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सोमवार, 5 जुलाई 2021
वाट्स एप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक रविवार को वाट्स एप कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन किया जाता है । इस आयोजन में समूह में शामिल साहित्यकार अपनी हस्तलिपि में चित्र सहित अपनी रचना प्रस्तुत करते हैं । रविवार 4 जुलाई 2021 को आयोजित 259 वें आयोजन में शामिल साहित्यकारों सन्तोष कुमार शुक्ल सन्त, सूर्यकांत द्विवेदी, श्वेता शर्मा, कमाल जैदी वफ़ा, डॉ पुनीत कुमार, राम किशोर वर्मा, रवि प्रकाश, प्रीति चौधरी, कंचन खन्ना, विवेक आहूजा, राजीव प्रखर, शिव कुमार चंदन,उमाकान्त गुप्त, डॉ शोभना कौशिक, इंदु रानी, अशोक विद्रोही, रेखा रानी, चन्द्रकला भागीरथी, श्री कृष्ण शुक्ल, अनुराग रोहिला और डॉ मनोज रस्तोगी की रचनाएं उन्हीं की हस्तलिपि में ......
रविवार, 4 जुलाई 2021
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से 4 जुलाई 2021 को गूगल मीट पर आयोजित काव्य-गोष्ठी
मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से रविवार 4 जुलाई 2021 को गूगल मीट पर एक ऑनलाइन काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया।
राजीव 'प्रखर' द्वारा प्रस्तुत माँ शारदे की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम में अध्यक्ष गजरौला निवासी सुप्रसिद्ध कवयित्री डाॅ. मधु चतुर्वेदी ने गीत प्रस्तुत करते हुए कहा---
"बहुत अचकचाती सी आती है आँगन मेँ भोर। बाहर भीतर पसर गया है सन्नाटे का शोर। शंकाओं का तानाबाना ओढ़ लगा मन तपने।। लगने लगे अपरिचित से अपनी आँखों के सपने। रिश्तों का नैकट्य हो चला है,कुछ कुछ मुँह ज़ोर।"
मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. मनोज रस्तोगी का गीत था ---
"स्वाभिमान भी गिरवी
रख नागों के हाथ,
भेड़ियों के सम्मुख
टिका दिया माथ।
इस तरह होता रहा
अपना चीरहरण।।"
विशिष्ट अतिथि के रूप में वरिष्ठ कवि श्रीकृष्ण शुक्ल का आह्वान था -
"द्वेष घृणा मिट सके दिलों से,
कुछ ऐसे अश्आर लिखें।
मानवता दम तोड़ रही है,
इसका कुछ उपचार लिखें।।
बीत गयी सो बात गयी जो,
आनी है सो आयेगी।
वर्तमान को जी भर जी लें,
जीवन के दिन चार लिखें।।"
विशिष्ट अतिथि सुप्रसिद्ध नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' ने जीवन का चित्र खींचते हुए कहा - "कोरे काग़ज़-सी निश्छल है,
भोली है मन की।
घर भर को महकाने वाली,
खुशबू आँगन की।
पता नहीं क्यों रहती
फिर भी रूखी-अन्जानी,
मोबाइल में उलझी
मुनिया भूली शैतानी।।"
वरिष्ठ साहित्यकार अशोक 'विद्रोही' ने देशभक्ति की अलख कुछ इस प्रकार जगाई -
"अब महा शक्तियों से ऊपर,
नित अपना ध्वज लहराता है।
मेरा देश बदलता जाता है,
परिवेश बदलता जाता है।।"
कार्यक्रम का संचालन करते हुए युवा साहित्यकार राजीव 'प्रखर' ने कहा -
बाहर वृक्षों का क्षरण, भीतर कलुष विचार।
हो कैसे पर्यावरण, इस संकट से पार।।
क्या तीरथ की कामना, कैसी धन की आस।
जब बैठी हो प्रेम से, अम्मा मेरे पास।।"
चर्चित साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट ने इन शब्दों के साथ नारी-शक्ति का आह्वान किया -
"क्यों ताकती है मुँह औरों का.....
सुन अरी! ये जो मुस्कान है न,
उन होंठों पर....,
तेरी ही दी हुई है।"
कवयित्री इन्दु रानी की अभिव्यक्ति इस प्रकार रही - "रेल नौकरी अब कहाँ, बेच रहे हैं रेल।
जिंदगी का जीवन से, होगा कैसे मेल।।"
प्रशांत मिश्र ने हुंकार भरते हुए कहा -
"अपनों का आना सिर्फ हवा का झोंका है।
चिता पर छोड़ आते समय कितनों ने रोका है।।"
कवि आशीष शर्मा का कहना था -
"युद्ध के पराक्रम की शौर्य गाथाओं में
आज अपना भी नाम मैं शुमार कर आया माँ,
एक मैं अकेला और वो थे दुश्मन हजार
एक एक का मैं संहार कर आया माँ।।"
बुधवार, 30 जून 2021
वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद ' में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार 29 जून 2021 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों प्रीति चौधरी, वीरेंद्र सिंह बृजवासी,दीपक गोस्वामी चिराग, वैशाली रस्तोगी, डॉ शोभना कौशिक,अशोक विद्रोही, धर्मेंद्र सिंह राजौरा, सीमा रानी , रेखा रानी, डॉ रीता सिंह और कंचन खन्ना की रचनाएं ------ -------
आये नन्हें बाल
देख खेल-मैदान
करने पुनः धमाल
जब मुन्नी छिप जाय
सब हैं जुगत लगाय
कोई ढूँढ न पाय
दौडे वे चहुँ ओर
छूने अनंत छोर
रहे शाम या भोर
बचपन का वो द्वार
मीठा प्यार दुलार
भूलता न वो प्यार
प्रीति चौधरी, गजरौला,अमरोहा
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कितनी बड़ी लगीबादल में,
बोलो अम्मा जाली,
जिसमें छनकर नींचे आतीं,
यह बूंदें मतवाली।
भरते ताल, तलैया सारे,
बहते सभी पनारे,
उफनाती नदियों में कटकर,
गिरते रोज़ किनारे,
हफ्तों गरज बरसके बादल,
करते खुदको खाली।
ठंडी-ठंडी बूंदे टिप-टिप,
जब शरीर पर गिरतीं,
गर्मी से छुटकारा देकर,
मन खुशियों से भरतीं,
नभ में कैसे रुकता अम्मा,
बादल है बलशाली।
सचमुच धन बरसातींअम्मा,
रिमझिम गिरती बून्दें,
अम्मा कहाँ कहाँ बतलाओ,
उन बूंदों को ढूंढें,
बोलो नन्हीं बूंदें कैसे,
भरतीं हैं हरियाली।
नानी कहतीं बरसातों में,
होती खूब कमाई,
बाजारों में छतरी के संग,
बरसाती भी आई,
भुने चने मक्का के फूले,
खाते भर-भर थाली।
समझ गया जाली फटने पर,
गिरते मोटे ओले,
उठा उठाकर खाते झटपट,
जिनको बच्चे भोले,
अरे 'मरो' मतखाओ कहकर,
देती अम्मा गाली।
वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", मुरादाबाद, उ,प्र , भारत 9719275453
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कोयल कहती मीठा बोलो, फूल कहें मुस्काओ।
चिड़िया चूँ-चूँ करके बोले, शीघ्र सुबह उठ जाओ।
चींटी यह कहती है हमसे, श्रम की रोटी खाओ।
कुत्ता भौं-भौं कर बतलाता वफादार बन जाओ।।
नदी सिखाती चलते रहना, थक कर मत रुक जाना।
पर्वत कहता तूफानों को, कभी न शीष झुकाना।।
वृक्ष हमें फल देकर कहते सदा भलाई करना।
मधुमक्खी सिखलाती हमको सदा संगठित रहना।।
✍️ दीपक गोस्वामी चिराग, शिवबाबा सदन कृष्णाकुंज, बहजोई(सम्भल) पिन 244410 उ.प्र. भारत, मो. 9548812618
ईमेल- deepak chirag.goswami@gmail.com
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आज बचपन कहीं खो रहा है,
मैदान स्कूल का, सूना हो रहा है।
कॉपी बस्ता ख्वाब हो गए,
ऑनलाइन सारे बच्चे हो गए।
नए अनुभव सब नित ले रहे,
शिक्षा अब, हम सब ले रहे।
बच्चों तुम हिम्मत न हारो,
नए ढंग से जीवन संवारो।
अंधेरी रात, बीत जाएगी।
नई सुबह, रोशनी लाएगी।
नया दौर है, नया तौर है।
मेहनत तुम्हारी, रंग लाएगी।
वैशाली रस्तोगी, जकार्ता
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मौसम है ये गर्मी का ,
नहीं किसी से डरने का ,
मौज -मस्ती और हो -हो हल्ला ,
घर में ही हो गई पिकनिक तगड़ा ,
कोरोना जी ने छड़ी घुमाई ,
आइसक्रीम तो छोड़ो ,
कोल्ड ड्रिंक भी छुड़ाई ,
सादा पानी और बस हम ,
साथ में मम्मी का बड़ा सा मंत्र ,
डॉ शोभना कौशिक, बुद्धिविहार, मुरादाबाद
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इक इन्सानी बच्चा जब से ,
गांव छोड़ जंगल आया।
हिल मिल गया सभी से ऐसा,
जंगल में मंगल छाया।।
अपने बच्चों जैसा ही जब,
उसे बगीरा ने माना ।
नाम मोगली पाया उसने,
सबको ही अपना जाना।
बल्लू भालू ने भी फिर तो,
उसे लगाया सीनै से।
खूब शहद तुड़वाया उससे,
तर हो गया पसीने से ।।
किन्तु नहीं जंगल के राजा,
को वह कभी सुहाता था।
सदा लगा था इसी घात में,
उसे मारना चाहता था।।
पशु पक्षियों की बोली भी,
वह अब खूब समझता था।
पर इंसानों से मिलने को,
उसका हृदय तरसता था।
गया एक दिन जब वह बस्ती,
नहीं किसी ने अपनाया।
भीड़ भरी दुनिया लोगों की,
अपना नहीं नजर आया।।
वापस लौटा फिर से जंगल,
बहुत दुखी था मन में वह।
पर जंगल में सारे खुश थे,
देख उसे सब अपना कह।।
मोर,कबूतर,तोता,मैना,
बुलबुल, बत्तख,और सारंग।
बंदर ,हाथी ,हिरन लौमड़ी,
सभी खेलते उसके संग।
छोटे बड़े सभी पशु पक्षी,
सब उसके हमजोली थे।
नहाते कभी नदी कीचड़ में,
कभी खेलते होली थे।।
तभी एक दिन बलि चढ़ाने,
महाकपि ले गया उसे।
ऊंचे दुर्गम एक शिखर पर,
बंदर जहां हजार घुसे।।
उसकी रक्षा करने को तब
बल्लू और बगीरा आये।
प्राण बचा कर मंदिर से,
उसको वापस जंगल में लाये।
शेरखान संग धूर्त तबाकी,
नयी चाल फिर चल डाली।
किन्तु मोगली बड़ा चतुर था,
हर शह थी देखी भाली।।
आग लगी जंगल जलता था,
शेर वृक्ष पर चढ़ आया।
झपटा शेर गिरा लपटों में,
झूल मोगली बच पाया।।
✍️ अशोक विद्रोही, 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत, मोबाइल फोन नम्बर 821 8825 541
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चुन्नू मुन्नू ने मिट्टी का
एक बनाया घर
फिर गीली मिट्टी से लेपा
भीतर और बाहर
दो कमरे और एक रसोई
अटरिया ऊपर
बाहर भीतर पेड़ लगाकर
बना दिया सुन्दर
दिन भर बच्चे रहे खेलते
मकान बनाकर
सब बच्चों ने खूब सराहा
बालगीत गाकर
✍️ धर्मेंद्र सिंह राजोरा, बहजोई ,जिला सम्भल ,उत्तर प्रदेश, भारत
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नये दौर के बच्चे है हम,
हर मुश्किल से टकरायेगे।
भले कोरोना हो महामारी,
सबसे पार हम पा जायेगे।
माना मुश्किल बहुत राह में,
पर नई डगर भी सम्भव है।
स्कूल कालेज बन्द हुए तो,
ऑनलाइन का सुखद चलन है।
टेक्नोलॉजी सखा बनकर अब ,
हरपल साथ हमारे अडी खडी ।
नही समझते थे जिसको हम,
उसकी आसानी से समझ बढी।
मोबाइल कम्प्यूटर दोस्त हमारे,
हमको हरक्षण नया सिखाते हैं ।
मित्रों बौर कभी न होना तुम,
सदा हमको ये सिखलाते हैं ।
मात-पिता ओर गुरूजनों का ,
सदा ही सम्मान करेंगे हम ।
चाहे जैसी भी रहे परिस्थिति,
सदैव निडर अडिग रहेंगे हम ।
✍🏻सीमा रानी, पुष्कर नगर, अमरोहा ,उत्तर प्रदेश, भारत
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हम बच्चों ने सीख लिया है हरदम यूं मुस्काना।
हाथों में पतवार थाम कर साहिल तक है जाना।
हम खतरों से खेलने वाले हार कभी ना मानेंगे।
नहीं डरेंगे कोरोना से नियम सभी अपनाएंगे।
बार बार हाथों को धोना, मास्क अवश्य लगाएंगे।
भीड़भाड़ की जगह हमेशा उचित दूरी अपनाएंगे।
माता पिता की सेवा से जीवन सफल बनाएंगे।
सद्गुण और संस्कार सीख मां का मान बढ़ाएंगे।
पढ़ लिखकर रेखा जग में नूतन इतिहास बनाएंगे।
✍️रेखा रानी, गजरौला, जिला अमरोहा ,उत्तर प्रदेश, भारत
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रिमझिम रिमझिम आयी बारिश
कितनी खुशियाँ लायी बारिश
बाल मनों की फैली अँजुली
अधर हँसी बन छायी बारिश ।
ताल - तलैया सभी भरे हैं
हुए पात धुल हरे हरे हैं
हवा चली है बिना धूल की
हरा धुंध है धायी बारिश ।
पोंछ पसीना बुरे हाल थे
बड़े बेहाल हाल चाल थे
घनी उमस की घबराहट से
राहत बड़ी है लायी बारिश ।
गरज गरज गा गीत सुनाती
झम झमाझम बूंद गिराती
भूरी काली घोर घटा में
बादलों संग पायी बारिश ।
डाॅ रीता सिंह , मुरादाबाद ,उत्तर प्रदेश, भारत
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मंगलवार, 29 जून 2021
वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद ' में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार 22 जून 2021 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी",प्रीति चौधरी,कमाल ज़ैदी "वफ़ा",अशोक विद्रोही,राशि सिंह,डॉ रीता सिंह,डॉ शोभना कौशिक,रेखा रानी,अटल मुरादाबादी, दीपक गोस्वामी 'चिराग',राम किशोर वर्मा,श्रीकृष्ण शुक्ल,मीनाक्षी वर्मा,चन्द्रकला भागीरथी,सुदेश आर्य, राजीव प्रखर, कंचन खन्ना की कविताएं और विवेक आहूजा की कहानी ----
रामू ने मम्मी से बोला,
मैं खाऊँगा खिचड़ी,
मम्मी बोली देर लगेगी,
गीली हैं सब लकड़ी।
बोला रामू खीर बना दो,
छोड़ो खिचड़ी - विचड़ी
बहुत देरसे मम्मी मुझको,
भूख लगी है तगड़ी।
कैसे खीर बनेगी बच्चे,
पड़ी दूध में मकड़ी
गोला,काजू खत्म करदिए,
बना - बनाकर रबड़ी।
छोड़ो मम्मी मैं खा लूंगा,
नमक लगी यह ककड़ी,
तभी बनाना कुछ खाने को,
सूख जाएं जब लकड़ी।
ठहर अभी लाती हूँ दुहकर,
छोड़ गाय की बछड़ी,
पीकर ताजा दूध मिटा ले,
भूख लगी जो तगड़ी।
✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", मुरादाबाद/उ,प्र,
मोबाइल फोन नम्बर 9719275453
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मीठी मीठी लीची खाओ
देखें हम इसके गुण आओ
घुटनों, जोड़ो की पीड़ा से
जल्दी ही तुम राहत पाओ
चाहो यदि दिल थक ना जाये
जाकर जल्दी लीची लाओ
सुन्दरता भी इससे बढ़ती
सबको जाकर यह बतलाओ
खाओ खाओ लीची खाओ
गाना सब ये मिलकर गाओ
✍️ प्रीति चौधरी, गजरौला,अमरोहा
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मुर्गा बोला कुकड़ू कू,
मै तो दड़बे में बंद हूं।
लेकिन बांग लगाऊंगा,
सोतो को जगाऊंगा।
चिड़ियां बोलीं चीं चीं चीं ,
अब भी सोता है, छी छी छी।
बोला कबूतर गुटर गू,
मै भी अब दाना चुग लूं। गोलू मोलू सोते है,
फिर किस्मत पर रोते है।
जो अच्छे बच्चे होते है,
वो देर तलक कब सोते है?।
✍️ कमाल ज़ैदी "वफ़ा", प्रधानाचार्य, अम्बेडकर हाई स्कूल बरखेड़ा मुरादाबाद, मोबाइल फोन नम्बर 9456031926
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मीठा और रसीला आम,
इसको खाओ सुबह शाम।
खेल कूद में आए काम ,
खालो बच्चों खालो आम।
कितना है ये फल गुणकारी।
दूर करे कितनी बीमारी,
आओ इसका करें हिसाब
यह कैंसर से करे बचाव।
करे हिफाजत यह नैनों की,
और छोटे भाई बहनों की।
मोटापे में दे आराम,
खालो बच्चों खालो आम।।
करे बजन कम शक्ति लाएं,
पौरुष और उस तंदुरुस्ती लाए।
उत्तम फल सस्ते में आए,
निर्धन धनी सभी खा पाएं।
महिमा गुण में बहुत बड़ा है,
बाजारों में अटा पड़ा है ।
गर्मी में देता आराम,
खालो बच्चों के खालो आम।।
हृदय रोग में है अनमोल,
करे संतुलित कोलस्ट्रोल।
फाइबर और विटामिन सी,
त्वचा चमकाए कुंदन सी।
स्मरण शक्ति खूब बढ़ाये ,
पाचन क्रिया ठीक हो जाए।
सभी फलों का राजा आम,
खालो बच्चों के खालो आम
✍️ अशोक विद्रोही, 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद 244001, मोबाइल फोन नम्बर 82 188 25 541
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खेलते थे हम सब दुकी मिचौना
बड़ा सा था अम्मा का अंगना ।
भागम भाग और पकड़म पकड़ी
करते थे सब मिल धमा चौकड़ी।
खो खो करते थे सब बारी बारी
सूप छलनी में भरते थे कभी पानी ।
इक्कल दुक्कल और बग्गी बग्गा
खेलते थे मिलजुल सब चंदू चंदा ।
खेल अनोखा कोड़ा जमार खाई
पीछे मुड़कर देखते ही मार खाई ।
आओ फिर से वो खेल खिलाओ
बच्चों को उनके बचपन से मिलाओ ।
✍️ राशि सिंह, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश
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सर सर कहते पात सभी से
हवा प्रेम की सदा बहाओ
न रूठो मनुज इक दूजे से
हरा भरा संसार बसाओ ।
चिड़िया कहती रोज सवेरे
खुल कर अपने पर फैलाओ
ऊँचाई है तुमको पाना
जितना चाहो उड़ते जाओ ।
कोयल कहती जब मुँह खोलो
मीठे मीठे गीत सुनाओ
कटु वचनों के तीर चलाकर
नहीं किसी का हिय दुखाओ ।
✍️ डॉ रीता सिंह
आशियाना, मुरादाबाद
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मान से मनुहार से ,
अम्मा कहे पुकार के ,
आ जाओ अब राजदुलारी ,
रूठ न जाना प्यार से ,
चुपके -चुपके , हौले-हौले ,
अँगना में जब तू यूँ डोले ,
महके मेरे घर की बगिया ,
हसँ दे जब मेरी बिटिया ,
छम -छम -छम -छम पायल बाजे ,
पीछे -पीछे हम यूँ भागें ,
छोटी सी नटखट राजकुमारी ,
आ जाओ मेरी ललना ,
✍️ डॉ शोभना कौशिक, बुद्धिविहार, मुरादाबाद
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मैंने घोंसला बनाया
श्रम तिनकों से सजाया
बड़े चाव से
घंटों बैठा रहा मम्मी
मैं तो आस में
कोई गौरैया न आई
उसके पास में
पूरा असली सा बनाया
नकली वृक्ष भी बनाया
अपने आप से
कोई गौरैया न आई
उसके पास में
खूब दाना भी बिखराया,
प्याली पानी की रख आया
पलकें मग में बिछाई बड़े चाव से
कोई गौरैया न आई
उसके पास में
कितना क्रूर है यह मानव,
करे वृक्षों का समापन
उजड़े पंछी का बसेरा
मन उदास रे
कोई गौरैया न आई
उसके पास में
रेखा ने संकल्प उठाया
उसने पूरा बाग लगाया
अब तो आने लगी
नन्हीं चिड़िया बाग में
मेरा मन अब रहा न उदास है
✍️ रेखा रानी, गजरौला, जनपद अमरोहा
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हम हैं प्यारे प्यारे बच्चे।
सारे जग में सबसे अच्छे।।
कोई हमको फिक्र न फक्का।
रखें इरादा हरदम पक्का।।
मस्ती में नित झूमें गायें।
मिलकर सारे मौज मनाएं।।
होली हमको बहुत लुभाती।
मीठी गुंजिया हमको भाती।
रात रात भर जगते रहना।
भैया होली का क्या कहना।।
सारे मिलकर करते हल्ला।
भौंह सिकोड़ें मिस्टर भल्ला।।
लेकिन हम मर्जी के बंदे।
दुनिया के नहिं जानें फंदे।
हम हैं मन के बिल्कुल सच्चे।
हम हैं प्यारे प्यारे बच्चे।।
✍️ अटल मुरादाबादी
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आया गाड़ी वाला, घर का कूड़ा निकाल।
गीले को नीले, सूखा, हरे में डाल ।
घर-दफ्तर जब साफ रखें हम।
रोग-बिमारी तब होंगे कम।
नाली में डेली, किरोसिन तू डाल।
आया गाड़ी वाला, घर का कूड़ा निकाल।
मक्खी-मच्छर मार भगाएं।
डेंगू-मलेरिया को हम हराएं।
कूलर औ'र गमलों से पानी निकाल।
आया गाड़ी वाला, घर का कूड़ा निकाल।
गली-मोहल्ले,सड़कें या रोड।
कूड़ा क्यों इन पर देते हो छोड़?
न सुधरोगे तो, होगे बेहाल।
आया गाड़ी वाला, घर का कूड़ा निकाल।
मास्क लगा कर मुंँह पर रखना।
हाथों को धोना, सैनेटाइज करना।
आएगा कोरोना का भी काल।
आया गाड़ी वाला, घर का कूड़ा निकाल।
✍️ दीपक गोस्वामी 'चिराग', शिवबाबा सदन, कृष्णाकुंज, बहजोई 244410 (संभल) उत्तर प्रदेश
मो - 9548812618
ईमेल:- deepakchirag.goswami@gmail.com
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मम्मी-पापा उछल रहे हैं;
हाथ-पैर भी पटक रहे हैं ।
पहले हाथों को फैलाते;
गर्दन इधर-उधर मटकाते ।।
पैरों को फैला देते हैं;
पैर अंँगूठे छू लेते हैं ।
एक हाथ छुए पैर दूजा;
द्वितीय हाथ करे क्रम पूरा ।।
कभी पालथी मारे बैठे:
तनकर बैठे लगते ऐंठे ।
लम्बी-लम्बी सांसें भरते:
धीरे-धीरे छोड़ा करते ।।
हाथों की अंँगुली हैं धरते;
आँख-कान नाक बंद करते ।
एक सुर से सांस हैं भरते;
दूजे सुर में धीरे चलते ।।
दीवार का लेते सहारा;
शीर्षासन सिर पर तन सारा ।
आँख मीच कर ध्यान लगाया;
मम्मी का तब सिर चकराया ।।
ध्यान धरूंँ तो घर दिख जाता;
मम्मी कहती मुझे न भाता ।
योग-वोग हैं पेट भरो के;
चर्बी जिनको चढ़ी धड़ों के ।।
पापा से मम्मी यों कहतीं-
बेटी की चिंता नहिं सहती ।
धन का भी कुछ योग लगाओ;
चिंता का घर नहिं बसवाओ ।।
करोना ने मार है मारी;
सर्विस पर है मारा-मारी ।
मध्यम वर्ग विपत्ती भारी;
मदद नाय सरकारी जारी ।।
योग वही जीवन चल जाये;
कष्ट मानसिक कभी न आये ।
शहरी ही करते हैं योगा;
मस्त दिखते गाँव के लोगा ।।
✍️ राम किशोर वर्मा, रामपुर (उ०प्र०)
मोबाइल नं०-84331 08801
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आज सुबह जब गोलू जागा,
खुशी खुशी बाहर को भागा,
बाहर पानी बरस रहा था,
घन घन बादल गरज रहा था,
घर आँगन नाली सडकों पर,
पानी ही सब जगह भरा था,
अब विद्यालय बंद रहेगा,
रेनी डे में कौन पढ़ेगा,
अब स्कूल नहीं जाऊँगा,
घर बैठे ही सुस्ताऊँगा,
कागज की कुछ नाव बनाकर,
पानी पर अब तैराऊँगा,
चाय पकौड़ी खूब मिलेगी,
पूरे दिन ही मौज रहेगी,
सोच सोच गोलू मुस्काया,
बारिश का आभार जताया,
रोज रोज पानी बरसाओ,
हर दिन रेनी डे करवाओ।
✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG - 69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद
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गोल गोल गोलमगोल
वृत्त है मेरा नाम
बॉल बनाकर बच्चों को खिलाना
मेरा अद्भुत काम
पेंसिल बॉक्स के जैसा है मेरा आकार
इसमें रखते बच्चे अपना सारा सामान
ऊपर नीचे दाएं बाएं भुजाएं एक समान
आयत है बच्चों मेरा नाम
दिखता हूं कुछ समोसे जैसा
पर्वत सा कुछ आकार
तीन भुजाएं बच्चों मेरी
त्रिभुज है मेरा नाम
चार भुजाएं मेरी है
आती है बहुत काम
लूडो कैरम मुझसे बनते
वर्ग है बच्चों मेरा नाम
✍️ मीनाक्षी वर्मा, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश
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काले काले बादल आये।
रिम झिम रिम झिम बरसा लाये।
नन्ही नन्ही बूंदे बरसे।
किसी को न बाहर जाने दे
घर में मस्त रहो सभी।
चाय पकौड़ी का मजा लो तभी।
कोई बैठ कर लिखो कहानी।
कोई देखो पिक्चर पूरानी।।
पसंद जो आये वो काम करो।
एक दुसरे को न परेशान करो।।
कभी खेलों लुडियो कभी कैरमबोट।
हसीं ठठा करते रहे तुम लोग।।
✍️ चन्द्रकला भागीरथी, धामपुर जिला बिजनौर
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आजा छुट्टियों में ऐ दोस्त-कुछ नया हम- करते हैं,
पशु-पक्षियों के दुख- दर्द को, चलो दोनों समझते हैं।
छिलके और पोलीथिन,अलग थलग करवाते हैं,
अलग-अलग थैलों में,हम उन्हें भरवाते हैं ।
गुठली-घास पर और छिलके पशुओं को, खिलाते हैं,
आओ छुट्टी में, हम-दोनों, मिलकर, कुछ नया करते हैं।
एक प्लेट में दाने-अनाज और कटोरों में- पानी रखदें
गर्मी का- मौसम है हम ,उनके जीवन को, सुरक्षित करदें।
समय का सदुपयोग कर, सेवापथ पर चलते हैं,
आज से दोस्त- सब मिलकर, हम नेक कर्म- करते है
कोई हो भूखा- प्यासा तो, उनका भी रखें-ध्यान हम
रोगी-निर्धन अनाथ के,बने सहायक,बनायें देश महान हम।
आओ अभी से सबके, कुछ दुख- दर्द ,दूर करते हैं।
चलो दोस्त छोटे-बड़े मिलकर, देश हित-नया करते हैं।
✍️ सुदेश आर्य, गौड़ ग्रेशियस मुरादाबाद
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बाल कथा : "प्यासा कौआ"
आज कालिया कौआ पूरे दिन उडते उड़ते परेशान हो गया, ना उसे खाने को कुछ मिला न हीं पीने की एक बूंद पानी । भूख तो वह कई दिनों तक सहन कर सकता था , लेकिन प्यास तो प्यास है उसे सहन करना बहुत मुश्किल है । यही हुआ कालिया कौआ के साथ प्यास से परेशान वह जंगल से बहुत दूर निकल आया और पास के नगर में ही एक मकान पर आकर कौ...कौ... करके शोर मचाने लगा.... मकान की छत पर कालिया कौआ का शोर सुनकर विनय ने मुन्नी को कहा "देखो बेटा ...आज कौआ कौ....कौ..... कर रहा है कोई मेहमान जरूर आएगा" पलट कर मुन्नी ने विनय को कहा ....."पापा आप कैसी बातें कर रहे हैं ....उसे प्यास लगी है" यह कहकर मुन्नी अपने बस्ते से पानी की बोतल में से एक कटोरे में पानी भरकर छत पर आ गई और कौआ के सामने कटोरे को रख दिया । पीछे पीछे विनय भी छत पर आ गया और यह देखकर हैरान रह गया कि कौआ तो वाकई बहुत प्यासा था , उसने पूरे कटोरे का पानी पी लिया । विनय ने मुन्नी के सर पर हाथ फेरते हुए कहा ..."मेरी बेटी तो बहुत होशियार है यह सब उसने कहां से सीखा" तो मुन्नी ने कहा.... "आज हमारी कक्षा में मैडम ने बताया कि पूरे संसार में कोई भी पशु पक्षी मनुष्य जल के बिना नहीं रह सकता ,यह हमारी सबकी आवश्यकता है" हमें अपने आसपास पशु पक्षियों के भोजन , पानी का भी ध्यान रखना चाहिए ,यही मानवता है ।
सीख : हमें इस छोटी सी कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने आसपास जीव-जंतुओं के भोजन , पानी का भी ध्यान रखना चाहिए । क्योकि जीवित रहने के लिए मनुष्य ही नहीं जीव जन्तुओं को भी भोजन , पानी की आवश्यकता होती है ।
✍️ विवेक आहूजा ,बिलारी , जिला मुरादाबाद
मोबाइल फोन नम्बर 9410416986
vivekahuja288@gmail.com
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सोमवार, 28 जून 2021
मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य -----होना एक शरीफ़ आदमी का !!
शरीफ़ आदमी........! शरीफ़ आदमी वह होता है, जो शराफ़त को बेच खाने के बाद लोगों से पूछता फिरता है कि, "यह शराफ़त इस दुनिया से मल्लिका के कपड़ों की तरह ख़त्म क्यों हो गई है ?" शरीफ़ आदमी वह होता है, जो ऊँचे मंचों से झूठ बोलने के बाद जनता से यह भी पूछता रहता है कि, "विपक्षी दलों की तरह लोग झूठ कैसे बोल लेते हैं ?" या "झूठ का यह व्यापार अन्ना हज़ारे या रामदेव जैसे लोग कब तक करते रहेंगे ?" शरीफ़ आदमी कोई यूँ ही नहीं हो जाता ! बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं, तब कोई एक शरीफ़ हमारे मुल्क़ पर अहसान करते हुए पैदा होता है !
हर शरीफ़ आदमी की यह क्वालिटी होती है कि वह देखने में भले ही किसी भेड़िये से ज़्यादा ख़तरनाक लगता हो, मगर हँसेगा ऐसे, जैसे कलमाड़ी या राजा की तरह काले धन से उसका कोई वास्ता ही ना हो और जो लोग काले धन को अपने लिए नहीं, बल्कि इस मुल्क़ के लिए विदेशों से वापस लाना चाहते हैं, वह उनके आन्दोलन के लिए अपनी जान भी कुर्बान कर देगा ! धर्म या सियासत में जाने के बाद हर शरीफ़ आदमी ऐसा ही बन जाता है ! अब शरीफ़ आदमी के बारे में हम ख़ुद क्या कहें ?
शरीफ़ आदमी वह होता है, जो किसी रिटायर्ड आदमी की तरह पौधों में पानी भी डालता रहता है और रास्ता चलती घरेलू नौकरानियों से अक्सर यह भी पूछ लेता है कि "कैसी हो या कहाँ काम कर रही हो या अब कितने घर ले रखे हैं ?" यह शरीफों की एक अलग ही प्रजाति है और जो 'अंकल' कहलाने की आड़ में थोड़ा खुलकर शरीफ़ बन जाती है ! शरीफ़ आदमी कौन होता है, यह बताना बहुत मुश्किल नहीं है !
शरीफ़ आदमी वह होता है, जो रात में तो अपनी बीवी से यह कहकर सोता है कि "तुमसे हसीन तो इस दुनिया में कोई है ही नहीं !" और सुबह जब सड़क पर पराई नारियों को देखता है तो ख़ुद ही सोचता है कि मैंने ऐसे कौन से बुरे कर्म किसी जन्म में किए थे कि मुझे इनमें से कोई भी इस बीवी की जगह नहीं मिली ? उसकी शराफ़त देखिये कि वह शरीफ़ बने रहने के लिए बीवी के आगे अपने इस मन की अभिव्यक्ति नहीं करता ! आज शराफ़त मियाँ फिर पौधों को पानी पिला रहे हैं ! देखूँ, अगर शरीफ़ आदमी के बारे में वो कुछ बता सकें तो !
✍️अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश
रविवार, 27 जून 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानियों के संदर्भ में डॉ कंचन सिंह का आलेख ---मानव मूल्य, संघर्ष और चेतना के विविध स्तरों से परिचित कराती हैं दयानंद गुप्त की कहानियां
मानव जिस समाज में जन्म लेता है उस समाज का प्रभाव अविच्छिन्न रूप से उसके व्यक्तित्व को गढ़ता है। सामाजिक विषमताएं उसके व्यक्तित्व को निरंतर उद्वेलित करती रहती हैं, फलस्वरूप वह अपने भावी जीवन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए तत्पर हो उठता है। एक साहित्यकार का कर्तव्य बोध उसे उसके अनुभवों के आधार पर संचित मान्यताओं के आलोक में समाज का पथ प्रदर्शन के लिए निरंतर प्रेरित करता रहता है। कोई रचनाकार अपने तत्कालीन देशकाल. वातावरण से निर्लिप्त रहकर साहित्य सर्जना नहीं कर सकता, इसलिए साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने भी कहा था " साहित्य उसी रचना को कहेंगे जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़ परिमार्जित व सुंदर हो तथा जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो । साहित्य में यह गुण पूर्ण रूप में उसी अवस्था में उत्पन्न होता है, जब उसमें जीवन की सच्चाईयां और अनुभूतियां व्यक्त की गई हो।
उपर्युक्त वक्तव्य के सन्दर्भ में श्रद्धेय श्री दयानन्द गुप्त जी के साहित्य अनुशीलन में हम पाते हैं कि उनका समग्र साहित्य अनुभवजन्य सत्य का ही दस्तावेज है। कोई भी रचना सिर्फ रचने के लिए नहीं लिखी गयी वरन देश समाज व्यक्ति कि समस्याओं को उजागर कर आने वाली पीढ़ी का मार्गदर्शन करने हेतु की गयीं। श्री गुप्त जी का आविर्भाव उस समय हुआ ( 12.12.1912 - 25.3.1982) जब राष्ट्र पराधीनता की जंजीरों में जकड़ा मुक्ति के लिए छटपटा रहा था। भारत के तमाम क्रान्तिकारी गाँधीवादी , रचनाकार तथा अन्य राष्ट्र भक्त अपने-अपने तरीके से देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तत्पर थे। ऐसे वातावरण में पले-बढ़े श्री गुप्त जी का व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा संपन्न था। एक साथ अनेक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए वो साहित्य सर्जना में भी निरंतर संलग्न रहे। एक कुशल राजनेता, जिम्मेदार अधिवक्ता, समर्पित समाजसेवी व सचेत पत्रकारिता से मिले अपने अनुभवों को साहित्य में रचते बसते रहे। फलस्वरूप तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व धार्मिक सन्दर्भ उनके साहित्य में स्वत उद्घाटित होते गए।
श्री गुप्त जी की रचनाओं में तीन कहानी संग्रह कारवां सन 1941, श्रृंखलाएं सन 1943 , "मंजिल" सन 1956 में प्रकाशित हुआ । एक काव्य संग्रह "नैवेद्य " सन 1943 में प्रकाशित हुआ । एक नाटक का भी सृजन " यात्रा का अंत कहाँ " गुप्त जी ने सन् 1946 में किया। एक साप्ताहिक पत्र “ अभ्युदय का प्रकाशन व संपादन] सन 1952 में प्रारंभ किया, जो साहित्यिक व समसामयिक विषयों के कारण लोकप्रिय पत्र प्रतिष्ठित हुआ।
जिस समय श्री गुप्त जी का साहित्य हिंदी साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था, उस समय के अद्वितीय कवि महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने भी उनकी रचनाशीलता से प्रभावित हो उनके प्रथम कहानी संग्रह "कारवां" की भूमिका में अपना हृदयोद्गार इस प्रकार उद्घाटित किया -
" श्री दयानन्द गुप्त मेरे साहित्यिक सुहृद है। आज के सुपरचित कवि एवं कहानी लेखक, मुझसे मिले थे तब कवि एवं कथाकार के बीज में थे बीज आज लहलहाता हुआ पौधा है वकालत के पेशे की जटिलता में इनके हृदय की साहित्यिकता नहीं उलझी, यह अंतरंग प्रमाण बहिरंग कहानियों के संग्रह के रूप में मेरे सामने है। "
वस्तुतः श्री गुप्त जी का सम्पूर्ण साहित्य अपनी सरल संप्रेषणशीलता के कारण सहज ही पाठक से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। मैं इनकी रचनाओं से अत्यंत अभिभूत हूँ और तनिक आश्चर्यचकित भी इन रचनाओं का वैसा प्रचार-प्रसार नहीं हुआ जिसकी अधिकरणी ये रचनाएं हैं।
श्री गुप्त जी की कहानी" नेता" मेरी प्रिय कहानी है। यह कहानी तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि पर रची गई है। यह वह समय था जब पूरे राष्ट्र में देशभक्ति की लहर दौड़ रही थी। तत्कालीन राजनेता अपने पार्टी के विचारों से इस प्रकार बंधे थे कि देश व समाज के समक्ष परिवार हित गौण हो गया था। यदि मैं ऐसे लोगों को गृहस्थ बैरागी की संज्ञा दूं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। वे तन मन धन पूरी तरह राष्ट्र को समर्पित थे। कहानी के प्रारंभ में ही पता चल जाता है कि कहानी का नायक सेठ दामोदर दास दामले गांधी जी की विचारधारा से प्रभावित हैं। वह कांग्रेस पार्टी के साधन संपन्न प्रतिष्ठित प्रभावी राजनेता हैं, जो देश हित में निरंतर सरकारी गैर सरकारी संस्थाओं में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। एक दिन में कई कई जगह व्याख्यान देने जाते हैं अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में उन्हें यह मान ही नहीं होता कि उनका परिवार उनके सान्निध्य के लिए कितना तरस रहा है। उनके परिवार में पत्नी व छः साल की पुत्री है, जो पिता के स्नेह के लिए अहर्निश व्याकुल रहती है। जब सेठ जी का सेक्रेटरी उनसे कहता है कि परिवार के प्रति भी हमारे कुछ कर्तव्य हैं तब सेठ दामले कहते हैं" हमें मानव में विभिन्नता और अंतर पैदा करने का अधिकार कहां ? अपने संबंधियों को औरों से अधिक प्रेम करने का हमें कोई हक नहीं। "
इस संभाषण से पता चलता है कि तत्कालीन समय के नेता जो वास्तव में समाज का नेतृत्व करने के अधिकारी थे अपने दल की नीतियों से बंधे ये लोग असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी थे। इनका पूरा जीवन देश व समाज के उत्थान के लिए समर्पित था, दरअसल वह दौर ही ऐसा था अपनी छोटी सी बच्ची की कहानी सुनने की अभिलाषा भी वह पूरी नहीं कर पाते। लेखक यहां यह भी स्पष्ट संकेत करते हैं कि सेठ दामले अपने परिवार से स्नेह तो बहुत करते हैं परंतु स्नेह प्रदर्शित करने के लिए उनके पास वक्त नहीं है। वह अहर्निश देश सेवा में कार्यरत रहते हैं। पिता-पुत्री के संवाद पाठक को मार्मिक संवेदना से भर देते हैं।
एक अन्य घटना से भी लेखक सेठ दामले के व्यक्तित्व को उद्घाटित करते हैं। जब सेठ दामले को एक संगीत सभा में व्याख्यान देने जाना होता है, तो चूंकि उन्हें संगीत शास्त्र का अल्प ज्ञान भी नहीं था लिहाजा उनके सेक्रेटरी के सुझाव पर कि आप कोई गीत सुने और वही भाव अपने व्याख्यान में बोल दें। उस दिन सेठ दामले ने पत्नी के पास जा बड़े ही प्रेम से एक गीत सुनाने का अनुरोध किया क्योंकि उनकी पत्नी बहुत मधुर गाती थी, पति के अप्रत्याशित इस प्रेम भरी मनुहार से अभिभूत होकर वह एक मधुर गीत सुनाने लगीं। इधर सेठ जी गीत सुनते और अपने विचारों को एक कागज पर लिपिबद्ध करते जाते। अचानक उनकी पत्नी ने जब उन्हें ऐसा करते देख मर्मान्तक पीड़ा से आहत हो गीत बंद कर अपने पति से कहती है यदि आपको अपना काम ही करना था तो झूठे प्रेम का स्वांग करने की क्या आवश्यकता थी। सेठ जी उतनी ही इमानदारी से बोलते हैं मैं तो अपने भाव लिख रहा था आज के व्याख्यान के लिए इस कथन से उनकी पत्नी को अपने आत्मसम्मान पर चोट महसूस होती है। वो कहती हैं गीत तो आप कहीं और भी सुन सकते थे। उन्हें ऐसा लगता है कि पति उनसे प्रेम नहीं छल करते हैं। सेठ जी यंत्रवत वस्त्र बदलकर व्याख्यान देने चले जाते हैं, बिना यह समझे कि उनकी पत्नी व पुत्री पर उनके ऐसे बर्ताव से कितनी पीडा हो रही होगी।
लेखक यहाँ पति-पत्नी के संवाद के माध्यम से यह भी स्पष्ट करते हैं कि सेठ दामले आधुनिक विचारधारा के होने के कारण स्त्री-पुरुष समानता के पोषक है तभी तो वो पत्नी को कहते हैं कि तुम भी बाहर निकलो, देश सेवा करो जिस समाज में स्त्री को घर से बाहर निकलने की स्वतंत्रता नहीं थी उस समय यह संवाद लेखक की प्रगतिशील विचारधारा को प्रदर्शित करता है। प्रस्तुत कहानी मुझे कहानीकार के जीवन से अधिक प्रभावित जान पड़ती
" वे पत्र " यह कहानी एक रचनाकार की रचनाधर्मिता पर प्रकाश डालती है। वस्तुतः जिस साहित्य रचना पर लोग सम्मान व पुरस्कार प्राप्त करते हैं क्या वे सचमुच इसके अधिकारी हैं या नहीं ? लेखक के अनुसार इस सत्यता का सत्यापन होना आवश्यक है। एक अन्य सामाजिक विद्रुपता को यह कहानी रेखांकित करती है भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी अपने क्षुद्र लाभ के लिए सत्य को उद्घाटित न होने देना जो उक्त कहानी में आनंद का भतीजा करता है। वह अपने लाभ के लिए सत्य छुपाने के एवज में मूल्य भी अदा करता है। आज भी हमारे समाज में इस बुराई की जड़ें इतनी गहरी हैं, जिन्हें आसानी से नष्ट करना मुश्किल जान पड़ता है।
" तोला" यह कहानी पारिवारिक पृष्ठभूमि के अंतर्गत स्नेह, प्यार, ममता, त्याग, क्षमा, ईर्ष्या. द्वेष जैसे भावों को अभिव्यंजित करती एक सशक्त कहानी है। कहानी का नायक तोला निःसंतान होने के कारण अपना सारा स्नेह बैलों पर लुटाता है। उसका छोटा भाई रामबोला ईर्ष्यावश तोला के एक बैल को विष दे देता है। पुत्रवत बैल की आकस्मिक मृत्यु से आहत तोला का जीवन घोर नैराश्य में डूब जाता है। फिर भी वह अपने छोटे भाई के जेल जाने पर दोनों परिवारों का गुजारा अकेले करता है। छोटा भाई पितातुल्य बड़े भाई के सदव्यवहार से आत्मग्लानि में डूबकर उसके गले लग जाता है। निःसंतान तोला आह्लादित हो उससे अपने गले से लगा बोल उठता है आज मेरा लाल मुझे मिल गया " सहज और सरल भाषा में लिखी यह कहानी पाठक के अंतर्मन को प्रभावित करने में पूरी तरह सफल है।
" नया अनुभव " यह कहानी लेखक के गाँधीवादी विचारधारा को प्रतिबिंबित करती है। कहानी
का मुख्य पात्र रामजीमल अनेक बुराइयों के साथ ही साथ चोर भी है। एक बार पकड़े जाने पर उसे जेल हो जाती है। जेल से छूटने के बाद उसके अनथक प्रयत्न के बाद भी समाज के लोग उसे अपने यहां कोई काम नहीं देते। थका हारा भूखा-प्यासा, एक रात वो मंदिर में शरण लेता है। रात्रि में पैसों से भरी थैली पर उसकी क्षुब्ध निगाहें जैसे ही पड़ती हैं वह मचल उठता है उसे लेकर भागता है पर महंत के शिष्यों द्वारा पकड़ कर महंत के सामने लाया जाता है। किन्तु महंत उसका पक्ष लेते हुए यह कहते हैं कि यह थैली मैंने ही इसे दी थी। यह सुनते ही रामजीमल को जीवन का आत्मबोध होता है। समाज के ठोकर के कारण सत्य के प्रति डगमगाता उसका आत्मविश्वास महंत के व्यवहार से सदा के लिए स्थिर हो गया।
" न मंदिर न मस्जिद " धार्मिक उन्माद किस तरह व्यक्ति को सामान्य जीवन मूल्यों से दूर कर देता है। धर्म के ठेकेदार तत्कालीन समय से लेकर आजतक धर्म की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे हैं। इस कहानी में लेखक हिन्दू मुस्लिम के बीच सामंजस्य स्थापित करने का सुदृढ़ प्रयास करते हैं। आज के समाज में भी यह कहानी अत्यंत प्रासंगिक हैं क्योंकि आज भी धर्म के नाम पर ओछी राजनीति एक बड़ी समस्या है ।
" अंधविश्वास " जैसा शीर्षक से ही प्रतीत होता है कि यह कहानी हमारे समाज की आदिम बीमारी को प्रतिबिंबित करती है। मानव सभ्यता की विस्मयकारी उन्नति के बावजूद, पुरातन काल से लेकर आज तक हमारे समाज में अन्धविश्वास की बीमारी खत्म नहीं हुई। आज भी न जाने कितने ढोंगियों की गुजर बसर इस अंधविश्वास के पिष्टपेषण से ही होती है।
" ऐसी दुनिया " यह कहानी एक ऐसे अभिजात्य पुरुष की है जो दोहरी मानसिकता से ग्रसित है। समाज को दिखने के लिये उसके आदर्श का पैमाना बहुत महान है। किन्तु अंदर से वह नितांत पतित और चरित्र भ्रष्ट, दोगले व्यक्तित्व का स्वामी है। सहशिक्षा के विरोध में भाषण तो देता है परन्तु अपने विद्यालय की ही प्राचार्य के साथ उसके अंतरंग सम्बन्ध उसकी दोहरी मानसिकता को प्रदर्शित करते हैं। लेखक बड़े ही बेबाकी से व्यंगात्मक शैली में समाज के ऐसे कापुरषों पर करारा चोट किया है। आज भी हमारे समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है।
उपर्युक्त कहानियों की भाषा तत्सम युक्त खड़ी बोली है शब्दों का चयन बड़े ही कलात्मक ढंग से भावों की सृष्टि करने में समर्थ है। कहीं-कहीं गद्य में भी पद्य के सामान काव्य प्रवाह देखने को मिलता है, जो लेखक के भाषा ज्ञान पर मजबूत पकड़ को दर्शाता है। मुहावरों से अलंकृत भाषा में अंग्रेजी शब्दों का भी सहज प्रयोग श्री गुप्त जी के अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को भी प्रदर्शित करता है। शैली की दृष्टि से कहानियां अपने समकालीन कहानीकारों की तरह ही पाठक पर यथेष्ट प्रभाव डालने में समर्थ हैं।
उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि श्री दयानंद गुप्त जी की कहानियां मानव मूल्य, संघर्ष और चेतना के विविध स्तरों से पाठक को परिचित कराती है। उनके लेखन का वैशिष्ट्य है कि वह समाज केंद्रित है इसीलिए ये हमारा आज भी मार्ग दर्शन करने में समर्थ हैं। इनकी प्रासंगिकता इतने वर्षों के अंतराल के बाद भी आज भी वैसी ही हैं जैसी तत्कालीन समय में थीं। ये कहानियां लेखक के आधुनिक प्रगतिशील सोच एवं प्रबुद्ध व्यक्तित्व को पाठक के समक्ष विभिन्न स्तरों पर प्रतिबिंबित करती हैं।
✍️ डॉ. कंचन सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी विभागाध्यक्ष
दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज
मुरादाबाद ( उ. प्र) 244001
शनिवार, 26 जून 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ भूपति शर्मा जोशी की 192 अप्रकाशित काव्य रचनाएं उन्हीं की हस्तलिपि में । इन रचनाओं में गीत भी हैं, दोहे, कुंडलियां, मुक्तक, लघुकाव्य, खण्डकाव्य भी । ये सभी रचनाएं उनकी एक डायरी में लिपिबद्ध हैं, जिसे हमें उपलब्ध कराया है उनके सुपुत्र उमेश शर्मा जी ने ।
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:::::::::::प्रस्तुति::::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
शुक्रवार, 25 जून 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी का नवगीत .....
लिखना सीख रहे हैं
नए-नए
अर्थों से जुड़कर
टिकना सीख रहे हैं
शब्दों की
चौपाल लगाना
रंगों, ध्वनियों से
बतियाना
अच्छा-अच्छा
होने सा हम
दिखना सीख रहे हैं
घर तक आए
बाज़ारों में
विज्ञापन में
अख़बारों में
लोग अजीब
तरह से जाकर
बिकना सीख रहे हैं
राजा-रानी
पहले जैसे
जीवन जीते
खूब मज़े से
गर्म तबे पर
रोटी जैसा
सिकना सीख रहे हैं
✍️ माहेश्वर तिवारी
गुरुवार, 24 जून 2021
बुधवार, 23 जून 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ भूपति शर्मा जोशी की 21 रचनाएं -------
(1) वीणा वादिनी -वंदना
वीणा-पुस्तक-धारिणी शुभदे ।
नीर-क्षीर-प्रविवेक कुशल-कुल-हंस -वाहिनी सुख दे ।
विविध-विधान-कला-शुभ-आकर ,गुण-गण-मंडित बाले ।
आगम-निगम-विचार-विमल-मति,चंद्र प्रभासित-भाले ।।
कवि-कुल-कमल-दिवाकर भासित ज्योति किरण से तेरी ।
मंत्र-तत्व-निधि ऋषि गण जीवित दया-दृष्टि से तेरी ।।
जननी विश्व की विषम-विवशता का दुःख सत्त्वर हर दे ।
सफल-कल्पना-भाव-व्यंजन-रस-मय मानस कर दे ।।
(2)
तिल तिल नित्य जला करता हूँ
जन जन का अभिशाप वहन कर सब का सदा भला करता हूँ ।
कविता सुधा जगत को देता ,
विषम व्यथा उससे ले लेता ,
विषमय जीवन नौका खेता ,
जलनिधि के उद्गम ज्वार को पल पल सखे दला करता हूँ ।
सुख की मैं करता न कल्पना ,
दुःख तो सदा रहा है अपना ,
कैसे कह दूँ इसको सपना ,
हिमकर की किरणों को छूकर हँस हँस नित्य गला करता हूँ ।
सत्यम शिवम् लक्ष्य वह मेरा ,
करे सुंदरम जहां बसेरा ,
मग में बटमारों का डेरा ,
सहयात्री का पता न पाकर पग पग हाथ मला करता हूँ ।
(3)
आज मुझे लगता है ऐसा मानो सारे काम चुक गए ।।
क्योंकि सामने मेरे आकर कृष्ण चंद्र सुख धाम रुक गए ,
रुकें या कि जायें जग भर के जो भी नाते दार हमारे ।
नटखट प्रेम पियासे नैना कृष्ण चरण में स्वयं झुक गए ।।
(4)
पथिक रे !साँझ पड़ी घर चल ,
धीमी गति से मिले न मंज़िल मिटे न मन हलचल ।
जो कल मिले पथिक थे पिछले आगे गए निकल ।।
घड़ी घड़ी क्या खोल बांधता हो कर तू यों बेकल ।
पल पल की अब देर हो रही गोल रखो बिस्तर बंडल ।।
नभ में काले मेघ घिरे हैं लगे बरसने रिम झिम जल ।
पगले पाँव उठा चल जल्दी होने लगे पंथ पंकिल ।
धीरज की लक़ुटी लेकर अब राम नाम केवल संबल ।।
(5)
हमारो जीवन धन घनश्याम ,
अपर देव सब रंक बावरे नाहिन तिन सों काम ।।
मीत सोई परखत पै साँचो सीसहु देत कटाय ,
पैयत कहूँ ऐसों जन नाहीं मरे कतहुँ कत धाय ।
मात पिता सुत बंधु त्रियादिक करत स्वार्थी प्रीत ,
जानत हूँ पै तजियत नाहीं कैसी उलटी रीत ।
ऐसो कब करिहो माधव ज़ू नाम रसौ बसु जाम ,
द्वारे परो परो दिन काटों बिसरै जग को नाम ।
मधुकर है सब जग भरमानो कुसुम सुमन सों प्रेम ,
अंत सार नहिं पायो तिन महँ जारौं झूठौं नेम ।।
(6)
अरी ओ रुक जा आँसू धारा ?
माना तुझे दूर जाना है यहाँ न कोई सहारा ।
सोच समझ कर चलना होगा ।
विपदा में ही पलना होगा ।
काँटों में भी खिलना होगा ।
देख सोच ले एक बार फिर कुछ न रहेगा चारा ।।
तू मुक्ता की मँजु मालिका ।
खल -दल -धालिनी प्रबल कालिका ।
मानस कृंदन की मरालिका ।
क्यों करती है कोष रिक्त यह अतुल अमूल्य हमारा ।।
जो तब मूल्य समझ पाएगा ।
हँस हँस प्राण गवाँ पाएगा ।
जीवन ज्योति जला पाएगा ।
आज नहीं तो कल पाएगा है जो दूर किनारा ।।
(7) गीत और वे
मैं गीत लिखूँ या सुनूँ उनकी ?
जिस दम ही कविता लिखने को
यह हाथ लेखनी आती है ।
दिल खोल तभी श्रीमती विभा
पाइपिंग धोती मंगवाती है ।
मैं यहाँ रहूँ वे वहाँ रहें ,
बेचारी समय न पाती हैं ।
इसलिए रात को पास बैठ चलने लगती उनकी धुन की ।।1।।
मैं चाहूँ चालीस रुपयों में ,
घर का सब काम चला लेना ।
हाँ , अल्प बचत के लिए और ,
उनसे दस पाँच बचा लेना ।
वे गुरु घाघ की चेली हैं
चाहे चलचित्र चला लेना ।
उपदेश कला में महा निपुण वे कहतीं बात सदा गुण की ।।2।।
मैं चाय नहीं पी पाता वे ,
राष्ट्रीय पेय बतलाती हैं ।
मैं यदि काफ़ी को मना करूँ
वे खोज विटामिन लाती हैं ।
यदि मैं उनको सिर्रिन कहता ,
वे मुझको डाँट पिलाती हैं ।
है ऊपर से तुर्रा यारो , कुछ बात कही बस वे ठिकनीं ।।3।।
दस बक्सों में साड़ी जम्फ़र
पर वे कपड़े से नंगी हैं ।
है अस्सी तोले सोना भी
फिर भी ज़ेवर की तंगी है ।
हैं मेरे तन पर जीर्ण वस्त्र
जिनमें पेवंद पंचरंगी हैं ।
क्यों मेरी गंध नहीं भाती क्या बू है मुझमें लहसुन की ।।4।।
( रचनाकाल १९६०)
(8) कविता से वार्ता
कौन तुम मनोमोहिनी रानी ?
अनजाने संकेतों से क्यों,हमको पास बुलातीं ?
रूप राशि पर इठलाकर क्यों,मानस कमल खिलातीं।
आगे बढ़ने की लगन लगा शोणित में आग लगातीं ।
कुलिशों के अंबारों को तुम मोम समान गलातीं ।
कहो अभी तक कभी तुम्हारी महिमा किसने जानी ।।1।।
अधरों की मुस्कान तुम्हारे कवि का जीवन बनती ।
भ्रकुटी रेख की क्षणिक कुटिलता जीवन संशय बनती ।
केशपाश शृंगार मनोरम पल पल आगे बढ़ता ।
जीवन का अभिशाप कभी वरदान मनुज का बनता ।
कभी सरलता कभी कुटिलता, यह प्राचीन कहानी ।।2।।
मैं याचक बन कभी तुम्हारे द्वार चला आया था ।
सेवा की टूटी फूटी साई एक साध लाया था ।
किंतु तुम्हारे द्वार पहुँच कर यह मैंने पहचाना ।
तुम कविता हो मधुरिम कटु-तम यही तुम्हारा बाना।
सफल साध करनी ही होगी मैं याचक तुम दानी ।।3।।
मिटे दंभ ,प्राचीन नष्ट हो जड़ता जड़ से उखड़े ।
नयी चेतना मिले मनुज को बीतें बीते झगड़े ।
कवि के मन में जगे राष्ट्र हित बलि पथ हो नित आगे ।
हिले धरा पापों की गठरी उतर शीश से भागे ।
तुम सी लाली हो जीवन में , जो अनुराग निशानी ।।4।।
(9)
हताश जीवन निराश आँखें अतीत गाथा बता रहीं हैं ।
विकल भटकते हुए मनुज की दबी विवशता जता रही है ।।1।।
न जान पाए तुम्हें तनिक भी विशाल मति युत महान ज़ौहरी ।
पड़ी उपेक्षा की धूलि मुख पर मलीन मतिता जता रही है ।।2।।
अगर न तुमको था प्यार मुझसे न छेड़ते वह सितार तंत्री ।
जहाँ विकलता अवतार लेकर निराश पर फड़ फ़ड़ा रही है ।।3।।
गगन बिहारी इन तारकों में कहीं तुम्हारी झलक मिलेगी ।
यही दुराशा दिन रात मन में न आँख पलकें गिरा रही है ।।4।।
सरोवरों के खिले कमल में तुम्हारी आभा समझ रहा था ।
द्विरेफ़ बन कर विचर रहा हूँ सुगंध भीनी लुभा रही है ।।५।।
कहीं तुम्हारा यदि रूप होता , मिला न होता कहीं ठिकाना ।
अरूपता जब निखिल जगत को ,बना के चकई नचा रही है ।।6।।
(10)
वे मधुमय दिन रात कहाँ हैं?
बीत चुकीं सुख की मधु घड़ियाँ ,
टूट गईं बन्धन की कड़ियाँ ,
सूख गईं पथ की फुलझड़ियाँ ,
वह जीवन-सुख-प्रात कहाँ है ?1।
कुसुम सदा विकसित रहते जो ,
शीतल सुरभि सदा बहते जो ,
मधुकर चुहल मुदा सहते जो ,
शूल बने , सुख बात कहाँ है ?2।
मृदु यौवन की अमल तरंगें ,
नवजीवन की नयी उमंगें ,
प्रेम दीप के अमर पतंगे ,
हैं तो दीपाघात कहाँ हैं ? 3।
(11)
शलभ क्यों खोते हो तुम प्राण ?
माना प्रेम तुम्हारा अनुपम सुलभ नहीं पर प्राण ।
प्रेम चंद्रमा से करके भी क्या चकोर ने पाया ?
चिनगी चुगी आग की पल पल सुंदर गात जलाया ।
मूढ़बुद्धि को इतने पर भी क्या अपना हित भाया ?
उड़ा पकड़ने प्रियतम को वह उलटा भू पर आया ।
पर खाया फिर भी विरह बाण ।
सरसिज़ से कर प्रेम मधुप भी क्या पाता आनंद ।
नित्य कमल-समपुट -कारा में हो जाता है बन्द ।
बीन-राग पर मोहित होकर उरग बँधा मति मंद ।
नाद श्रवण के ही तो भ्रम में हिरण फँसा है फंद ।
खा गया मूर्ख जो बधिक बाण
तुम दीपक की जिस ज्वाला पर अपनी देह जलाते ।
क्या अपने हित तुम शतांश भी प्रीति वहाँ तुम पाते ।
गोपी गण सम तुम जितने भी कृष्ण दीप पर जाते ।
नहीं जानते रे उतनी ही वे विरहाग्नि जलाते ।
लो अब तो हित की बात मान
(12)
याद शहीदों के शोणित की जिसदम मन में आती ,
मस्तक तो ऊँचा हो जाता पर भर आती छाती ।
वह नाना की विकट वीरता ,लक्ष्मीबाई का बलिदान ।
बुला रहा है वीरों तुमको ,रखो सदा भारत का मान ।
शाह रंगीला सिंगापुर की लो समाधि से निकला ,
जिसपर हुई क्रूरता लखकर कुलिश मोम बन पिघला ।
सुना रहा वह आज तुम्हें सत्तावन का गौरव इतिहास ।
स्वागत सबका मन करता है बजती यश दूँदभि सोल्लास ।
तात्या टोपे ने भी खेली अपने गर्म रुधिर से होली ।
अंग्रेज़ों की न्याय हीनता की चोली खुल खोली ।
कानपुर के लौह खम्ब में मैना बाँध जलायी ।
अंग्रेज़ों की पशुता पापिनि जग में पड़ी दिखायी ।
यह स्वतंत्रता देवि देश में नहि सरलता से आयी ।
वीर रक्त से सिंचित कण कण ,इसका पड़ता दिखलायी ।
सत्ता वन अरु बयालिस में, कितनों का बलिदान हुआ ।
उन्नीस में डायर के हाथों कितनों का अवसान हुआ ।
उनको करें समर्पित हम क्या रिक्त हुआ सब अपना कोश ।
देख देख कर एक दूसरे को देते आपस में दोष ।
नयन बिंदु की मसि से अंकित ह्रदय पटल पर अनमिल रेख ।
वीरों के हित हो श्रद्धांजलि कमल कुसुम सम मेरा लेख ।।
(13)
कैसे मिटे देश की पीड़ा जबकि राष्ट्र मस्तिष्क विकल है ।
वह देखो आ रहा सामने निरे बाल सिर पर है धारे ,
जीवन का पूर्वार्ध अभी है फिर भी बाल पके हैं सारे ।
चिथडों में से झाँक रही हैं कई अस्थियाँ कर विद्रोह ।
पेट काट कर पहने चप्पल फिर भी है प्राणों का मोह ।
कोट भले ही पहन रहा है किंतु न इसका कुछ सम्बल है ।।
रोटी , दूध ,वस्त्र का दिन दिन इसके घर में रहा अभाव ।
विषम परिस्थिति का जीवन की इस पर पड़ता प्रथम प्रभाव ।
ऊँचे दर्जे की शिक्षा से इसके शिशु रह जाते हैं ।
जीवन के सुखमय दिवसों से वे वंचित रह जाते हैं ।
किंतु हिमाचल-सम यह फिर भी अपने व्रत पर सदा अचल है ।।
परिचय इतना ही काफ़ी है, फिर क्यों समझ सके नहि आप ।
यह शिक्षक है सकल जगत का किंतु भूख का ढोता पाप ।
निज राज्य में हुआ उपेक्षित खो बैठा अतीत सम्मान ।
यह जनता से ,अभिभावक से , छात्रों से। पाता अपमान ।
कान बंद सरकार किए है , झूठी ज़िद पर रही मचल है ।।
एक वर्ग में हो समानता यही योग्यतम है सिद्धांत ।
फिर भी कितने बंधु हमारे बने हुए हम से संभ्रांत ।
बढ़े हमारा वेतन भी अब पेंशन की सुविधा हो प्राप्त ।
शिक्षक बंधु हों मीटिंग में निज गौरव हो जावे प्राप्त ।
कैसे उन्नति की आशा हो उर में सुलगा विषम अनल है ।।
यदि शिक्षा के योग्य परिस्थिति करनी है तुमको निर्माण ।
यदि शिक्षा को उन्नत करना अनुशासन का रखना ध्यान ।
यदि छात्रों में नैतिक ,बौद्धिक , आध्यात्मिक उत्थान चाहते ।
यदि भारत का निखिल विश्व में अजर, अमर सम्मान चाहते ।
शिक्षक को भी मानव मानो यही एक सदुपाय सरल है ।।
(रचना काल १९५५)
(14)
अरे ओ जीवन के अवसाद !
ठहर तनिक तो कर लेने दे विगत क्षणों को याद ।
तेरे लिए गँवायी मैंने माता की मृदु गोद ,
तेरे ही हित छोड़ दिया था शैशव का मधु मोद ,
अरे तुझी पर वार दिया था मैंने मधुर विनोद ,
तेरा स्वागत करने को मैं लाया विषम विषाद ।1।
यौवन का मृदु आँचल पकड़े आया मैं उस ओर ,
हाव भाव की मृदुल लालिमा लेती जिधर हिलोर ,
विकट , विकटतर तथा विकटतम तेरे विपती झकोर ,
होकर जिनसे मनुज विताड़िट करता विपुल निनाद ।2।
कभी धरा पर ,कभी गगन पर आशा दृष्टि लगायी ,
मानस के ईंधन में सुख की स्मरण चिता सुलगायी ,
और कहूँ क्या, तुझे निठुरतम कभी दया क्या आयी ,
गूँज रहा है अरे देख ले ,तेरा वह अपवाद ।3।
व्योम बिहारी विशद विभाकर है तुझसे आक्रान्त,
चारु चंद्र भी घटते घटते हो जाता विक्रांत ,
त्रस्त बेचारे तारे सारे रहते कभी न शांत ,
देव मंडली में तुझ पर ही होता वादविवाद ।4।
देख ध्यान रख इतना फिर भी अपनी बात निभाना ,
आया है तो मुझे छोड़कर अब तू कहीं न जाना ,
दुःख से बचने को तू मेरे मन को बना ठिकाना ,
तेरे एकांगी होने से जग का मिटे विषाद ।5।
(15)
न्योछावर मैं एक फूल ।
मौन व्रंत पर सुरभित होता ।
किंतु वेदनान्वित धरती पर रहा सदा ही मैं निर्मूल ।।1।।
मात्रवेदि पर चढ़ने वाले ।
पीड़ित का दुख हरने वाले ।
देश प्रेम के जो मतवाले ।
जिस पथ के हों पथिक गिरूँ मैं , निकले मन का शूल ।।2।।
वीर तुम्हारा पथ निर्भय हो ।
वीर तुम्हारा मत निर्भय हो ।
वीर तुम्हारा बल निर्भय हो ।
मुझसे ले आह्लाद लालिमा करो देश गत शूल ।।३।।
(16)
कवि तुम्हारे रुदन में भी गान बसता है ।
इस निराले जगत में अपमान सस्ता है ।।
जिस कुसुम की गंध मुझको कुसुम से अतिरिक्त भायी।
जिस कुसुम की सी मृदुलता ना कहीं पड़ती दिखायी ।
जिस कुसुम की गंध ने मुझसे निखिल जागती छुड़ायी ।
जिस कुसुम की मंजुता की मंजुता शशि में समायी ।
छीन मेरे उस कुसुम को दैव हँसता है ।।१।।
विकल मानव की व्यथा को निज व्यथा तुम मानते हो ।
विकट रजनी के तमस को भी दिवस ही मानते हो ।
अति निराशा के समय को आश उद्गम जानते हो ।
हत कुसुम अलि को कहो कवि , लेश भी पहचानते हो ।
यदि नहीं तो विवश अलि को काल डँसता है ।।२।।
आज जग जाने न क्यों कर रहा उपहास मेरा ।
कालिमा से लिख रहा है दैव क्यों इतिहास मेरा ।
अयुत यामा यामिनी को काट देगा कब सवेरा ।
भा सका सहवासिनी को जब नहीं सहवास मेरा ।
देख लो विश्वास जग का आज नसता है ।।३।।
(17)
दिखा दे अभी कलेजा चीर ,लगा यदि देश प्रेम का तीर ।
जीवन तक का बलिदान आज जो कर सकता हो ,
जो देश प्रेम का भाव सभी में भर सकता हो ,
जो विपुल विपत्ति पयोधि हर्ष से तर सकता हो ,
स्वातन्त्रय हेतु कटिबद्ध देश पर मर सकता हो ,
वही हमारा वीर धीर जो हरे हमारी पीर ।।१।।
लाखों लाल गँवा कर हमने यह स्वतंत्रता पाई ,
रक्त शहीदों का कण कण में देता है दिखलाई ,
कानपुर का लौह खम्ब वह मैना जहाँ जलाई ,
वह देखो आज़ाद , चंद्र की स्मृति क्यों हो आयी ,
वहीं हमारे वीर विराजें हृदय कमल को चीर ।।२।।
गांधी का सत्याग्रह प्यारा सदा जिसे भाता है ,
स्वार्थ भूत से कभी स्वप्न में जिसका नहीं नाता है ,
जो पल पल मदमत्त बना सवात्न्त्र्य गीत गाता है ,
वही हमारा वीर स्वच्छ ज्यों सुर-सरिता का नीर ।।३।।
(18)
दूर होता जा रहा है आज मुझसे लक्ष्य मेरा ।
बीज बोता जा रहा है क्यों जगत में घन अँधेरा ?
छल-कपट अनुकूल पानी वायु पाकर बढ़ रहे हैं।
स्वार्थ केवल तत्व जग का पाठ अनुपम पढ़ रहे हैं ।
सत्य,गरिमा मय दया के शुभ्र अंकुर कट रहे हैं।
भव्य-भूषित-भाव भाव के मन पटल से हट रहे हैं ।
मार्ग भी मिलता नहीं अरु ना कहीं मिलता बसेरा ।।1।।
यातनाएँ भी निशा की सह सकूँगा मैं सभी ।
भान था अपमान की चिंता न मुझको है कभी ।
आज़माने को खड़ा हूँ कर्म भी मैं भाग्य भी ।
आश क्या कुछ मिल सकेगी आज माँगी भीख भी ।
बस इसी से है भटकता फिर रहा लघु चित्त मेरा ।।2।।
यह निराशा एक केवल मित्र जो है साथ मेरे ।
पल-विपल क्षण-क्षण मुझे जो रह रही है साथ घेरे ।
रह सकेगी अंत तक क्या , कुछ नहीं इसका पता जब ।
देश का सौभाग्य या दुर्भाग्य कैसे दूँ बता तब ?
मैं भँवर में फँस गया हूँ और नाविक रूष्ट मेरा ।।3।।
एक क्या लाखों करोड़ों उठ रही थीं भाव लहरी ।
डूब जाता हिम अचल भी खा के जिनकी चोट गहरी ।
देखता क्या हूँ , अचानक पूर्व दिग में ललिमा थी ।
भागती सी जा रही चुपचाप निशि की कालिमा थी ।
हो चुका था व्यक्त धूमिल काट रजनी को सवेरा ।।
आ गया सहसा निकट वह दूर जो था लक्ष्य मेरा ।।4।।
(19)
गा दो कवि , कोई मधुर गीत ।
गा देता हूँ सुन लो तुम में यदि कविता से हो तनिक प्रीत ।।
अज्ञान निशा भागी जाती तारे भी लेते हैं हिलोर ।
हल्की सी आहट पाते ही नौ -दो- ग्यारह हो गए चोर ।
मागध तमचुर ध्वनि देता है जागो जागो हो चुका भोर ।
बन गई हार भी अमर जीत ।।1।।
वार वधु कोकिल मृदुतम संगीत सुनाती जाती है ।
कलिकाएँ मुस्कानभरी चुटकी से टाल लगाती हैं ।
मधुपावलि कोमल गुंजन मिसअति अनुपम वाद्य बजाती हैं ।
जन- गण - मन नूतन रीति प्रीति ।।2।।
मेरी अतुलित निधि के समक्ष देखो लज्जित वह धनद कोष ।
मेरी थैली के रत्न गिनो मोती,मोहन,वसु,लाज,घोष।
राजेंद्र ,जवाहर,मालवीय,सरदार,कृष्ण,टैगोर ,बोस ।
गा रहे देव भी यशोगीत ।।3।।
भारत माता क्यों कलुषित हो जन-मन के घृणित विचारों से ।
स्वार्थ लोभ हो जायँ भस्म शासन के तप्त अंगारों से ।
मनुजों में प्रीति- प्रतीति जगें मानवता युक्त विचारों से ।
ले मानवता देवत्व जीत ।। 4।।
(20)
क्लांत उर के हेतु कवि तुम क्या मधुर संदेश लाए ।
कल्पना तितली उड़ाने के कहीं आदेश पाए ।
खिन्न हो जब जग दुखों से यामिनी के पास जाता ।
करुण जीवन की व्यथाएँ कृष्णतम तम में छिपाता ।
पर वहीं क्या विवश मानव लेश भी विश्रांति पाता ।
स्वप्न में साकार होकर दैन्य दुःख फिर भेंट जाता ।
मेटने विधि लेख उसका क्या अमिट आदेश लाए ।।
मैं व्यथित ,मेरे व्यथित कोई न सुख की नींद सोता ।
क्षिति व्यथित है नभ व्यथित है कब कहाँ सुख प्रात होता ।
एक प्राणी की व्यथा से यदि प्रलय उत्पात होता ।
ग्रीष्म आतप यदि पवन का विकट झंझावात होता ।
तो बताओ शांतिप्रद कुछ यदि मृदुल उपदेश लाये ।।
कह रहे क्या विकल मानव की व्यथा का नाश हूँ मैं ।
कल्पना ही के सहारे निखिल जग की आस हूँ मैं ।
एक पद से ताप जग का खो हुआ क्रत कृत्य हूँ मैं ।
एक पद से सब जगत को दे रहा चैतन्य हूँ मैं ।
एक मेरे ही सहारे भक्त ने परमेश पाए ।।
(21)
भारत का स्वर्णिम सुप्रभात ।
हैं पूर्व सरोवर में विकसित अरुणिम सुरभिt शत वारिजात ।।
मुकुलित क़लिका जो रही रात सौभाग्य सूर्य था अस्त प्राय ।
वह द्विगुणित शक्ति-संचयन कर विकसाता क़लिका प्रकट आय ।।
जगती का वैभव विपुल सर्व भारत के सम्मुख लघु लखात।
चर्चिल के मुख से वह सिगार देखो धरती पर खिसक जात ।।
इसके ही एक जवाहर की आभा से दीपित दिग्दिगन्त ।
है पश्चिम में शतदल प्रपात भारत के पथ-पथ शत बसन्त।।
हो चुका केसरी बन्ध मुक्त विक्रीडित जग में दिवारात ।
खो चुका दीन का मनस्ताप उत्तुंग शिखर सम्मुख दिखात ।।
(रचनाकाल 26 जनवरी 1950 )
::::::::::::::प्रस्तुति:::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822