बुधवार, 26 मई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानंद गुप्त की कहानी --- न मंदिर न मस्जिद । यह कहानी उनके कहानी संग्रह 'मंजिल' में संगृहीत है। हमने इसे लिया है दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय मुरादाबाद की वार्षिक पत्रिका भारती के श्री दयानन्द गुप्ता स्मृति विशेषांक से ...


 गोधूलि की वेला हो चुकी थी। पूरब से नीलिमा का एक परदा उठकर सूर्यास्त के स्वर्णिम मेघों को ढकने के लिये पश्चिम की ओर बढ़ रहा था । संसार के दीपक कुल के स्नेहाकुल अधर स्निग्ध होकर हास्य-आलोक विकीर्ण करने को सम्प्रति सजीव हो चुके थे। दिन कुछ ही देर का अतिथि था। उसकी प्रवास यात्रा की शहनाई वन से लौटती हुई विहग-बालिकाएँ बजा रही थीं।

मन्दिर में शंख और मस्जिद में अज़ान का स्वर सुनाई दिया। हिन्दू और मुस्लिम भक्त अपने-अपने उपास्य देव के चरणों की शरण ग्रहण करने को गृहों से निकले । इसी समय एक मुसलमान भिक्षुक एक आबनूस का सोटा, उसी का भिक्षा-पात्र तथा काला कम्बल कन्धे पर लादे धीरे-धीरे रामानुज गली से गुज़रा। वह सूफ़ी था और बहुत दूर से इस नगर में पहली बार आया था। थकान भिक्षु की शक्तियों पर आधिपत्य जमा चुकी थी और अब वह आगे एक भी क़दम उठा नहीं सकता था। उसने कितने ही बालवयोवृद्धों से प्रश्न किया कि अभी नगर की मस्जिद कितनी दूर और है, किन्तु लोगों ने उसकी बात को सुनी अनसुनी करके टाल दिया। वह कुछ कदम आगे और बढ़ा चारों ओर उसके नेत्र किसी स्वच्छ स्थान की ओर दौड़ रहे थे। राधा-कृष्ण का विशाल मन्दिर सामने खड़ा हुआ था । उसके सिंह द्वार के दोनों ओर स्फटिक शिलाओं का दुग्ध धवल शीतल-वक्ष प्रस्तार चबूतरा था । भिक्षक ने एक तरफ के चबूतरे पर अपना कम्बल बिछा कर काबे की ओर मुख करके इबादत शुरू कर दी ।

मन्दिर में अभी आरती आरम्भ ही हुई थी। पुजारी मन्त्र पढ़ता हुआ प्रदीप्त आरती-दान लिये हुये मन्दिर की देहरी पर विशाल घृत दीप धरने आया। दीप रखकर वह फिर अन्दर अपने उपास्यदेव के पास जाने ही को था कि उसकी दृष्टि घुटने और कुहनियों के सहारे नमाज़ में झुके हुए मुस्लिम साधु की ओर गई । वह अवाक् रह गया। साधु अपनी वन्दना में तल्लीन था। आरती का रव उसे सुनाई नहीं दिया । म्लेच्छ के मन्दिर पर चढ़ आने के विचार ही से पुजारी की नस-नस में आग लग गई। वह अपने मन्त्र भूल गया और उसने डांट बताते हुए साधु से कहा -

"यह मन्दिर है। क्या तुम्हें इतना भी दिखाई नहीं देता ? "

"दिखाई क्यों नहीं देता इसी वजह से तो मैं यहां खुदा की इबादत करने बैठ गया। इससे ज्यादा पाक जगह और कौन-सी हो सकती है ?" मुस्लिम साधु ने उत्तर में कहा ।

"लेकिन तुम्हारे यहां बैठ जाने से यह अपवित्र और भ्रष्ट हो गई। यह स्थान म्लेच्छों के लिये नहीं हैं। "

"जनाब खुदा के सभी बन्दे हैं। सभी का खुदा एक है । चाहे आप उसे भगवान कहें या मैं उसे अल्लाह कहूं, लेकिन वह एक है। फिर उसी के बन्दों में ऐसी नापाक तफरीक क्यों ? आप भी तो पूजा ही कर रहे हैं और मैं भी नमाज पढ़ रहा हूं, तो यह जगह मेरे ही उसी काम के करने से नापाक क्यों हो जायगी ?".

"चाहे आप कुछ भी क्यों न कहें, हम अपने मन्दिर पर किसी भी यवन को चढ़ने नहीं दे सकते । आप मस्जिद में जाकर नमाज पढ़िये । "

" ऐ पुजारी ! तुम अपने बुतों को क्या इतना कमजोर समझते हो कि मेरे चबूतरे पर चढ़ आने से घबरा गये ? यहां नजदीक कोई मस्जिद नहीं वरना मैं तुम्हें वहां ले चलता और दिखला देता कि तुम भी वहां शौक से अपनी पूजा कर सकते हो।" 

" तो यह मन्दिर और मस्जिद अलग अलग क्यों ?"

सिर्फ इन्सान की नासमझी की वजह से, जैसे हिन्दू और मुस्लिम अपने को अलग-अलग समझते हैं। अगर मन्दिर और मस्जिद का कोई मतलब है तो सिर्फ इतना ही कि हमें खुदा को याद करने के लिए साफ जगह मिल सके। हम सब वहाँ इकट्ठे होकर मुहब्बत भरे दिल से पाक परवरदिगार को याद कर सके। मन्दिर और मस्जिद मुहब्बत के मकतब है, न कि फसाद के क्लब।"

"हमारे आपके खाने-पीने रहने-सहने व आदर्श विश्वासों में इतना अधिक अन्तर है कि यह असम्भव है कि मन्दिर और मस्जिद एक हो सके।"

"तो हम दोनों ही को क्यों न छोड़ दें ? खुदा को आप भी मानते हैं और हम भी अगर इब्तिलाफ़ है तो सिर्फ उस जगह पहुंचने के रास्ते पर क्या दो मुख्तलिफ रास्तों के चलने वाले मुसाफिर को एक ही जगह पहुंचने पर भी आपस में झगड़ना चाहिये ? हरगिज नहीं रही खाने-पीने व रहने-सहने की बात यह तो महज ऊपरी बाते हैं। ये चीजें मुल्क मुल्क के साथ आबो-हवा के साथ कौम-कौम के साथ तब्दील होती रहती है। आप ही रोजमर्रा न एक-सा खाते हैं, न पहनते हैं। यह तो साबित ही है कि एक मालिक के खादिमों में बाहमी मुहब्बत रहनी ही चाहिए।"

"मुझे तुम्हारी बातों पर विश्वास हो रहा है लेकिन यह बताओ कि तुम्हारे यहाँ भी यह कमजोरी है या नहीं। मस्जिद में  क्या मुझे आरती और पूजा करने की आज्ञा होगी?"

"होनी चाहिए अगर नहीं है तो यह इंसानी फितरत और कमजोरी है ।" 

" तो आप नमाज पढ़िये , तब तक मैं भी पूजा समाप्त कर लूं।"

पुजारी भीतर चला गया। अब भक्त पर्याप्त संख्या में आने लगे थे। उनका एक झुण्ड मुस्लिम साधु को घेर कर खड़ा हो गया और उसे वहाँ से चले जाने के लिए आग्रह व धमकियाँ देने लगा। बाहर कोलाहल बढ़ता जा रहा था। एक बार फिर पुजारी की आराधना में बाधा आ खड़ी हुई। बाहर आकर उसने क्रोधित जनसमुदाय को अभी अभी सीखे हुए मनोगत तर्कों से शान्त करने की चेष्टा की, लेकिन किसी ने उसे 'पागल', किसी ने 'विधर्मी' व 'धोकेवाज़' व 'भ्रष्ट आदि सम्बोधनों से पुकारा। पुजारी की भीड़ के आगे एक न चली। भीड़ ने मुस्लिम साधु को धक्का देकर नीचे उतार दिया और उसका सामान इधर उधर फेंक दिया। पुजारी से यह सब न देखा गया । उसने भी मन्दिर की सेवा से तिलांजलि दे दी और वह उसके साथ-साथ हो लिया ।

दोनों चुपचाप चले जा रहे थे। वे लगभग बीस मिनट चले होंगे कि उन्हें एक मस्जिद दिखाई दी। दोनों वहीं रुक गये। पुजारी ने साधु की ओर देखा और साधु ने  पुजारी की ओर। साधु मस्जिद की तरफ बढ़ा और पीछे पीछे पुजारी भी। अभी तक नमाज चल ही रही थी।  शायद समाप्त होने का समय आ गया था। साधु मस्जिद की देहरी पर पहुंचकर खड़ा हो गया और उसने पुजारी से कहा----

"अन्दर आ जाओ पुजारी, और उस खुदा की, जिस तरह मिजाज चाहे, पूजा करो।"

उपस्थित व्यक्तियों में यह सुनकर एक सनसनाहट-सी दौड़ गई। उसके कान और ध्यान इधर ही थे।

पुजारी धीरे-धीरे बढ़ा और नमाजियों की कतार पार करके वह सबसे आगे करबद्ध खड़ा हो गया, ठीक इमाम के आगे, जो पूरी कतार के आगे खड़ा हुआ था। पुजारी ने उच्च स्वर में उच्चारण आरम्भ किया


" वामांके च विभाति भूधरसुता देवापगे मस्तके भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसिव्यालराट् । सोयं भूति विभूषण: सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशंकरः पातुमाम्।"

अचानक अपरिचित भाषा को सुनकर पहिले तो इमाम को आश्चर्य हुआ और पुजारी जी सुख से श्लोक पढ़े चले गये, लेकिन फिर सबसे पहिला हाथ इमाम का ही उसके ऊपर पड़ा। फिर तो सब ने उसे मारना शुरू कर दिया। लात घूंसे थप्पड़ सभी कुछ लगे। 'काफिर- काफिर' की आवाजों से मस्जिद का वातावरण गूंज उठा। मुस्लिम साधु ने भरसक उसे बचाने का प्रयत्न किया। बहुत-सी चोटें जो पुजारी के लगतीं, वे उसके लगीं ।पुजारी को नमाज़ियों ने इमाम की आज्ञा पाकर मस्जिद से इतनी अधिक उद्दंडता नृशंसता व बर्बरता के साथ निकाल दिया, जितनी कि मुस्लिम-साधु को निकालने में हिन्दू भक्तों ने भी व्यवहार में नहीं लाई थी।

दोनों एक जीवन-नौका में सवार हो चुके थे। फिर भविष्य में न कभी पुजारी को मन्दिर की ओर न फ़क़ीर को ही मस्जिद की जाने की जरूरत पड़ी । उनका ध्येय इन दोनों से बहुत ऊपर था। जहाँ न मन्दिर की ही जरूरत होती है, न मस्जिद की। उनका सन्देश दोनों ही को दूर करने का था ।

1 टिप्पणी:

  1. " न मंदिर न मस्जिद " एक विचार प्रधान कहानी है । लेखक ने भरसक प्रयत्न किया है कि पाठक मंदिर और मस्जिद की परिधियों से ऊपर उठ सके और उस अनंत सत्ता को वास्तविक रूप में पहचानने की ओर अग्रसर हो सके । लेखक को सफलता कितनी मिल पाई है ,कहना कठिन है । हजारों साल पहले जब पेड़ के नीचे ऋषि मुनि ध्यान लगाते थे ,तब धर्मों की संकुचित सीमाएं नहीं खिची थी ।
    रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल 99976 15451

    जवाब देंहटाएं