सेठ दामोदर दास दामले अपने आफिस में बैठे दैनिक समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उनके आफिस के तीन कमरे थे। पहला कमरा क्लर्कों के लिए था, दूसरा उनके प्राइवेट सेक्रेट्री तथा तीसरा उनके बैठने के लिए था । आगन्तुक को उनसे भेंट करने के लिए दो कमरे पार करके जाना पड़ता था। प्रातःकाल के सात बजे होंगे। गर्मी का मौसम था। सात बजे भी काफी दिन चढ़ आता है। उनकी मेज़ पर कई पत्र—अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू तथा मराठी के पड़े हुए थे। उस समय उनकी आँखें एक अंग्रेजी दैनिक के सम्पादकीय वक्तव्य पर पञ्जाब मेल की रफ़्तार से दौड़ रही थीं। इसके बाद उन्होंने शीर्षक पंक्तियाँ तथा कहीं कहीं बीच से कुछ पंक्तियाँ पढ़ डालीं। इसी प्रकार कई पत्र बाँच डाले । लेकिन वह पत्रों का व्यावसायिक स्तम्भ अवश्य पढ़ लेते थे, क्योंकि वह उनका पैतृक गुण था। इसके बाद उन्होंने पत्रों की गिन गिन कर तह बनाई। अनेक पत्र थे – दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा मिश्रित इन पत्रों की तह बना डालने के बाद उन्होंने कमरे के चारों ओर सजे हुए सामान पर दृष्टि दौड़ाई तथा सन्तोष की एक निश्वास छोड़ी । समाचार पत्रों का सारांश, मुख्यांश, भावांश तथा रसांश ग्रहण करने के बाद उनका अपने कमरे की 'सजावट पर ध्यान गया। भैरवनृत्य करने की मुद्रायुक्त आबनूसी दीपक वृक्ष कमरे के एक कोने में रखा हुआ था | उड़ते हुए पक्षियों के चित्र, झील के सूर्योदय और सूर्यास्त के चित्र तथा राकाइन्दु पर सिन्धु-उन्माद के चित्र आदि उनकी कक्ष की दीवारों से टंगे हुए थे । एक नग्न रमणी-सौन्दर्य की प्रतिमा भी ऊँचे डेस पर खड़ी हुई थी। कमरे के ठीक मध्य में महात्मा गाँधी का हँसता हुआ चित्र उन के आदर्श तथा राजनैतिक सिद्धान्तों को व्यक्त कर रहा था। नील कादम्बिनी के रङ्ग के रँगे हुए पर्दों पर आँखें मारते हुए तारों के फूल हँस रहे थे। उनके नीचे नाचते हुए मोरों की पंक्तियाँ विलक्षण छवि ग्रहण कर रही थीं। मेज पर ताजे प्रभात की सुरभि से मदहोश पुष्पदान की महक कमरे में बसी हुई थी। सेठ दामले एक बार अपने सौभाग्य पर सिहर उठे। वे प्रान्तीय शासन मशीन के डायनमो थे। हिटलर के प्रोपेगेण्डा मन्त्री की अपेक्षा उनकी वाणी में प्रभाव और शक्ति कम नहीं थी । मिनिस्ट्री के कार्यों का प्रकाशन तथा प्रशंसा उनका प्रमुख कर्त्तव्य था । इस समय क्लर्कों के कमरे में अकेला टाइपिस्ट और दूसरे कमरे में उनका प्राइवेट सेक्रेट्री बैठे हुए थे। उन्होंने अपनी कलाई की घड़ी में समय देखते हुए प्राइवेट सेक्रेट्री से प्रश्न किया—
“मिस्टर नीलकण्ठ, आप आज के व्याख्यानों के लिए तैयार ही होंगे। "
"केवल एक व्याख्यान रह गया है— संगीत परिषद् के
लिये ?"
" इस विषय से मैं बिलकुल अनभिज्ञ हूँ। क्या समय दिया गया है ?"
"कल ८ बजे सायंकाल | "
"आज कहां कहां जाना होगा और किस समय पर? डायरी देखिये तो ।"
डायरी देखकर नीलकंठ ने कहा- सबसे पहले किसान सभा में 9 बजे महावीर दल में 10 बजे रेलवे वर्क असोसियेशन में साढ़े दस बजे, मजदूर सभा में 11 बजे, दलितोद्धार समिति में साढ़े 11 बजे स्काउट्स असोसियेशन में 12 बजे जाना होगा। इसके बाद आराम और फिर श्रीयुत विजयकर राव के यहाँ भोज में जाना होगा।
"अच्छा फिर ।"
"एक लम्बी व्याख्यानमाला-म्यूनीसिपल और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में एड्रेस 4 बजे तक स्वदेशी संघ में 4-15 बजे, एन्टीकरप्शन सोसायटी में 4-30 बजे, नागरीप्रचार मण्डल में 6 बजे, धर्म-समाज में 6-30 बजे और फिर 7 बजे सायंकाल से 9-30 बजे तक आजाद-पार्क में भाषण।"
"ओह!"
" कल फिर आज का-सा चक्र वही, प्रचार, व्याख्यान और भाषणों का पिष्टपेषण, सम्वाद- दाताओं से मगजपच्ची , इन्टरव्यू, मुलाकात और कागजी किश्तियों की यात्रा ।”
"यह तो सदैव लगा रहेगा, जब जीवन का लक्ष्य ही देश सेवा बनाया गया है। "
"परन्तु सेठ जी बच्चे तरसते हैं हमसे बात करने को और हम उनसे । आपने तो अपने हृदय से कोमलता, ममता और स्नेह सरसता निकाल कर फेंक दी है।"☺️ ""तुम्हारी भी सब चकचकाहट जाती रहगी। धैर्य के साथ देश की सेवा करते रहो। प्रारम्भ में मेरा भी मन घबराता था और कभी कभी सार्वजनिक जीवन निष्प्राण, निराकर्षक तथा परीक्षाप्रद मालूम होता था। पर अब त्याग की पवित्रता ने दुर्बलताओं को दूर कर दिया है। "
"यह कहने में तो सुन्दर है। लेकिन वास्तव में धोखा है। इस तरह हम अन्याय करने के लिये अपनी नींव बना लेते हैं । अपनी पत्नी और संतति के प्रति भी हमारा कुछ कर्तव्य है।"
"हमें मानव में विभिन्नता और अन्तर पैदा करने का अधि कार कहाँ है ? अपने सम्बन्धियों को औरों से अधिक प्रेम करने का हमें कोई हक नहीं ।
नीलकण्ठ ने उत्तर देने के लिए मुँह खोला ही था कि डाकिये ने आवाज दी। टाइपिस्ट उन दोनों की बातों को बड़े ग़ौर से सुन रहा था। डाकिये की आवाज सुनकर वह चौंक कर खड़ा होगया डाकिये ने आकर नीलकण्ठ के सामने मेज पर लिफ़ाफों व पत्रों का ढेर लगा दिया। उसने पत्र खोलने आरम्भ कर दिये। अपने प्राइवेट सेक्रेटरी को पत्रों में व्यस्त होते देखकर सेठ जी ऊपर नाश्ता करने चले गये।
सेठ जी के छः या सात साल की एक कन्या थी। उनके केवल एक मात्र यही सन्तान थी। वह सेठ जी को देखते ही उनकी टाँगों से लिपट गई और कोई कहानी सुनाने के लिये अनुरोध करने लगी सेठजी ने टालने की ग़रज से कहा- “अच्छा कल तुम्हें एक बढ़िया कहानी सुनाऊँगा ।"
“न, मैं तो अभी सुनूँ गी।"
"नहीं बेटा, मुझे जरूरी काम से शीघ्र ही बाहर जाना है।" “आप बाहर सबको रात-दिन कहानी सुनाते रहते हैं। फिर हमें क्यों नहीं सुनाते ?”
"कल तुम्हें भी सुनायेंगे।"
"आप तो कल भी यही कहते थे । " "लेकिन अब कल जरूर ही सुना देंगे।"
“मैं तो आज ही सुनूँगी ।”
"अच्छा रात को सुनायेंगे।"
सेठजी की पत्नी पिता-पुत्री का संलाप ध्यान से सुन रही थी। बच्ची की आँखों में आँसू छलछलाते देखकर उससे न रहा गया और उसने सेठजी से भर्त्सना के मीठे शब्दों में कहा - "हम दोनों तुम्हारे लिए भटक गये हैं लेकिन यह तो नादान बच्ची है। इसका जी रख दो। ज्यादा से ज्यादा दो चार मिनट लगेंगे । ”
" तुम्हीं न कोई कहानी सुना दो।"
“मैं तो रोज ही सुनाती रहती हूँ, लेकिन यह मानती नहीं देखो, इसकी आँखों में आँसू भर आये हैं ।”
पुत्री को पुचकारते हुए सेठजी ने कहानी आरम्भ की - " एक पीपल पर एक गिद्ध रहता था। वह अन्धा था, लेकिन था बहुत ही ईमानदार और साहसी उसी पीपल के तने में कोटर था, जिसमें एक तोते का जोड़ा और उसके बच्चे रहते थे। गिद्ध बुढ्ढा हो गया था और तोते उसे दयाकर खाने को दे दिया करते थे ।”
सेठजी का नाश्ता समाप्त हो आया था और वे खाते हुए कहानी कहते जारहे थे। इतने में उनके सामने नौकर आकर खड़ा हो गया। उन्होंने पूछा “क्या है ?"
"जबाबी तार आये हैं।"
"चलो, आ रहा हूँ।" सेठजी ने अन्तिम ग्रास मुँह में देकर पानी पिया और नीचे जाने को उठ खड़े हुए। उन्होंने लड़की को पुचकार कर कहा "बेटा, बाकी कहानी लौटकर सुनाऊँगा।" यह कह कर सेठ जी चले गये।
सेठजी को आया देखकर उनके प्राइवेट सेक्रेटरी ने कहा- "यह तार विनायक रावजी आप्टे का आया है। पूछते हैं कि वर्किंग कमिटी की मीटिंग 4 मई को है आप किस गाड़ी से आयेंगे ?"
"गर्मी के मौसम में रात का सफ़र ठीक रहता है। लिख दीजिये, हम सबेरे पूना पहुंचेंगे। और दूसरा ?"
"यह दूसरा विश्वनाथ कालेलकर का है। उन्होंने भी आपको नागपुर विश्वविद्यालय की सीनेट की मीटिंग में भाग लेने को बुलाया है। महत्वपूर्ण चुनाव होगा।"
हमारी संख्या सीनेट में वैसे ही बहुत अधिक है। मेरी क्या आवश्यकता है ? इस चुनाव में शरीक होना इतना जरूरी नहीं! लिख दीजिये, समय नहीं, क्षमा चाहते हैं। "
"यह अन्तिम तार रहा ट्रेड यूनियन के जनरल सेक्रेटरी देसाई जी का। उन्होंने आपको 15 मई के लिए मौजूदा हड़ताल के सम्बन्ध में भाषण देने के लिये आमन्त्रित किया है। "
"हाँ बम्बई की कई मिलों में स्ट्राइक है लेकिन समय होगा तभी तो जा सकूँगा जरा डायरी तो देखकर बताइये।" डायरी देखकर नीलकण्ठ ने कहा- "बिलकुल समय नहीं है।" "तो लिख दीजिये कि हम समयाभाव के कारण असमर्थ हैं।"
"इन लोगों को इतना भी खयाल नहीं कि दूसरों के भी कुटुम्ब है, पत्नी और सन्तान है। उन लोगों का भी कोई हक है। उनको भी एक मिनट छोड़ना नहीं चाहते।"
“रहने दीजिये। इन बातों की कोई जरूरत नहीं हम लोग देश के सेवक हैं। जरा डायरी तो मुझे दीजिए।"
सेठजी ने अपने प्राईवेट सेक्रेटरी से डायरी लेकर स्वयं देखना आरम्भ कर दिया। डायरी देखने के बाद उन्होंने कहा "बेशक 15 मई को समय तो नहीं है, लेकिन मध्यान्ह के बाद हमारा भोज का प्रोग्राम है। उसमें सम्मलित न होकर वहाँ पहुँच सकते हैं। आप लिख दीजिए कि मैं आऊंगा । महाशय खोटे जी से क्षमा याचना कर लोजिये, मैं भोज में सम्मिलित न हो सकूँगा।
"बहुत अच्छा" कह कर नीलकण्ठ ने उनकी आज्ञा का पालन आरम्भ कर दिया और सेठजी ऊपर कपड़े पहनने चले गये ।
इस समय 8-30 बज चुके थे। ऊपर पहुंचते ही सेठजी की कन्या ने बाकी कहानी समाप्त कर देने का आग्रह करना शुरू किया। सेठजी कपड़े पहनते जाते थे और कहानी कहते जाते थे। उन्होंने कहा
“गिद्ध इतना दुर्बल था कि वह उड़ नहीं सकता था। चिड़ियों की कृपा से उसके दिन सुख से बीत रहे थे। जब चिड़ियाँ दिन में अपने बच्चों को अकेला छोड़कर भोजन लाने के लिये उड़ जाती थीं तब वह गिद्ध उनके बच्चों की देख-भाल किया करता था। एक दिन एक बिल्ली उधर आ निकली। उसने चिड़ियों के बच्चों को फुदकते हुए देखा तब उनका कोमल माँस खाने के लिए उसकी जीभ तड़प उठी" सेठजी कहानी कह ही रहे थे कि उनका नौकर सामने आकर खड़ा हो गया । उसने कहा – “किसान सभा के 'नेता' नीचे आपकी प्रतीक्षा में बैठे हुए हैं ।"
एक बार फिर अपनी बच्ची को प्यार भरे शब्दों में किसी और समय कहानी सुनाने का दिलासा देते हुए कपड़े शीघ्रातिशीघ्र पहनकर सेठजी नीचे चले गये। उनकी बच्ची और पत्नी हृदय थाम कर रह गईं। सेठ जी को कहानी पूरा करने को अवकाश ही न था। सार्वजानिक जीवन पराया हो जाता है, अपना नहीं रहता।
सेठजी शाम को एक घण्टे की जगह आध घंटे के लिए ही अपने घर आ सके। वैसे तो वे अपने समय के बड़े पाबन्द थे, लेकिन जलसों का भारतीय समय ठहरा, पाँच पाँच मिनट की देर होते होते शाम तक आध घंटे की देर हो ही गई। उन्होंने जल्दी जल्दी खाना खाया उनकी पुत्री कहानी कहने का आग्रह करती रह गई और वे चले गये। रात्रि को 10-20 पर लौटे। मां-बेटी दोनों सो गई थीं। सेठ जी ने उन्हें जगाना उचित न समझा और वे भी सो गये।
सबेरे फिर और दिनों की तरह उन्होंने अपने प्राइवेट सेक्रेटरी से दिन का कार्य्य क्रम मालूम किया। आज उन्हें संगीत विषय पर भाषण करना था, जो उनकी योग्यता के बाहर था। इसमें उनका दखल न था और वे बहुधा राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक समस्याओं पर ही बोला करते थे लेकिन नेताओं से तो जनता सब विषयों के ज्ञान की आशा करती है और नेतागण भी अपने को सब कायों में नेता गिनने लगते हैं। उन्होंने अपने सेक्रेटरी से कहा “संगीत विषय का भाषण किस प्रकार तैयार किया जाय ?"
“मिस्टर गांगुली की जो नई पुस्तक कल-आई है उसे देख जाइये या किसी का गाना सुनकर अपनी कल्पना कर लीजिए ।""
सेठ जी ने कुछ विचार करने के बाद कहा – “संगीत-परिषद् के मन्त्री को 8-20 बजे सायंकाल का समय सूचित कर दो। मैं 8 बजे भाषण नहीं प्रारम्भ कर सकूँगा।"
"जो आज्ञा " सेक्रेटरी ने उत्तर दिया
दिन भर के भारी कार्य्य के बाद संध्या आई। भोजन करके सेठजी ने अपनी पत्नी से प्यार भरे शब्दों में कहा - "आज तुम्हारा संगीत सुनने को जी कर रहा है ।
पत्नी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया - " अहो भाग्य !”
सेठजी ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा – “समय ही नहीं मिलता कि दो चार मिनट भी तुम्हारे पास बैठकर बात-चीत कर सकूँ । सार्वजानिक जीवन वालों को अपने साथ अन्याय करना पड़ता है। "
" और अपने सम्बन्धियों के साथ भी। सच जानो तुम्हारे लिये मेरा हृदय कितना उत्कंठित रहता है ! तुम हमें कितना भूल गये हो !" यह कहने के बाद उसके नेत्र डबडबा आए ।
“नहीं, भूला नहीं, किन्तु विवश हूँ। मैं भी विवश हूँ, हृदय रखता हूँ, पर संसार की सेवा का व्रत धारण कर चुका हूँ। तुम्हें भी अपना यही आदर्श रखना चाहिए।"
" और अपने कुटुम्ब के प्रति तुम्हारा कोई कर्त्तव्य नहीं । मुझे जीवन सहचरी बनाते समय मुझसे ही प्रतिज्ञाएँ ली थीं और क्या स्वयं कोई वचन नहीं दिया था ? परमार्थ प्रेमी को किसी दूसरे को बन्धन में बाँधना ही नहीं चाहिए।"
तुम्हें तो मैंने मुक्त कर रक्खा है, लेकिन तुम ही इस चहर दीवारी से बाहर नहीं जाना चाहतीं। तुम भी इस गृह के अँधेरे से निकल कर इस संसार के प्रकाश में क्यों नहीं आ जाओ ?"
"मेरे इस गृह से बाहर आने पर यहाँ अँधेरा हो जायगा । मेरे यहाँ रहने से अँधेरा नहीं, प्रकाश रहता है लेकिन जब मैं यहाँ रहती हूँ, तुम ही क्यों न अपना कार्यक्रम मेरा सा बना लो । झगड़ा ही समाप्त हो जाय । "
" और देश सेवा ?"
“यह सब ढोंग है। जो खुद दूसरों पर अन्याय करते हैं वे दूसरों पर कैसे न्याय कर सकते हैं ?"
"आज शास्त्रार्थ का समय नहीं है। मेरे यह आनन्द के क्षण हैं। मैं इन्हें नीरस बातों में नष्ट नहीं करना चाहता हूँ । चलो कुछ गाना सुनाओ।"
सेठ जी ने यह कहा ही था और वे अन्दर के कमरे में जाने वाले ही थे कि उनकी कन्या ने कहानी पूरी कर देने का आग्रह किया। माँ-बाप की बात-चीत वह बड़े ध्यान से सुन रही थी और उसने कोई बाधा नहीं डाली थी, लेकिन अब उसका चपल शिशु-धैर्य्य देर तक कहानी टलते देखकर रुक न सका । एक बार गाना आरम्भ हो जाने पर कितना समय लगता, अत: उसने टोकना ही उचित समझा पर इस बार माँ ने घुड़क दिया । एक गाना आरम्भ हुआ हारमोनियम के साथ उसके स्वर में आज माधुरी घुस गई थी। उसके हर्ष का वारापार न था। उसने बहुत दिनों के बाद आज अपने प्रिय पति के कहने से गाया था।
हृदय के सरस स्रोत सूख चुके थे, लेकिन आज उसमें उन्माद-ज्वर आगया था। सचमुच वह अपने प्राणों के स्वर फूँक रही थी। सेठजी गाने में तन्मय हो रहे, लेकिन वे गाने के प्रभाव से उत्पन्न विचारों को स्मृति बद्ध करना नहीं भूले थे। व्याख्यान का भूत उनके सिर पर सवार था । वे गाना सुन रहे थे, लेकिन सोच कहीं और ही रहे थे। आनन्द के प्रवाह में अविराम गति से बहने का भी उनका भाग्य न था, क्रूर काल उन पर मन ही मन हँस रहा था। उन्होंने अपने विचार अंकित करने के लिए चुपके से कागज पेन्सिल उठा ली और संक्षिप्त नोट लेना शुरू कर दिये। उनकी पत्नी मीड़ की लहरी में नयन-निमीलित किये हुए डूब रही थी।
उसने नेत्र खोले तब सेठजी को काग़ज़ पर कुछ लिखते देखा। उसका एकदम यह भाव हुआ कि वे केवल उसका मन बहला रहे हैं और उन्हें गाना नहीं सुनना है, अपना कार्य करना है। गाने का उन्होंने एक बहाना उसे प्रसन्न करने के लिये निकाला है। उस समय वह गा रही थी
'हाय तुम कैसे विमोही !
आज रुक जाओ निठुर घर
यों न जाओ प्राणमोही ।'
कि उसका कण्ठ एकाएक सिसकियों से रुद्ध होगया आँसू आँखों में उतर आये स्वरतार अनायास टूट गया। यह देखकर सेठजी स्तम्भित रह गये। उन्होंने तत्काल खड़े होकर उसका हाथ पक ड़कर पूछा - "क्यों तुम्हें क्या हुआ ?"
"कुछ नहीं कुछ नहीं।" एक हाथ से आँसू पोछते हुए वह संगीतशाला को उजाड़ती हुई उठ खड़ी हुई । उसने कहा इतना धोखा ! इतना छल !"
"नही, धोखा कैसा ?"
"और क्या ? गाने का तो बहाना था। "
"मैं तो अपने भाव इकट्ठे कर रहा था, भाषण देने के लिए। " उन्होंने कहा
“तो फिर मैं आपके व्याख्यानों का यन्त्र हूँ। मेरा गाना आनन्द के लिए नहीं है। सभाओं में भाषण देने के लिए इसका भी अस्तित्व है अन्यथा इससे क्या प्रयोजन ? तुम्हारे व्याख्यानों पर इसका भी जीवन निर्भर है। अब मैं कभी ऐसी ग़लती न करूँगी ।" उसने दृढ़ता से उत्तर दिया। “तो इसमें तुम्हारा गया क्या ?"
"चोट पहुँचाकर अपमान करना भी जानते हो। यह काम तो किसी भी किराये की गायिका से निकाला जा सकता था। मेरी ही क्या जरूरत थी ?" उसने एकटक नेत्रों से सेठजी की ओर देखा। उनमें अपमानित स्त्रीत्व की ज्वाला निकल रही थी।
सेठजी कुछ कहने को मुँह खोल ही रहे थे कि नौकर को देखकर वे पानी पानी हो गये। शायद उसने उनकी सब बातें सुनी होंगी। पता नहीं कितनी देर से खड़ा हुआ है। उसकी ओर उनका ध्यान न जा सका था। उनके पूछने पर उसने कहा "संगीत परिषद के कार्यकर्त्ता आये हैं। "
सेठजी ने अपनी कलाई की घड़ी देखी। देर हो चुकी थी। उन्हें संगीत की तरंग में समय का बोध न हो सका था। वे जल्दी जल्दी कपड़े पहनने लगे। उनकी कन्या ने फिर अपनी पुरानी हठ आरम्भ की वह अधिक कह भी न पाई थी कि उस की मां ने उसे बलपूर्वक गोद में उठा लिया और उसे ले दूसरे कमरे में चली गई। वह उसे कहती जा रही थी - " चल । मैं आज तुझे कहानी सुनाऊँगी।”
सेठजी अकेले कपड़े पहनते रह गये । कुछ मिनटों के बाद वे रंगमंच पर आवेश के शब्दों में भाषण दे रहे थे । जनता अपलक दृष्टि से उनके मुख को देखती हुई ध्यानमग्न उनके भाषण प्रवाह में बह रही थी। सभा में सन्नाटा था, केवल उनकी वाणी सुनाई देती थी और उधर माँ बेटी सिसकी भरती हुई एक-दूसरे से चिपटी निद्रा का आवाहन कर रही थीं।
:::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें