाइल-9412805981
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से सुप्रसिद्ध नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम को उनके साहित्यिक अवदान के लिये, हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर मंगलवार 13 सितंबर 2022 को आयोजित समारोह में हिन्दी साहित्य गौरव सम्मान से अलंकृत किया गया। कार्यक्रम मिलन विहार स्थित आकांक्षा विद्यापीठ इंटर कॉलेज में आयोजित किया गया। मीनाक्षी ठाकुर द्वारा प्रस्तुत माॅं शारदे की वंदना से आरम्भ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध नवगीतकार यश भारती माहेश्वर तिवारी ने की। मुख्य अतिथि डॉ अजय अनुपम एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में ओंकार सिंह ओंकार और डॉ प्रेमवती उपाध्याय उपस्थित रहीं। कार्यक्रम का संचालन राजीव प्रखर ने किया।
सर्वप्रथम वरिष्ठ रचनाकार डॉ. मनोज रस्तोगी ने योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आलेख प्रस्तुत करते हुए कहा ...मुरादाबाद ही नहीं राष्ट्रीय साहित्यिक पटल पर भी अपनी एक विशिष्ट पहचान स्थापित कर चुके योगेंद्र वर्मा व्योम के मन के गांव में बसी भावनाएं जब शब्दों का रूप लेकर नवगीत, ग़ज़ल और दोहों के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं तो वह अपने पाठकों / श्रोताओं की सोच को झकझोर देती हैं। उनके नवगीत जिंदगी के विभिन्न रूपों के गीत हैं जो हम से बतियाते हैं और हमारे साथ उनके नवगीत जिंदगी के विभिन्न रूपों के गीत हैं जो हम से बतियाते हैं और हमारे साथ खिलखिलाते भी हैं। उन्हें पढ़/ सुनकर हमारा अस्त व्यस्त मन कभी गुनगुनाने लगता है तो कभी चहचहाने लगता है तो कभी निराशा और हताशा के बीच आशाओं के दीप जलाने लगता है।
तत्पश्चात् श्री व्योम को हिंदी साहित्य गौरव सम्मान से अलंकृत किया गया। सम्मान स्वरूप उन्हें अंगवस्त्र, मान-पत्र एवं प्रतीक चिह्न अर्पित किये गए। अर्पित मान-पत्र का वाचन संस्था के महासचिव जितेन्द्र कुमार जौली ने किया। इस अवसर पर सम्मानित साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने अपना गीत प्रस्तुत किया -
"मेरे भीतर भी इक पावन गंगा बहती है।
माँ बनकर आशीष सदा देती, दुलराती है,
गुस्सा करती नहीं कभी, हर पल मुस्काती है।
पग-पग पर हरियाली बोती, चलती रहती है।"
श्री व्योम की साहित्यिक-यात्रा पर अपने विचार रखते हुए सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी का कहना था - "व्योम जी की रचनाओं से होकर गुजरना अपने समय के जीवन-संघर्षों से जुड़े परिदृश्यों से होकर गुजरना है।"
मुख्य अतिथि डॉ अजय अनुपम ने कहा - "योगेन्द्र वर्मा व्योम मुरादाबाद के साहित्य जगत पर व्योम की भांति हैं।"
विशिष्ट अतिथि ओंकार सिंह ओंकार ने इस अवसर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा - "व्योम जी बहुत आसान शब्दों में गम्भीर विषयों पर सुन्दर रचना करने में महारत रखते हैं।"
वरिष्ठ कवयित्री डाॅ प्रेमवती उपाध्याय ने योगेन्द्र वर्मा व्योम के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा -"व्योम जी की रचनाओं की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वह बिना किसी लाग-लपेट अथवा कृत्रिमता के, सीधे पाठकों व श्रोताओं के हृदय तक पहुॅंचती हैं।"
सुप्रसिद्ध शायर डॉ. कृष्ण कुमार 'नाज़' द्वारा श्री व्योम के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर लिखित आलेख का वाचन करते हुए राजीव प्रखर ने कहा - "व्योम जी आज देशभर में नवगीत के क्षेत्र में अपना वह मुक़ाम पा चुके हैं, जो बहुत कम लोगों का मुक़द्दर होता है। उनके यहाँ प्रत्येक भाषा के बहुप्रचलित शब्द आसन जमाये विराजमान होते हैं। बिंब बहुत साफ़-सुथरे और आम आदमी की पहुँच में आने वाले होते हैं।"
इस अवसर पर जितेन्द्र कुमार जौली, दुष्यन्त बाबा, वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मयंक शर्मा, रामदत्त द्विवेदी, नकुल त्यागी, पूनम बंसल, मीनाक्षी ठाकुर, प्रशान्त मिश्र, मनोज मनु, अभिव्यक्ति सिन्हा, अमर सक्सेना, राघव गुप्ता, ज़िया जमीर, राहुल शर्मा, डॉ. पूनम बंसल, के. पी. सिंह सरल आदि रचनाकारों ने योगेन्द्र वर्मा व्योम जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला एवं उन्हें बधाई दी। रामदत्त द्विवेदी ने आभार-अभिव्यक्त किया।