चार चरणों वाला तथा दो पंक्तियों वाला दोहा हिन्दी साहित्य का वह पहला छंद है, जिसे हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं के मध्य सर्वाधिक यश प्राप्त हुआ। सूर, कबीर, तुलसी, बिहारी की दोहा-लेखन परंपरा को अनेक प्राचीन कवियों ने आगे बढ़ाया और वर्तमान में भी अधिकांश कवियों ने दोहा लेखन को सर्वप्रिय बनाये रखा है।
हाल ही में मुरादाबाद के वरिष्ठ व यशस्वी नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम का दोहा-संग्रह "उगें हरे संवाद" के दोहे पढ़ते हुए महसूस हुआ कि उन्होंने दोहा-लेखन में "नवदोहे" के रूप में एक नये काव्यरूप का सृजन कर एक बड़ी उपलब्धि पा ली है। नवगीत की ही भांँति व्योम जी के दोहे परंपरागत शैली से हटकर नये कथ्य, नये बिम्ब गढ़ते हुए आधुनिक युग की बात करते हैं। इस दौरान आपने दोहे की मूल अवधारणा को भी पूर्णतः सुरक्षित रखा है। आपके दोहों में नवगीत के सभी आवश्यक तत्व यथा-जीवन दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व बोध, प्रीति आदि स्वत: ही दोहे की दो पंक्तियों में समा गये हैं। कोरे उपदेशात्मक रवैये को त्यागकर आपके दोहे आम आदमी की बात करते हैं, जो कल्पना लोक की कोमल बिछावन से उतरकर यथार्थ के खुरदरे धरातल पर चलकर पाठकों के बीच पहुँचते हैं। उनके दोहों के भीतर कथ्य और शिल्प दोनों में नवगीत का मूल तत्व- 'नवता' प्रमुख रूप से उभर कर सामने आता है, फलतः मेरे दृष्टिकोण से व्योमजी के दोहों को 'नवदोहे' कहना ही अधिक श्रेष्ठ होगा।
मांँ शारदे की वंदना से प्रारंभ होकर, यह उत्कृष्ट नवदोहा-संग्रह, भारतीय संस्कृति-संस्कार, जीवन-मूल्यों व सामाजिक सरोकारों की पैरवी करता हुआ भारत के जयघोष पर आकर रुकता है। एक कुशल नवगीतकार की लेखनी से जब नवदोहे प्रसूत हुए तो चुप के ऊसर में उगे हरे संवाद, मरती हुई संवेदनाओं में आशा की प्राणवायु का संचार करने हेतु तत्पर हो उठे और कृति को शीर्षक प्रदान करता उनका यह दोहा अत्यंत उत्कृष्ट बन गया-
मिट जायें मन से सभी, मनमुटाव-अवसाद।
चुप के ऊसर में अगर, उगें हरे संवाद।।
व्योमजी के दोहों की व्यंजना-शक्ति चमत्कृत करती है तो भाषा की भव्यता, भावों को निर्मलता प्रदान करती है। रूपक-यमक, अनुप्रास और मानवीकरण आदि अलंकारों से श्रृंगारित दोहे, बेहद सरल व सहज बन पड़े हैं। नव्यता के बावजूद भी आपके शब्द कहीं से भी आरोपित नहीं लगते। गंभीर विषयों के सागर को आपने जिस सहजता व कुशलता से दो पंक्तियों वाले दोहे की गागर में उड़ेल दिया है, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। जीवन का सारांश प्रस्तुत करता यह दोहा पाठकों की अंतरात्मा को झकझोर देता है-
धन-पद-बल की हो अगर, भीतर कुछ तासीर।
जीकर देखो एक दिन, वृद्धाश्रम की पीर।।
कवि के भीतर की आत्मीयता से भरे दोहों ने जब कल्पना की झील में नहाकर, अनूठे विम्बों को धारण किया तो आपके नव दोहे प्रत्यक्ष होकर, "नभ पर स्वर्ण सुगंधित गीत" लिखने लगे। इसकी एक बानगी देखिए-
मन ने पूछा देखकर ,अद्भुत दृश्य पुनीत।
नभ पर किसने लिख दिए, स्वर्ण सुगंधित गीत।।
व्योमजी के दोहे यथार्थ के धरातल पर उगे हैं, अतः अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहते हैं ताकि क्षरित होते हुए मूल्यों को बचाया जा सकें। तभी तो व्योमजी लिखते भी हैं-
मूल्यहीनता से रही, इस सच की मुठभेड़।
जड़ से जो जुड़कर जिए, हरे रहे वे पेड़।।
और आभासी युग में संस्कार व संस्कृति की दुर्गति देखकर कवि के व्यथित कोमल हृदय से भावनाओं का लावा दोहों के रूप में बह निकलता है और व्योमजी लिखने पर विवश हो जाते हैं-
ऐसे कटु परिदृश्य का, कभी न था अनुमान।
सूली पर आदर्श हैं, संस्कृति लहूलुहान।।
साथ ही उन्होंने आधुनिक समय के पीढ़ीगत मतभेदों को भी अपने दोहों में बड़ी कुशलता से चित्रित किया है-
देख-देखकर हैं दुखी, सारे बूढ़े पेड़।
रोज़ तनों से टहनियाँ, करती हैं मुठभेड़।।
आजकल मंच पाने की होड़ में कविता लेखन के नाम पर बाहुबली लफ्फाजियों ने अधिक स्थान घेरा हुआ है तथा स्वाभिमानी कविता को हाशिये पर धकेल दिया है। कविता में इस जुगाड़बाजी का व्योमजी ने बड़ी निर्भीकता से चित्रण किया है-
दफ़्न डायरी में हुए, कविता के अरमान।
मंचों पर लफ्फाज़ियाँ, पाती हैं सम्मान।।
कविता के इतर, आज हिंदी साहित्य के अन्य सृजन यथा- कहानी, नाटक व अन्य विधाओं के लेखन के प्रति साहित्यकारों की उदासीनता को भी आपने पूरी ईमानदारी के साथ सशक्त दोहों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। इसका एक उदाहरण देखिए-
नाटक गुमसुम चुप खड़ा, भर नयनों में नीर।
शून्य सृजन की है घुटन, किसे सुनाये पीर।।
साथ ही चाटुकारिता को मुँह चिढ़ाता हुआ, आपका यह दोहा आज के समय में बिलकुल उपयुक्त जान पड़ता है-
लगन ,समर्पण और श्रम, सारे ही हैरान।
चाटुकारिता को मिला, श्रेष्ठ कर्म सम्मान।।
पाठक की अंतरात्मा को झकझोरते, सीधी-सच्ची बात करते आपके दोहे, सीधे हृदय को स्पर्श करते हैं। इसी क्रम में, अधोलिखित समसामयिक दोहे का अप्रतिम काव्यात्मक सौंदर्य, शिल्प और कथ्य देखते ही बनता है-
बदल रामलीला गयी, बदल गए अहसास।
राम आजकल दे रहे, दशरथ को वनवास।।
व्योमजी समाज को आईना भी दिखाते हैं और सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ पारिवारिक रिश्तों में मिठास और सामाजिक-संबंधो में उल्लास बनाये रखने की पैरवी भी करते हैं, यही आपके दोहों की आत्मा है। इसकी झलक पूरे संग्रह में देखने को मिलती है। एक बानगी देखिए-
आशा के अनुरूप हो, आपस का व्यवहार।
फिर हर दिन परिवार में, बना रहेगा प्यार।।
नयी बहू ससुराल जब, पहुँची पहली बार।
स्वागत में सब बन गए, रिश्ते तोरणद्वार।।
सजग कवि देश हित में ही सोचता और लिखता है। किसी भी देश की राजनीति का उस देश के उत्थान-पतन में महत्वपूर्ण स्थान होता है और एक सजग व निर्भीक कवि सदैव अपनी लेखनी के माध्यम से राजनीतिक विद्रूपता को वास्तविकता का दर्पण दिखाता रहा है। इसी क्रम में आप लिखते हैं कि-
लोकतंत्र में भी बहुत, आया है बदलाव।
आये दिन होने लगे, अब तो आम चुनाव।।
सारे ही दल रच रहे, सत्ता का षडयंत्र।
अब तो अवसरवादिता, राजनीति का मंत्र।।
आम आदमी की पीड़ा और गरीब की भूख आपको भीतर तक झंझोड़ती है और आपकी कलम लिखने पर विवश हो जाती है-
मिले हमें स्वाधीनता, बीते इतने वर्ष।
ख़त्म न लेकिन हो सका, "हरिया" का संघर्ष।।
सपनो के बाज़ार में, "रमुआ" खड़ा उदास।
भूखा नंगा तन लिए, कैसे करे विकास।।
परंतु साथ ही देश के नागरिकों से कर्तव्यनिर्वहन का आह्वान करना भी नही भूलते, तभी तो लिखते हैं-
तुम विरोध बेशक करो, किंतु रहे यह ध्यान।
राष्ट्रगर्व के पर्व का, क्षरित न हो सम्मान।।
आज के भागदौड़ भरे जीवन में पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों की पूर्ति में सुख हमसे कोसों दूर हैं, परंतु मानसिक तनाव स्थायी होते जा रहे हैं, इस स्थिति को अद्भुत विम्बों में पिरोना एक श्रेष्ठ नवदोहाकार के लिए अत्यधिक सरल जान पड़ता है। तभी तो आपने लिखा है-
सुख साधारण डाक से, पहुंँच न पाये गांँव।
पर पंजीकृत मिल रहे, हर दिन नये तनाव।।
प्रकृति चित्रण के तो कहने ही क्या हैं। चाहे वो "तानाशाह सूरज" हो या, "मंचासीन बूंँदे", "मेघों का अखबार" हो या "बारिश में नहायी बूंँदे"। "वासंती नवगीत गाती कोयल" हो या "पीली सरसों का ख़त"। सभी के चित्र नवदोहाकार व्योमजी एक फ्रेम में रखने में सक्षम हो गये हैं। यह कवि का कोमल हृदय ही है जो बूंँदों की उद्दंडता को सहने में असमर्थ गरीब की पीड़ाभरी मनुहार को बड़े ही मार्मिक और विनीत भाव से लिखता है-
बरसो! पर करना नहीं, लेशमात्र भी क्रोध।
रात झोंपड़ी ने किया, बादल से अनुरोध।।
तीज-त्योहार मनाने में भी कवि की कलम पीछे नहीं है। अद्भुत विम्ब जब त्योहारों की मस्ती में रंँगे, तो "पिचकारी रंगो से संवाद करने लगी" और दीपशिखाओं के उजास में एक और नया अध्याय जुड़ गया। एक दोहा देखिए-
मन के सारे त्यागकर, कष्ट और अवसाद।
पिचकारी करने लगी, रंगों से संवाद।।
वर्तमान समय की एक बड़ी समस्या प्रदूषण भी है जिसके कारण अनेक विसंगतियाँ भी उत्पन्न हुईं और जीवन के लिए अनिवार्य आवश्यक साँसों पर संकट। पर्यावरण प्रेमी कवि विकास के नाम पर विनाश देखकर व्यथित हो उठता है और लिखता है-
जब शहरों की गंदगी, गयी नदी के पास।
फफक-फफककर रो उठी, पावन जल की आस।।
समसामयिक संदर्भों पर आपकी लेखनी ने खूब सम्मान पाया है फिर चाहे वो समाजिक घटनाएँ हों या देशभक्ति से जुड़े ऐतिहासिक पल-
भारत की उपलब्धि से ,बढ़ी जगत में शान।
मूक-बधिर से हो गये, चीन -रूस-जापान।।
आज तिरंगे की हुई, जग में जयजयकार।
मिशन चंद्रमा का हुआ, सपना जब साकार।।
व्योमजी की यह कृति उन्हें देश के प्रथम नवदोहाकार की श्रेणी में लाकर खड़ा करती है। और उनके पूरे संकलन की समीक्षा केवल एक दोहे से ही की जा सकती थी, परंतु जिस प्रकार हांँडी का एक चावल चखने के पश्चात संपूर्ण भोज किये बिना नहीं रहा जा सकता, उसी प्रकार एक दोहा पढ़ने के पश्चात, आपका संपूर्ण "नवदोहा-संग्रह" पढ़े बिना नहीं रहा जा सका। पंक्तियाँ देखिएगा-
मिलजुलकर हम तुम चलो, ऐसा करें उपाय।
अपनेपन की लघुकथा,उपन्यास बन जाये।।
मुझे विश्वास है कि यह कृति "उगें हरे संवाद" निश्चित रूप से हिंदी साहित्य में नवदोहों की लघुकथाओं के अपनत्व से भरा एक सार्थक उपन्यास सिद्ध होगी।
कृति - "उगें हरे संवाद" (दोहा-संग्रह)
कवि - योगेंद्र वर्मा 'व्योम'
प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद
प्रकाशन वर्ष - 2023
पृष्ठ संख्या- 104
मूल्य - ₹ 200/- (पेपर बैक)
समीक्षक -
मीनाक्षी ठाकुरमिलन विहार, दिल्ली रोड,
मुरादाबाद- 244001