रविवार, 4 दिसंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज मनु के कृतित्व पर केंद्रित योगेंद्र वर्मा व्योम का आलेख - मैं समय हूँ चल रहा हूँ क्या करूँ..

 


मुरादाबाद पीतल की नगरी के रूप में भले ही विश्वविख्यात हो लेकिन यहाँ की धरती कला की बेहद उर्वरा धरती है जहाँ अनेक स्वनामधन्य हस्ताक्षर उगे और उन्होंने कला के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में अपने कृतित्व से अपने नाम की प्रतिष्ठा के सँग-सँग मुरादाबाद की प्रतिष्ठा को भी समृद्ध किया। रंगकर्म के क्षेत्र में मास्टर फिदा हुसैन नरसी और संगीत में व्यास परिवार व गोस्वामी परिवार के साथ-साथ उर्दू शायरी में जिगर मुरादाबादी, कमर मुरादाबादी और हिन्दी कविता में दुर्गादत्त त्रिपाठी, सुरेन्द्र मोहन मिश्र, हुल्लड़ मुरादाबादी जैसे अनेक नाम हैं जिनका अवदान आज भी एक मानक स्तम्भ के रूप में स्थापित है। वर्तमान में भी कला के विविध क्षेत्रों में अनेक लोग अपने-अपने कृतित्व से मुरादाबाद की कला-परंपरा को आगे ले जा रहे हैं जिनमें मनोज मनु का नाम विशेष रूप से एक उल्लेखनीय नाम है।

   टांडा बादली जिला-रामपुर के प्रतिष्ठित स्वर्णकार परिवार में 2 सितम्बर, 1974 को जन्मे मनोज मनु ने उर्दू शायरी व हिन्दी कविता के क्षेत्र में समान रूप से स्वस्थ- सृजन किया है। हालांकि मनोज मनु मूलतः शायर हैं और गूढ़ शायर हैं जिनकी गज़लें परंपरागत शायरी की मिठास लिए हुए होती हैं लेकिन जब वह हिन्दी कविता के नगर में चहलकदमी करते हैं तो उस समय वह कविता का विविध रंगी इंद्रधनुष गढ़ते हुए नज़र आते हैं। मातृभूमि के प्रति श्रद्धा से नत मस्तक हो वह अपनी राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत रचना में अपने भाव व्यक्त करते हैं

स्वर्ग से महान स्वर्ण-सी प्रभा लिए हुए

वो भावना प्रशस्त कर रही है स्वर पगे हुए 

कि तृप्त सप्तस्वर हों इस वसुंधरा पे शास्वत 

धरा तुझे नमन सतत् धरा तुझे नमन सतत

        लखनऊ की सुप्रसिद्ध कवयित्री संध्या सिंह ने कविता को बिल्कुल अनूठे ढंग से व्याख्यायित करते हुए कहा है कि 'कविता/ अपनी नर्म उँगलियों से सहला कर / आहिस्ता आहिस्ता / करती है मालिश / बेतरतीब विचारों की/कविता/करती है बड़े प्यार से कंघी /सुलझाते हुए एक-एक गुच्छा / झड़ने देती है कमजोर शब्दों को/ और बना देती है/पंक्तियों को लपेट कर एक गुंथा हुआ जूड़ा / अनुभूतियों के कंधे पर/कविता/लगाती है/ संवेदना के चारों तरफ शब्दों का महकता गजरा/और खोंस देती हैं/शिल्प की नुकीली पिनें भी / उसे टिकाऊ और सुडौल बनाने के लिए / यद्यपि / शब्दों की अशर्फियों से भरा है। कविता का बटुआ / मगर खरचती है/ एक-एक गिन्नी तोलमोल कर/ कंजूस नहीं है मगर किफायती है कविता।' 

        मनोज मनु की हिन्दी कविताओं से गुजरते हुए भी उनकी अनुभूतियों के वैविध्य और संवेदनाओं के कोमल व्याख्यानों के दर्शन होते हैं, चाहे गीत हों, दोहे हों, मुक्तक हों या मुक्तछंद की कविताएं हों। समय को केन्द्र में रखकर रचा गया उनका यह गीत अपनी प्रभावशाली अभिव्यक्ति के साथ-साथ बहुत कुछ अनकहा भी छोड़ जाता है पाठक को मंथन के लिए-

मैं समय हूँ चल रहा हूँ क्या करूँ 

भूत को रचना था जो सो रच गया 

और भविष्य कल्पना में बस गया 

मैं कहाँ ठहरूँ मेरा आधार क्या 

हिम सदृश बस गल रहा हूँ क्या करूँ

        मनोज मनु वैसे तो स्वान्तः सुखाय रचनाकर्म करने वाले रचनाकार हैं किन्तु उनका सृजन- लोक समसामयिक संदर्भों से विरत नहीं रहा है। गजलों की ही भाँति उनके गीतों में, दोहों में अपने समय की विसंगतियों, कुंठाओं, चिन्ताओं, उपेक्षाओं, विवशताओं और आशंकाओं सभी की उपस्थिति को महसूस किया जा सकता है। आज के विद्रूपताओं भरे अंधकूप समय में मानवीय मूल्यों के साथ-साथ सांस्कृतिक मूल्य भी कहीं खो से गए हैं, रिश्तों से अपनत्व की भावना और संवेदनाएं कहीं अंतर्ध्यान होती जा रही हैं और संयुक्त परिवार की परंपरा लगभग टूट चुकी है लिहाजा आँगन की सौंधी सुगंध अब कहीं महसूस नहीं होती। ऐसे असहज समय में एक सच्चा रचनाकार मौन नहीं रह सकता, मनोज मनु भी अपनी रचनात्मक जिम्मेदारी को बखूबी निभाते हुए बड़ी बेबाकी के साथ आज की कड़वी सच्चाई को बयान करते हैं-

जंगल जैसा राज यहाँ 

आपस में सन्नाटा

घर के अन्दर कमरों के

दरवाज़ों पर परदा 

कफ़न पहन कर खड़ा 

आपसी रिश्तों का मुरदा 

कुछ बातों ने तन के भीतर 

मन को भी बाँटा

प्रेम यानी कि एक शब्द ! एक अनुभूति एक राग ! एक त्याग! एक जिज्ञासा! एक मिलन! एक जीवन ! एक धुन ! एक विरह! एक सुबह ! एक यात्रा ! एक लोक!... कितना क्षितिजहीन विस्तार है प्रेम की अनगिन अनुभूतियों का। इसी तरह एक आयुविशेष में भीतर पुष्पित पल्लवित होने वाले और पानी के किसी बुलबुले की पर्त की तरह सुकोमल प्रेम की नितांत पवित्रानुभूति कराता है मनु जी का यह प्रेमगीत-

कसमसाती कल्पना में 

वास्तविक आधार भर दो 

यह मेरा प्रणय निवेदित 

स्वप्न अब साकार कर दो 

भावना विह्वल हृदय की 

जान भी जाओ प्रिय तुम 

है वही सावन सहज 

मल्हार फिर गाओ प्रिय तुम 

प्रणय कम्पित चेतना के 

तार में झंकार भर दो

     जीवन के लगभग हर पहलू पर अपनी सशक्त रचनात्मक अभिव्यक्ति करने वाले मनोज मनु एक प्रतिभा सम्पन्न बहुआयामी रचनाकार हैं जिनकी लेखनी से जहाँ एक ओर देवनदी गंगा की स्तुति में

 'त्रिभुवन तारिणी तरल तरंगे 

हर हर गंगे... हर हर गंगे...

पाप विनाशिनी शुभ्र विहंगे...

हर हर गंगे... हर हर गंगे...' 

जैसा कालजयी गीत सृजित हुआ, वहीं दूसरी ओर जगजननी माँ दुर्गा की स्तुति पुस्तक 'दुर्गा सप्तशती' का काव्यानुवाद का भी महत्वपूर्ण सृजन हुआ है। नारी सशक्तीकरण पर केन्द्रित लघु फिल्म 'आई एम नॉट ए मैटीरियल' के लिए गीत लिखने वाले और अनेकानेक सम्मानों से सम्मानित मनोज मनु की रचना - यात्रा इसी तरह उत्तरोत्तर समृद्धि और प्रतिष्ठा पाती रहे, यही कामना है।



✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

3 टिप्‍पणियां:

  1. अपने व्यस्ततम एवं कीमती वक्त से समय निकालकर खूबसूरत और दस्तावेजी इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए नवगीत के विशिष्ट हस्ताक्षर आदरणीय भाई साहब श्री योगेंद्र वर्मा व्योम एवं उपरोक्त आलेख को साहित्य के प्रति समर्पित अपने लोकप्रिय ब्लॉग पर post करने के लिए आदरणीय डॉक्टर मनोज रस्तोगी जी का हार्दिक आभार

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