दयानंद गुप्त लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
दयानंद गुप्त लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 10 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी - विद्रोही । यह हमने उनके वर्ष 1941 में प्रकाशित कहानी संग्रह 'कारवां' से ली है। इस कहानी संग्रह को पृथ्वीराज मिश्र ने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित किया था। इस संग्रह की भूमिका पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखी थी ।


 चित्रकार के सामने कैनवस पर आधा चित्र बन चुका था। मेज पर तरह-तरह के रंग और ब्रश रखे हुए थे। उसकी कल्पना चित्र-रचना में डूबी हुई थी। आँखों से प्रतिमा का प्रकाश सामने चित्र-पट पर बरस रहा था । नुकीली पतली नासिका उसके कुशल कलाकार होने का परिचय दे रही थी। इस समय वह स्वप्न-लोक के खिले हुए पुष्प के समान अवर्णनीय सौन्दर्य ग्रहण किये हुए था । आज तड़के ही से उसकी आँखें खुल गयी थीं। उनकी निद्रा रूप रचना की लालसा ने चुराली थी। उसने विद्युत प्रकाश किया और - स्टूडियो में खड़े-खड़े उसके कर एक सुन्दर चित्रपट पर तूलिका से अपार सौन्दर्य को क्रमशः रेखा-बद्ध करने लगे। आँखों में एक छवि झूल रही थी  और सामने तूलिका व्याकुलता से कैनवस पर चल रही थी। उसे कई घन्टे इसी तरह व्यतीत हो गये, प्रभात की रश्मियां अब आरम्भ हो चुकी थीं।

वह कार्य कर ही रहा था कि उसके सेवक ने धीरे-धीरे स्टूडियो में प्रवेश करके उससे कहा - "स्वामी, डाकिया ये लिफाफे और कार्ड लाया है।" "सामने मेज पर रख कर चले जाओ" - उत्तर देकर चित्रकार फिर एक नया ब्रश उठाकर रंग भरने में तल्लीन हो गया। नौकर दबे पैर आज्ञा पालन कर कक्ष से धीरे-धीरे बाहर चला गया । वह कुछ बड़ बड़ाता हुआ बाहर जा रहा था। जैसे अपने स्वामी के पागल पन पर खीझ रहा हो ।
      मध्यान्ह तक चित्र भी समाप्त हो गया। उल्लास की एक रेखा उसके विकसित मुख पर दौड़ रही थी। वह अपने चित्र को देखता जाता था और अस्फुट बुदबुद स्वर में उसकी प्रशंसा भी करता जाता था । चित्र एक पुष्प से उत्पन्न रमणी का था, उसमें अनन्त वसन्त का यौवन और विकास अवतरित हुआ था। कुछ कालतक वह मुग्ध निर्निमेष दृष्टि से चित्र के रूप को निरखता रहा और मन ही मन प्रसन्न होता रहा। यह चित्र भविष्य में संसार के आलोचकों का अमर अजेय मोह बन जायगा, उस का ऐसा दृढ़ विश्वास था। इस चित्र के प्रकाशन के बाद उसकी अनवरत साधना कुसुमित हो जायगी। हर्षातिरेक से अपनी मानवीय सीमा को भूलते हुए चित्रकार ने रंगों की उस प्रतिमा को सम्बोधित करते हुए कहा रूपसि ! जिस प्रकार उषा को जन्म देकर उसका पिता सूर्य अपनी पुत्री पर रीझ उठता है और उसके यौवन को निरखने के लिए तत्काल मेघों के परदों से झाँकने लगता है और फिर कन्या अपने पिता को चिरकाल को दूसरे रूप में वरण कर लेती हैं वैसे ही आज से तुम भी मेरे हृदय को अपने सौन्दर्य से जगमगाती रहो। अच्छा, अब मुझे अपने दैनिक कार्यों से निबटने की आज्ञा दो, तुम्हारी ग्रीवा में माला फिर पहनाऊँगा ।" चित्रकार ने यह कह कर भावावेश में अपनी सुन्दर कृति के कपोल उसे रति समझते हुए चूम लिये | चित्र का नाम पुष्पा था ।
चित्रकार ने लिफाफे खोलना प्रारम्भ किये । लिफाफे पत्रिकाओं के सम्पादकों के भेजे हुए थे। पहला लिफ़ाफ़ा 'उषा' के सम्पादक का था | सम्पादक ने उसका चित्र 'सौंदर्य अवतरण' वापस भेजते हुए लिखा था- चित्र अत्यंत चित्ताकर्षक, मनोहर और कल्पनापूर्ण है । कलाकार को अमर करने के लिए ऐसी एक कृति ही पर्याप्त है । संसार में सौंदर्य ने किस प्रकार जन्म लिया, इसकी कल्पना में मौलिकता और स्वाभाविकता दोनों ही का सुन्दर सामंजस्य है लेकिन हमें खेद है कि हम इसे प्रकाशित नहीं कर सकते । शिष्टाचार, नीति और सदाचार के नाते ऐसे चित्रों को प्रोत्साहन न देने में ही समाज का कल्याण है ! " पत्र पढ़ते ही चित्रकार कलेजा मसोस कर रह गया। झूठी नीति का ख्याल उसे घायल कर रहा था ।
    दूसरा लिफाफा 'इन्दु' के सम्पादक का था। उन्होंने चित्र वापस करते हुए अपनी टिप्पणी भी लिख दी थी कि हम ऐसे अश्लील, धृष्ट और हेय चित्र को छाप कर अपनी ग्राहक संख्या नहीं घटाना चाहते | हम व्यवसाय की दृष्टि से इसका प्रकाशन करने में असमर्थ हैं, यद्यपि ऐसा सुन्दर चित्र 'सुरा और साकी' हमारी दृष्टि से अभी तक नहीं गुजरा है। हम न छाप सकने पर भी आपको इस कलाकृति के लिए बधाई दिये बिना नहीं रह सकते। इसी प्रकार किसी सम्पादक ने यह लिखा था कि चित्र देखने में अत्यन्त सुन्दर है लेकिन ऐसे चित्र को छाप कर वे पब्लिक को किस प्रकार मुँह दिखा सकते हैं। किसी ने यह लिखा था कि चित्र बड़ा ही कलापूर्ण मालूम होता है यद्यपि उसकी कला वह समझ नहीं सका। अत: चित्र वापस किया जा रहा है। जैसे गूंगा मिठास का आनन्द तो लेता है लेकिन 'मिठाई क्या है' बता नहीं सकता । कोई सम्पादक जो बहुत शिष्ट था उसने केवल इतना ही लिखकर चित्र वापस कर दिया था कि 'हम स्थानाभाव के कारण छापने में असमर्थ हैं।' वह इन संक्षिप्त शब्दों का अर्थ खूब समझता था । ये गागर में सागर वाली कहावत चरितार्थ करते हैं।
     चित्रकार ने लिफाफे जमीन पर पटक दिये। कितने ही काल से निराशा उसका भोजन और नीर बन चुकी थी। वह ऐसे ढोंगी संसार से नाता तोड़ रहा था। वह बाहर इष्ट मित्रों से बहुत कम मिलने जाया करता था | अब वह साहित्यिक संसार से भी सम्बन्ध अलग करने की सोच रहा था। कभी-कभी उसके हृदय में ऐसी विचार-तरंगें उठती थीं कि वह अपने रंग बहा दे, ब्रश और तूलिकाएँ तोड़ डाले और पटपत्रों में आग लगा दे, लेकिन ललित कला का प्रेमी उनके बिना जी भी कैसे सकता है ? वह फिर उन धक्कों को भूल जाने की कोशिश करता और अपने इष्ट की आराधना में मग्न हो जाता था ।
     चित्रकार उदास, आभाहीन, विवर्ण आनन लिये हुए उठा और कमरे में गुनगुनाता हुआ धीरे-धीरे टहलने लगा । उसका आत्म विश्वास ठगा गया था, साधना विक्षिप्त हो रही थी और विवेचना गूंगी संसार की रुचि को अपनाने की चेष्टा उससे न होती थी और न वह अपने चित्रों को बाजारू बनाना चाहता था। वह अपनी कला की परख वाली हीरे की दृष्टि काँच के परखने वालों की आँखों से कैसे बदल ले ? स्वान्तः सुखाय के अतिरिक्त यश और ख्याति की आशा उसे न छल सकेगी | अब वह प्रकाशकों के पास अपनी कृतियाँ प्रकाशनार्थ न भेजेगा जिनमें साहस, क्रान्ति, नवीनता तथा मौलिकता के लिए सहानुभूति नहीं है । उसे इन विचारों में बहुत देर हो गई। नौकर को झाँकते हुए देख कर वह दैनिक कार्यों को समाप्त करने के लिए कक्ष से बाहर चला गया |
निपट निराशा में इतना दुःख नहीं होता जितना उसे उकसाने वाली आशा के यदाकदा विफल दौरे होते रहने पर । एक लौ से जलने वाले दीप का प्रकाश आँखों को बहुत तेज होने पर भी सुहा जाता है, उसी तरह घोर अटूट अन्धकार भी, लेकिन बिजली की क्षणिक दमक सन्तोषी जीवन को तृष्णा का गरल पिला देती है । चित्रकार का जीवन शतरंज की पटी की तरह, दिन में वृक्ष की छाया की तरह, आशा और निराशा से दुरंगा था। वह कभी अधीर उबल उठता तो कभी शीतल हिम की तरह जम जाता था । कला के पुजारियों की यही दशा हुआ करती है । आलोचकों के थप्पड़ों की उनके गालों को आदत होनी चाहिए और एक गाल के बाद दूसरा गाल बढ़ा देने की क्षमता भी  लेकिन चित्रकार अभी युवक ही था वह सांसारिक पाठ धीरे धीरे सीख रहा था ।

एक दिन उसका एक साहित्यिक मित्र उससे मिलने आया । दोनों कई वर्ष तक प्रयाग विश्वविद्यालय में सहपाठी रह चुके थे और बहुत दिनों से बिछुड़े हुए थे। दोनों छाती भर कर मिले, जैसे कृष्ण और सुदामा | वह विवेकी आलोचक भी था | उसने चित्रकार से कहा – “आदर आतिथ्य तो फिर करना पहले यह तो बताओ कि वह पुरानी बीमारी चली जा रही है या अच्छे हो गये हो ?" "उस रोग का इलाज ही कहाँ है? हाँ, तुम आलोचक हो, ऐसी दवा दे सकते हो कि रोग न रहे, न रोगी ही।" चित्रकार ने मार्मिक ढंग से मजाक करते हुए उत्तर दिया ।
(हँसते हुए) “समझ गया, लेकिन तुम्हारे चित्र किसी पत्रिका में देखने को नहीं मिले । "
“रोगी ने तुम्हारी कड़वी गोली की कभी आवश्यकता नहीं समझी | " " उन गोलियों के बिना सुधार नहीं हो सकता।”
“ और सुधार के बिना प्रकाशन नहीं हो सकता।”
"मतलब ? "
“मुझ में परिष्कृत रुचि नहीं मेरे चित्र अश्लील और अनैतिक होते हैं, इसलिए सम्पादक छाप नहीं सकते। उन्हें यह भय है कि मेरी अश्लीलता की मुहर उनके मोम के सांचे पर न लग जाय ।”
“ मैं भी तो उन चित्रों को देखूं । "
"कहीं तुम्हारे मानस में काई लग गई तो ?”
" फिर तुम्हारी संख्या बढ़ जायगी | "
" ठीक है । बहुमत के दोष उसकी शक्ति बन जाते हैं। अच्छा तो भीतर आओ । ”
दोनों उठ खड़े हुए और स्टूडियो में पहुँचे । चारों ओर तरह तरह के चित्र बने हुए रखे थे। कई कैनवस कोरे टँगे हुए थे और कई पर केवल रेखा चित्र ही बने थे। उनमें अभी रंग भरना शेष था, तरह-तरह के रंग और ब्रश, तूलिकाएँ, कैंची, चाकू तथा चित्रकारी के अन्य यन्त्र वहाँ संग्रहीत थे । इधर-उधर छोटे-बड़े दर्पण जड़े हुए थे और उनके निकट मिट्टी के बने हुए चित्र क़रीने से सजे हुए थे । काग़ज़ पर बने चित्र भी स्थान स्थान पर सुन्दर बेल वूटों से खचित चौखटों में जड़े हुए दीवालों से टँगे थे । चित्रकारी का सारा सामान जुटाया हुआ था । मूँज की चटाइयों पर मखमल और सूत की रंग-बिरंगी कालीनों का फ़र्श था। एक दो मेज पर लिखने-पढ़ने का सामान भी था तथा एक कोने में चित्रकला सम्बन्धी पुस्तकों से भरी हुई एक अलमारी रखी हुई थी । चित्रकार चित्रों को दिखलाता हुआ अपने चित्रकला सम्बन्धी विचार प्रकट करता जाता था जैसे आजकल प्राचीन इमारतों के दिखलाने गाइड' काम करते हैं और उसका मित्र विस्फारित प्रशंसक दृष्टि से चित्रों को देखता जाता था। उसका जी चित्रों को देखकर भरता ही न था, वह जिस चित्र को भी देखता उसी पर उसकी नज़र चिपक जाती। ऐसे सुन्दर चित्र उसने कभी नहीं देखे थे । चित्र देखते हुए दोनों अब सबसे नवीन चित्र के निकट आ पहुँचे । यह सबसे अंतिम चित्र 'पुष्पा का था। अभी तक चित्रकार ने उसे माला नहीं पहनायी थी। उसका हृदय इतना भारी हो चुका था कि वह तूलिका न उठा सकता था और तब से उसे उसने अपूर्ण ही छोड़ रखा था । चित्रकार उस चित्र की ओर संकेत करता हुआ दुखित स्वर में अपने मित्र से बोला: – " मित्र, यह मेरा अन्तिम प्रयास है, अभी तक मैंने इसे पूरा भी नहीं किया है ।
" क्यों ? तुम्हारे चित्र इतने कलापूर्ण हैं कि सर्वोत्तम कलाकार ने ही ऐसे सुन्दर चित्र बनाये होंगे ।
" लेकिन संसार इन्हें केवल एकान्त के लिये सुन्दर समझता है । विश्व के आलोक में इन्हें देखने की हिम्मत नहीं रखता । " वे ढोंगी हैं । सुन्दर सर्वत्र सुन्दर है, प्राइवेट में भी और पब्लिक में भी । इसे पूरा कर डालो । "
" तुम्हें सचमुच चित्र पसन्द आये या केवल मैत्री के नाते से ही.....?
" विश्वास करो, तुम्हारे स्टूडियो में हीरों की खान है जिनका मूल्य अङ्कों की गिनती में नहीं आ सकता । "
" देखो, मैं अभी चित्र पूरा किये देता हूँ — " कहकर कलाकार ने तूलिका उठाली । जितनी जितनी माला बनती गई उसका मित्र प्रशंसापूर्ण विस्मित नेत्रों से कभी उसके मुख को कभी तूलिका को और कभी चित्र को देखता रहा। इतना अभ्यस्त कर उसने कभी
किसी चित्रकार का नहीं देखा था। कुछ ही काल में माला हो गई। चित्रकार गद्-गद् बोल उठा — “ रूपसि ! तुम्हारी वर्णमाला पूर्ण हो गई । "
“ मित्र, तुमने कमाल हासिल कर लिया है - " आदर के स्वर में चित्रकार से उसने कहा
" चित्र कैसा है ? " चित्रकार ने पूछा ।
“ सबसे श्रेष्ठ और कलापूर्ण । तुम अपने चित्र “ पिक्चर्स आर्ट गैलरी" में अवश्य भेजना सर्व प्रथम पारितोषिक पाओगे।"
“कलाकार धन का भूखा नहीं होता। केवल सम्मान चाहता है | क्या चित्र इतने सुन्दर हैं ?"
" निस्सन्देह, और चित्र को तो जी चाहता है कि अपने साथ ले जाऊँ।"
"सच ? "
" हां "
"तो लो, मेरी ओर से इसे उपहार समझो। ( उसका हाथ पकड़ते हुए) संकोच मत करो, ले लो, इसे अपनी ही वस्तु समझो | "
(प्रसन्नता से हाथ बढ़ाते हुए) "लाओ, (लेकिन उसी क्षण हाथ खींचते हुए) आज नहीं फिर कभी ले जाऊँगा ।”
" न लेने का बहाना अच्छा है, (हँसते हुए) क्यों ?"
"क्षमा करो। स्पष्ट कह रहा हूँ, मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। उनकी फूल सी कोमल कल्पना पर चित्र का बुरा प्रभाव पड़ेगा ।"
(व्यंगपूर्वक) "उनके मानस में काई लग जाने का भय है। बड़े सीधे हो ढोंग करना नहीं जानते | "
( घबराते हुए ) "अब मैं जाने की आज्ञा चाहता हूँ ।”
" धन्यवाद !"
चित्रकार का मित्र डगमगाते पैरों से शीघ्रातिशीघ्र कक्ष से बाहर हो गया । खुले मैदान में पहुँच कर उसने आराम की साँस ली । अब तक उसका दम घुट-सा रहा था । परीक्षा के वे क्षण याद कर वह काँप गया, कन्धे उठाकर चित्रकार मार्मिक चोट खाया हुआ सा कोच पर लेट गया और उसने हाथों से आँखें ढक कर आशा का कपड़ा उधेड़ना शुरू कर दिया, संसार की ढोल की नीति से वह कितनी बार धोखा खा चुका था ।
   उसने एक मास बँधे हुए पानी के सरोवर की भांति निस्पन्द, निर्जीव आलस्य में बिता दिया, तूलिका हाथ में बिना पकड़े हुए | वह कभी तरंग उठने पर स्टूडियों में चोरों की तरह घुसता और घबरा कर उसी क्षण बाहर निकल आता था। कमरे में गर्द चढ़ने लगी थी, जैसी त्यागे हुए स्थान की दशा हो जाती है ।
संसार का क्रम ही परिवर्तनशील है वह एक बार फिर रंगों की दुनियों बनाने में अपने को बाँधने लगा और साथ ही साथ उसके हृदय में यश अर्जन लिप्सा सजग होने लगी। कलाकार की सबसे महान् दुर्बलता यही होती है ।
'पिक्चर्स आर्ट गैलरी' के उद्घाटन का समय ज्यों ज्यों निकट आने लगा उसके हृदय की उत्तेजना बढ़ने लगी। चित्रकारों के समुदाय में एक बार बैठने की अभिलाषा उसके उर को उकसा रही थी। शराबी की तरह निषेध का प्रण उसे कब तक रोक सकता था ? आखिर उसने अपने सर्वोत्तम चित्र छाँट ही डाले और पिक्चर्स गैलरी में भेज दिये। उसने सोचा कि असफलता होने पर उसका प्रतियोगिता के अखाड़े में अन्तिम बार ही उतरना होगा ।
उन दिनों उसके हृदय में कितनी धुकधुक रहती थी। वह दिन बड़ी बेचैनी से बीतते थे । समाचार पत्रों में निर्णय छपा । उसका नम्बर केवल इसलिए नीचे धकेल दिया गया था कि उसके चित्र समष्टि के लिए कल्याणकारी नहीं थे। बाग़ी को वहाँ भी सहारा न मिला । कला की वस्तु पर साधारण के लाभ की छाप होनी चाहिए। इस बार भी वह अपने मन से अपने कला के आदर्शों से इन निर्णायकों के दृष्टिकोण का समझौता न कर सका लेकिन इस बार उसके विद्रोह की आग पर क्षणिक राख भी न पड़ सकी, वह और भी तीव्र भड़क उठा। इस बार उसके भीतर का नर जाग उठा था जैसे सोये हुए सिंह को छेड़ने पर । उसने संसार को चुनौती देने की ठान ली ।
इस घटना के कई दिन बाद वह एक सन्ध्या में अपने स्टूडियो में बैठा हुआ चित्र बना रहा था, नौकर ने सूचना दी कि एक नवयुवती महिला आप से मिलना चाहती है। वह उन्हें अन्दर लाने की आज्ञा देकर उत्सुक दृष्टि से नवागन्तुका की प्रतीक्षा करता हुआ द्वार की ओर देखने लगा। द्वार खुला और सौन्दर्य की एक प्रतिमा ने अन्दर प्रवेश किया। दोनों में बात चीत प्रारम्भ हो गयी। उसके लावण्य के साथ विद्रोह की ज्वाला उसके स्वर तथा हाव-भाव भंगिमाओं में भभक उठती थी। उसने बतलाया कि वह उससे चित्रकला सीखना चाहती है। उसने पिक्चर्स गैलरी में उसके चित्र देखे थे और उसे वे सबसे अधिक पसन्द आये थे । चित्रकार एकाएक उसकी बातों पर विश्वास न कर सका । उसने उत्तर दिया "लेकिन वे चित्रनीति के नियमों का उल्लंघन करते हैं। समाज शरीर को संघातक रोग की तरह उनसे विपक्ति की आशंका है। फिर आप उन्हें कैसे पसन्द करती हैं ?"
"वे संक्रामक अवश्य हैं। मुझे भी उनसे छूत लग गयी | "
" इसी कारण आप किसी तीर्थ को जाएं और देवालय में रहें , यहाँ शो शायद ही...|''
“ लेकिन मेरा तीर्थ तो यही है, देवालय भी यही बनेगा।" ( हँसते हुए ) आप अपनी आत्मा को बचाने का प्रयत्न करें।"
" मै अब किसी और धर्म में अपनी शुद्धि नहीं चाहती। आप मुझे दीक्षा दें और शिक्षा भी । "
चित्रकार कुछ और न कह सका। उसने उसे चित्रकला की शिक्षा देना स्वीकार कर लिया आज उसने चित्र ही दिखलाये। उसे अब कुछ कम एक वर्ष सीखते हुए बीत गया । उसने अपने लेखों द्वारा साहित्य क्षेत्र में चित्रकार के अनुकूल वातावरण बना दिया | उसके लेख गहन, गवेषणा पूर्ण होते थे और पत्रिकाओं में छपते थे। कुछ सम्पादक यदा कदा चित्रकार के चित्र भी छाप देते थे | प्रोपेगेन्डा का यही महत्व है । चित्रकार के हृदय में उसकी शिष्या ने घर कर लिया था । एक दिन दोनों स्टूडियो में बैठे हुए थे । बाहर रिमझिम रिमझिम बूंदें गिर रही थीं । अँधेरे में कभी बिजली जैसे हँसी उनके गम्भीर मुख पर दौड़ पड़ती थी। उसने चित्रकार से कहा -
"आज मुझे पूरा एक वर्ष हो गया । आज ही के दिन मैं यहाँ आई थी।"
"बड़ा ही शुभ था वह दिन । मुझे तो एक वर्ष एक दिन की तरह मालूम हुआ | ये दिन कितने सुख से कटे ! "
"अब मैं विदा चाहती हूँ ।"
( चौंकते हुए ) " क्यों ?”
“मेरा उद्देश्य समाप्त हो चुका है । "
“लेकिन मैं किस तरह से रह सकूंगा ?"
“पहले की तरह, तब भी तो अकेले थे, निपट अकेले साहित्य तथा संसार में । "
पर तब भी मुझे अपनी दुर्बलता प्यारी मालूम होती है। तुम्हारा वियोग असह्य होगा |”
“ऐसी मुझमें कौनसी वस्तु है जिसको बिना देखे तुम रह नहीं सकते।"
" तुम ! "
“ मैं भी तुम्हें विदाई के उपलक्ष्य में कुछ देना चाहती हूँ और वह भी तुम्हारा मन चाहा | "
" सच ?" चित्रकार उछल पड़ा ।
( उसका कर चूमते हुए ) “तुम्हें मैंने धोका ही कब दिया ? मैं तुम्हें अनन्त काल के लिये, अनन्त आनन्द के लिये अपने को ही दे रही हूँ । उठो, यह लो "
इतना कह कर प्रकाश के नीचे चित्रकार की मेज़ के पास कैनवेस खचित लकड़ी के सहारे वह खड़ी हो गई। उसके वस्त्र खिसक गये थे, किसी यन्त्र की तरह उसने चित्रकार से सस्मित अधरों से कहा
“आओ, चित्रकार आओ, अपनी तूलिका उठा लो और रंगों से अमर चित्रपटी पर मुझे ग्रहण कर लो ।”
चित्रकार मुस्कराता हुआ उठा। वह माडेल की भाँति कैनवेस की लकड़ी के सहारे मुस्कराती खड़ी थी और चित्रकार की चंचल उँगलियाँ तूलिका और रंगों के सहारे मनोवांछित वस्तु ग्रहण करने के लिये चित्रपटी पर उत्सुक दौड़ रही थीं ।

:::::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

बुधवार, 9 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी --- नया अनुभव । यह कहानी उनके कहानी संग्रह श्रंखलाएं से ली गई है । यह कहानी संग्रह सन 1943 में पृथ्वीराज मिश्र द्वारा अपने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित किया गया था ।


रामजीमल वास्तव में चोर नहीं था लेकिन जिसके यहाँ चोरी का माल पकड़ा जावे वह अपने को निर्दोष कैसे सिद्ध कर सकता है। अन्त में रामजी• मल के हजार कहने पर भी उसे चोरी में छह महीने की सजा हो ही गई। आज तक उसका अंञ्चल साफ था लेकिन जेल में पहुँच कर उसने सभी हुनर सीख लिये । वह चुटकी बजाते बजाते जेब काट सकता था, ताला तोड़ डालना उसके बायें हाथ का खेल था | ताश के पत्तों के खेल उसे एक से एक अच्छे आते थे । कौड़ियाँ फेंकने में वह इतना दक्ष होगया था कि जो दांव माँगता वही आता था । जैसे वह कुछ पढ़ कर कौड़ियाँ फेंकता हो । शराब, चरस, कोकीन, और भांग 0यह नशे उसके जीवन के साथी बन गये थे। सारांश कि जेल ने उसे पक्का सभ्य बना दिया था ।

       जेल से छूटने पर उसे अपने चारों ओर अन्धकार दिखाई दिया। अब कोई भी उसके साथ बैठकर बातचीत करना, हँसना और खेलना पसन्द नहीं करता था। उसके पहुँचने पर सभायें उजड़ जाती थीं । उसने नौकरी बहुत तलाश की लेकिन भला कौन सजा काटे हुए व्यक्ति को अपने यहाँ स्थान दे सकता था ? वह दर-दर मारा बेकार फिरा भूख ने उसके पेट और कमर एक कर दिया । व्यवसाय करने के लिए उसके पास धन नहीं था, वह यही सोचा करता था कि वास्तव में क्या मैं चोर हूँ | क्या संसार मुझे चोरी करने के लिए बाध्य नहीं कर रहा है ? एक बार वह एक बैंक में एक जगह खाली होने की खबर सुनकर आवेदन पत्र लिये पहुँचा। वह खजान्ची या रुपये पैसे रखने या लेने देने वाले काम की नौकरी नहीं माँग रहा था। वह सिर्फ बैंक में चपरासी होना चाह रहा था। आवेदन पत्र लिए मैनेजर के कमरे से वह लौट आया। बैंक में प्रमाण पत्र पाये हुए को जगह कहाँ ? इसी तरह वह एक बीमा कम्पनी के दफ्तर में चपरासी की नौकरी के लिए दरख्वास्त लिए ला रहा था | बरसात का मौसम था सड़क पर कुछ कीचड़ थी । वह पैदल अपना मार्ग पूरा कर रहा था कि बीमा कम्पनी के मैनेजर की मोटर सनसनाती हुई रास्ते से निकल गई । छींटों से उसके कपड़े खराब हो गये । उसने आसमान की ओर देखा और एक ठण्डी आह भरते हुए सोचा कि वह दिन कब आएगा कि जब हम सब आदमी एक दूसरे के बराबर होंगे ।

        जब वह बीमा कम्पनी के मैनेजर के पास पहुँचा तब वहाँ ने उसको धक्के देकर बाहर निकाल दिया । एक गन्दे आदमी को सने हुए जूते पहन कर दफ़्तर का फ़र्श खराब करने का क्या अधिकार हो सकता है ? सर्राफ़, बजाज, बिसाती, पंसारी या ऐसे ही और सौदागर एक चोर को अपने यहाँ किस तरह स्थान दे सकते थे ।

अब उसने भीख माँगने की ठानी ।

नर्बदा तालाब पर रहने वाले महात्माओं के शिष्य भिक्षाटन के लिये वैकुण्ठी कामर लेकर नगर में रोज सुबह दौरा करते थे और शाम तक आटा दाल चावल और बहुत सा घी और पैसे लेकर मठ को लौटते थे। कृष्ण जन्माष्टमी के उत्सव पर वहाँ मठ में बड़ी धूमधाम से जल्सा होता था गाने बजाने के समारोह के साथ साथ श्रद्धालु भक्त चलते समय रुपये पैसे चढ़ाते थे । प्रयागदास एक मोटी थैली में उस दिन की आमदनी संभाल कर अन्दर रखने गए । रामजी भी भूखा गाना बजाना सुनता रहा । भूखे को ऐसे गाने बजाने से आनन्द ही क्या आ सकता है ? जब कृष्ण जन्म हो चुका और जनता चली गई तो रामजीमल ने महन्त प्रयागदास के चरण पकड़ लिए और उनसे कुछ खाना देने के लिए अनुनय विनय की । वह मिठाइयां और फल खाकर वहीं सोगया । महन्त जी और उसके शिष्यगण भी सो गये । रामजीमल ने उस बड़ी थैली को रुपयों और पैसों से ठसाठस भरा देखा था। माया ने उसकी आँखों की नींद हर ली थी । वह नींद का बहाना किये हुए लेटा रहा। अवसर पाकर वह महन्त जी की उसी कोठरी घुस गया, जहाँ वह मोटी थैली रखी हुई थी। मोटी रैली पाकर वह फूला न समाया | वह सोच रहा था कि अब एक महीने के लिए खाने का प्रबन्ध हो गया ।

      वह मठ से निकला पागल की तरह भागा सड़क पर चला जा रहा था । रास्ते में तालाब में स्नान करने को जाने वाले महन्तजी के कुछ भक्तों ने उसे चोर समझ कर पकड़ लिया, थैली इस समय भी उसके हाथ में थी। एक ने टार्च की रोशनी में थैली पहचानते हुए दूसरे से कहा । यह तो वही थैली मालूम होती है जिसमें महन्त जी रोज की आमदनी रखते हैं। दूसरे ने राम जी के हाथ से थैली छीन की । अव सब रामजीमल को पकड़ कर मठ में ले आये । महन्त जी इस समय भजन कर रहे थे। कुछ झुकमुका हो गया था। भक्तों ने रामजीमल को महन्त जी के सामने उपस्थित कर दिया और सब कहानी सुना दी । महन्त जी कुछ मुस्कराये और बोले आप सब ने इनके साथ बड़ा ही अन्याय किया | यह थैली इन्होंने चुराई नहीं थी। यह कई दिन के भूखे थे इसलिये मैंने यह थैली इन्हें दे डाली थी। उनमें से एक ने महन्त जी से पूछा कि आप भूल तो नहीं रहे हैं। महन्तजी नै दृढ़ स्वर में उत्तर दिया । नहीं थैली मैंने ही दी है। आप सब जाइये और इन्हें भी जाने दीजिये ।महंत जी के भक्त धीरे धीरे बाहर चले गये । रामजीमल हाथ में थैली थामे वहीं खड़ा हुआ महन्त जी की उदारता पर अचम्भा कर रहा था । यह उसके जीवन में एक नया अनुभव था ।

:::::::::::प्रस्तुति:::::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मंगलवार, 8 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी ---परीक्षा । यह कहानी सन 1943 में पृथ्वीराज मिश्र द्वारा अपने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित उनके कहानी संग्रह श्रंखलाएं से ली गई है ।

 


बनारस अब भी हिन्दुत्व का दुर्ग है। सुना जाता है कि दर्शक के मस्तिष्क पर काशी के दर्शन मात्र से ही पवित्र भावनाओं की छाप लग जाती है। पीतल के उच्च कलशों के बुर्ज आकाश से संदेश लेते हुए प्रतीत होते हैं। उनकी तेज चमक ऐसी मालूम होती है, जैसे विधाता उनपर आशीर्वाद कर फेर रहा हो, और मानों सूर्य की किरणें अंधेरा होने पर उन्हीं कलशों पर सो जाती हों। मन्दिर को देखकर मानव के स्मृति इतिहास के उन पन्नों की ओर एकाएक दौड़ जाती है, जिनमें काशी का सुनहरा अतीत, उसके महत्त्व की गाथाएँ अन्धविश्वासी प्रश्न से परे श्रद्धा से संचित हैं। काशी की गलियाँ पाण्डित्य के ललाट पर उभरी हुई संकीर्णता की रेखाओं-सी फैली जान पड़ती हैं । यहाँ के वातावरण में कट्टर धर्मावलम्बी को, शक्ति तथा उदार विचार वाले व्यक्ति को क्षोभ तथा ग्लानि मिलती हैं ।

    गङ्गा के किनारे दीप से बसे हुए इसी नगर की यह एक पुरानी कहानी है। अंधेरा हो चुका था। ठीक वही समय था, जबकि बालाखानों से सितार की झंकारें और कामिनीकण्ठ की मीठी-मीठी तानें सड़क पर चलने वालों के दिलों को चंचल कर देती हैं। इन घरों में रात को ही वसन्त आता है। दिन का प्रकाश कृत्रिमरूप से यहाँ पैदा किये जाने का विराट प्रयत्न देखने को मिल सकता है। तुम्हारे अनुसार नरक के अंधेरे गन्दे कोने इसी समय स्वच्छ और आलोकित दिखलाई देते हैं। मैं ऐसे ही समय की बात कह रहा हूं जबकि ऊंचे कमरों के जीने खुले हुए, मेहमानों को बुलाने के लिये संकेत करते हुए मालूम होते हैं।

     तुम उसका नाम और पता जानने चाहते हो। मैं किसी के रहस्य को खोलने के लिये तैयार नहीं। तुन्हें इसी से सन्तोष कर लेना चाहिये कि उस देवाङ्गना का नाम कनक और पेशा परमार्थ था। शायद तुम मेरा मतलब ठीक-ठीक समझ गये होंगे। इस युग में इसी तरह रहना तो चाहिये। वह अप्सरा का सौन्दर्य और कंठ में गन्धर्व कुमारी का स्वर लिये पैदा हुई थी। वह इस व्यवसाय में कैसे आई, उसकी माता भी एक अप्सरा रही होगी, कौन कह सकता है। उसके यौवन का उभार बीस वसन्त ऋतुओं का मद और उन्माद, राग से अनुराग विजय और प्रभुता लिये हुए था। उसको महफिल में काशी के पूज्य पण्डित, शमा पर परवाने से जलते हुए देखे जा सकते थे। सम्भव है कि वे अपने विराग की परीक्षा लेने ही आते हों।

       नर्तकी भी वह साधारण नहीं थी। उसके पदाक्षेप से नृत्य का अस्तित्व स्थिर किया जा सकता था। उसके चरण चरण पर जीवन उठता और गिरता। दिशाएँ तन्मयता से नृत्य के संगीत को कान उठाये सुनतीं और उसके नृत्य को देखने ही के लिये आसमान पर तारे अपने घरों से बाहर निकल आते मालूम होते थे। वह गा रही थी--

रति सुख सारे गतमभिसारे मदन मनोहर वेशं । 

न कुस नितंबिनि गमन विलम्बनुसरतं हृदयेशं ||

धीर समीरे यमुना तीरे वसति बने बनमाली || 

    श्री जयदेव के लिए इस से बढ़ कर क्या प्रशंसा हो सकती है ? उनकी दिवंगतात्मा अपनी कृति के इस प्रचार पर कितनी प्रसन्न होती होगी ! काश, श्री जयदेव आज हमारे मध्य में होते और उस अप्सरा को अपने गीत गोविन्द को इस प्रकार गाते हुए सुनते ?

   इस समय कनक की सभा में पण्डित, वेदव्रती, धनिक, जौहरी, प्रोफे सर, डाक्टर, बैरिस्टर, सट्टेबाज़, कला विशारद तथा संगीत प्रेमी भिन्न भिन्न प्रकार की रुचि के नमू ने इकटठे थे । नर्तकी नाचती और गाती जाती थी और उसके सभासद गरम दिल से अपनी जेबें ठण्डी करते जा रहे थे। वह नाज़ के साथ अपने दाता पास आती और नाचती हुई, दिये हुए उपहारों को ले जाती थी। सहसा दर्शक मण्डली की आँखें एक कषाय वस्त्रधारी सजीव मनुष्य प्रतिमा की ओर उठ गई । एक भिक्षुक उस मंडली में घुस आया था । दर्शक भला इस बात को कैसे सहन कर सकते थे, अगर उस समय तुम भी वहाँ होते, तो शायद आग-बबूला हो गये होते, और उन्हीं लोगों की तरह उसे बाहर निकालने पर उतारू हो जाते ।उसको नाच देखने की दावत देना भला कौन-सा शिष्ट व्यक्ति उचित समझ सकता था। नायिका ने आगे बढ़कर संन्यासी को भीतर आने से रोका। उसने व्यंग करते हुए कहा- क्या यहाँ कोई सदाव्रत खुला हुआ है ? यह धर्मशाला नहीं है ।सन्यासी ने उत्तर दिया – 'हाँ जानता हूँ, धर्मशाला नहीं घनशाला है। जो यहाँ का कर अदा कर सकेगा वही बैठने का अधिकारी होगा। पैसे से वेश्या तो खरीदी ही जा सकती है । 

   सभा में बैठे हुए जौहरी ने तड़क कर कहा- "बड़ा आया है खरीदने वाला| दिन भर पैसा पैसा भीख माँगा किये और रात को चल दिये नाच देखने । बोलो,कै पैसे भीख में पाये ?"

   सन्यासी ने किन्चित रोष भरे स्वर में उत्तर दिया- “मैं तुम्हारी जैसी कितनी ही सभाओं को खरीद सकता हूँ । ( नर्तकी की ओर संकेत करते हुए ) बोलो, तुम्हें इन सबसे तथा दूसरे और व्यक्तियों से क्या मिल जाता है ?

नर्तकी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया- 'यही 2000 रु० मासिक।," सन्यासी ने कहा – 'मैं तुम्हें 4000 रु० मासिक दूंगा, किन्तु एक शर्त के साथ | तुम्हें इन सब उपस्थित व्यक्तियों को यहाँ से निकाल देना होगा, और तुम बिना मेरी आज्ञा के किसी पुरुष से नहीं मिल सकोगी और कहीं भी आ जा न सकोगी ।. जब तक मैं तुम्हें निश्चित वेतन देता रहूँगा तब तक तुम्हें इस शर्त को मानना पड़ेगा। हारने पर जितना रुपया मेरा तुम्हारे पास पहुंचेगा, वह सब तुम्हें वापस करना होगा । नर्तकी ने हँसी खुशी के साथ संन्यासी की शर्त मंजूर कर ली । सन्यासी ने एक हीरे की माला अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए नर्तकी को उसी समय भेंट कर दी। नर्तकी के मेहमान एक-एक कर जीने की सीढ़ियां नीचे  जाते हुए आखिरी बार गिन रहे थे ।

  नर्तकी को विश्वास था कि वह इस शर्त में अवश्य जीत जायगी और सन्यासी कुछ महीनों तक या अधिक से अधिक कुछ वर्षों तक इतनी बड़ी रकम को देकर अपनी मूर्खता का अनुभव करने लगेगा और फिर एक बार वह धनी होकर अपनी आज़ादी का भी आनन्द ले सकेगी। संन्यासी समझता था कि नर्तकी फिर भी एक वेश्या है। धन उसकी प्यास को नहीं बुझा सकता । वह सोने के पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह निर्बन्ध होकर मुक्त वातावरण में जाने के लिए बेचैन रहेगी । वह अपना वचन नहीं निभा सकेगी और अन्त में जो कुछ उसका धन नर्तकी के पास पहुँचेगा वह सब मुझे वापिस मिल जावेगा।

    सन्यासी ने एक कोठी में नर्तकी के रहने का प्रबन्ध कर दिया। केवल उसकी नायिका उसके साथ थी । उस कोठी के साथ एक बगीचा भी था । नर्तकी को बगीचे से बाहर कदम रखने की आज्ञा न थो । कोठी की चहार दीवारी इतनी ऊँची थी कि बाहर का चलता-फिरता कोई भो पुरुष नर्तकी को दिखलाई नहीं दे सकता था। सेविकाएँ नर्तकी की सुविधा का ध्यान रखती थीं। भोजन तथा हर प्रकार का प्रबन्ध केवल दासियों के हाथ में था।

     नर्तकी रानी की तरह सब आराम पाती थी। कोई राजा उससे बात करने के लिए उसके महल में नहीं आ सकता था । संन्यासी स्वयं भी कभी कोठी के अन्दर नहीं जाता था। यद्यपि नर्तकी ने कई बार सन्यासी को दासियों द्वारा बुलवाया, लेकिन संन्यासी ने इन्कार कर दिया ।

  इसी तरह उदासी के साथ नर्तकी के दिन व्यतीत होने लगे | दो महीने नर्तकी ने सन्यासी की प्रतीक्षा में काटे । अव उसको पूर्ण विश्वास हो गया कि सन्यासी नहीं आयेगा। शेष 10 महीने नर्तकी ने बगीचे में तरह-तरह के फूलों के पौधे लगाने में और कोठी को सजाने में व्यतीत किये । दूसरे वर्ष नर्तकी बराबर नाचने और गाने का अभ्यास करती थी। ऐसा जान पड़ता था कि वह सङ्गीत और नृत्य से कलात्मक प्रेम करने लगी है और उसके चरण उत्कर्ष तक पहुँचने के लिए अनवरत प्रयत्न कर रहे हैं। तीसरे वर्ष में नर्तकी ने कृष्ण की एक मूर्ति स्थापित की । अब वह स्वयं राधा बन कर, कभी गोपी बनकर, कभी कुब्जा बनकर, कभी अपने को मीरा समझकर उस मूर्ति के सामने विरह प्रेम के गीत गाती हुई नाचती रहती थी। उसके गीतों में वेदना भरी हुई थी । कृष्ण को वह काल्पनिक प्रियतम समझ कर अपनी पाशविक कामना, तृष्णा और मोह की तृप्ति कर लेती थी। उसके पिछले जीवन के संस्कार इस तरह रहने पर भी उसको व्यग्र कर डालते थे, किंतु जिस प्रकार से मनुष्य की अतृप्त कामनाएं रात्रि 

में स्वप्नों मेंजगकर अपनी तृप्ति कर लेती हैं उसी तरह से पार्थिव वासना की भूख मानसिक भोजन पाकर तृप्त हो जाती थी। कई वर्षों के निरन्तर कार्यक्रम के बाद एक रात उसे बोध हुआ, अब वह रागिनी नहीं वैरागिनी हो गई। उसका प्रेम शरीर से उठकर आत्मा तक पहुँच गया था ! अब वह लोकोत्तर आनन्द में झूमती और वशीभूत रहती थी ।

   अब वह अपने यौवन के दस वर्ष समाप्त कर चुकी थी। जहाँ एक बार उदात्त तरंगों की दौड़ मची रहती थी वहाँ अब ठंडी रेणुका रह गई थी। अब उसके बाल श्वेत हो गये थे। उसकी आकृति तथा प्रकृति इतनी बदल गई थी कि वह किसी ज़माने में एक नर्तकी होगी. अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता था । पाँच वर्षों के निरन्तर गम्भीर तपस्या के बाद उसकी सारी इच्छाएं नष्ट हो गई। पहले उसका मन बराबर किसी न किसी पुरुष को देखने के लिए उत्कंठित रहता था। कभी-कभी वह सोचने लगती थी कि इस प्रकार के धन से क्या हृदय की तृष्णा बुझ सकी है ? क्या यौवन का अंत धन है ? वह ऐसे जीवन से उक्ता उठती थी, किन्तु अब वह बिलकुल बुझे हुए ज्वालामुखी के समान शांत और स्थिर थी । सन्यासी को एक दिन नीचे लिखा हुआ नर्तकी का पत्र मिला 'गुरुदेव,

मैं जीवन भर इसी प्रकार यहाँ रह सकती हूँ, मेरी सम्पूर्ण इच्छाएँ पूर्ण हुई सी जान पड़ती हैं, क्योंकि अब कोई इच्छा मेरे हृदय में शेष नहीं रह गई है। मेरी इच्छा किसी पुरुष तो क्या स्त्री के साथ की भी नहीं होती। मैं अकेली मृत्यु तक यहीं रह सकती हूँ | मैंने अपनी स्वतन्त्रता, अपना जीवन, केवल धन के लिए उन शर्तों के हाथ सौंप दिया था, लेकिन मैं अब इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि संसार में मुझे किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। जिस धन के लिए मैंने यह सब बन्धन स्वीकार किये थे, अब मुझे उसकी भी ज़रूरत नहीं मालूम होती, मैं तुम्हें धन्यवाद देती हूँ कि तुमने मुझे सच्चा रास्ता दिखा दिया इसलिए मैं उस शर्त को जानबूझ कर तोड़ रही हूं कि जिससे जो धन आज तक तुमने मुझे दिया है, यह सब तुम्हारे पास बापस पहुंच जाय। यह मैं स्वयं बिना पत्र लिखे भी कर सकती थी, किन्तु मैं यह पत्र इसलिए लिख रही हूँ कि तुम्हारे पास एक प्रमाण-पत्र मौजूद रहे और संसार तुम्हें ऐसा करने के लिए दोषी न कह सके ।

मैं हूँ तुम्हारी उपकृता ।

   जब संन्यासी को यह पत्र मिला, तो उसके हर्ष का वारापार न रहा । रअगले दिन सुबह उसने 15 वर्ष पहले नर्तकी की सभा में बैठे हुए जौहरी महाशय को अपने पास बुलवाया और उन्हें लेकर कोठी के अन्दर नर्तकी का पता लगाने के लिए गया । नर्तकी रात में कोठी से गायब हो चुकी थी। सन्यासी ने जौहरी को नर्तकी का वह पत्र दिखलाया और नायिका से अपने कुल दिये हुए रुपये वापस ले लिये ।


:::::: :प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822


सोमवार, 7 जून 2021

शुक्रवार, 4 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी--- नेता। यह कहानी हमने ली है उनके कहानी संग्रह मंजिल से । उनकी यह कृति अग्रगामी प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 1956 में प्रकाशित हुई थी। इस कृति की भूमिका प्रख्यात साहित्यकार पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने लिखी है।

 


सेठ दामोदर दास दामले अपने आफिस में बैठे दैनिक समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उनके आफिस के तीन कमरे थे। पहला कमरा क्लर्कों के लिए था, दूसरा उनके प्राइवेट सेक्रेट्री तथा तीसरा उनके बैठने के लिए था । आगन्तुक को उनसे भेंट करने के लिए दो कमरे पार करके जाना पड़ता था। प्रातःकाल के सात बजे होंगे। गर्मी का मौसम था। सात बजे भी काफी दिन चढ़ आता है। उनकी मेज़ पर कई पत्र—अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू तथा मराठी के पड़े हुए थे। उस समय उनकी आँखें एक अंग्रेजी दैनिक के सम्पादकीय वक्तव्य पर पञ्जाब मेल की रफ़्तार से दौड़ रही थीं। इसके बाद उन्होंने शीर्षक पंक्तियाँ तथा कहीं कहीं बीच से कुछ पंक्तियाँ पढ़ डालीं। इसी प्रकार कई पत्र बाँच डाले । लेकिन वह पत्रों का व्यावसायिक स्तम्भ अवश्य पढ़ लेते थे, क्योंकि वह उनका पैतृक गुण था। इसके बाद उन्होंने पत्रों की गिन गिन कर तह बनाई। अनेक पत्र थे – दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा मिश्रित इन पत्रों की तह बना डालने के बाद उन्होंने कमरे के चारों ओर सजे हुए सामान पर दृष्टि दौड़ाई तथा सन्तोष की एक निश्वास छोड़ी । समाचार पत्रों का सारांश, मुख्यांश, भावांश तथा रसांश ग्रहण करने के बाद उनका अपने कमरे की 'सजावट पर ध्यान गया। भैरवनृत्य करने की मुद्रायुक्त आबनूसी दीपक वृक्ष कमरे के एक कोने में रखा हुआ था | उड़ते हुए पक्षियों के चित्र, झील के सूर्योदय और सूर्यास्त के चित्र तथा राकाइन्दु पर सिन्धु-उन्माद के चित्र आदि उनकी कक्ष की दीवारों से टंगे हुए थे । एक नग्न रमणी-सौन्दर्य की प्रतिमा भी ऊँचे डेस पर खड़ी हुई थी। कमरे के ठीक मध्य में महात्मा गाँधी का हँसता हुआ चित्र उन के आदर्श तथा राजनैतिक सिद्धान्तों को व्यक्त कर रहा था। नील कादम्बिनी के रङ्ग के रँगे हुए पर्दों पर आँखें मारते हुए तारों के फूल हँस रहे थे। उनके नीचे नाचते हुए मोरों की पंक्तियाँ विलक्षण छवि ग्रहण कर रही थीं। मेज पर ताजे प्रभात की सुरभि से मदहोश पुष्पदान की महक कमरे में बसी हुई थी। सेठ दामले एक बार अपने सौभाग्य पर सिहर उठे। वे प्रान्तीय शासन मशीन के डायनमो थे। हिटलर के प्रोपेगेण्डा मन्त्री की अपेक्षा उनकी वाणी में प्रभाव और शक्ति कम नहीं थी । मिनिस्ट्री के कार्यों का प्रकाशन तथा प्रशंसा उनका प्रमुख कर्त्तव्य था । इस समय क्लर्कों के कमरे में अकेला टाइपिस्ट और दूसरे कमरे में उनका प्राइवेट सेक्रेट्री बैठे हुए थे। उन्होंने अपनी कलाई की घड़ी में समय देखते हुए प्राइवेट सेक्रेट्री से प्रश्न किया—

    “मिस्टर नीलकण्ठ, आप आज के व्याख्यानों के लिए तैयार ही होंगे। "

"केवल एक व्याख्यान रह गया है— संगीत परिषद् के

लिये ?"

" इस विषय से मैं बिलकुल अनभिज्ञ हूँ। क्या समय दिया गया है ?"

"कल ८ बजे सायंकाल | "

"आज कहां कहां जाना होगा और किस समय पर? डायरी देखिये तो ।"

 डायरी  देखकर नीलकंठ ने कहा- सबसे  पहले किसान सभा में 9 बजे महावीर दल में 10 बजे रेलवे वर्क असोसियेशन में साढ़े दस  बजे, मजदूर सभा में 11 बजे,  दलितोद्धार समिति में साढ़े 11 बजे स्काउट्स असोसियेशन में 12 बजे जाना होगा। इसके बाद आराम और फिर श्रीयुत विजयकर राव के यहाँ भोज में जाना होगा।

 "अच्छा फिर ।"

"एक लम्बी व्याख्यानमाला-म्यूनीसिपल और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में एड्रेस 4 बजे तक स्वदेशी संघ में 4-15 बजे, एन्टीकरप्शन सोसायटी में 4-30 बजे, नागरीप्रचार मण्डल में 6 बजे, धर्म-समाज में 6-30 बजे और फिर 7 बजे सायंकाल से 9-30 बजे तक आजाद-पार्क में भाषण।"

"ओह!"

" कल फिर आज का-सा चक्र वही, प्रचार, व्याख्यान और भाषणों का पिष्टपेषण, सम्वाद- दाताओं से मगजपच्ची , इन्टरव्यू, मुलाकात और कागजी किश्तियों की यात्रा ।”

"यह तो सदैव लगा रहेगा, जब जीवन का लक्ष्य ही देश सेवा बनाया गया है। "

"परन्तु सेठ जी बच्चे तरसते हैं हमसे बात करने को और हम उनसे । आपने तो अपने हृदय से कोमलता, ममता और स्नेह सरसता निकाल कर फेंक दी है।"☺️ ""तुम्हारी भी सब चकचकाहट जाती रहगी। धैर्य के साथ देश की सेवा करते रहो। प्रारम्भ में मेरा भी मन घबराता था और कभी कभी सार्वजनिक जीवन निष्प्राण, निराकर्षक तथा परीक्षाप्रद मालूम होता था। पर अब त्याग की पवित्रता ने दुर्बलताओं को दूर कर दिया है। "

"यह कहने में तो सुन्दर है। लेकिन वास्तव में धोखा है। इस तरह हम अन्याय करने के लिये अपनी नींव बना लेते हैं । अपनी पत्नी और संतति के प्रति भी हमारा कुछ कर्तव्य है।"


"हमें मानव में विभिन्नता और अन्तर पैदा करने का अधि कार कहाँ है ? अपने सम्बन्धियों को औरों से अधिक प्रेम करने का हमें कोई हक नहीं ।

नीलकण्ठ ने उत्तर देने के लिए मुँह खोला ही था कि डाकिये ने आवाज दी। टाइपिस्ट उन दोनों की बातों को बड़े ग़ौर से सुन रहा था। डाकिये की आवाज सुनकर वह चौंक कर खड़ा होगया डाकिये ने आकर नीलकण्ठ के सामने मेज पर लिफ़ाफों व पत्रों का ढेर लगा दिया। उसने पत्र खोलने आरम्भ कर दिये। अपने प्राइवेट सेक्रेटरी को पत्रों में व्यस्त होते देखकर सेठ जी ऊपर नाश्ता करने चले गये।

सेठ जी के छः या सात साल की एक कन्या थी। उनके केवल एक मात्र यही सन्तान थी। वह सेठ जी को देखते ही उनकी टाँगों से लिपट गई और कोई कहानी सुनाने के लिये अनुरोध करने लगी सेठजी ने टालने की ग़रज से कहा- “अच्छा कल तुम्हें एक बढ़िया कहानी सुनाऊँगा ।"

“न, मैं तो अभी सुनूँ गी।"

"नहीं बेटा, मुझे जरूरी काम से शीघ्र ही बाहर जाना है।" “आप बाहर सबको रात-दिन कहानी सुनाते रहते हैं। फिर हमें क्यों नहीं सुनाते ?”

"कल तुम्हें भी सुनायेंगे।"

"आप तो कल भी यही कहते थे । " "लेकिन अब कल जरूर ही सुना देंगे।"

“मैं तो आज ही सुनूँगी ।”

"अच्छा रात को सुनायेंगे।"

सेठजी की पत्नी पिता-पुत्री का संलाप ध्यान से सुन रही थी। बच्ची की आँखों में आँसू छलछलाते देखकर उससे न रहा गया और उसने सेठजी से भर्त्सना के मीठे शब्दों में कहा - "हम दोनों तुम्हारे लिए भटक गये हैं लेकिन यह तो नादान बच्ची है। इसका जी रख दो। ज्यादा से ज्यादा दो चार मिनट लगेंगे । ”

" तुम्हीं न कोई कहानी सुना दो।"

“मैं तो रोज ही सुनाती रहती हूँ, लेकिन यह मानती नहीं देखो, इसकी आँखों में आँसू भर आये हैं ।”

पुत्री को पुचकारते हुए सेठजी ने कहानी आरम्भ की - " एक पीपल पर एक गिद्ध रहता था। वह अन्धा था, लेकिन था बहुत ही ईमानदार और साहसी उसी पीपल के तने में कोटर था, जिसमें एक तोते का जोड़ा और उसके बच्चे रहते थे। गिद्ध बुढ्ढा हो गया था और तोते उसे दयाकर खाने को दे दिया करते थे ।”

सेठजी का नाश्ता समाप्त हो आया था और वे खाते हुए कहानी कहते जारहे थे। इतने में उनके सामने नौकर आकर खड़ा हो गया। उन्होंने पूछा “क्या है ?"

"जबाबी तार आये हैं।"

"चलो, आ रहा हूँ।" सेठजी ने अन्तिम ग्रास मुँह में देकर पानी पिया और नीचे जाने को उठ खड़े हुए। उन्होंने लड़की को पुचकार कर कहा "बेटा, बाकी कहानी लौटकर सुनाऊँगा।" यह कह कर सेठ जी चले गये।

सेठजी को आया देखकर उनके प्राइवेट सेक्रेटरी ने कहा- "यह तार विनायक रावजी आप्टे का आया है। पूछते हैं कि वर्किंग कमिटी की मीटिंग 4 मई को है आप किस गाड़ी से आयेंगे ?"

"गर्मी के मौसम में रात का सफ़र ठीक रहता है। लिख दीजिये, हम सबेरे पूना पहुंचेंगे। और दूसरा ?"

"यह दूसरा विश्वनाथ कालेलकर का है। उन्होंने भी आपको नागपुर विश्वविद्यालय की सीनेट की मीटिंग में भाग लेने को बुलाया है। महत्वपूर्ण चुनाव होगा।"

हमारी संख्या सीनेट में वैसे ही बहुत अधिक है। मेरी क्या आवश्यकता है ? इस चुनाव में शरीक होना इतना जरूरी नहीं! लिख दीजिये, समय नहीं, क्षमा चाहते हैं। "

"यह अन्तिम तार रहा ट्रेड यूनियन के जनरल सेक्रेटरी देसाई जी का। उन्होंने आपको 15 मई के लिए मौजूदा हड़ताल के सम्बन्ध में भाषण देने के लिये आमन्त्रित किया है। "

"हाँ बम्बई की कई मिलों में स्ट्राइक है लेकिन समय होगा तभी तो जा सकूँगा जरा डायरी तो देखकर बताइये।" डायरी देखकर नीलकण्ठ ने कहा- "बिलकुल समय नहीं है।" "तो लिख दीजिये कि हम समयाभाव के कारण असमर्थ हैं।"

"इन लोगों को इतना भी खयाल नहीं कि दूसरों के भी कुटुम्ब है, पत्नी और सन्तान है। उन लोगों का भी कोई हक है। उनको भी एक मिनट छोड़ना नहीं चाहते।"

“रहने दीजिये। इन बातों की कोई जरूरत नहीं हम लोग देश के सेवक हैं। जरा डायरी तो मुझे दीजिए।"

सेठजी ने अपने प्राईवेट सेक्रेटरी से डायरी लेकर स्वयं देखना आरम्भ कर दिया। डायरी देखने के बाद उन्होंने कहा "बेशक 15 मई को समय तो नहीं है, लेकिन मध्यान्ह के बाद हमारा भोज का प्रोग्राम है। उसमें सम्मलित न होकर वहाँ पहुँच सकते हैं। आप लिख दीजिए कि मैं आऊंगा । महाशय खोटे जी से क्षमा याचना कर लोजिये, मैं भोज में सम्मिलित न हो सकूँगा।

"बहुत अच्छा" कह कर नीलकण्ठ ने उनकी आज्ञा का पालन आरम्भ कर दिया और सेठजी ऊपर कपड़े पहनने चले गये ।

इस समय 8-30 बज चुके थे। ऊपर पहुंचते ही सेठजी की कन्या ने बाकी कहानी समाप्त कर देने का आग्रह करना शुरू किया। सेठजी कपड़े पहनते जाते थे और कहानी कहते जाते थे। उन्होंने कहा

“गिद्ध इतना दुर्बल था कि वह उड़ नहीं सकता था। चिड़ियों की कृपा से उसके दिन सुख से बीत रहे थे। जब चिड़ियाँ दिन में अपने बच्चों को अकेला छोड़कर भोजन लाने के लिये उड़ जाती थीं तब वह गिद्ध उनके बच्चों की देख-भाल किया करता था। एक दिन एक बिल्ली उधर आ निकली। उसने चिड़ियों के बच्चों को फुदकते हुए देखा तब उनका कोमल माँस खाने के लिए उसकी जीभ तड़प उठी" सेठजी कहानी कह ही रहे थे कि उनका नौकर सामने आकर खड़ा हो गया । उसने कहा – “किसान सभा के 'नेता' नीचे आपकी प्रतीक्षा में बैठे हुए हैं ।"

एक बार फिर अपनी बच्ची को प्यार भरे शब्दों में किसी और समय कहानी सुनाने का दिलासा देते हुए कपड़े शीघ्रातिशीघ्र पहनकर सेठजी नीचे चले गये। उनकी बच्ची और पत्नी हृदय थाम कर रह गईं। सेठ जी को कहानी पूरा करने को अवकाश ही न था। सार्वजानिक जीवन पराया हो जाता है, अपना नहीं रहता।

सेठजी शाम को एक घण्टे की जगह आध घंटे के लिए ही अपने घर आ सके। वैसे तो वे अपने समय के बड़े पाबन्द थे, लेकिन जलसों का भारतीय समय ठहरा, पाँच पाँच मिनट की देर होते होते शाम तक आध घंटे की देर हो ही गई। उन्होंने जल्दी जल्दी खाना खाया उनकी पुत्री कहानी कहने का आग्रह करती रह गई और वे चले गये। रात्रि को 10-20 पर लौटे। मां-बेटी दोनों सो गई थीं। सेठ जी ने उन्हें जगाना उचित न समझा और वे भी सो गये।

सबेरे फिर और दिनों की तरह उन्होंने अपने प्राइवेट सेक्रेटरी से दिन का कार्य्य क्रम मालूम किया। आज उन्हें संगीत विषय पर भाषण करना था, जो उनकी योग्यता के बाहर था। इसमें उनका दखल न था और वे बहुधा राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक समस्याओं पर ही बोला करते थे लेकिन नेताओं से तो जनता सब विषयों के ज्ञान की आशा करती है और नेतागण भी अपने को सब कायों में नेता गिनने लगते हैं। उन्होंने अपने सेक्रेटरी से कहा “संगीत विषय का भाषण किस प्रकार तैयार किया जाय ?"

“मिस्टर गांगुली की जो नई पुस्तक कल-आई है उसे देख जाइये या किसी का गाना सुनकर अपनी कल्पना कर लीजिए ।""

सेठ जी ने कुछ विचार करने के बाद कहा – “संगीत-परिषद् के मन्त्री को 8-20 बजे सायंकाल का समय सूचित कर दो। मैं 8 बजे भाषण नहीं प्रारम्भ कर सकूँगा।"

"जो आज्ञा " सेक्रेटरी ने उत्तर दिया

दिन भर के भारी कार्य्य के बाद संध्या आई। भोजन करके सेठजी ने अपनी पत्नी से प्यार भरे शब्दों में कहा - "आज तुम्हारा संगीत सुनने को जी कर रहा है ।

पत्नी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया - " अहो भाग्य !”

सेठजी ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा – “समय ही नहीं मिलता कि दो चार मिनट भी तुम्हारे पास बैठकर बात-चीत कर सकूँ । सार्वजानिक जीवन वालों को अपने साथ अन्याय करना पड़ता है। "

" और अपने सम्बन्धियों के साथ भी। सच जानो तुम्हारे लिये मेरा हृदय कितना उत्कंठित रहता है ! तुम हमें कितना भूल गये हो !" यह कहने के बाद उसके नेत्र डबडबा आए ।

“नहीं, भूला नहीं, किन्तु विवश हूँ। मैं भी विवश हूँ, हृदय रखता हूँ, पर संसार की सेवा का व्रत धारण कर चुका हूँ। तुम्हें भी अपना यही आदर्श रखना चाहिए।"

" और अपने कुटुम्ब के प्रति तुम्हारा कोई कर्त्तव्य नहीं । मुझे जीवन सहचरी बनाते समय मुझसे ही प्रतिज्ञाएँ ली थीं और क्या स्वयं कोई वचन नहीं दिया था ? परमार्थ प्रेमी को किसी दूसरे को बन्धन में बाँधना ही नहीं चाहिए।"

तुम्हें तो मैंने मुक्त कर रक्खा है, लेकिन तुम ही इस चहर दीवारी से बाहर नहीं जाना चाहतीं। तुम भी इस गृह के अँधेरे से निकल कर इस संसार के प्रकाश में क्यों नहीं आ जाओ ?"

"मेरे इस गृह से बाहर आने पर यहाँ अँधेरा हो जायगा । मेरे यहाँ रहने से अँधेरा नहीं, प्रकाश रहता है लेकिन जब मैं यहाँ रहती हूँ, तुम ही क्यों न अपना कार्यक्रम मेरा सा बना लो । झगड़ा ही समाप्त हो जाय । "

" और देश सेवा ?"

“यह सब ढोंग है। जो खुद दूसरों पर अन्याय करते हैं वे दूसरों पर कैसे न्याय कर सकते हैं ?"

"आज शास्त्रार्थ का समय नहीं है। मेरे यह आनन्द के क्षण हैं। मैं इन्हें नीरस बातों में नष्ट नहीं करना चाहता हूँ । चलो कुछ गाना सुनाओ।"

सेठ जी ने यह कहा ही था और वे अन्दर के कमरे में जाने वाले ही थे कि उनकी कन्या ने कहानी पूरी कर देने का आग्रह किया। माँ-बाप की बात-चीत वह बड़े ध्यान से सुन रही थी और उसने कोई बाधा नहीं डाली थी, लेकिन अब उसका चपल शिशु-धैर्य्य देर तक कहानी टलते देखकर रुक न सका । एक बार गाना आरम्भ हो जाने पर कितना समय लगता, अत: उसने टोकना ही उचित समझा पर इस बार माँ ने घुड़क दिया । एक गाना आरम्भ हुआ हारमोनियम के साथ उसके स्वर में आज माधुरी घुस गई थी। उसके हर्ष का वारापार न था। उसने बहुत दिनों के बाद आज अपने प्रिय पति के कहने से गाया था।

हृदय के सरस स्रोत सूख चुके थे, लेकिन आज उसमें उन्माद-ज्वर आगया था। सचमुच वह अपने प्राणों के स्वर फूँक रही थी। सेठजी गाने में तन्मय हो रहे, लेकिन वे गाने के प्रभाव से उत्पन्न विचारों को स्मृति बद्ध करना नहीं भूले थे। व्याख्यान का भूत उनके सिर पर सवार था । वे गाना सुन रहे थे, लेकिन सोच कहीं और ही रहे थे। आनन्द के प्रवाह में अविराम गति से बहने का भी उनका भाग्य न था, क्रूर काल उन पर मन ही मन हँस रहा था। उन्होंने अपने विचार अंकित करने के लिए चुपके से कागज पेन्सिल उठा ली और संक्षिप्त नोट लेना शुरू कर दिये। उनकी पत्नी मीड़ की लहरी में नयन-निमीलित किये हुए डूब रही थी।

उसने नेत्र खोले तब सेठजी को काग़ज़ पर कुछ लिखते देखा। उसका एकदम यह भाव हुआ कि वे केवल उसका मन बहला रहे हैं और उन्हें गाना नहीं सुनना है, अपना कार्य करना है। गाने का उन्होंने एक बहाना उसे प्रसन्न करने के लिये निकाला है। उस समय वह गा रही थी

'हाय तुम कैसे विमोही !

आज रुक जाओ निठुर घर 

यों न जाओ प्राणमोही ।'

कि उसका कण्ठ एकाएक सिसकियों से रुद्ध होगया आँसू आँखों में उतर आये स्वरतार अनायास टूट गया। यह देखकर सेठजी स्तम्भित रह गये। उन्होंने तत्काल खड़े होकर उसका हाथ पक ड़कर पूछा - "क्यों तुम्हें क्या हुआ ?"

"कुछ नहीं कुछ नहीं।" एक हाथ से आँसू पोछते हुए वह संगीतशाला को उजाड़ती हुई उठ खड़ी हुई । उसने कहा इतना धोखा ! इतना छल !"

"नही, धोखा कैसा ?"

"और क्या ? गाने का तो बहाना था। "

"मैं तो अपने भाव इकट्ठे कर रहा था, भाषण देने के लिए। " उन्होंने कहा

“तो फिर मैं आपके व्याख्यानों का यन्त्र हूँ। मेरा गाना आनन्द के लिए नहीं है। सभाओं में भाषण देने के लिए इसका भी अस्तित्व है अन्यथा इससे क्या प्रयोजन ? तुम्हारे व्याख्यानों पर इसका भी जीवन निर्भर है। अब मैं कभी ऐसी ग़लती न करूँगी ।" उसने दृढ़ता से उत्तर दिया। “तो इसमें तुम्हारा गया क्या ?"

    "चोट पहुँचाकर अपमान करना भी जानते हो। यह काम तो किसी भी किराये की गायिका से निकाला जा सकता था। मेरी ही क्या जरूरत थी ?" उसने एकटक नेत्रों से सेठजी की ओर देखा। उनमें अपमानित स्त्रीत्व की ज्वाला निकल रही थी।

    सेठजी कुछ कहने को मुँह खोल ही रहे थे कि नौकर को देखकर वे पानी पानी हो गये। शायद उसने उनकी सब बातें सुनी होंगी। पता नहीं कितनी देर से खड़ा हुआ है। उसकी ओर उनका ध्यान न जा सका था। उनके पूछने पर उसने कहा "संगीत परिषद के कार्यकर्त्ता आये हैं। "

  सेठजी ने अपनी कलाई की घड़ी देखी। देर हो चुकी थी। उन्हें संगीत की तरंग में समय का बोध न हो सका था। वे जल्दी जल्दी कपड़े पहनने लगे। उनकी कन्या ने फिर अपनी पुरानी हठ आरम्भ की वह अधिक कह भी न पाई थी कि उस की मां ने उसे बलपूर्वक गोद में उठा लिया और उसे ले दूसरे कमरे में चली गई। वह उसे कहती जा रही थी - " चल । मैं आज तुझे कहानी सुनाऊँगी।”

     सेठजी अकेले कपड़े पहनते रह गये । कुछ मिनटों के बाद वे रंगमंच पर आवेश के शब्दों में भाषण दे रहे थे । जनता अपलक दृष्टि से उनके मुख को देखती हुई ध्यानमग्न उनके भाषण प्रवाह में बह रही थी। सभा में सन्नाटा था, केवल उनकी वाणी सुनाई देती थी और उधर माँ बेटी सिसकी भरती हुई एक-दूसरे से चिपटी निद्रा का आवाहन कर रही थीं।

:::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

गुरुवार, 3 जून 2021

बुधवार, 26 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानंद गुप्त की कहानी --- न मंदिर न मस्जिद । यह कहानी उनके कहानी संग्रह 'मंजिल' में संगृहीत है। हमने इसे लिया है दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय मुरादाबाद की वार्षिक पत्रिका भारती के श्री दयानन्द गुप्ता स्मृति विशेषांक से ...


 गोधूलि की वेला हो चुकी थी। पूरब से नीलिमा का एक परदा उठकर सूर्यास्त के स्वर्णिम मेघों को ढकने के लिये पश्चिम की ओर बढ़ रहा था । संसार के दीपक कुल के स्नेहाकुल अधर स्निग्ध होकर हास्य-आलोक विकीर्ण करने को सम्प्रति सजीव हो चुके थे। दिन कुछ ही देर का अतिथि था। उसकी प्रवास यात्रा की शहनाई वन से लौटती हुई विहग-बालिकाएँ बजा रही थीं।

मन्दिर में शंख और मस्जिद में अज़ान का स्वर सुनाई दिया। हिन्दू और मुस्लिम भक्त अपने-अपने उपास्य देव के चरणों की शरण ग्रहण करने को गृहों से निकले । इसी समय एक मुसलमान भिक्षुक एक आबनूस का सोटा, उसी का भिक्षा-पात्र तथा काला कम्बल कन्धे पर लादे धीरे-धीरे रामानुज गली से गुज़रा। वह सूफ़ी था और बहुत दूर से इस नगर में पहली बार आया था। थकान भिक्षु की शक्तियों पर आधिपत्य जमा चुकी थी और अब वह आगे एक भी क़दम उठा नहीं सकता था। उसने कितने ही बालवयोवृद्धों से प्रश्न किया कि अभी नगर की मस्जिद कितनी दूर और है, किन्तु लोगों ने उसकी बात को सुनी अनसुनी करके टाल दिया। वह कुछ कदम आगे और बढ़ा चारों ओर उसके नेत्र किसी स्वच्छ स्थान की ओर दौड़ रहे थे। राधा-कृष्ण का विशाल मन्दिर सामने खड़ा हुआ था । उसके सिंह द्वार के दोनों ओर स्फटिक शिलाओं का दुग्ध धवल शीतल-वक्ष प्रस्तार चबूतरा था । भिक्षक ने एक तरफ के चबूतरे पर अपना कम्बल बिछा कर काबे की ओर मुख करके इबादत शुरू कर दी ।

मन्दिर में अभी आरती आरम्भ ही हुई थी। पुजारी मन्त्र पढ़ता हुआ प्रदीप्त आरती-दान लिये हुये मन्दिर की देहरी पर विशाल घृत दीप धरने आया। दीप रखकर वह फिर अन्दर अपने उपास्यदेव के पास जाने ही को था कि उसकी दृष्टि घुटने और कुहनियों के सहारे नमाज़ में झुके हुए मुस्लिम साधु की ओर गई । वह अवाक् रह गया। साधु अपनी वन्दना में तल्लीन था। आरती का रव उसे सुनाई नहीं दिया । म्लेच्छ के मन्दिर पर चढ़ आने के विचार ही से पुजारी की नस-नस में आग लग गई। वह अपने मन्त्र भूल गया और उसने डांट बताते हुए साधु से कहा -

"यह मन्दिर है। क्या तुम्हें इतना भी दिखाई नहीं देता ? "

"दिखाई क्यों नहीं देता इसी वजह से तो मैं यहां खुदा की इबादत करने बैठ गया। इससे ज्यादा पाक जगह और कौन-सी हो सकती है ?" मुस्लिम साधु ने उत्तर में कहा ।

"लेकिन तुम्हारे यहां बैठ जाने से यह अपवित्र और भ्रष्ट हो गई। यह स्थान म्लेच्छों के लिये नहीं हैं। "

"जनाब खुदा के सभी बन्दे हैं। सभी का खुदा एक है । चाहे आप उसे भगवान कहें या मैं उसे अल्लाह कहूं, लेकिन वह एक है। फिर उसी के बन्दों में ऐसी नापाक तफरीक क्यों ? आप भी तो पूजा ही कर रहे हैं और मैं भी नमाज पढ़ रहा हूं, तो यह जगह मेरे ही उसी काम के करने से नापाक क्यों हो जायगी ?".

"चाहे आप कुछ भी क्यों न कहें, हम अपने मन्दिर पर किसी भी यवन को चढ़ने नहीं दे सकते । आप मस्जिद में जाकर नमाज पढ़िये । "

" ऐ पुजारी ! तुम अपने बुतों को क्या इतना कमजोर समझते हो कि मेरे चबूतरे पर चढ़ आने से घबरा गये ? यहां नजदीक कोई मस्जिद नहीं वरना मैं तुम्हें वहां ले चलता और दिखला देता कि तुम भी वहां शौक से अपनी पूजा कर सकते हो।" 

" तो यह मन्दिर और मस्जिद अलग अलग क्यों ?"

सिर्फ इन्सान की नासमझी की वजह से, जैसे हिन्दू और मुस्लिम अपने को अलग-अलग समझते हैं। अगर मन्दिर और मस्जिद का कोई मतलब है तो सिर्फ इतना ही कि हमें खुदा को याद करने के लिए साफ जगह मिल सके। हम सब वहाँ इकट्ठे होकर मुहब्बत भरे दिल से पाक परवरदिगार को याद कर सके। मन्दिर और मस्जिद मुहब्बत के मकतब है, न कि फसाद के क्लब।"

"हमारे आपके खाने-पीने रहने-सहने व आदर्श विश्वासों में इतना अधिक अन्तर है कि यह असम्भव है कि मन्दिर और मस्जिद एक हो सके।"

"तो हम दोनों ही को क्यों न छोड़ दें ? खुदा को आप भी मानते हैं और हम भी अगर इब्तिलाफ़ है तो सिर्फ उस जगह पहुंचने के रास्ते पर क्या दो मुख्तलिफ रास्तों के चलने वाले मुसाफिर को एक ही जगह पहुंचने पर भी आपस में झगड़ना चाहिये ? हरगिज नहीं रही खाने-पीने व रहने-सहने की बात यह तो महज ऊपरी बाते हैं। ये चीजें मुल्क मुल्क के साथ आबो-हवा के साथ कौम-कौम के साथ तब्दील होती रहती है। आप ही रोजमर्रा न एक-सा खाते हैं, न पहनते हैं। यह तो साबित ही है कि एक मालिक के खादिमों में बाहमी मुहब्बत रहनी ही चाहिए।"

"मुझे तुम्हारी बातों पर विश्वास हो रहा है लेकिन यह बताओ कि तुम्हारे यहाँ भी यह कमजोरी है या नहीं। मस्जिद में  क्या मुझे आरती और पूजा करने की आज्ञा होगी?"

"होनी चाहिए अगर नहीं है तो यह इंसानी फितरत और कमजोरी है ।" 

" तो आप नमाज पढ़िये , तब तक मैं भी पूजा समाप्त कर लूं।"

पुजारी भीतर चला गया। अब भक्त पर्याप्त संख्या में आने लगे थे। उनका एक झुण्ड मुस्लिम साधु को घेर कर खड़ा हो गया और उसे वहाँ से चले जाने के लिए आग्रह व धमकियाँ देने लगा। बाहर कोलाहल बढ़ता जा रहा था। एक बार फिर पुजारी की आराधना में बाधा आ खड़ी हुई। बाहर आकर उसने क्रोधित जनसमुदाय को अभी अभी सीखे हुए मनोगत तर्कों से शान्त करने की चेष्टा की, लेकिन किसी ने उसे 'पागल', किसी ने 'विधर्मी' व 'धोकेवाज़' व 'भ्रष्ट आदि सम्बोधनों से पुकारा। पुजारी की भीड़ के आगे एक न चली। भीड़ ने मुस्लिम साधु को धक्का देकर नीचे उतार दिया और उसका सामान इधर उधर फेंक दिया। पुजारी से यह सब न देखा गया । उसने भी मन्दिर की सेवा से तिलांजलि दे दी और वह उसके साथ-साथ हो लिया ।

दोनों चुपचाप चले जा रहे थे। वे लगभग बीस मिनट चले होंगे कि उन्हें एक मस्जिद दिखाई दी। दोनों वहीं रुक गये। पुजारी ने साधु की ओर देखा और साधु ने  पुजारी की ओर। साधु मस्जिद की तरफ बढ़ा और पीछे पीछे पुजारी भी। अभी तक नमाज चल ही रही थी।  शायद समाप्त होने का समय आ गया था। साधु मस्जिद की देहरी पर पहुंचकर खड़ा हो गया और उसने पुजारी से कहा----

"अन्दर आ जाओ पुजारी, और उस खुदा की, जिस तरह मिजाज चाहे, पूजा करो।"

उपस्थित व्यक्तियों में यह सुनकर एक सनसनाहट-सी दौड़ गई। उसके कान और ध्यान इधर ही थे।

पुजारी धीरे-धीरे बढ़ा और नमाजियों की कतार पार करके वह सबसे आगे करबद्ध खड़ा हो गया, ठीक इमाम के आगे, जो पूरी कतार के आगे खड़ा हुआ था। पुजारी ने उच्च स्वर में उच्चारण आरम्भ किया


" वामांके च विभाति भूधरसुता देवापगे मस्तके भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसिव्यालराट् । सोयं भूति विभूषण: सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशंकरः पातुमाम्।"

अचानक अपरिचित भाषा को सुनकर पहिले तो इमाम को आश्चर्य हुआ और पुजारी जी सुख से श्लोक पढ़े चले गये, लेकिन फिर सबसे पहिला हाथ इमाम का ही उसके ऊपर पड़ा। फिर तो सब ने उसे मारना शुरू कर दिया। लात घूंसे थप्पड़ सभी कुछ लगे। 'काफिर- काफिर' की आवाजों से मस्जिद का वातावरण गूंज उठा। मुस्लिम साधु ने भरसक उसे बचाने का प्रयत्न किया। बहुत-सी चोटें जो पुजारी के लगतीं, वे उसके लगीं ।पुजारी को नमाज़ियों ने इमाम की आज्ञा पाकर मस्जिद से इतनी अधिक उद्दंडता नृशंसता व बर्बरता के साथ निकाल दिया, जितनी कि मुस्लिम-साधु को निकालने में हिन्दू भक्तों ने भी व्यवहार में नहीं लाई थी।

दोनों एक जीवन-नौका में सवार हो चुके थे। फिर भविष्य में न कभी पुजारी को मन्दिर की ओर न फ़क़ीर को ही मस्जिद की जाने की जरूरत पड़ी । उनका ध्येय इन दोनों से बहुत ऊपर था। जहाँ न मन्दिर की ही जरूरत होती है, न मस्जिद की। उनका सन्देश दोनों ही को दूर करने का था ।

मंगलवार, 1 जनवरी 2019

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृति शेष दयानन्द गुप्त पर केंद्रित डॉ मनोज रस्तोगी का आलेख



मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त का जन्म प्रबुद्ध आर्य समाजी डा रामस्वरूप के यहाँ राजा की हाट झाँसी में 12 दिसम्बर 1912 को हुआ था। परन्तु आपके जीवन का अधिकांश भाग मुरादाबाद में ही व्यतीत हुआ। आपकी माता जी श्रीमती रामप्यारी थी ।

      हरदोई में हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् आपने जनपद के चन्दौसी नगर स्थित एसएम इंटर कालेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की । तदुपरान्त आपकी प्रतिभा का निखार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुआ जहाँ से आपने स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात् लखनऊ विश्वविद्यालय से विधि की उपाधि प्राप्त की । सन 1936 में मुरादाबाद नगर में अधिवक्ता के रूप में आपने अपने को प्रतिष्ठित किया।   वर्ष 1977 में जब वह लगभग 65 वर्ष के थे तो उन्होंने अंग्रेजी साहित्य से  स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की । जीवन के अंतिम दो वर्ष में वह  अंग्रेजी साहित्य के भूले बिसरे कवि और लेखक एडमिन म्यूर पर शोध कार्य में संलग्न थे।
     
    अध्ययनकाल से श्री गुप्त का रुझान साहित्य की ओर था । लखनऊ तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रवास काल में वे प्रख्यात साहित्यकार श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' के सम्पर्क में आये और यह सम्पर्क घनिष्ठता में परिवर्तित होता हुआ मैत्री में बदल गया।
हिन्दी साहित्य के अतिरिक्त पश्चिमीय भाषाओं के साहित्य का भी आपने अध्ययन किया । इसीलिए आपकी शैली में उसकी छाया स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
वर्ष 1941 में आपने मुरादाबाद में हिन्दी परिषद की स्थापना की । हिन्दी परिषद की स्थापना के पश्चात् आपकी प्रतिभा निखरती रही परिणामस्वरूप आपकी कहानियों का पहला संग्रह 'कारवां' वर्ष 1941 में प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में उनकी 12 कहानियां संगृहीत हैं। इसका प्रकाशन पृथ्वीराज मिश्र ने अपने अरुण प्रकाशन से किया था। इस संग्रह की भूमिका सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने लिखी थी। लगभग दो वर्ष पश्चात सन 1943 में उनके 52 गीतों का संग्रह 'नैवेद्य'  नाम से प्रकाशित हुआ। इसका प्रकाशन इलाहाबाद से हुआ था। इसी वर्ष अरुण प्रकाशन द्वारा उनका दूसरा कहानी संग्रह 'श्रंखलाएं' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में उनकी 17 कहानियां हैं।  वर्ष 1956 में 'मंजिल' कहानी संग्रह अग्रगामी प्रकाशन मुरादाबाद से प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में कोई नई कहानी नहीं है बल्कि पूर्व में प्रकाशित दोनों संग्रहों की चुनी हुई बारह कहानियां हैं। आपकी लेखनी 'नाटक' विधा में भी चली। वर्ष 1946 में आपका एक नाटक 'यात्रा का अन्त कहाँ' प्रकाशित हुआ। 'माधुरी', 'सरस्वती', 'वीणा', 'अरुण' आदि उच्च कोटि की मासिकों में आपकी रचनाएँ विशेष सम्मान के साथ छपती रहीं । दयानन्द गुप्त की रूझान पत्रकारिता की ओर भी था। वर्ष 1952 में उन्होंने अभ्युदय' साप्ताहिक का प्रकाशन व संपादन भी किया ।

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे दयानन्द गुप्त
दयानन्द गुप्त एक साहित्यकार होने के साथ-साथ स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे ।अपनी किशोरावस्था में आपने महात्मा गाँधी के आह्वान पर हाई स्कूल पास करने के उपरान्त वर्ष 1930 में आन्दोलनों में लेना शुरू कर दिया था। सन् 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल रहे।
सर्वहारा वर्ग के नेता भी रहे
सन 1945 में मजदूर आंदोलन में भाग लिया। अनेक श्रमिक संगठनों से आप जुड़े रहे। सन् 1951 में जिनेवा में हुए अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। हालांकि आपको राजनीतिक विचारधारा कांग्रेसी थी। वर्ष 1972 से 1980 तक मुरादाबाद नगर की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए आपने संगठन का नेतृत्व किया।

शिक्षा जगत में भी रहा अपूर्व योगदान
वर्ष 1952 में आपने नगर में वर्षों से बन्द चली आ रही बल्देव आर्य संस्कृत को पुनः आरम्भ किया। जिसमें संस्कृत की निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था थी। उसी वर्ष बल्देव आर्य कन्या विद्यालय की स्थापना की जो बाद में बल्देव आर्य कन्या इंटर कालेज हो गया। वर्ष 1960 में दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की स्थापना की। इसके अतिरिक्त आपने अपने पैतृक ग्राम सैदनगली में उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की भी स्थापना की।
25 मार्च 1982 की अपराह्न वह इस संसार से महाप्रयाण कर गये।

:::::::प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822