शुक्रवार, 2 सितंबर 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा के तत्वावधान में विख्यात ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार की जयंती गुरुवार 1 सितम्बर 2022 को स्मरण संध्या का आयोजन

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा के तत्वावधान में विख्यात ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार की जयंती पर गुरुवार 1 सितम्बर 2022 को कंपनी बाग मुरादाबाद स्थित प्रदर्शनी भवन में स्मरण संध्या का आयोजन किया गया जिसमें दुष्यंत कुमार की रचनाधर्मिता के विविध पक्षों पर चर्चा की गई। 

   कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध साहित्यकार माहेश्वर तिवारी ने कहा कि साहित्यिक इतिहास के पृष्ठों पर सुनहरे अक्षरों में दर्ज दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल को उसके परंपरागत स्वर "महबूब से बात" और "इश्क-मोहब्बत" की चाहरदीवारी से बाहर निकाल कर आम आदमी की पीड़ा से ही नहीं जोड़ा बल्कि आम आदमी के व्यवस्था-विरोध का मुख्य स्वर बनाया। 

मुख्य अतिथि मशहूर शायर मंसूर उस्मानी ने कहा कि दुष्यंत कुमार हिंदुस्तानी ज़ुबान के शायर होने के साथ ही जनकवि भी थे। उनकी शायरी आम जनता की तकलीफों का तर्जुमा ही है। 

 विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डॉ अजय अनुपम ने कहा कि दुष्यंत कुमार बिजनौर में जन्मे  और मुरादाबाद में अपने अध्ययन प्रवास के दौरान चौमुखा पुल स्थित रिश्तेदार के भवन में अक्सर ठहरा करते थे। इस भवन के पीछे का वह आँगन, आँगन में खड़ा विशाल पीपल का पेड़ और छोटा-सा मन्दिर अब भी उसी स्थिति में है जैसा दुष्यंत कुमार के समय था।

संचालन करते हुए योगेन्द्र वर्मा व्योम ने दुष्यंत कुमार पर केंद्रित नवगीत पढ़ा- बीत गया है अरसा, आते/अब दुष्यन्त नहीं/पीर वही है पर्वत जैसी/पिघली अभी नहीं/और हिमालय से गंगा भी/निकली अभी नहीं/भांग घुली वादों-नारों की/जिसका अंत नहीं। 

शिशुपाल मधुकर ने कहा कि दुष्यंत जी का पूरा लेखन दूषित राजनीति, कुव्यवस्थाओं  और भृष्टाचार की परिणीति का परिणाम स्वरूप उपजी आम आदमी की पीड़ा को व्यक्त करता है। 

शायर डॉ. कृष्णकुमार नाज़ ने कहा कि दुष्यंत ऐसे ग़ज़लकार हैं, जिन्होंने ग़ज़ल की परिभाषा को बदल दिया। सिर्फ़ 52 ग़ज़लों के इस शायर के शेर आज सबसे ज्यादा कोट किए जाते हैं।

डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि दुष्यंत कुमार एक ऐसे रचनाकार थे जिनका मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना नहीं था, वह पर्वत सी हो गई पीर को पिघलाना चाहते थे, हिमालय से गंगा निकालना चाहते थे। वे चाहते थे बुनियाद हिले और यह सूरत बदले। 

शायर मनोज मनु ने अपने भाव व्यक्त किए- ये सरकारें दबाकर हक़ अमन आवाद रक्खेंगी/मगर जब जुल्म  मजबूरियां फरियाद रक्खेंगी/जमाने को दिया जो ढंग अपनी बात रखने का/तुम्हें उसके  लिए  दुष्यंत, सदियां याद रक्खेंगी।

 शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि दुष्यंत हाथों में अंगारे लिए हुए हिन्दुस्तानी ज़बान और ज़मीन का शायर है। दुष्यंत ने साझा दुख बयान किया।

 ग़ज़लकार राहुल कुमार शर्मा ने कहा कि दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल की परंपरागत भाषा, कहन, शैली से इतर अलग तरह की कहन और तेवर को ग़ज़ल के शिल्प में पूरी ग़ज़लियत के साथ प्रस्तुत करते हुए ग़ज़ल की नई परिभाषा, नया मुहावरा गढ़ा।

  शायर फ़रहत अली ख़ान ने कहा कि दुष्यंत कुमार किसी एक ख़ास मंच के शायर नहीं हैं। अगर ग़ौर किया तो गली-मुहल्ले, सड़क-चौराहे यानी जहाँ-जहाँ आम आदमी है, दुष्यंत खड़े मिलेंगे। सिर्फ़ एक ही मंच है जहाँ दुष्यंत खड़े नहीं मिलते, वो है सत्ता पक्ष का मंच। 

   कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध साहित्यकार  ओंकार सिंह ओंकार, राजीव प्रखर, नज़र बिजनौरी, अनुराग मेहता सुरूर आदि ने दुष्यंत कुमार के व्यक्तित्व व कृतित्व पर चर्चा की। आभार अभिव्यक्ति ग़ज़लकार राहुल कुमार शर्मा ने प्रस्तुत की।













:::::::::प्रस्तुति:::::::

 योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'

संयोजक-'अक्षरा'

 मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


मोबाइल- 9412805981

गुरुवार, 1 सितंबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की लघुकथा...... विवशता

     


रेलवे स्टेशन से बाहर कदम रखते ही कई रिक्शा चालक मेरी ओर ऐसे झपट पड़े जैसे मुझ अकेली सवारी को कई टुकड़ों में बांटकर अपनी-अपनी रिक्शाओं में ले जाएंगे।किसी ने मेरी अटैची कब्जा ली तो कोई मेरा हाथ पकड़कर खींचने लगा – 'हां बोलो बाबू! कहां जाना है?... घंटाघर, हज़रत गंज,बस अड्डे…?'

     'निशातगंज…जल्दी से पैसे बताओ?'

     'तीस रुपए…चलो पच्चीस दे देना!...बीस से कम तो बिल्कुल नहीं!'

     'दस रुपए दूंगा, तैयार हो तो चलो जल्दी! बहुत बार आता जाता रहता हूं, इससे ज्यादा कभी नहीं देता।'

     'तो फिर पैदल चला जा!' मेरी अटैची फेंक वे अभद्रता पर उतर आए। और दूसरी सवारियों की ओर बढ़ गये।

     तभी काली पैंट पहने और काला चश्मा लगाए एक युवक मेरी ओर बढ़ आया – 'आइए सरजी! मेरी रिक्शा में बैठिए! मैं ले चलूंगा आपको निशातगंज!'

     'तू भी खोल अपना मुंह,बोल कितने लेगा?' मेरे स्वर में किंचित आवेश का पुट मिश्रित हो आया।

     'जो चाहे वह दीजिएगा पर बैठ तो जाइएगा!' विनम्र स्वर के साथ अनुरोध भी।

     'तुम जाहिल गंवारों में यही तो खास बात होती है कि पहले तो बताएंगे नहीं, और फिर जेब खाली करने पर उतारू हो जाएंगे…या फिर झगड़ा करने लगेंगे। तुम रिक्शा वालों की फितरत से मैं बहुत अच्छी तरह परिचित हूं।' पहले वाले रिक्शा चालकों के अभद्राचरण से मेरे स्वर में स्वत: ही उत्तेजना मुखर होने लगी थी।

     युवक तब भी सहिष्णु बना रहा – 'सर!आप मुझे भी अन्य रिक्शा चालकों जैसा ही समझ रहे हैं। मैं उन जैसा नहीं हूं।आप निश्चिंत होकर बैठिएगा और जो उचित लगे दीजिएगा!न मन करे तो मत दीजिएगा! बिल्कुल नहीं झगड़ूंगा।'

     'चल फिर ! आठ से ज्यादा बिल्कुल नहीं दूंगा! तुम जैसे जाहिल गंवारों से निपटना मैं भी अच्छी तरह जानता हूं।'

     मैं बैठ गया। रिक्शा हवा से बातें करने लगा।साथ ही वह मुझसे निकटता बढ़ाने का प्रयास करने लगा – 'सर आप आए किस ट्रेन से हैं?...ट्रेन्स आजकल बहुत लेट चलने लगी हैं, बहुत टाइम बरबाद होता है यात्रियों का। पर कोई कहने सुनने वाला नहीं। कोई जिए या मरे, किसी का काम बने या बिगड़े, कोई है आवाज़ उठाने वाला? सर!इस देश में व्यवस्था नाम की कोई चीज है भला?सब कुछ राम भरोसे चल रहा है। अमेरिका और जापान में देखिए!सब कुछ निर्धारित रूप से संचालित होता है।समय का सम्मान करना जानते हैं वहां के लोग।तभी तो उन्नति कर रहे हैं वे देश।'

     वह देश की व्यवस्था पर प्रहार कर रहा था जबकि मुझे लग रहा था कि वह मुझ पर मक्खन लगाने का प्रयास कर रहा है। ताकि मैं उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर ज्यादा पैसे दे सकूं। मैं मन ही मन हंस पड़ा…बेटा चाहे तू कितनी भी बातें बना लें, पर मैं एक भी पैसा ज्यादा देने वाला नहीं…आठ रुपए कह दिए हैं तो आठ ही दूंगा। ज्यादा करेगा तो दो झापड़ रसीद करूंगा और चिल्लाकर भीड़ इकट्ठी कर लूंगा…स्साले बेइमान कहीं के…

     'वैसे सर आप निशातगंज में जाएंगे कहां?' पैडिल पर पैर मारते-मारते उसने पूछा तो मैं अपनी सोच से बाहर निकल झुंझला सा पड़ा– 'जहन्नुम में जाऊंगा,बोल पंहुचा देगा? अकारण चख-चखकर मेरा दिमाग खाए जा रहा है? क्या मतलब है फालतू बातें करने का?'

     वह कुछ बुझ सा गया – 'सर मैं इसलिए पूछ रहा था कि निशातगंज तो आ गया है, आपको जहां जाना हो वहां तक पंहुचा देता और आपका सामान भी उतार देता। सवारी पैसे देती है तो हमारा भी कर्तव्य बनता है कि उसे कोई कष्ट न होने दें,न कोई परेशानी होने दें। सारे रिक्शा वाले एक जैसे नहीं होते सर!'

     गन्तव्य पर पंहुच मैंने उसे दस का नोट दिया तो दो रुपए वापस करते हुए उसने सिर को हल्का सा झुकाते हुए कहा – 'मेरी रिक्शा में बैठने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सर!'

     आश्चर्य से जड़ रह गया मैं…आजतक किसी रिक्शा चालक में ऐसी विनम्रता, ऐसी शालीनता, ऐसी शिष्टता कहीं देखने को न मिल सकी थी मुझे। मेरी हैरतभरी निगाहें उसकी मुरझायी सी आंखों से टकरायीं तो उन आंखों में जलकण झिलमिला उठे – 'इस देश की भ्रष्ट व्यवस्था ने मुझे रिक्शा चलाने को मजबूर कर दिया सर! वरना कैमिस्ट्री से एम एस सी में फर्स्ट क्लास हूं मैं।दो बार चयन आयोग की परीक्षा में चुना गया पर नियुक्ति पाने के लिए न तो पैसा था जेब में और न ही सिफारिश थी।अतएव साक्षात्कार में असफल घोषित कर दिया गया।सिर पर बूढ़ी मां और दो बहनों का भार…आजीविका तो चलानी ही थी। रात्रि को ट्यूशन पढ़ाता हूं और दिन में रिक्शा चलाता हूं। और इसी में से समय निकालकर एम फिल की तैयारी भी कर रहा हूं।'

     आत्म ग्लानि की ज्वाला में झुलस उठा मैं…मुझे उसके साथ ऐसा अशिष्ट और आक्रोशित आचरण नहीं करना चाहिए था। मैंने जेब से सौ का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा – 'अपनी मां व बहनों के लिए मिठाई फल वगैरह लेते जाना!'

     उसने हाथ जोड़ दिए– 'सर! गरीब जरूर हूं पर भिक्षुक नहीं। परिवार के जीविकोपार्जन योग्य कमा ही लेता हूं…नमस्कार!!'

    मेरी दंभ भरी मानसिकता को दर्पण दिखा रिक्शा मोड़ बड़ी तीव्रता से वह वापस चला गया। किंतु मैं न जाने कब तक इस देश की भ्रष्ट व्यवस्था के शिकार उस स्नातकोत्तर रिक्शा चालक की विवशता के मकड़जाल में उलझा रहा।

✍️डॉ अशोक रस्तोगी 

अफजलगढ़ 

बिजनौर 

उत्तर प्रदेश, भारत





मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर की लघुकथा ....शाबाशी


चौराहे पर भीड़ जमा थी। सरकारी डस्ट-बिन में मैले और फटे हुए कपड़े में लिपटी नन्ही सी जान को वो भीड़ देख रही थी। तभी एक भिखारिन ने लपक कर उसे उठा लिया और अपने बोरे पर जाकर बैठ गई। कुछ देर ख़ामोशी रही। फिर उस भीड़ में खुश होकर तालियां बजा दीं।

 ✍️ ज़िया ज़मीर 

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा- वक़्त की बात

     


रामप्रसाद ने अपने बहू- बेटे को बुलाकर कहा ,"ले बेटा यह मेरी जमा पूंजी के पेपर हैं जो मेरे पास था तेरे नाम कर दिया है सम्भाल कर रखना मुझे क्या चाहिए सब दो वक़्त की रोटी ?" ठीक है पिता जी, कहकर मोहन ने कागजात अपने पास रख लिए। एक दिन ऐसा आ गया कि न तो बहू सुनती और न ही बेटा, रोटी भी वक़्त बे वक़्त मिलती और वह भी बहुत तानों के बाद।अब रामप्रसाद क्या करे अपना दुख किससे कहे आखिर परेशान होकर वह वृद्धाश्रम में जाकर रहने लगा और बिना किसी को बताये अपनी वसीयत बदलवा दी।

       जब मोहन को पता चला तो बहुत देर हो चुकी थी वह पिता जी को लेने आश्रम पहुंचा वहां टीवी पर चित्रहार में गाना आ रहा था -----।

      तू हिंदू बनेगा,न मुसलमान बनेगा

       इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा।

✍️ अशोक विश्नोई 

 मुरादाबाद

मंगलवार, 30 अगस्त 2022

मुरादाबाद की संस्था "योमीना फाउंडेशन" द्वारा शनिवार 27 अगस्त 2022 को मुरादाबाद के पंचायत भवन में आयोजित कार्यक्रम 'जश्न-ए-जुबाँ' में डॉ सोनरूपा विशाल द्वारा प्रस्तुत अपने पिता स्मृतिशेष डॉ उर्मिलेश को समर्पित कालजयी रचना... मेरे दोनों छोर पिता

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::::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट 

मुरादाबाद 244001

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मोबाइल फोन नंबर 9456687822





मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत ...... तर्पण करके पितरों का हम, आश्विन मास कनागत में / मनोयोग से लग जाते हैं त्योहारों के स्वागत में ......


तर्पण करके पितरों का हम

आश्विन मास कनागत में ।

मनोयोग से लग जाते हैं

त्योहारों के स्वागत में ।।


इठला उठते हैं घर-द्वारे

जब पहनें साफ-सफाई ।

घर से विदा दलिद्दर होते

जी भर ले नेग विदाई ।।

फिर भी मन अनमना, सोचता 

रही कमी कुछ लागत में ।


नवरात्र शुभम् पूजा-अर्चन

शुद्ध मनों को कर देते ।

अहंकार हो सभी पराजित

पुरुषोत्तम को बल देते ।।

यहीं राम की लीलाओं का

मिलता मर्म परागत में ।


जगमग होकर दीवाली में

मोती मन के बिखरें सब ।

घर-घर के कोने-कोने भी

उपवन जैसे निखरें जब ।।

गान उभर कर आ बैठे फिर

अपने आप अनाहत में ।


धूम-धाम से देवठान को

देव उठाये जाते हैं ।

गंग घाट पर नहा-नहा कर

आसन देव लगाते हैं ।।

कर्म हमारे तब हैं ,तोले

जाते दिव्य अदालत में ।


अपने-अपने कर्म-धर्म में 

जब-जब दोष भरे देखे ।

शरण यज्ञ की हम पहुंचे हैं

ले, लेकर अपने लेखे ।।

तब कस्तूरी बस जाती है

आकर सोच तथागत में ।

✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी

 झ-28, नवीन नगर

 काँठ रोड, मुरादाबाद

 मोबाइल:9319086769

सोमवार, 29 अगस्त 2022

मुरादाबाद की संस्था "योमीना फाउंडेशन" द्वारा शनिवार 27 अगस्त 2022 को मुरादाबाद के पंचायत भवन में आयोजित कार्यक्रम 'जश्न-ए-जुबाँ' में मुरादाबाद के साहित्यकार ज़िया ज़मीर द्वारा प्रस्तुत गजलें

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डॉ मनोज रस्तोगी

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मुरादाबाद 244001

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मुरादाबाद की संस्था "योमीना फाउंडेशन" द्वारा शनिवार 27 अगस्त 2022 को मुरादाबाद के पंचायत भवन में आयोजित कार्यक्रम 'जश्न-ए-जुबाँ' में मुरादाबाद के साहित्यकार मयंक शर्मा द्वारा प्रस्तुत मां सरस्वती वंदना तथा गीत ...एक दीपक तुम बनो तो एक दीपक मैं बनूं ....

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मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ. पूनम बंसल के गीत-संग्रह 'चाॅंद लगे कुछ खोया-खोया' की राजीव प्रखर द्वारा की गई समीक्षा.... अनुभूतियों से वार्तालाप करती कृति - 'चाॅंद लगे कुछ खोया खोया'

एक आदर्श व सक्षम रचनाकार जब भावों के अथाह महासागर में चहलक़दमी करके बाहर आता है, तो उसकी लेखनी कुछ ऐसा अवश्य समेट कर लाती है, जो एक उत्कृष्ट कृति में ढलकर, सहज ही पाठकों व‌ श्रोताओं से वार्तालाप करने लगती है। डॉ. पूनम बंसल की उत्कृष्ट लेखनी से साकार हुआ गीत-संग्रह 'चाॅंद लगे कुछ खोया-खोया' ऐसी ही उल्लेखनीय कृति है जो कुल 78 मनमोहक गेय रचनाओं से सुसज्जित होकर यह स्पष्ट करती है कि कवयित्री ने मात्र लिखने के लिये ही नहीं लिखा अपितु, अनुभूतियों के इस अथाह महासागर में उतर कर उनसे साक्षात्कार भी किया है। चाहे ये अनुभूतियाॅं अध्यात्म से ओत-प्रोत हों अथवा जीवन की विभिन्न चुनौतियों से जूझते संघर्ष की गाथाएं, प्रत्येक रचना में कवयित्री अपने मनोभावों को, उत्कृष्टता से स्पष्ट करने में सफल रही हैं। कृति का आरम्भ पृष्ठ 31 पर उपलब्ध, माॅं शारदे को समर्पित हृदयस्पर्शी रचना से हुआ है। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाॅं ही हृदय को भक्ति-भाव से ओत-प्रोत कर जाती हैं, पंक्तियाॅं देखें -

"इन पावन चरणों में कर ले, आज नमन स्वीकार माॅं।

ज्योतिर्मय हों सभी दिशाएं, और मिटे ॲंधियार माॅं।"

कुछ इसी प्रकार की कामना, पृष्ठ-32 पर उपलब्ध रचना में भी दिखाई देती है, पंक्तियाॅं देखें -

"ज्ञान के सूरज उगा, हे धवल वसना शारदे।

हो नया स्वर्णिम सवेरा, वो मधुर झंकार दे।"

आध्यात्मिक रचनाओं से शुभारंभ करने वाली यह कृति आगे बढ़ती हुई, जीवन के विभिन्न उतार-चढ़ावों को भी स्पर्श करने लगती है। इसी क्रम में जीवन का दर्द समेटे एक रचना पृष्ठ 36 पर, 'क़दम-क़दम पर दर्द भरा जब' शीर्षक से आती है।‌ इस मर्मस्पर्शी रचना की कुछ पंक्तियाॅं -

"क़दम-क़दम पर दर्द भरा जब, पीना है विष का प्याला।

फिर कैसे कह दें हम बोलो, जीवन अमृत की हाला।"

इसी प्रकार मातृ-भक्ति को साकार करती, 'माॅं गंगा की धार है' (पृष्ठ 39), जनकल्याण की भावना से अभिप्रेरित, 'दूर हो यह धरा का ॲंधेरा सभी' (पृष्ठ 40), प्रकृति से गलबहियाॅं करती 'ओ सावन के मेघ बरस जा' (पृष्ठ 41), 'पिया मिलन की रुत आई' (पृष्ठ 55), 'झूला झूलें राधा रानी' (पृष्ठ 96) आदि रचनाएं हैं, जिनके माध्यम से कवयित्री ने जीवन के प्रत्येक पहलू को पाठकों के सम्मुख उकेरा है।

व्यक्तिगत रूप से मैं इस निष्कर्ष पर पहुॅंचा हूॅं कि इस उत्कृष्ट गीत-संग्रह के केंद्र में, अंतस में छिपी व आकुल व्यथा एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर से एकाकार हो जाने की उत्कण्ठा ही है, जिसके इर्द-गिर्द, अन्य अनेक अनुभूतियाॅं निरंतर चहलकदमी करती हैं, जिन्हें अभिव्यक्त करने में कवयित्री की लेखनी तनिक भी विलंब नहीं करती। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में रची-बसी एक संघर्षरत परन्तु जीवट की धनी नारी, संघर्षों से जूझते हुए भी आशा का संचार कर जाती है। पृष्ठ 119 पर उपलब्ध रचना इसी आशावादी दृष्टिकोण को अभिव्यक्ति दे रही है। 'बदल रहा कश्मीर है' शीर्षक वाली इस रचना की पंक्तियाॅं देखें -

"महक उठी है केसर-वादी, उड़ा गुलाल अबीर है।

धारा के हटने से देखो, बदल रहा कश्मीर है।"

जीवन के विविध पहलुओं को साकार करती यह गीत-यात्रा पृष्ठ-125 पर उपलब्ध 'जो सलोने सपन' शीर्षक रचना के साथ विश्राम लेती है। निराशा से आशा की ओर बढ़ती इस रचना की कुछ पंक्तियाॅं -

"जो सलोने सपन ऑंसुओं में पले,

आस बन कर सभी जगमगाते रहे।

लालिमा से गगन है अभी बे-ख़बर,

बादलों में छिपा है कहीं भास्कर।

पंछियों की तरह सुरमई साॅंझ में,

प्रीत के गीत हम गुनगुनाते रहे।"

यद्यपि, हिंदी एवं उर्दू दोनों के शब्दों का सुंदर संगम लिये इस कृति में, कहीं-कहीं भाषाई अथवा टंकण सम्बंधी त्रुटियाॅं, कवयित्री के इस सारस्वत अभियान में बाधा डालने का असफल प्रयास करती प्रतीत हुई हैं एवं कुछ आलोचक बंधु भी अपनी अभिव्यक्ति के लिये इसमें पर्याप्त संभावनाएं तलाश सकते हैं परन्तु, यह उत्कृष्ट कृति इन सभी चुनौतियों से पार पाते हुए, पाठकों के अंतस को स्पर्श करने में पूर्णतया सक्षम है, ऐसा मैं मानता हूॅं। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि, सरल व सहज भाषा-शैली के साथ, आकर्षक सज्जा एवं सजिल्द स्वरूप में तैयार यह गीत-संग्रह, गीत-काव्य जगत में अपना उल्लेखनीय स्थान बनायेगा। 



कृति
: चाॅंद लगे कुछ खोया-खोया (गीत संग्रह)

रचनाकार : डॉ पूनम बंसल 

प्रकाशन वर्ष : 2022 मूल्य : 200 ₹

प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद


समीक्षक
: राजीव 'प्रखर' 

डिप्टी गंज, मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत


रविवार, 28 अगस्त 2022

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा के तत्वावधान में रविवार 28 अगस्त 2022 को आयोजित कवयित्री डॉ. पूनम बंसल के गीत-संग्रह "चाँद लगे कुछ खोया-खोया" का लोकार्पण समारोह

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था अक्षरा के तत्वावधान में  कवयित्री डॉ. पूनम बंसल के गीत-संग्रह "चाँद लगे कुछ खोया-खोया" का लोकार्पण रविवार 28 अगस्त 2022 को सिविल लाइंस मुरादाबाद स्थित दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय के सभागार में किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने की, मुख्य अतिथि के रूप में गजरौला से विख्यात कवयित्री डॉ. मधु चतुर्वेदी तथा विशिष्ट अतिथि के रूप में उच्च शिक्षा आयोग के पूर्व सदस्य डॉ. हरवंश दीक्षित, इं० उमाकांत गुप्त, सिंभावली के साहित्यकार राम आसरे गोयल एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रामानंद शर्मा उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम द्वारा किया गया। कार्यक्रम का आरंभ युवा कवि मयंक शर्मा द्वारा प्रस्तुत सरस्वती वन्दना से हुआ। 

     इस अवसर पर लोकार्पित कृति "चाँद लगे कुछ खोया-खोया" से रचनापाठ करते हुए डॉ. पूनम बंसल ने गीत सुनाये- "दूर हो ये धरा का अँधेरा सभी/आज फिर इक नया अवतरण चाहिए/प्रेम के फूल ही हर तरफ़ हों खिले/हम लगा लें गले राह में जो मिले/हर जहाँ से हसीं हो हमारा जहाँ/चेतना का विमल जागरण चाहिए"। उनके एक और गीत की सबने तारीफ की- "भौतिकता ने पाँव पसारे, संस्कृति भी है भरमाई/मौन हुई है आज चेतना, देख धुंध पूरब छाई/नैतिकता जब हुई प्रदूषित, मूलें का भी ह्रास हुआ/मात-पिता का तिरस्कार तो मानवता का त्रास हुआ/पश्चिम की इस चकाचैंध में लाज-हया भी शरमाई"।

   लोकार्पित गीत संग्रह पर आयोजित चर्चा में प्रख्यात साहित्यकार माहेश्वर तिवारी ने कहा- "डॉ. पूनम बंसल शुद्ध अर्थों में  अंतरंग रागचेतना और बाह्य प्रकृति के समन्वय से निर्मित गीत कवयित्री हैं जिनकी काव्य-भाषा आम बोलचाल की भाषा है, जिसमें हिंदी के तत्सम शब्दों के साथ-साथ उर्दू का पुट भी मिलता है।"

        वरिष्ठ ग़ज़लकार डॉ. कृष्णकुमार नाज़ ने कहा- "पूनम जी के गीत यूँ तो विविध रंगों में सजे हुए शब्दचित्र हैं, लेकिन उनके यहाँ श्रृंगार की प्रधानता पाई जाती है। उसमें भी वियोग श्रृंगार की प्रबलता है। आम बोलचाल की भाषा में लिखे गए गीत सबका मन मोह लेते हैं।"

     नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहा- "डाॅ. पूनम बंसल के गीतों में मन की रागात्मकता तथा संगीतात्मकता की मधुर ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है, ऐसा महसूस होता है कि ये सभी गीत गुनगुनाकर लिखे गए हैं। संग्रह के गीतों का विषय वैविध्य कवयित्री की सृजन-क्षमता को प्रतिबिंबित करता है। इन गीतों में जहाँ एक ओर प्रेम की सात्विक उपस्थिति है तो वहीं दूसरी ओर भक्तिभाव से ओतप्रोत अभिव्यक्तियाँ भी हैं।"

     कृति के संबंध में अपने विचार रखते हुए महानगर के रचनाकार राजीव प्रखर ने कहा - कवयित्री डॉ. पूनम बंसल ने मात्र लिखने के लिए ही नहीं लिखा अपितु, अनुभूतियों के अथाह सागर में उतर कर उनसे साक्षात्कार भी किया है। यही कारण है कि वह संग्रह की प्रत्येक रचना में अपने मनोभावों को सशक्त रूप से स्पष्ट करने में सफल रही हैं।        कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने पुस्तक के संबंध में अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हुए कहा  - डॉ पूनम बंसल जी के गीतों से गुजरते हुए हम सहजता से पीड़ा के घने जंगलों को पार कर मुस्कानों व उम्मीदों की डगर पर बढ़ते हुए प्रेम की सुन्दर नगरी में प्रवेश करते हैं जहाँ मन की चिड़िया फुर्र से उड़ती है।

डॉ. पूनम बंसल के रचनाकर्म के संबंध में अन्य वक्ताओं में डॉ सुधीर अरोरा, डॉ. आर. सी. शुक्ल, डॉ. प्रेमवती उपाध्याय, डॉ. अजय अनुपम, देवकीनंदन जैन, हरिनंदन जैन, प्रदीप बंसल,  डॉ अंबरीश गर्ग, काव्य सौरभ रस्तोगी, बाल सुंदरी तिवारी आदि प्रमुख रहे। 

       कार्यक्रम में ओंकार सिंह ओंकार,  फक्कड़ मुरादाबादी, श्रीकृष्ण शुक्ल, डॉ. मनोज रस्तोगी, धवल दीक्षित, ज़िया ज़मीर, रामदत्त द्विवेदी, राकेश जैसवाल, मनोज मनु, वीरेन्द्र ब्रजवासी, ज़िया ज़मीर, नकुल त्यागी, शिव मिगलानी, डॉ अर्चना गुप्ता, डॉ पंकज दर्पण, शिव ओम वर्मा, नकुल त्यागी, संतोष गुप्ता, जितेन्द्र  जौली, रामसिंह निशंक, राजीव शर्मा, दुष्यंत बाबा, माधुरी सिंह, अभिव्यक्ति, अमर सक्सेना, मुस्कान आदि उपस्थित रहे। आभार अभिव्यक्ति अंशिका बंसल ने व्यक्त की।