(1) वीणा वादिनी -वंदना
वीणा-पुस्तक-धारिणी शुभदे ।
नीर-क्षीर-प्रविवेक कुशल-कुल-हंस -वाहिनी सुख दे ।
विविध-विधान-कला-शुभ-आकर ,गुण-गण-मंडित बाले ।
आगम-निगम-विचार-विमल-मति,चंद्र प्रभासित-भाले ।।
कवि-कुल-कमल-दिवाकर भासित ज्योति किरण से तेरी ।
मंत्र-तत्व-निधि ऋषि गण जीवित दया-दृष्टि से तेरी ।।
जननी विश्व की विषम-विवशता का दुःख सत्त्वर हर दे ।
सफल-कल्पना-भाव-व्यंजन-रस-मय मानस कर दे ।।
(2)
तिल तिल नित्य जला करता हूँ
जन जन का अभिशाप वहन कर सब का सदा भला करता हूँ ।
कविता सुधा जगत को देता ,
विषम व्यथा उससे ले लेता ,
विषमय जीवन नौका खेता ,
जलनिधि के उद्गम ज्वार को पल पल सखे दला करता हूँ ।
सुख की मैं करता न कल्पना ,
दुःख तो सदा रहा है अपना ,
कैसे कह दूँ इसको सपना ,
हिमकर की किरणों को छूकर हँस हँस नित्य गला करता हूँ ।
सत्यम शिवम् लक्ष्य वह मेरा ,
करे सुंदरम जहां बसेरा ,
मग में बटमारों का डेरा ,
सहयात्री का पता न पाकर पग पग हाथ मला करता हूँ ।
(3)
आज मुझे लगता है ऐसा मानो सारे काम चुक गए ।।
क्योंकि सामने मेरे आकर कृष्ण चंद्र सुख धाम रुक गए ,
रुकें या कि जायें जग भर के जो भी नाते दार हमारे ।
नटखट प्रेम पियासे नैना कृष्ण चरण में स्वयं झुक गए ।।
(4)
पथिक रे !साँझ पड़ी घर चल ,
धीमी गति से मिले न मंज़िल मिटे न मन हलचल ।
जो कल मिले पथिक थे पिछले आगे गए निकल ।।
घड़ी घड़ी क्या खोल बांधता हो कर तू यों बेकल ।
पल पल की अब देर हो रही गोल रखो बिस्तर बंडल ।।
नभ में काले मेघ घिरे हैं लगे बरसने रिम झिम जल ।
पगले पाँव उठा चल जल्दी होने लगे पंथ पंकिल ।
धीरज की लक़ुटी लेकर अब राम नाम केवल संबल ।।
(5)
हमारो जीवन धन घनश्याम ,
अपर देव सब रंक बावरे नाहिन तिन सों काम ।।
मीत सोई परखत पै साँचो सीसहु देत कटाय ,
पैयत कहूँ ऐसों जन नाहीं मरे कतहुँ कत धाय ।
मात पिता सुत बंधु त्रियादिक करत स्वार्थी प्रीत ,
जानत हूँ पै तजियत नाहीं कैसी उलटी रीत ।
ऐसो कब करिहो माधव ज़ू नाम रसौ बसु जाम ,
द्वारे परो परो दिन काटों बिसरै जग को नाम ।
मधुकर है सब जग भरमानो कुसुम सुमन सों प्रेम ,
अंत सार नहिं पायो तिन महँ जारौं झूठौं नेम ।।
(6)
अरी ओ रुक जा आँसू धारा ?
माना तुझे दूर जाना है यहाँ न कोई सहारा ।
सोच समझ कर चलना होगा ।
विपदा में ही पलना होगा ।
काँटों में भी खिलना होगा ।
देख सोच ले एक बार फिर कुछ न रहेगा चारा ।।
तू मुक्ता की मँजु मालिका ।
खल -दल -धालिनी प्रबल कालिका ।
मानस कृंदन की मरालिका ।
क्यों करती है कोष रिक्त यह अतुल अमूल्य हमारा ।।
जो तब मूल्य समझ पाएगा ।
हँस हँस प्राण गवाँ पाएगा ।
जीवन ज्योति जला पाएगा ।
आज नहीं तो कल पाएगा है जो दूर किनारा ।।
(7) गीत और वे
मैं गीत लिखूँ या सुनूँ उनकी ?
जिस दम ही कविता लिखने को
यह हाथ लेखनी आती है ।
दिल खोल तभी श्रीमती विभा
पाइपिंग धोती मंगवाती है ।
मैं यहाँ रहूँ वे वहाँ रहें ,
बेचारी समय न पाती हैं ।
इसलिए रात को पास बैठ चलने लगती उनकी धुन की ।।1।।
मैं चाहूँ चालीस रुपयों में ,
घर का सब काम चला लेना ।
हाँ , अल्प बचत के लिए और ,
उनसे दस पाँच बचा लेना ।
वे गुरु घाघ की चेली हैं
चाहे चलचित्र चला लेना ।
उपदेश कला में महा निपुण वे कहतीं बात सदा गुण की ।।2।।
मैं चाय नहीं पी पाता वे ,
राष्ट्रीय पेय बतलाती हैं ।
मैं यदि काफ़ी को मना करूँ
वे खोज विटामिन लाती हैं ।
यदि मैं उनको सिर्रिन कहता ,
वे मुझको डाँट पिलाती हैं ।
है ऊपर से तुर्रा यारो , कुछ बात कही बस वे ठिकनीं ।।3।।
दस बक्सों में साड़ी जम्फ़र
पर वे कपड़े से नंगी हैं ।
है अस्सी तोले सोना भी
फिर भी ज़ेवर की तंगी है ।
हैं मेरे तन पर जीर्ण वस्त्र
जिनमें पेवंद पंचरंगी हैं ।
क्यों मेरी गंध नहीं भाती क्या बू है मुझमें लहसुन की ।।4।।
( रचनाकाल १९६०)
(8) कविता से वार्ता
कौन तुम मनोमोहिनी रानी ?
अनजाने संकेतों से क्यों,हमको पास बुलातीं ?
रूप राशि पर इठलाकर क्यों,मानस कमल खिलातीं।
आगे बढ़ने की लगन लगा शोणित में आग लगातीं ।
कुलिशों के अंबारों को तुम मोम समान गलातीं ।
कहो अभी तक कभी तुम्हारी महिमा किसने जानी ।।1।।
अधरों की मुस्कान तुम्हारे कवि का जीवन बनती ।
भ्रकुटी रेख की क्षणिक कुटिलता जीवन संशय बनती ।
केशपाश शृंगार मनोरम पल पल आगे बढ़ता ।
जीवन का अभिशाप कभी वरदान मनुज का बनता ।
कभी सरलता कभी कुटिलता, यह प्राचीन कहानी ।।2।।
मैं याचक बन कभी तुम्हारे द्वार चला आया था ।
सेवा की टूटी फूटी साई एक साध लाया था ।
किंतु तुम्हारे द्वार पहुँच कर यह मैंने पहचाना ।
तुम कविता हो मधुरिम कटु-तम यही तुम्हारा बाना।
सफल साध करनी ही होगी मैं याचक तुम दानी ।।3।।
मिटे दंभ ,प्राचीन नष्ट हो जड़ता जड़ से उखड़े ।
नयी चेतना मिले मनुज को बीतें बीते झगड़े ।
कवि के मन में जगे राष्ट्र हित बलि पथ हो नित आगे ।
हिले धरा पापों की गठरी उतर शीश से भागे ।
तुम सी लाली हो जीवन में , जो अनुराग निशानी ।।4।।
(9)
हताश जीवन निराश आँखें अतीत गाथा बता रहीं हैं ।
विकल भटकते हुए मनुज की दबी विवशता जता रही है ।।1।।
न जान पाए तुम्हें तनिक भी विशाल मति युत महान ज़ौहरी ।
पड़ी उपेक्षा की धूलि मुख पर मलीन मतिता जता रही है ।।2।।
अगर न तुमको था प्यार मुझसे न छेड़ते वह सितार तंत्री ।
जहाँ विकलता अवतार लेकर निराश पर फड़ फ़ड़ा रही है ।।3।।
गगन बिहारी इन तारकों में कहीं तुम्हारी झलक मिलेगी ।
यही दुराशा दिन रात मन में न आँख पलकें गिरा रही है ।।4।।
सरोवरों के खिले कमल में तुम्हारी आभा समझ रहा था ।
द्विरेफ़ बन कर विचर रहा हूँ सुगंध भीनी लुभा रही है ।।५।।
कहीं तुम्हारा यदि रूप होता , मिला न होता कहीं ठिकाना ।
अरूपता जब निखिल जगत को ,बना के चकई नचा रही है ।।6।।
(10)
वे मधुमय दिन रात कहाँ हैं?
बीत चुकीं सुख की मधु घड़ियाँ ,
टूट गईं बन्धन की कड़ियाँ ,
सूख गईं पथ की फुलझड़ियाँ ,
वह जीवन-सुख-प्रात कहाँ है ?1।
कुसुम सदा विकसित रहते जो ,
शीतल सुरभि सदा बहते जो ,
मधुकर चुहल मुदा सहते जो ,
शूल बने , सुख बात कहाँ है ?2।
मृदु यौवन की अमल तरंगें ,
नवजीवन की नयी उमंगें ,
प्रेम दीप के अमर पतंगे ,
हैं तो दीपाघात कहाँ हैं ? 3।
(11)
शलभ क्यों खोते हो तुम प्राण ?
माना प्रेम तुम्हारा अनुपम सुलभ नहीं पर प्राण ।
प्रेम चंद्रमा से करके भी क्या चकोर ने पाया ?
चिनगी चुगी आग की पल पल सुंदर गात जलाया ।
मूढ़बुद्धि को इतने पर भी क्या अपना हित भाया ?
उड़ा पकड़ने प्रियतम को वह उलटा भू पर आया ।
पर खाया फिर भी विरह बाण ।
सरसिज़ से कर प्रेम मधुप भी क्या पाता आनंद ।
नित्य कमल-समपुट -कारा में हो जाता है बन्द ।
बीन-राग पर मोहित होकर उरग बँधा मति मंद ।
नाद श्रवण के ही तो भ्रम में हिरण फँसा है फंद ।
खा गया मूर्ख जो बधिक बाण
तुम दीपक की जिस ज्वाला पर अपनी देह जलाते ।
क्या अपने हित तुम शतांश भी प्रीति वहाँ तुम पाते ।
गोपी गण सम तुम जितने भी कृष्ण दीप पर जाते ।
नहीं जानते रे उतनी ही वे विरहाग्नि जलाते ।
लो अब तो हित की बात मान
(12)
याद शहीदों के शोणित की जिसदम मन में आती ,
मस्तक तो ऊँचा हो जाता पर भर आती छाती ।
वह नाना की विकट वीरता ,लक्ष्मीबाई का बलिदान ।
बुला रहा है वीरों तुमको ,रखो सदा भारत का मान ।
शाह रंगीला सिंगापुर की लो समाधि से निकला ,
जिसपर हुई क्रूरता लखकर कुलिश मोम बन पिघला ।
सुना रहा वह आज तुम्हें सत्तावन का गौरव इतिहास ।
स्वागत सबका मन करता है बजती यश दूँदभि सोल्लास ।
तात्या टोपे ने भी खेली अपने गर्म रुधिर से होली ।
अंग्रेज़ों की न्याय हीनता की चोली खुल खोली ।
कानपुर के लौह खम्ब में मैना बाँध जलायी ।
अंग्रेज़ों की पशुता पापिनि जग में पड़ी दिखायी ।
यह स्वतंत्रता देवि देश में नहि सरलता से आयी ।
वीर रक्त से सिंचित कण कण ,इसका पड़ता दिखलायी ।
सत्ता वन अरु बयालिस में, कितनों का बलिदान हुआ ।
उन्नीस में डायर के हाथों कितनों का अवसान हुआ ।
उनको करें समर्पित हम क्या रिक्त हुआ सब अपना कोश ।
देख देख कर एक दूसरे को देते आपस में दोष ।
नयन बिंदु की मसि से अंकित ह्रदय पटल पर अनमिल रेख ।
वीरों के हित हो श्रद्धांजलि कमल कुसुम सम मेरा लेख ।।
(13)
कैसे मिटे देश की पीड़ा जबकि राष्ट्र मस्तिष्क विकल है ।
वह देखो आ रहा सामने निरे बाल सिर पर है धारे ,
जीवन का पूर्वार्ध अभी है फिर भी बाल पके हैं सारे ।
चिथडों में से झाँक रही हैं कई अस्थियाँ कर विद्रोह ।
पेट काट कर पहने चप्पल फिर भी है प्राणों का मोह ।
कोट भले ही पहन रहा है किंतु न इसका कुछ सम्बल है ।।
रोटी , दूध ,वस्त्र का दिन दिन इसके घर में रहा अभाव ।
विषम परिस्थिति का जीवन की इस पर पड़ता प्रथम प्रभाव ।
ऊँचे दर्जे की शिक्षा से इसके शिशु रह जाते हैं ।
जीवन के सुखमय दिवसों से वे वंचित रह जाते हैं ।
किंतु हिमाचल-सम यह फिर भी अपने व्रत पर सदा अचल है ।।
परिचय इतना ही काफ़ी है, फिर क्यों समझ सके नहि आप ।
यह शिक्षक है सकल जगत का किंतु भूख का ढोता पाप ।
निज राज्य में हुआ उपेक्षित खो बैठा अतीत सम्मान ।
यह जनता से ,अभिभावक से , छात्रों से। पाता अपमान ।
कान बंद सरकार किए है , झूठी ज़िद पर रही मचल है ।।
एक वर्ग में हो समानता यही योग्यतम है सिद्धांत ।
फिर भी कितने बंधु हमारे बने हुए हम से संभ्रांत ।
बढ़े हमारा वेतन भी अब पेंशन की सुविधा हो प्राप्त ।
शिक्षक बंधु हों मीटिंग में निज गौरव हो जावे प्राप्त ।
कैसे उन्नति की आशा हो उर में सुलगा विषम अनल है ।।
यदि शिक्षा के योग्य परिस्थिति करनी है तुमको निर्माण ।
यदि शिक्षा को उन्नत करना अनुशासन का रखना ध्यान ।
यदि छात्रों में नैतिक ,बौद्धिक , आध्यात्मिक उत्थान चाहते ।
यदि भारत का निखिल विश्व में अजर, अमर सम्मान चाहते ।
शिक्षक को भी मानव मानो यही एक सदुपाय सरल है ।।
(रचना काल १९५५)
(14)
अरे ओ जीवन के अवसाद !
ठहर तनिक तो कर लेने दे विगत क्षणों को याद ।
तेरे लिए गँवायी मैंने माता की मृदु गोद ,
तेरे ही हित छोड़ दिया था शैशव का मधु मोद ,
अरे तुझी पर वार दिया था मैंने मधुर विनोद ,
तेरा स्वागत करने को मैं लाया विषम विषाद ।1।
यौवन का मृदु आँचल पकड़े आया मैं उस ओर ,
हाव भाव की मृदुल लालिमा लेती जिधर हिलोर ,
विकट , विकटतर तथा विकटतम तेरे विपती झकोर ,
होकर जिनसे मनुज विताड़िट करता विपुल निनाद ।2।
कभी धरा पर ,कभी गगन पर आशा दृष्टि लगायी ,
मानस के ईंधन में सुख की स्मरण चिता सुलगायी ,
और कहूँ क्या, तुझे निठुरतम कभी दया क्या आयी ,
गूँज रहा है अरे देख ले ,तेरा वह अपवाद ।3।
व्योम बिहारी विशद विभाकर है तुझसे आक्रान्त,
चारु चंद्र भी घटते घटते हो जाता विक्रांत ,
त्रस्त बेचारे तारे सारे रहते कभी न शांत ,
देव मंडली में तुझ पर ही होता वादविवाद ।4।
देख ध्यान रख इतना फिर भी अपनी बात निभाना ,
आया है तो मुझे छोड़कर अब तू कहीं न जाना ,
दुःख से बचने को तू मेरे मन को बना ठिकाना ,
तेरे एकांगी होने से जग का मिटे विषाद ।5।
(15)
न्योछावर मैं एक फूल ।
मौन व्रंत पर सुरभित होता ।
किंतु वेदनान्वित धरती पर रहा सदा ही मैं निर्मूल ।।1।।
मात्रवेदि पर चढ़ने वाले ।
पीड़ित का दुख हरने वाले ।
देश प्रेम के जो मतवाले ।
जिस पथ के हों पथिक गिरूँ मैं , निकले मन का शूल ।।2।।
वीर तुम्हारा पथ निर्भय हो ।
वीर तुम्हारा मत निर्भय हो ।
वीर तुम्हारा बल निर्भय हो ।
मुझसे ले आह्लाद लालिमा करो देश गत शूल ।।३।।
(16)
कवि तुम्हारे रुदन में भी गान बसता है ।
इस निराले जगत में अपमान सस्ता है ।।
जिस कुसुम की गंध मुझको कुसुम से अतिरिक्त भायी।
जिस कुसुम की सी मृदुलता ना कहीं पड़ती दिखायी ।
जिस कुसुम की गंध ने मुझसे निखिल जागती छुड़ायी ।
जिस कुसुम की मंजुता की मंजुता शशि में समायी ।
छीन मेरे उस कुसुम को दैव हँसता है ।।१।।
विकल मानव की व्यथा को निज व्यथा तुम मानते हो ।
विकट रजनी के तमस को भी दिवस ही मानते हो ।
अति निराशा के समय को आश उद्गम जानते हो ।
हत कुसुम अलि को कहो कवि , लेश भी पहचानते हो ।
यदि नहीं तो विवश अलि को काल डँसता है ।।२।।
आज जग जाने न क्यों कर रहा उपहास मेरा ।
कालिमा से लिख रहा है दैव क्यों इतिहास मेरा ।
अयुत यामा यामिनी को काट देगा कब सवेरा ।
भा सका सहवासिनी को जब नहीं सहवास मेरा ।
देख लो विश्वास जग का आज नसता है ।।३।।
(17)
दिखा दे अभी कलेजा चीर ,लगा यदि देश प्रेम का तीर ।
जीवन तक का बलिदान आज जो कर सकता हो ,
जो देश प्रेम का भाव सभी में भर सकता हो ,
जो विपुल विपत्ति पयोधि हर्ष से तर सकता हो ,
स्वातन्त्रय हेतु कटिबद्ध देश पर मर सकता हो ,
वही हमारा वीर धीर जो हरे हमारी पीर ।।१।।
लाखों लाल गँवा कर हमने यह स्वतंत्रता पाई ,
रक्त शहीदों का कण कण में देता है दिखलाई ,
कानपुर का लौह खम्ब वह मैना जहाँ जलाई ,
वह देखो आज़ाद , चंद्र की स्मृति क्यों हो आयी ,
वहीं हमारे वीर विराजें हृदय कमल को चीर ।।२।।
गांधी का सत्याग्रह प्यारा सदा जिसे भाता है ,
स्वार्थ भूत से कभी स्वप्न में जिसका नहीं नाता है ,
जो पल पल मदमत्त बना सवात्न्त्र्य गीत गाता है ,
वही हमारा वीर स्वच्छ ज्यों सुर-सरिता का नीर ।।३।।
(18)
दूर होता जा रहा है आज मुझसे लक्ष्य मेरा ।
बीज बोता जा रहा है क्यों जगत में घन अँधेरा ?
छल-कपट अनुकूल पानी वायु पाकर बढ़ रहे हैं।
स्वार्थ केवल तत्व जग का पाठ अनुपम पढ़ रहे हैं ।
सत्य,गरिमा मय दया के शुभ्र अंकुर कट रहे हैं।
भव्य-भूषित-भाव भाव के मन पटल से हट रहे हैं ।
मार्ग भी मिलता नहीं अरु ना कहीं मिलता बसेरा ।।1।।
यातनाएँ भी निशा की सह सकूँगा मैं सभी ।
भान था अपमान की चिंता न मुझको है कभी ।
आज़माने को खड़ा हूँ कर्म भी मैं भाग्य भी ।
आश क्या कुछ मिल सकेगी आज माँगी भीख भी ।
बस इसी से है भटकता फिर रहा लघु चित्त मेरा ।।2।।
यह निराशा एक केवल मित्र जो है साथ मेरे ।
पल-विपल क्षण-क्षण मुझे जो रह रही है साथ घेरे ।
रह सकेगी अंत तक क्या , कुछ नहीं इसका पता जब ।
देश का सौभाग्य या दुर्भाग्य कैसे दूँ बता तब ?
मैं भँवर में फँस गया हूँ और नाविक रूष्ट मेरा ।।3।।
एक क्या लाखों करोड़ों उठ रही थीं भाव लहरी ।
डूब जाता हिम अचल भी खा के जिनकी चोट गहरी ।
देखता क्या हूँ , अचानक पूर्व दिग में ललिमा थी ।
भागती सी जा रही चुपचाप निशि की कालिमा थी ।
हो चुका था व्यक्त धूमिल काट रजनी को सवेरा ।।
आ गया सहसा निकट वह दूर जो था लक्ष्य मेरा ।।4।।
(19)
गा दो कवि , कोई मधुर गीत ।
गा देता हूँ सुन लो तुम में यदि कविता से हो तनिक प्रीत ।।
अज्ञान निशा भागी जाती तारे भी लेते हैं हिलोर ।
हल्की सी आहट पाते ही नौ -दो- ग्यारह हो गए चोर ।
मागध तमचुर ध्वनि देता है जागो जागो हो चुका भोर ।
बन गई हार भी अमर जीत ।।1।।
वार वधु कोकिल मृदुतम संगीत सुनाती जाती है ।
कलिकाएँ मुस्कानभरी चुटकी से टाल लगाती हैं ।
मधुपावलि कोमल गुंजन मिसअति अनुपम वाद्य बजाती हैं ।
जन- गण - मन नूतन रीति प्रीति ।।2।।
मेरी अतुलित निधि के समक्ष देखो लज्जित वह धनद कोष ।
मेरी थैली के रत्न गिनो मोती,मोहन,वसु,लाज,घोष।
राजेंद्र ,जवाहर,मालवीय,सरदार,कृष्ण,टैगोर ,बोस ।
गा रहे देव भी यशोगीत ।।3।।
भारत माता क्यों कलुषित हो जन-मन के घृणित विचारों से ।
स्वार्थ लोभ हो जायँ भस्म शासन के तप्त अंगारों से ।
मनुजों में प्रीति- प्रतीति जगें मानवता युक्त विचारों से ।
ले मानवता देवत्व जीत ।। 4।।
(20)
क्लांत उर के हेतु कवि तुम क्या मधुर संदेश लाए ।
कल्पना तितली उड़ाने के कहीं आदेश पाए ।
खिन्न हो जब जग दुखों से यामिनी के पास जाता ।
करुण जीवन की व्यथाएँ कृष्णतम तम में छिपाता ।
पर वहीं क्या विवश मानव लेश भी विश्रांति पाता ।
स्वप्न में साकार होकर दैन्य दुःख फिर भेंट जाता ।
मेटने विधि लेख उसका क्या अमिट आदेश लाए ।।
मैं व्यथित ,मेरे व्यथित कोई न सुख की नींद सोता ।
क्षिति व्यथित है नभ व्यथित है कब कहाँ सुख प्रात होता ।
एक प्राणी की व्यथा से यदि प्रलय उत्पात होता ।
ग्रीष्म आतप यदि पवन का विकट झंझावात होता ।
तो बताओ शांतिप्रद कुछ यदि मृदुल उपदेश लाये ।।
कह रहे क्या विकल मानव की व्यथा का नाश हूँ मैं ।
कल्पना ही के सहारे निखिल जग की आस हूँ मैं ।
एक पद से ताप जग का खो हुआ क्रत कृत्य हूँ मैं ।
एक पद से सब जगत को दे रहा चैतन्य हूँ मैं ।
एक मेरे ही सहारे भक्त ने परमेश पाए ।।
(21)
भारत का स्वर्णिम सुप्रभात ।
हैं पूर्व सरोवर में विकसित अरुणिम सुरभिt शत वारिजात ।।
मुकुलित क़लिका जो रही रात सौभाग्य सूर्य था अस्त प्राय ।
वह द्विगुणित शक्ति-संचयन कर विकसाता क़लिका प्रकट आय ।।
जगती का वैभव विपुल सर्व भारत के सम्मुख लघु लखात।
चर्चिल के मुख से वह सिगार देखो धरती पर खिसक जात ।।
इसके ही एक जवाहर की आभा से दीपित दिग्दिगन्त ।
है पश्चिम में शतदल प्रपात भारत के पथ-पथ शत बसन्त।।
हो चुका केसरी बन्ध मुक्त विक्रीडित जग में दिवारात ।
खो चुका दीन का मनस्ताप उत्तुंग शिखर सम्मुख दिखात ।।
(रचनाकाल 26 जनवरी 1950 )
::::::::::::::प्रस्तुति:::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें