रविवार, 28 जनवरी 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी द्वारा लिखित संस्मरण ....यू परवतिया मरेगी



     मैं भी देश के उन सौभाग्यशाली व्यक्तियों में से हूँ, जो 26 जनवरी 1950 के बाद अपने स्वाधीन भारत में पैदा हुए।परिजनों की याददाश्त के आधार पर मेरा जन्म 12 फरवरी 1951 को हुआ। जब मैं छ: वर्ष का होने को था,तभी पड़ोस के गाँव रझा के प्राथमिक  विद्यालय में मुझे प्रवेश दिला दिया गया।12 फरवरी 1951 को पैदा हुआ मैं,विद्यालय में प्रवेश लेते ही 10 नवंबर 1951 को पैदा हुआ दर्ज़ हो गया।उस समय ऐसा ही होता था। विद्यालय न जाने वाले बच्चों की जन्मतिथियाँ तो किसी को याद ही नहीं रहती थीं,उम्र का हिसाब-किताब सिर्फ अंदाज से चलता रहता था और विद्यालय जाने वाले बच्चों की जन्मतिथियाँ प्रवेश के समय हेड मास्टर साहब अपने हिसाब से तय करके प्रवेश रजिस्टर में दर्ज कर दिया करते थे।अस्तु! विद्यालय में मेरा प्रवेश हो गया और विद्यालय आना-जाना शुरू।इस प्रकार मेरी विद्या का श्रीगणेश हो गया।

     ‌     विद्यालय जाने में नानी मरती थी,जाने का मन ही नहीं होता था।मन तो गाँव के बाल सखाओं के साथ खेलने- कूदने में ही मग्न रहता था। मेरे बाल मन में स्कूल आते-जाते समय रास्ते भर स्कूल गोल करने की बातें स्वत: ही ध्यान में आने लगीं और इसके लिए भाँति-भाँति की युक्तियाँ भी सूझने लगीं,जाने क्यों? अंततः स्कूल गोल करने का विचार दिन पर दिन हावी होने लगा और एक दिन जब मैं स्कूल जाने के लिए घर से निकला तो देखा बाहर सामने वाली बैठक खाली पड़ी थी। वहाँ पर चार-पांच बैठने वाले मूढ़े पड़े हुए थे। मुझे पता नहीं क्या सूझा कि मैं एक मूढ़े को तिरछा करके उसके नीचे घुस गया और उसे अपने ऊपर सीधा कर लिया।अब मैं मूढ़े के नीचे और मूढ़ा मेरे ऊपर। मैं छुप तो गया पर यह सोचकर मेरे भीतर बड़ी धुकर-पुकर थी कि मेरे स्कूल गोल करने का ऊँट जाने आज किस करवट बैठेगा। इतने में ही गाँव के ही एक सज्जन वहाँ पर आए और उन्होंने बैठक वालों को ताऊ जी कहकर आवाज़ लगाई। आवाज़ लगाकर उत्तर की प्रतीक्षा में वह उसी मूढ़े पर टिक लिए जिसके नीचे मैं छुपा हुआ था।मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे। मैं अपनी साँसों को पी गया। मुझमें लेशमात्र भी जुंबिस नहीं ,बस पत्थर होकर जैसे-तैसे बैठा रहा। गनीमत रही कि उन सज्जन को अंदर से जवाब मिल गया कि घर पर कोई नहीं है।यह सुनकर वह उठ लिए और उठकर एकदम चल दिए। मुझे वह जगह सुरक्षित नहीं लगी।कोई दूसरी मुसीबत आकर                                              मूढ़े पर न बैठ जाए,इस विचार से मेरे मन में आया कि अब यहाँ से निकल लो,पर जाऊँ तो जाऊँ कहाँ?मेरा घर तो सामने ही था,पर घर जाऊँ तो पिटने का डर और गाँव के किसी भी अन्य रास्ते से इधर-उधर जाऊँ तो अवश्य ही कोई न कोई रास्ते में मिल जाएगा।मिल जाएगा तो सारी पोल-पट्टी भी खुल जाएगी। पोल-पट्टी खुल जाएगी तो घर पर भी मार जमकर ही पड़नी है।आज तो आगे कुँआ है और पीछे खाई।बहुत सोच- विचार कर मैं अपने घर को ही लौट लिया।घर में घुसते ही दादी और बीबी (मैं माता जी को बीबी ही कहता था) को नमस्ते की। बीबी ने कहा - स्कूल नहीं गया क्या? मैंने तत्काल बहाना बना दिया कि मुझे उलटी हो गई और पेट में दर्द है, इसलिए रास्ते से ही लौट आया। बहाना सफल रहा।लल्लो चप्पो भी हुई और पड़ने वाली मार से भी बच गया। दोपहर को पिताजी जंगल से लौटे। उन्होंने पूछा तो बीबी ने उन्हें भी यही बता दिया। उन्होंने भी लाड़ जताते हुए सिर पर हाथ फेरकर खूब पुचकारा। मैंने मन ही मन शुक्र मनाया कि आज तो बच गए, बच्चू।ऐसी सफलताओं का भीतर ही भीतर जो आनन्द होता है, उसके लिए शब्द मुझ पर क्या किसी के पास नहीं होते।बस सोचते रहिए और आनन्द में गोते लगाते रहिए,सो मैंने भी आनन्द में मन भरकर डुबकियाँ लगाईं। बचपन इसी का नाम है।बालपन ने ही तो पूरे घर को छका दिया न।

         अगले दिन से नियमित स्कूल जाना शुरू। समय से जाना और समय से लौट कर घर आना।घर वाले सब बहुत खुश कि बालक पढ़ाई की लाइन पर पड़ गया।पर मेरे भीतर तो कुछ और ही पक रहा था। अगले दिन जब मैं स्कूल जाने के लिए गाँव के जिस रास्ते से निकला उसपर ताऊ बसंत ठेकेदार की ढुंड पड़ी खुली जगह में एक बड़ (बरगद)का खूब बड़ा पेड़ था। उसके तने की बनावट कुछ ऐसी थी कि बालक भी उसपर आसानी से चढ़ जाते थे और ऊपर ऐसी बनाबट उसके गुद्दों की भी थी कि कोई भी आराम से बैठ सकता था और कमर टिका कर लेट भी सकता था। मैं उसी पर चढ़ लिया। आराम से बैठा और लेट भी लगाई। स्कूल मुश्किल से एक किलोमीटर की दूरी पर ही था। स्कूल के इंटरवल और छुट्टी की घंटी की सुनाई वहाँ तक खूब तेज आती थी।उन दिनों स्कूल जाने के अपने अलग ही मजे थे। सुबह घर से मक्खन से रोटी और साथ में दूध या छाछ से खूब छककर स्कूल जाते थे और स्कूल में इंटरवल में खाने के लिए घी में तर गेंचनी की दो रोटियाँ आम के अचार के साथ एक छन्ने में बाँध कर बस्ते में रख दी जाती थीं और सख्त हिदायत दी जाती थी कि इंटरवल में जरूर खा लेना, भूखे मत रहना बेटा। उन रोटियों को खाकर पूरे दिन भी पानी पीने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती थी। स्कूल में जब इंटरवल की घंटी बजती तो मै बँधी रोटियाँ खोल लेता और पेड़ पर बैठे-बैठे खाना शुरू कर देता और जब स्कूल की छुट्टी की घंटी बजती तो गाँव के बालकों को पेड़ पर से ही गाँव की ओर आता हुआ देख देखभाल कर नीचे उतरता तथा अपने घर पहुँच जाता। वह बरगद का पेड़ मेरा पिकनिक स्पॉट बन चुका था।

          स्कूल जाते हुए किसी भी दिन मैं स्कूल गोल कर दिया करता और अपने मनोरम उस बरगद के पेड़ के पिकनिक स्पॉट का भरपूर आनंद लेता,यद्यपि उस समय यह पता ही नहीं था कि पिकनिक भी कुछ होती है। आज सोचता हूँ तो उस बचपन में उससे बढ़िया पिकनिक और क्या हो सकती थी? अपना यह क्रम लगभग दो-तीन महीने से चल रहा था।स्कूल भी जाते रहना और जिस दिन मन हुआ - स्कूल गोल करके बरगद के पेड़ को नानी का घर समझकर खूब मस्तियाँ करना।

         बरगद का वह पेड़ नानी का घर तो था नहीं।वह तो अपने ही गाँव का पेड़ था।वहाँ से तो गाँव की आने -जाने वाली कोई न कोई दादी,ताई,चाची,बुआ ,भावी, बहन अथवा कोई न कोई दादा,ताऊ,चाचा,भाई आदि अपने नित्य कार्यों से गुजरते ही रहते थे।यह डर भी बना रहता था कि किसी को तनिक भी भनक लग गई तो हमेशा के लिए पिकनिक-विकनिक सब रिल जाएगी। कहानी बना तो ली, पर कही न जाएगी।घर का कोई भी कुछ कहने की तो नौबत ही नहीं आने देगा, वह तो ठीक से कर्रा पड़कर जमकर खबर ही लेगा। पर,यह दिन तो आना ही था। सो,एक दिन उस दिन की वह घड़ी आ ही गई कि जब अपनी पोल-पट्टी खुलनी ही थी। अपने आप को बरगद के पेड़ के धोखे के जो कपड़े पहनाए थे,वह उतरने ही थे और अपुन को सरेआम नंगा होना ही था।

          गाँव के रिश्ते से मेरी दादी लगने वाली पार्वती जी का घेर उसी बरगद के पेड़ वाले ढुंड के बराबर में ही था।

गाँव में उन्हें परवतिया नाम से पुकारा जाता था। वह स्कूल के इंटरवल के कुछ समय बाद नियमित रूप से अपने ढोर-डंगरों के कार्य को निपटाने उधर से ही अपने पथनवाले जाती थीं-यानिकि पशुओं का गोबर घेर से उठाकर पथनवाले में डाल कर उपले पाथने। मैं उन्हें रोज़ इसलिए निहारता था कि वह मुझे निहार न लें। वैसे तो उधर से आने-जाने वाले अन्य सभी तो इधर-उधर देखे बिना फर्राटे से सीधे निकल जाते थे,पर दादी! चारों ओर देखती हुई और ताड़ती हुई ही निकलती थी। यद्यपि मैं उनसे छुपा रहा और मेरी परछाईं तक की भी भनक उन्हें महीनों तक न लग सकी।पर,होनी तो होने के लिए ही होती है और वह हो ही गई। आखिर उन्होंने मुझे एक दिन देख ही लिया और देखते ही झट से दौड़ कर पेड़ के नीचे आ धमकीं।डाँट कर बोलीं- 'उतर नीचे।' मैं सकपकाया सा डर से भरा हुआ नीचे उतर आया और उनके सामने हाथ जोड़ कर उनके पैरों में गिर पड़ा कि दादी घर पर मत कहना।आज के बाद रोज़ स्कूल जाऊँगा। दादी कहाँ मानने वाली थीं।न उन्हें मानना था और न ही वह मानीं।मेरा कान पकड़ा और खींचकर मुझे मेरे घर की ओर लेकर चल पड़ीं।मेरे घर के दरबाजे पर पहुँचते ही मेरी बीबी को जोर की आवाज लगाई।अरी,ओ बहू ऊऊऊऊ!ले थाम अपने छैला को। ठेकेदार के बड़ के पेड़ पर चढ़ा बैठा था।यू स्कूल-विस्कूल ना जाता दीखै है,उस पेड़ पर चढ़ा रहबै है।एक दिन मुझे और धोखा सा लगा था,पर मैं टाल गई थी।आज जब मुझे इसकी झपक पड़ी तो मैंने पेड़ के पास जाकर देखा तो यू उसपे छुपा बैठा था। मेरी बीबी उस समय नल पर बर्तन माँज रहीं थीं।उनके हाथ में पीतल का भारी लोटा था। उन्होंने दादी के हाथ में से मुझे लपकते हुए लोटा मेरे सिर में दे मारा।एक बार नहीं तीन बार। मेरे मन में उनके प्रति गुस्सा भर गया था। रोते-रोते मेरे मुँह से जोर से निकला -'यू परवतिया मरेगी।' एक लोटा और पड़ा धड़ाम से। और भी पड़ते,पर परवतिया दादी ने ही बीबी के हाथ में से मेरा हाथ छुड़ा कर मुझे बचा लिया। दोपहर को पिताजी जंगल से आए और इस कथा की जानकारी होने पर उन्होंने भी मुझे बहुत कर्रा लिया। पीटते-पीटते एक संटी तोड़ डाली।दूसरी संटी उनके हाथ ही नहीं आई, नहीं तो उस दिन उसका भी टूटना तय था।

        यह पिकनिक का दूसरा हिस्सा था। पहले हिस्से ने मौज मस्ती दी और इसने सबक।उस दिन के बाद मैं घर से स्कूल गया तो स्कूल ही गया। कक्षा एक से लेकर स्नातकोत्तर तक कभी क्लास गोल नहीं की।ऐसा परवतिया दादी की बजह से ही हो पाया। परवतिया दादी न होती तो मैं भी जाने क्या होता? परवतिया दादी की जय हो।


✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी

झ-28, नवीन नगर

काँठ रोड, मुरादाबाद -244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल:9319086769

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