वह दुष्काल सन् छप्पन का था
तीव्र शमन की सन्धि- बेला,
विश्व समोद रश्मियों से जब
शिशु-सा खेलता था अकेला ।
क्रूर काल की तम आँधी में
वह दीपक - ज्योति क्षीण हुई,
नवयुग की नवसृष्टि ललाम
हा ! पंचभूत में विलीन हुई ।
रोये खेत, खलिहान, किसान
रोये पशु -पक्षी सकल विस्मित,
रोये वृक्ष नव किसलय त्याग
रोये भारत के नेत्र थकित !
वह तापस धुनी त्राणक प्रवर
पार्श्व असंख्य पग भू के बल,
प्रेरित स्वर्गिक मुहुर्त अक्षर
धँसता वर्ण भू तमस दलदल !
मुक्त शब्दों की करो घोषणा
मुक्त गति, लय, कविता और छंद,
मुक्त देश के मुक्त सभी जन
विचरण करें नित हो स्वच्छंद !
धन्य, समता तापस धुनी वर
जटाजूट शुचि गंग बहाकर,
प्रक्षालित पंक दलित पंगु चरण
अज्ञ शठ हठि मुनि मान ढहाकर !
विजय नरता की कहिए,अथवा
खल मानव की अंध पराजय,
जड़ -चेतन-मुक्ति-समर कहिए,
युग आग्रह या धर्म का निश्चय !
शीतल हुई रे त्रसित धरती
भीष्म ग्रीष्म आतप से तपकर,
युग नभ रवि तन भस्म रमाये
तापस मुक्ति नव भासित प्रवर !
✍️ डॉ जगदीश शरण, 217, प्रेमनगर, लाइनप, माता मंदिर गली, मुरादाबाद-- 244001, उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल : 983730 8657
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