आभासी दुनिया के इस युग में गीत की गरिमा को जीवित रखना एक दुष्कर कार्य है। समय की मांग के अनुसार चल कर ही गीत को बचाया जा सकता है। नवगीत की परंपरागत शैली से कुछ इतर प्रयोग कर डॉ मक्खन मुरादाबादी ने अभिनव गीत के माध्यम से सरलता व कोमलता के साथ यथार्थ को समाविष्ट कर एक अभिनव पहल की है। "गीतों के भी घर होते हैं" में विषय की विविधता एवं संवेदनाओं का विस्तार है। बौद्धिक चेतना से ओतप्रोत इन गीतों में वैचारिक गांभीर्य है। जीवन की विषमताओं एवं कठोरता के चित्रण के साथ लालित्य भी है। संग्रह के गीतों मे आन्तरिक एवं बाह्य संवेदनाओं का एक संतुलित रूप दिखाई देता है। कुछ पंक्तियाँ अनायास ही आनंदित कर देती हैं:
स्वरलिपियों से गति दे दो
ठहरे लगते पानी को
मधुर ताल लय में कर दो
पड़ी बेसुरी बानी को
अस्वीकृत मूल्यों प्रति विद्रोहात्मक रवैया एवं आक्रोश बेहद शांत रूप में प्रदर्शित किया है मक्खन जी ने :
संविधान की आड़ लिए जो
साजिश पहने ढोंग खड़ी है
सिद्ध यही उसको है करना
इस पुस्तक से बहुत बड़ी है
क्योंकि अकेले आज़ादी का
उसका कुनबा युद्ध लड़ा है
समसामयिक और संवेदनशील मुद्दों पर बेबाकी से लिखा है:
फंसी धर्म में जो थी गाड़ी
अटकी है अब जाति -पाँति पर
कुटिल सियासत प्रश्न पूछती
अपने घर की बढ़ी ख्याति पर
जग है लट्टू, पर ना खुश है
चुकी हुई धुन का साजिन्दा
मक्खन जी की सत्यान्वेषी दृष्टि मानव को दिशा-बोध करा रही है:
बुरे-भले को ठोंक-बजाकर
उसका सत्व निकालें
अच्छे को तो सभी निभाते
थोड़ा बुरा भी निभा लें
चलकर ही तो सत्यपथ मिलता
जीवन चलते जाना
मक्खन जी के इन गीतों में बाल मन की व्याकुलता भी है। शैली बरबस सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की याद दिलाती है:
तपते दिन हैं बच्चे व्याकुल
गर्मी से उकताए हैं
उन्हें बुलाने ननिहालों से
कई बुलावे आए हैं
उनका मन भी खुश रखना है
गीतों में नानी लिखना
ग्रामीण अंचल में मानवीय संवेदनाओं की मौजूदगी को कुछ इस तरह बयां किया है:
आंखें रूखी-रूखी
घर भी रीता-रीता
खटका जाता कुंडी
आकर रोज फजीता
मान गाँव ने रक्खा
निर्धन की कुटिया का
सरकारी भ्रष्टाचार पर तंज कसने मे मक्खन जी कतई नहीं पिघलेः
बने योजना तो कितने ही
उसमें पड़ते कूद
गाय दुखी है हर खूँटे पर
देना पड़ता दूध
शिष्टाचारित मन से होती
भ्रष्टाचारित जीत
यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि ये अभिनव गीत हमारी संवेदनशीलता को बचाने की मुहिम में सशक्त आवाज हैं। भाषा डॉ कारेंद्र देव त्यागी के उपनाम मक्खन की भांति सरल, सहज व संप्रेषणीय है। सामाजिक यथार्थ तथा उसमें व्यक्ति की भूमिका को परखने का एक सफल प्रयास किया गया है। कथ्य की व्यापकता और दृष्टि की उन्मुक्तता सिद्ध करती है कि इन अभिनव गीतों में किसी विचारधारा विशेष का दबाव नहीं है। सुधारवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए कुछ बेहतर के लिए अन्वेषण इस संग्रह में प्रतीत होता है। हालांकि कुछ पंक्तियों को जबरन विस्तार दिया गया है परंतु मक्खन जी ने सम्पूर्ण संग्रह में मन की बात कही है और मन के विस्तार को रोका और मापा नहीं जा सकता। बिंबों और प्रतीकों का अधिक सहारा लिए बिना बात की तरह बात कह देने का हुनर मक्खन जी में ही है। संग्रह की पंक्ति जो 'खत' को लेकर लिखी गई है-'सफल कहाँ गूगल भी उनकी सकल समीक्षा में', खत की जगह इस अप्रतिम संग्रह पर चरितार्थ होती दिखाई देती है। नवगीत के परिष्कृत रूप इन अभिनव गीतों के माध्यम से मक्खन जी ने नव काव्यान्दोलन का बिगुल बजाया है। हास्य व्यंग्य के स्थापित हस्ताक्षर मक्खन जी का गीत में साहसपूर्ण पदार्पण स्तुत्य है। इस अतुलनीय संग्रह से मक्खन जी ने धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, शमशेर बहादुर और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना सरीखे स्वनामधन्य रचनाकारों की श्रेणी में स्थापित होने के लिए कदम बढ़ा दिया है। यह अभिनव गीत-संग्रह हिन्दी साहित्य जगत में न केवल अपनी अलग पहचान बनाये वरन् शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी सिद्ध हो, ऐसी कामना है।
कृति : गीतों के भी घर होते हैं (अभिनव गीत संग्रह)
कवि : डॉ. मक्खन मुरादाबादी
प्रकाशन वर्ष : 2023
मूल्य : 300₹
प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन, सी 130, हिमगिरि कॉलोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद 244001
समीक्षक :डॉ. काव्य सौरभ जैमिनी
अध्यक्ष-जैमिनी साहित्य फाउंडेशन एवं प्रबंधक-महाराजा हरिश्चंद्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत ,मोबाइल फोन नंबर 9837097944
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