रविवार, 11 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर के ग़ज़ल संग्रह....‘ये सब फूल तुम्हारे नाम' की योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा की गई समीक्षा... ख़ुशबू के सफ़र की ग़ज़लें

 ग़ज़ल के संदर्भ में वरिष्ठ साहित्यकार कमलेश्वर ने कहा है- ‘ग़ज़ल एकमात्र ऐसी विधा है जो किसी ख़ास भाषा के बंधन में बंधने से इंकार करती है। इतिहास को ग़ज़ल की ज़रूरत है, ग़ज़ल को इतिहास की नहीं। ग़ज़ल एक साँस लेती, जीती-जागती तहजीब है।’ मुरादाबाद के साहित्यकार  ज़िया ज़मीर के  ग़ज़ल-संग्रह ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’ की 92 ग़ज़लों से गुज़रते हुए साफ-साफ महसूस किया जा सकता है कि उनकी शायरी में बसने वाली हिन्दुस्तानियत और तहजीब की खुशबू उनकी ग़ज़लों को इतिहास की ज़रूरत बनाती है। इसका सबसे बड़ा कारण उनके अश’आर में अरबी-फारसी की इज़ाफ़त वाले अल्फ़ाज़ और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्द दोनों का ही घुसपैठ नहीं कर पाना है। उनकी शायरी को पढ़ने और समझने के लिए किसी शब्दकोष की ज़रूरत नहीं पड़ती। यही उनकी शायरी की खासियत भी है। सादाज़बान में कहे गए अश’आर की बानगी देखिए जिनकी वैचारिक अनुगूँज दूर तक जाती है और ज़हन में देर तक रहती है-

  है डरने वाली बात मगर डर नहीं रहे

  बेघर ही हम रहेंगे अगर घर नहीं रहे

  मंज़र जिन्होंने आँखों को आँखें बनाया था

  आँखें बची हुईं हैं वो मंज़र नहीं रहे

  हैरत की बात ये नहीं ज़िंदा नहीं हैं हम

  हैरत की बात ये है कि हम मर नहीं रहे

बचपन ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक ऐसा अनमोल उपहार है जिसे हर कोई एक बार नहीं कई बार जीना चाहता है परन्तु ऐसा मुमक़िन हो नहीं पाता। जीवन का सबसे स्वर्णिम समय होता है बचपन जिसमें न कोई चिन्ता, न कोई ज़िम्मेदारी, न कोई तनाव। बस शरारतों के आकाश में स्फूर्त रूप से उड़ना, लेकिन यह क्या ! आज के बच्चे खेल़ना, उछलना, कूदना भूलकर अपना बचपन मानसिक बोझों के दबाव में जी रहे हैं। शायर ज़िया ज़मीर भी स्वभाविक रूप से अपने बचपन के दिनों को याद करके अपने बचपन की आज के बचपन से तुलना करने लगते हैं लेकिन अलग अंदाज़ से-

 इक दर्द का सहरा है सिमटता ही नहीं है

 इक ग़म का समन्दर है जो घटता ही नहीं है

 स्कूली किताबों ज़रा फुरसत उसे दे दो

बच्चा मेरा तितली पे झपटता ही नहीं है

इसी संवेदना का एक और शे’र देखिए-

बच्चे को स्कूल के काम की चिंता है

पार्क में है और चेहरे पे मुस्कान नहीं

वह अपनी ग़ज़लों में कहीं-कहीं सामाजिक विसंगतियों पर चिंतन भी करते हैं। वर्तमान में तेज़ी के साथ छीजते जा रहे मानवीय मूल्यों, आपसी सदभाव और संस्कारों के कारण ही दिन में भी अँधियारा हावी हो रहा है और भावी भयावह परिस्थितियों की आहटें पल प्रतिपल तनाव उगाने में सहायक हो रही हैं। आज के विद्रूप समय की इस पीड़ा को शायर बेहद संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त करता है-

  ये जो हैं ज़ख़्म, मसाहत के ही पाले हुए हैं

  बैठे-बैठे भी कहीं पाँव में छाले हुए हैं

  कोई आसां है भला रिश्ते को क़ायम रखना

  गिरती दीवार है हम जिसको संभाले हुए हैं

इसी पीड़ा का एक और शे’र देखिए-

उस मोड़ पे रिश्ता है हमारा कि अगर हम

बैठेंगे कभी साथ तो तन्हाई बनेगी

वरिष्ठ ग़ज़लकार कमलेश भट्ट कमल ने अपने एक शे‘र में कहा भी है-’पीड़ा, आंसू, ग़म, बेचैनी, टूटन और घुटन/ये सारा कुछ एक जगह शायर में मिलता है’। अपनी मिट्टी से गहरे तक जुड़े ज़िया ज़मीर की शायरी में ज़िन्दगी का हर रंग अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। सुप्रसिद्ध नवगीतकार  माहेश्वर तिवारी जी का बहुत चर्चित और लोकप्रिय गीत है- ‘एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है/बेज़बान छत-दीवारों को घर कर देता है’। यह घर हर व्यक्ति के भीतर हर पल रहता है। परिणामतः हर रचनाकार और उसकी रचनाओं के भीतर घर किसी ना किसी रूप में हाज़िर रहता ही है। वर्तमान समय में घरों के भीतर की स्थिति की हकीकत बयान करती हुई ये पंक्तियाँ बड़ी बात कह जाती हैं-

  नन्हे पंछी अभी उड़ान में थे

  और बादल भी आसमान में थे

  किसलिए कर लिए अलग चूल्हे

  चार ही लोग तो मकान में थे

घर के संदर्भ में एक और कड़वी सच्चाई-

  मुल्क तो मुल्क घरों पर भी है कब्जा इसका

  अब तो घर भी नहीं चलते हैं सियासत के बगैर

ग़ज़ल का मूल स्वर ही शृंगारिक है, प्रेम है। कोई भी रचनाकार ग़ज़ल कहे और उसमें प्रेम की बात न हो ऐसा संभव नहीं है। किन्तु प्रेम के संदर्भ में हर रचनाकार का अपना दृष्टिकोण होता है, अपना कल्पनालोक होता है। वैसे भी प्रेम तो मन की, मन में उठे भावों की महज अनुभूति है, उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना बहुत ही कठिन है। बुलबुले की पर्त की तरह सुकोमल प्रेम को जीते हुए ज़िया ज़मीर अपनी ग़ज़लों में कमाल के शे’र कहते हैं या यों कहें कि वह अपनी शायरी में प्रेम के परंपरागत और आधुनिक दोनों ढंग से विलक्षण शब्दचित्र बनाते हैं-

 वो लड़की जो होगी नहीं तक़दीर हमारी

 हाथों में लिए बैठी है तस्वीर हमारी

 आँखों से पढ़ा करते हैं सब और वो लड़की

 होठों से छुआ करती है तहरीर हमारी

प्रेम का आधुनिक रंग जो शायरी में मुश्किल से दिखता है-

 तनहाइयों की चेहरे पे ज़र्दी लिए हुए

 दरवाज़े पर खड़ा हूँ मैं चाबी लिए हुए

 सुनते हैं उसकी लम्बी-सी चोटी है आजकल

 और घूमती है हाथ में टैडी लिए हुए

उनकी ग़ज़लों को पढ़ते हुए महसूस होता है कि ये ग़ज़लें गढ़ी हुई या मढ़ी हुई नहीं हैं। खुशबू के सफर की इन ग़ज़लों के अधिकतर अश्’आर पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपनी आहट से ऐसी अमिट छाप छोड़ जाते हैं जिनकी अनुगूँज काफी समय तक मन को मंत्रमुग्ध रखती है। वह कहते भी हैं- 

‘हमारे शे’र हमारे हैं तरजुमान ज़िया

हमारे फन में हमारा शऊर बोलता है’। 

निश्चित रूप से यह ग़ज़ल-संग्रह साहित्यिक समाज में अपार सराहना पायेगा और अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ करेगा। बहरहाल, भाई ज़िया ज़मीर की बेहतरीन शायरी के ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’। 


कृति
- ‘ये सब फूल तुम्हारे नाम’ (ग़ज़ल-संग्रह)                    

ग़ज़लकार - ज़िया ज़मीर                                            

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद। मोबाइल-9927376877

प्रकाशन वर्ष - 2022  

मूल्य - 200₹


समीक्षक
: योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल-9412805981  



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें