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बुधवार, 22 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा ----- रिश्ता


"विवाह की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी हैं, बस कुछ गहने और कपड़े 'रुचि' के लिए लेने बाकी हैं", शम्भू नाथ जी मुस्कुरा कर अपनी पत्नी से बोले।
"बहुत अच्छा 'रिश्ता' मिला है हमारी रुचि के लिए, बहुत ही भले लोग हैं। इतने उच्च विचार और अच्छे संस्कारों वाले परिवार में हमारी रुचि बहुत खुश रहेगी", उनकी पत्नी दुर्गा देवी ने खुश होकर कहा।
अभी ये लोग बातें कर ही रहे थे तभी रुचि के होने वाले ससुराल से फ़ोन आया।
"नमस्कार भाई साहब, कैसे हैं आप और आपके परिवार में सब?" शम्भू जी ने फ़ोन उठाकर स्पीकर पर डालते हुए औपचारिता निभाई।
"अजी हमारे हाल छोड़िये औऱ ये बताइये कि क्या आपकी बड़ी बेटी ने प्रेम विवाह किया है? और वह भी अंतरजातीय? माफ करिए शम्भू नाथ जी हमारे यहाँ आपका 'रिश्ता' नहीं जुड़ सकता", उधर से तीखी आवाज आई और इससे पहले कि ये कुछ बोलते फ़ोन कट गया।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
9045548008

बुधवार, 15 जुलाई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा --- काँटा

    एक चूहा बड़ा सा काँटा लिए दौड़ा चला जा रहा था। रास्ते में मेंढक ने पूछा कि, "अरे मूषक भाई ये काँटा लिए कहाँ दौड़ लगा रहे हो?"
"अरे भाई साँप को काँटा चुभा है तो मेरे पास आया था मदद माँगने, बस वही निकालने के लिए ले जा रहा हूँ", चूहे ने चलते-चलते जवाब दिया।
"लेकिन काँटा तो तुम अपने तेज़ दाँतो या नुकीले नाखून से भी निकाल सकते हो?" मेंढक ने सवाल किया।
"बिल्कुल निकाल सकता हूँ मित्र, लेकिन फिर उसे याद कैसे रहेगा", चूहे ने मुस्कुराकर कहा और दौड़ लगा दी।

नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
9045548008

बुधवार, 24 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा----- परमीशन


"अरे भाई ऐसे कैसे दे दूँ अंतिम संस्कार में पन्द्रह लोगों को जाने की परमिशन?  आपको पता है  ना पूरी दुनिया में महामारी फैली हुई है।
लॉक डाउन में पाँच से ज्यादा लोग अलाउ ही नहीं हैं।
साहब ने तो भीड़ लगाने को बिल्कुल मना किया हुआ है। लेकिन फिर भी मैं आपको पाँच आदमी अलाउड कर रहा हूँ।" पेशकार साहब ने चश्मा थोड़ा नीचे सरकाकर सामने बैठे उन दो उदास चेहरों को देखा।
"और फिर आपको पता नहीं ऐसे सीधे-सीधे किसी को कोई परमिशन नहीं मिलती?"  पेशकार ने कुछ पल रूककर धीरे से कहा।
"क्या हुआ? किस काम से आये थे आप लोग?" बाहर बैठे अर्दली ने इन्हें रोनी सूरत लिए बाहर निकलते देखकर पूछा।
"परमिशन लेने आये थे सर लेकिन..." सामने वाला बस इतना ही कह सका। आगे के शब्द जैसे उसके आँसुओ के साथ उसके लगे में उतर गए।
"ऐसे थोड़े ही मिलती है परमिशन साहब!!"  अर्दली ने धीरे से एक पेपर इनकी मुट्ठी में थमा दिया।
"बात कर लेना", अर्दली मुस्कुराते हुए बोला।
बाहर आकर इन्होंने देखा, उस कागज के टुकड़े पर कोई मोबाइल नम्बर लिखा था।
"हेल्लो.. हेल्लो सर...सर बो हम परमिशन के लिए...क्या??!  हाँ सर हाँ हम यहीं एस. डी. एम. कोर्ट के बाहर... जी ...जी..! हाँ ठीक है पेड़ के नीचे।", उनमें से एक ने फोन पर बात की और दोनों चलकर इस बड़े पेड़ के नीचे जाकर खड़े हो गए।
"हाँ यो बताइये किस काम के लिए परमिशन चाहिए आपको? और कितने लोग सम्मिलित होंगे?" एक वकील ने आकर इनसे पूछा।
"घबराइए मत हमीं सबको परमिशन दिलाते हैं यहाँ से, देखिये :- दाह संस्कार दस आदमी का पाँच सौ, बीस आदमी का पन्द्रह सौ।
शादी दस आदमी का दो हजार, पच्चीस से तीस आदमी का दस हज़ार।
बाकी कोई छोटा पार्टी, बीस आदमी तक पाँच हज़ार।
बॉर्डर पार जॉब या बिज़नेस का डेली अप-डाउन  एक महीने का तीन हज़ार।"
अब आप लोग जल्दी बताइये किस काम की परमीशन दिलानी है, मुझे और भी काम है।
       वकील अपनी रेट लिस्ट बता रहा था लेकिन उस आदमी के कानों में तो बार-बार पेशकार के वही शब्द गूँज रहे थे, "ऐसे सीधे-सीधे किसी को परमिशन नहीं मिलती।"

✍️ नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

बुधवार, 17 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा------ ट्रेन चल गई



"क्या करें!! काम बंद हो गया जेब में एक भी पैसा नहीं है।
सारा अनाज भी खत्म हो गया।
फ्री का राशन भी उन्ही को मिल रहा है जिनकी थोड़ी बहुत जान पहचान है।
अब तो झुग्गी का किराया भी दो महीने का हो गया है कैसे काम चलेगा??" सुखिया ने उदास होकर अपने पति सोहन से कहा।
दोनों की पिछले साल ही शादी हुई थी सोहन दो साल से फैक्टर में दरी बुनने का काम करता था। कुछ दिन से सुखिया भी वहीं काम करने आती थी। दोनों के दिल मिले और शादी कर ली।
दोनों ही बिहार के छपरा जिले के अलग अलग गांव के रहने वाले थे।
"क्या करें सुखिया, चल गांव वापस चलते  हैं वहीं पुराने कपड़ों की डरी बनाकर बेचेंगे कुछ खेत मजूरी कर लेंगे गुजरा हो जाएगा। किराए के पैसे तो हैं नहीं, चल बाकियों की तरह पटरी-पटरी चलते हैं कुछ दिन में पहुँच ही जायेंगे। इस भुखमरी से तो अच्छा ही है।" सोहन ने उदास होकर कहा।
"नहीं  बिल्कुल नहीं तुम्हे पता नहीं सरकार ने ट्रेन चला दी हैं", सुखिया चीख कर बोली।

✍️ नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद

बुधवार, 3 जून 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की लघुकथा------भगवान सब अच्छा करता है.


"ऐ... कहाँ जा रहे हो? पता नहीं दुनिया में क्या चल रहा है। सारा संसार बीमारी से जूझ रहा है। सारे देश में लॉक डाउन लगा हुआ है और तुम्हें घूमने की पड़ी है।" एक पुलिस वाला डंडा हिलाकर एक बुजुर्ग से कह रहा था।
"क्या बताऊँ बेटा कई दिन से बुखार है, खाँसी भी बहुत है और अब तो चक्कर भी आ रहे हैं।" बूढ़े ने खाँसते हुए कहा।
"तुम क्या रोज ऐसे ही खुलेआम बाहर घूमते हो?" पुलिस वाले ने पूछा।
"नहीं साहब रोज नहीं बस जिस दिन घर में रोटी नहीं मिलती या ..." कुछ कहते-कहते रुक कर बूढा जोर-जोर से खाँसने लगा।
तब तक पुलिस वाला कहीं फोन कर चुका था।
कुछ ही देर में एक एम्बुलेंस आयी जिसमें पूरी तरह सुरक्षा आवरण पहने हुए कर्मचारी थे।
उन्होंने बूढ़े को पूरी तरह कवर किया और अपने साथ ले गए।
"चलो अब मेरी सारी जाँच और इलाज फ्री में हो जाएगा और रोटी भी मिलती रहेगी।
बहु की मार से भी बचूँगा। चार साल पुरानी खाँसी आज काम आ गयी। भगवान जो करता है अच्छे के लिए ही करता है।"
बूढा मुस्कुराते हुए बुदबुदा रहा था और एम्बुलेंस सायरन बजाती भागी जा रही थी।

✍️  नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा, मुरादाबाद
9045548007

मंगलवार, 26 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी ------- कर्तव्य


      बाहर शहनाइयों का शोर, मेहमानों की चहल-पहल और शादी की सजावटों के बीच, सुरेखा सोच रहीं थी कि अब जल्दी ही उनकी बेटी संजना विदा होकर ससुराल चली जायेगी ।
बेटी का विवाह करके उनका बहुत बड़ा कर्तव्य पूरा हो जाएगा लेकिन बेटी से बिछोह का ख्याल अनायास ही उनकी आंखें भिगो गया।
उन्हें याद आने लगा पच्चीस साल पहले का एक ऐसा ही दिन, ऐसी ही सजावट ऐसी ही चहल-पहल।
अंतर बस ये था कि उस दिन दुल्हन सुरेखा खुद थीं। अपने आप में सिमटी, सहमी हुई सी उन्नीस साल की सौन्दर्यपूर्णा, सुकुमारी, सुरेखा।
उस दिन भी उनके मन में विछोह के ख्याल आ रहे थे, अपने परिवार अपने माता-पिता से विछोह के ख्याल। बार-बार उनकी आंखें भीग रही थी ऊपर से उन्होंने अपने होने वाले पति सुरेश को देखा तक भी नहीं था।
सुरेखा, ससुराल आकर दो ही दिन में वह समझ गयी कि सुरेश बहुत सुलझे हुए, मितभाषी और हँसमुख इंसान हैं और सुरेखा अब उनकी जिंदगी। सुरेखा को अपने मान पर अभिमान था कि सुरेश उसे सर आंखों पर रखते हैं।
प्यार के दिन गुजरते देर नही लगती, ऐसे ही सुरेश और सुरेखा के प्यार के भी दस साल देखते ही देखते गुजर गए। इसी बीच सुरेखा दो बेटियों संजना और सपना की माँ बन गयी।
दो बेटियाँ!!?
उसकी ससुराल में उसके दो बेटियां होने पर सुरेखा के सम्मान में बहुत कमी आ गई थी। अलबत्ता सुरेश जरूर हमेशा मुस्कुराकर कहते - "अरे बेटियाँ तो आजकल बेटों से बहुत आगे हैं। ऊपर से बुढ़ापे में भी बेटियां, बेटों से अधिक ध्यान रखती हैं मां बाप का।"
और फिर हँसते हुए कहते - "सुरु तुम देखना, मेरी बेटियां डॉक्टर बनेंगी और मेरा नाम रोशन करेंगीं।"
कुछ दिन से सुरेश के सीने में हल्का दर्द हो जाता था। सुरेखा उन्हें अस्पताल दिखाने जाने को कहती तो वह ये कहकर टाल देते - "अरे कुछ नहीं हुआ, बस जरा गैस है; चूर्ण ले लूँगा ठीक हो जाएगा।"
लेकिन उस दिन दर्द न चूर्ण से ठीक हुए ना गोली से... सुरेखा जल्दी में उन्हें लेकर अस्पताल गयी, तब पता चला हार्ट अटैक आया है। और स्थिति घातक है बीमारी बहुत बढ़ चुकी है। रात-दिन एक करके भी डॉक्टर सुरेश को बचा ना सके।
सुरेखा अपनी दो बेटियों को लेकर अकेली रह गई। ससुराल वालों ने उसे ये कहकर घर से निकाल दिया कि "उसके दो बेटियां पैदा करने के कारण ही सुरेश दिल का मरीज बन गया, यही उनके बेटे की मौत का कारण है।"
सुरेखा रोती रही लेकिन उसकी किसी ने नहीं सुनी।
अब महानगर में अकेली औरत दो बेटियां लेकर कहाँ जाए! मायके में भी स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी। फिर भी वह मायके आ गयी।
सुरेखा धीरे धीरे सामान्य हो गयी, पढ़ी-लिखी तो वह थी ही, तो थोड़े प्रयास से उसे एक हॉस्पिटल में नौकरी मिल गई।
अपनी मेहनत से सुरेखा ने सालभर में ही खुद को संभाल लिया और मायके के पास ही अलग किराये का मकान ले लिया।
दोनों बेटियां स्कूल में पढ़ती थीं जिंदगी ठीक चल रही थी अचानक एक दिन छोटी बेटी सपना चक्कर खाकर गिर गयी।
डॉक्टर को दिखाने पर पता लगा कि मिर्गी की बीमारी है।
सुरेखा एक बार फिर परेशान हो गई । सपना के दौरे बढ़ते ही जा रहे थे अच्छे से अच्छा इलाज कराया लेकिन कुछ लाभ ना हुआ।
सुरेखा के पति सुरेश ने सुरेखा के नाम से एक जमीन खरीदी थी वह भी बिक कर सपना के इलाज की भेंट चढ़ गई।
एक दिन सुरेखा को किसी ने बताया कि कोई वैध हैं जो मिर्गी का इलाज करते हैं।
पहले तो इसे विश्वास नहीं हुआ, उसने सोचा जब इतने बड़े बड़े डॉक्टरों की दवाइयां ठीक नहीं कर पायीं तो जड़ी बूटियां,,,,??
लेकिन उनकी बड़ी बहन के कहने पर सुरेखा वैध जी से मिली और सपना के लिए दवाइयां ले आयी। उसे उस इलाज से आश्चर्यजनक परिणाम मिले।
तीन महीने में ही सपना पूरी तरह ठीक हो गयी।
इसी बीच संजना ने एक बैंक में संविदा पर नौकरी कर ली। सुरेखा का परिवार फिर अपनी जिंदगी में खुश था। संजना और सुरेखा की मिली-जुली कमाई से उनका जीवन सामान्य चल रहा था।
और आज संजना की शादी, सुरेखा फिर अकेली.....
अभी वह सोच ही रही थी तभी संजना की आवाज आई, "मम्मा कहाँ हो आप ??, बारात आ चुकी है सब आप ही को ढूंढ रहे हैं जल्दी चलिए।"
"हाँ!!, चल आती हूँ ", सुरेखा ने चुपके से आँसू पोंछ कर कहा।
सुरेखा जब नीचे आयी तो 'हेमन्त' दूल्हा बना घोड़ी पर बैठा द्वार पर पहुंच चुका था।  सुरेखा ने मुस्कुराकर उसकी आरती की।
एक बार फिर उसकी आँखें आँसुओं से भर गयीं। लेकिन ये खुशी के आँसू थे क्योंकि हेमन्त ने उसे वचन दिया था कि "संजना अपनी आधी तनख्वाह सपना की शादी तक सुरेखा को देती रहेगी और हेमन्त को भी वह दामाद नहीं बेटा ही समझे।"
हेमंत एक कॉरपोरेट कंपनी में अच्छे पद पर है।
शादी में दहेज लेने पर जब हेमन्त अड़ गए थे, तब सुरेखा बहुत परेशान हो गयी थी। उसने डरते हुए पूछा था -  "क्या चाहिए दहेज में बता दीजिए? हम सोचकर जबाब देंगे।"
बदले में हेमन्त ने मुस्कुराकर एक पर्चा उनकी तरफ बढ़ा कर कहा था , "हमें तो अभी जबाब चाहिए तुरंत।"
कांपते हाथों से सुरेखा ने पर्चा खोला तो उसमें लिखा था, "एक मां के प्रति हमारा कर्तव्य निभाने देने का वचन और मुझे दामाद नही बेटे का मान।"
सुरेखा की आँखे तब भी भीग गयीं थीं और उसने बस हाँ में सर हिलाया था।
सुरेखा बहुत खुश थी, हेमन्त जैसा दामाद पाकर।
जो उसे एक सगे बेटे से बढ़कर मान देता है।
संजना को भी हेमन्त ने कह दिया कि "मां को किसी चीज़ के लिए परेशान ना करे ; संजना को शादी में जो जरूरत की चीज हो हेमन्त खुद दिला देगा।"
"कहाँ खो गयीं मम्मा", इस बार हेमन्त ने सुरेखा की तन्द्रा तोड़ी।
और वह, "कहीं नहीं!!" कह कर मुस्कुरादी।
सुरेखा समझ ही नहीं पाती है कि कर्तव्य कौन निभा रहा है। वह या उसके बेटियाँ और दामाद हेमन्त।
अब तो सपना ने भी जॉब शुरू कर दी है।फिर भी हेमन्त और संजना रोज एक बार सुरेखा से जरूर बात करते हैं और उसकी हर ज़रूरत का ध्यान रखते हैं।

 ✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा (मुरादाबाद)
Mo.९०४५५४८००८

गुरुवार, 7 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी --- संस्कार


भलेराम भालू के बच्चे शेर सिंह जी से लड़ रहे थे- "क्या शेरू काका आप भी हमेशा उलझे रहते हो, कभी हमारे साथ खेलते भी नही और यूँ उदास बैठे रहते हो।  पिताजी ने आपको हमारी सुरक्षा के लिए रखा है किंतु आपको तो अपना ही ध्यान नहीं रहता।"

तभी भोलू भालू कहीं से आ गए और बच्चों से कहने लगे, "क्या है ये सब?? ऐंसे बात करते हैं अपनो से बड़ो से, यही संस्कार दिए हैं हमने तुम लोगों को?

"लेकिन पापा ये तो हमारे नौकर ही हैं ना?" दोनों बच्चे एक साथ कहने लगे।

"देखो बच्चों, किसी के काम से उसकी हैसियत का कभी अंदाज मत लगाओ। क्या पता कोई मजबूरी उसे छोटा काम करने पर मजबूर कर रही हो।" भलेराम ने उन्हें समझाते हुए कहा।

"लेकिन शेरू काका की क्या मजबूरी है पापा?" बच्चों ने पूछा।

"आओ मेरे साथ, आज मैं तुम्हे इनकी कहानी सुनाता हूँ", भोलू ने कहा।

गुफा के अंदर जाकर भोलू ने शेर सिंह की कहानी बताना शुरू किया-

"देखो बच्चों, श्री शेर सिंह जी सभी पशुओं में श्रेष्ठ हैं, जिन्हें वनराज कहा जाता है।
हमारे शेरसिंह जी 'उत्तम वन' के राजा हुए करते थे। उनके दो बच्चे थे एक बेटा और एक बेटी।
शेर सिंह जी ने अपने बेटे को शिकार और अन्य चपलता सीखने के लिए अपने मंत्री 'बघेर सिंह' बाघ के पास भेज दिया। सब कुछ ठीक चल रहा था।
एक दिन एक सियार शेर सिंह की सेवा में आया और अपनी चापलूसी से उनका विश्वस्त बन गया।
वह उनके बच्चों के साथ खेलता शेर सिंह ने कभी उनमे भेदभाव नहीं किया ।
एक दिन उनका बेटा उनके सामने बाघ की बेटी के साथ आ कर खड़ा हो गया और बोला- "पिताजी हम दोनों ने शादी कर ली। अब से हम साथ ही रहेंगे" शेर सिंह जी ने उसे बार-बार समझाया कि "बेटा हमारा ओर बाघों के कोई मेल नही है, आगे बच्चे भी शंकर वर्ण के होंगे। बहुत परेशानी होगी आगे  और बाकी समाज भी हमें ताने मरेगा। तुम्हे तो पता है हमारा समाज और संस्कार कितने सनातन हैं।"

किन्तु उनके बेटे ने उनकी एक न सुनी, ज्यादा समझाने पर वह राज्य छोड़कर कहीं और चला गया। बेचारे शेर सिंह कुछ न कर सके बस उन्होंने ये सोच कर सन्तोष कर लिया कि अपनी जाति ना सही किन्तु बाघ हैं तो उनके समाज के ही कभी तो बेटा लौट ही आएगा।

अभी शेर सिंह बेटे के गम से उबरे भी ना थे कि एक दिन उनकी बेटी स्यार के साथ आ कर कहने लगी,  "पिता जी हमें इनसे विवाह करना है।"
शेर सिंह जी के तो पैरों तले से जैसे जमीन ही निकल गई। उनकी पत्नी ने बेटी को डाँट लगा दी, "शादी विवाह मज़ाक है क्या जो किसी से भी कर लो; अरे जाती न सही समाज का तो ख्याल करो। आखिर हमें रहना तो इसी समाज में है।
और हमारे पूर्वज कह गए हैं कि शंकर वर्ण की संतान जब-जब पैदा हुई हैं, विनाश ही होता है।
अरे स्यार का खून क्या कभी  शेर के गुण रख सकता है?
और फिर इनका रहना-खाना, रीति-रिवाज भी तो बहुत भिन्न होंगे? तुम कैसे ढल पयोगी शेर होकर स्यार समाज में।"
किन्तु इनकी बेटी ने इनकी एक न सुनी और चली गई घर छोड़ कर सियार के साथ।
इसी गम में इनकी पत्नी बीमार रहने लगी और एक दिन उसने भी इनका साथ छोड़ दिया। इधर पूरा शेर, बाघ, और चीता समाज एक जुट होकर इनके विपक्ष में ख़ड़ा हो गया।
 वे इनको रोज ताने मारने लगे, "जो शेर अपनी बेटी के सियार के संग भागने पर भी कुछ नहीं कर पाया, वह राज्य की सुरक्षा क्या कर पायेगा? इन्हें अब राजा रहने का कोई अधिकार नहीं।
अरे इन्हें शर्म भी नही आती इन्हें लोगों के सामने आने पर। इतनी कालिख पुत गई मुंह पर, फिर भी शान से मुंह दिखाते फिरते हैं" गुलदार ने कहा।
ऐसे ही बाकी भी उन्हें ताने मारते रहे और उन्हें निष्कासित कर दिया।
एक दिन दुखी होकर बेचारे शेर सिंह जी रात के अंधेरे में अपना  राज्य छोड़ आये।

"लेकिन पप्पा, शेर की बेटी सियार के संग कैसे रह सकती है? उनका तो कोई मेल ही नहीं है। जिस शेर की सिर्फ दहाड़ से सारा जंगल हिलता हो, उसकी बेटी सबसे डरपोक सियारो के साथ....!", बच्चे कुछ परेशान से हो गए।

"प्यार के नाम का अंधापन ये सब सोचने की क्षमता कहाँ छोड़ता है मेरे बच्चों? उस समय तो हर शुभचिंतक उसे शत्रुतुल्य नज़र आता है",  भोलू ने कहा।

"किन्तु पिता जी, शेर सिह जी की बेटी कैसे रह पाई सियार समाज मे?उसे तो बहुत सी समस्याएं आई होंगी?" बच्चो को कोतुहल हुआ।


"यही हुआ मेरे बच्चों, कुछ दिन तो ठीक चला, किन्तु जो शेरनी ताजा शिकार खाने में भी नाक सिकोड़ती थी। जल्द ही सियार ने इसके सामने सूखी हड्डियां रख दीं। तो वह नाराज होकर बोली, "यह क्या है, हमारे यहां तो हमने तुम्हे भी कभी हड्डी नही चूसने दी और तुम हमारे सामने ये......!"
तो सियार बोला, "यहां तो यही मिलेगा, चुपचाप से खा ले वरना मरम्मत कर दूंगा।"

"क्या!!?" शेरनी अवाक रह गई किन्तु उसने हड्डियों को हाथ नही लगाया। लगाती भी कैसे उसे तो ताज़ा शिकार खाने की आदत थी, तो उसने कहा, "तुमसे नहीं होता तो मैं खुद शिकार कर लूँगी अपने लिए।"

किन्तु उसकी इस बात पर पूरा सियार परिवार उसके खिलाफ हो गया, सियार की मां बोली, "ऐ लड़की हमारे यहां पर्दा प्रथा है, घर की बहुएं यूँ खुले में शिकार करती नहीं घूमती चुप चाप जो मिल रहा है खाले नहीं तो...!!"

"नहीं तो क्या??" शेरनी का ज़मीर जाग उठा। अपनी औकात देखी तुम लोगों ने कभी?
अरे मैं शेरनी हूँ और तुम लोग तो मेरेे यहां नौकर बनने के भी लायक नहीं हो", शेरनी तमक कर बोली।

उसकी बात सुनकर सारे सियार हँसने लगे और बोले, "शेरनी...! नहीं अब तू सियारनी है, चुपचाप से हमारे समाज के कायदे में रह वरना अच्छा नहीं होगा।"

"क्या कर लोगे तुम लोग ??अरे तुम सबको तो मैं अकेली ही काफी हूँ",  कहकर शेरनी गुर्रा उठी।
किन्तु आठ दस सियार उस पर पिल पड़े वे उसे बेइज्जत कर रहे थे और जिस सियार से प्रेम करके वह अपना घर अपना समाज छोड़ आई थी वह उनका साथ दे रहा था।
शेरनी की आत्मा कराह उठी, अब उसे अपनी भूल का एहसास हो रहा था। किंतु अब बहुत देर हो चुकी थी, अब सब खत्म हो चुका था।

अपनी इज्जत बचाने की जद्दोजहद में शेरनी चार-पांच सियारों को खत्म कर चुकी थी जिनमें एक उसका कथित प्रेमी भी था।

किन्तु इस लड़ाई में वह भी बहुत घायल हो चुकी थी और जब तक शेर सिंह जी वहां पहुंचे वह अंतिम साँसे ले रही थी।
इन्हें देखकर उसने पछतावे का अंतिम आंसू गिराया और दुनिया छोड़ गई।

उस सदमें में शेर सिंह जी अपनी जान देने ही वाले थे कि मैंने पहुंच कर इन्हें संभाल लिया। और अपनी पुरानी दोस्ती का वास्ता देकर यहां ले आया।
ये हमारे  नौकर नहीं हैं, बच्चों ये तो राजा हैं। भोलू ने गर्व से कहा, तब तक शेर सिंह भी आ गए जो उनकी सारी बातें सुन रहे थे।
दोनो बच्चे शेर सिंह से क्षमा मांगने लगे कि काका जी हमसे भूल हो गई हम आपको समझ नहीं पाए, और शेर सिंह ने उन्हें गले लगाते हुए कहा, "भाई भोलू बस यही एक चीज़ मैं अपने बच्चों को नही दे पाया जो तुम देते हो संस्कार।
और जो हर मां बाप को अपने बच्चों को देने चाहिएँ।"
(ये कहानी बस एक कल्पना है इसे मनोरंजन के रूप में ही लें)

 ✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा, मुरादाबाद
 मोबाइल फोन नम्बर 9045548008

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी -----सूझ-बूझ और साहस


जनवरी के महीना था कड़ाके की ठंड पड़ रही थी अभी सुबह के छः बज रहे थे सड़क पर अंधेरा फैला हुआ था।
सोनू रोज इसी समय ट्यूशन पढ़ने के लिए घर से दो किलोमीटर पैदल जाता है , सड़क पर इस समय इक्कादुक्का लोगो को छोड़कर लगभग सुनसान ही रहता है।

सोनू नोवीं कक्षा का होनहार और समझदार छात्र है,वह पढ़ने में जितना तेज़ है उतना ही समाजिक ।

सोनू किताबे बगल में दबाये, हाथों को पेंट की जेब में छिपाये तेज़ तेज़ चला जा रहा था, उसके दिमाग में आज पूछने बाले सवाल घूम रहे थे तभी एक आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ।

ऐ लड़के!! अरे भाई थोड़ी मदद करना तो,,

उसने पलट कर देखा सामने साइड में एक आदमी एक वैन को धक्का लगाने की कोशिश कर रहा था जिसे कोहरे के कारण सोनू साफ नही देख पा रहा था।

सोनू सड़क का डिवाइडर पार करके दूसरी तरफ पहुंचा तो इसने देखा कि एक आदमी ड्राइविंग सीट पर बैठा है और एक आदमी वैन को धक्का लगाने का प्रयास कर रहा है।

भाई जरा हाथ लगबादो ठंड से गाड़ी बन्द पड़ गई , उस आदमी ने जोर लगाते हुए कहा।

सोनू ने भी गाड़ी में धक्का लगाना शुरू कर दिया लेकिन वह ये नही देख पाया कि वैन का पिछला दरवाजा खुला है और वह आदमी उसके पीछे था।
अचानक वैन स्टार्ट हो गई और जब तक सोनू कुछ समझ पाता वह आदमी सोनू को धक्का देकर वैन में बैठा कर खिड़की बन्द कर चुका था,,,
मतलब अपहरण,, को हो तुम लोग ??, सोनू ने चीखने की कोशिश की लेकिन तब तक उस आदमी ने सोनू की नाक पर रुमाल रख दिया और सोनू होश खो बैठा।
वह वैन सोनू को किडनैप करके कोहरे में गायब हो गयी और किसी को पता भी नहीं चला।

जब सोनू की आंख खुलीं तो उसने खुद को एक अंधेरी सीलन भरी कोठरी में पाया।
कोठरी में लगे एक मात्र रोशन दान से आती रोशनी से सोनू को अंदाज़ लगा कि शाम होने वाली है।
तभी उसे किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी ,,
सोनू ने देखा एक कोने में एक ओर लड़का सोनू की ही उम्र जितना पड़ा है और उठने की कोशिश कर रहा है।
सोनू ने उसे सहारा देकर उठाया और इशारे से चीखने को मना कर दिया।

इन दोनों का अपहरण किया गया है अंधेरे में ये बात दोनो को समझ आ गई थी ।
अब क्या करें ?? दूसरे लड़के ने घबराते हुए धीरे से कहा।

सोनू कोठरी के दरवाजे पर कान लगा कर सुनने लगा,,,

दरवाजे के सामने दो लोग हैं कुछ दूर, सोनू बोला।

तो क्या ये लोग हमें मार देंगे ,, या हमसे भीख,,?? दूसरा लड़का रोने लगा।

चुप!, सोनू कुछ सोचते हुए बोला,, भाग पायेगा बिना आवाज किये? सोनू ने इस से पूछा।

हां भाग लूँगा। उसने धीरे से जबाब दिया।

देख ये रोशन दान दीवार में कुछ सरिया लगाकर बना है और कोठरी के पीछे है इसकी ऊंचाई तक हम उछल कर आराम से पहुंच सकते हैं।
मैं इसकी बाकी सरिया भी उखाड़ देता हूँ तब तक अंधेरा भी बढ़ जाएगा और हम पीछे की तरफ से निकल भागेंगे।

सोनू उछल कर खिड़की तक पहुंच गया, मेरे पैरों को सहारा दे में सरिया निकलता हूँ सोनू ने उसे इशारा किया और वह सोनू को अपने कंधों पर संभाले खड़ा हो गया।

थोड़े ही प्रयास में सोनू ने तीनों सरिया उखाड़ दीं और ऊपर चढ़ गया ।
सोनू ने एक पैर लटकाकर उसे भी चढ़ने के इशारा किया और थोड़ी सी सूझ बूझ से दोनो बिना आवाज किये बाहर आ गए।

सोनू ने उसे एक सरिया देकर कहा इसे साथ रख काम आएगी और दूसरी खुद ने हाथ में कस कर पकड़ ली।

कुछ दूर धीरे धीरे छिप कर चलने के बाद दोनों ने दौड़ लगा दी।
वह देख चलती हुई लाइटें यानी वहाँ रोड है चल दौड़,, सोनू उसका हाथ पकड़कर दौड़ने लगा।

कुछ देर सड़क पर दौड़ने के बाद इन्हें पुलिस की गश्ती गाड़ी मिल गयी ।
सोनू ने सारी बात पुलिसकर्मियों को बताई और पुलिस के छापे में कोठरी के बाहर के दोनों पहरेदार पकड़े गए जो शराब पीकर धुत्त थे।
अगले दिन उनके बताने पर पुलिस ने पूरा बच्चा चोर गिरोह पकड़ लिया।
सोनू को उसकी सूझ-बूझ और साहस के लिए इनाम दिया गया।

✍️ नृपेंद्र शर्मा “सागर”
होलिका मन्दिर, जमनवाला ठाकुरद्वारा
मुरादाबाद - 244601
उत्तरप्रदेश, भारत
मोबाइल 90545548008

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी ---- जेबकतरी


अप्रैल का महीना था, शाम हो चली थी लेकिन अभी पर्याप्त प्रकाश था। सुदूर ग्रामीण इलाके के उस छोटे से रेलवे स्टेशन पर बस इक्का दुक्का ही लोग नज़र आ रहे थे।
सुरेश ने अपनी पेंट की पिछली जेब से अपना पर्स  निकालकर उसमें से एक पचास रुपए का नोट निकाला और पर्स वापस जेब में रखकर टिकट खिड़की की तरफ बढ़ गया।

"बीस रुपये और दीजिये", टिकट बाबू ने उसके बताये स्टेशन को कम्प्यूटर में फीड करते हुए कहा।

"अच्छा सर अभी देता हूँ", कहते हुए सुरेश ने अपनी जेब में हाथ डाला लेकिन ये क्या उसकी जेब में तो उसका पर्स था ही नहीं!!!
सुरेश ने जल्दी-जल्दी अपनी सारी जेबें टटोल लीं लेकिन उसका पर्स कहीं नहीं था।

"अभी तो मैने पैसे निकाल कर पर्स मेरी जेब में...?",  याद करते हुए सुरेश ने फिर अपनी पैंट की पिछली जेब को झाड़ा।

"जल्दी कीजिये भाई", तब तक खिड़की से फिर टिकट बाबू की आवाज आयी।

"ज..जी..जी सर अभी लाता हूँ", कहकर सुरेश परेशान होता हुआ उस जगह आकर खड़ा हो गया जहां उसने पर्स निकाला था और वह इधर-उधर देखने लगा कि शायद कहीं गिर गया हो जेब में रखते वक्त, लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी।

"कहाँ गया मेरा पर्स??!!?", वह आँखें बंद करके कुछ सोचता हुए बुदबुदाया।

"ओह्ह!!" तभी अचानक उसे कुछ याद आया और वह एक तरफ दौड़ गया।

जल्दी उसने दौड़कर एक भिखारिन जैसी दिखने वाली लड़की को पकड़ा और उसे हाथ पकड़कर खींचता हुआ स्टेशन पर ले आया जो पटरी के सहारे अँधेरे में लगभग भागी हुई चली जा रही थी।
अब तक स्टेशन पर लाइट्स जल चुकी थीं और वहां अच्छा- खासा उजाला हो रहा था।

"ऐ लड़की कहाँ है मेरा पर्स? जो तूने मेरी जेब से निकाला था जब मैं टिकट लेने के लिए बढ़ रहा था", सुरेश चिल्लाकर उस लड़की से बोला।

"कौनसा पर्स साहब? मैंने तो कोई पर्स नहीं लिया", वह लड़की डरते हुए बोली।

"अच्छा झूठ बोलती है...! उस समय तू मेरे पास नहीं खड़ी थी",  सुरेश के तेवर और कड़े हो गए।

"मैं कब खड़ी थी साहिब मैं.. मैं तो.." उस लड़की की आवाज में अब सिसकियां सुनाई पड़ी, सुरेश उस लड़की को ध्यान से देखने लगा।

वह चेहरे से बहुत मासूम सी कोई तेरह-चौदह साल की लग रही थी, सांवला रँग, बड़ी आँखें, लंबे खुले बाल; उसने एक गन्दा सा फ्रॉक पहन रखा था,जो घुटनों के बस थोड़ा ही नीचे पहुंच रहा था। उसके पैरों में दो मेल की पुरानी चप्पल थीं।

किन्तु चेहरे से बच्ची लगने वाली ये लड़की जिस्म से किसी अठारह-बीस साल की महिला जैसी लग रही थी।
जी हाँ महिला क्योंकि उसके शरीर के कटाव समय से पहले ही उभर आये थे और उसका पेट... उसका पेट तो कुछ अलग ही संकेत दे रहा था।
सुरेश उसे देखकर चौंका की इतनी कम उम्र में ये...।

किन्तु अगले ही पल फिर सुरेश के मन मे पर्स का ख्याल आया और उसने फिर कड़क कर पूछा, बताती है या बुलाऊँ पुलिस को।

"बुला लो साहब जब हमने कुछ किया ही नहीं तो डरें क्यों", वह लड़की अब तन कर बोली और झपट्टा मार कर भागने लगी।
उसे सुबकते सुनकर उसे देखने के चक्कर में सुरेश की पकड़ उसके हाथ पर ढीली हो गयी थी और उसी का फायदा उठाकर वह भागने लगी।

"नहीं लिया तो फिर भागती क्यों है सा.. जेबकतरी", सुरेश ग़ुस्से गली देता हुआ उसके पीछे झपटा और कुछ ही कदम पर उसे पकड़ लिया।
इस बार सुरेश ने जब उस पर झपट्टा मारा तो उसका हाथ उस लड़की की छाती पर पड़ा और उसके हाथ में उसके फ्रॉक के साथ ही कुछ और भी चीज या गयी।

ये छोटी सी चीज बिल्कुल सुरेश के पर्स जैसी ही थी।
सुरेश का पर्स हमेशा कुछ पेपरों की वजह से बहुत मोटा हुआ रहता था और अब उसे अपना वही मोटा पर्स उसकी फ्रॉक के अंदर छिपा हुआ महसूस हो रहा था।

"तूने नहीं चुराया तो तेरे पास मेरा पर्स क्या कर रहा है? चोट्टी कहीं की, चल निकाल मेरा पर्स", सुरेश फिर से उसे झिड़कते हुए बोला, लेकिन इस बार उनसे इस 'जेबकतरी' को मजबूती से पकड़ा हुआ था।
इस सुनसान स्टेशन पर अभी तक इन दोनों के बीच अभी तक कोई नहीं आया था।

"मैंने कहा ना कि मैंने नहीं चुराया तुम्हारा पर्स साहब, ये तो मेरे पास मेरा कुछ समान है", इस बार वह लड़की कुछ तेज़ चीखकर बोली।
इतना तेज जैसे वह किसी दूर के व्यक्ति से बात कर रही हो या दूर खड़े किसी को सुनाना चाह रही हो।

"तेरे पास ही है मेरा पर्स, मैं अपना पर्स खूब पहचानता हूं; चल निकाल इसे", सुरेश फिर उस पर चिल्लाया।

"देखो साहब आपने मुझे गलत जगह पकड़ा हुआ है, आप छोड़ो मुझे नहीं तो..", अब वह लड़की सुरेश से डरने के स्थान पर लड़ने पर उतर आई थी।

"नहीं तो क्या? क्या करेगी तू... ", सुरेश उसकी बात सुनकर अपने हाथ को देखते हुए बोला, लेकिन उसने पर्स को नहीं छोड़ा।

अभी ये उलझ ही रहे थे तब तक एक पुलिस वाला सीटी बजाता इधर आता दिखाई पड़ा, उसके साथ ही एक व्यक्ति और था जो रेलवे का ही कोई कर्मचारी लग रहा था।
उन्हें आता देखकर लड़की की आंखों में खुशी की चमक आ गयी थी जिसे सुरेश नहीं देख पाया।

"क्या हुआ साहब, आपने इस भिखारन को ऐसे क्यों पकड़ रखा है?" पुलिस वाले ने आकर सुरेश से पूछा।

"हाँ- हाँ बताओ क्या बात है और किसी लड़की को ऐसे, इस तरह पकड़ना क्या आपको अच्छा लगता है? आप तो देखने में बहुत शरीफ लग रहे हैं तो फिर किसी लड़की के साथ ऐसे अंधेरे में छेड़छाड़...", वह दूसरा आदमी भी बोल पड़ा।

"इसने मेरा पर्स चुराया है हवलदार साहब, ये मेरे हाथ में मेरा पर्स है जो इसने अपने कपड़ों में..", सुरेश भी पुलिस के आने से सुरक्षित ही महसूस कर रहा था।
उसे पूरा विश्वास था कि पर्स बरामद होने पर पुलिस वाला उसकी बात जरूर समझेगा।

"अच्छा आप छोड़िए हम देखते हैं", पुलिस वाले ने उस लड़की का हाथ पकड़ते हुए कहा।

सुरेश ने उसका गिरेबान छोड़ दिया।

"क्यों बे साली मेरे इलाके में जेब काटती है??, चल निकाल क्या है तेरे पास", सिपाही उस लड़की को डाँटते हुए बोला।

"नहीं साहब, मैंने नहीं लिया कुछ भी; मेरे पास बस मेरा ही सामान है", वह लड़की अब पूरे आत्मविश्वास से बोल रही थी।
"अच्छा साली झूठ भी बोलती है, मैं खूब जनता हूँ तुम जे  जैसियों को, अभी चार डण्डे पड़ेंगे तो सब कुछ निकाल देगी",  सिपाही फिर उसे हड़काने लगा।
"चल तलाशी दे, अभी पता लग जाएगा क्या है-क्या नहीं तेरे पास", कहकर सिपाही ने उसे अपनी तरफ घुमाया जिससे सुरेश की तरफ उसकी पीठ हो गयी।
और सिपाही घुटनों पर बैठकर उसकी तलाशी लेने लगा।

"वैसे कितने रुपये होंगे आपके पर्स में और क्या-क्या सामान होगा?रंग क्या है आपके पर्स का? वो क्या है ना पता रहेगा तभी तो मिलान हो पायेगा की वह आपका पर्स है या इसका", तभी वह दूसरा आदमी सुरेश से बोला।

"कोई आठ सौ रुपए और कुछ कागज, मेरा कार्ड और एटीएम हैं मेरे काले पर्स में", सुरेश ने उसकी ओर देखकर जबाब दिया।

"मिल गया, तब तक पुलिस वाला हाथ में पर्स लेकर खड़ा हुआ। लेकिन ये तो लाल पर्स है साहब और इसमें तो कोई बीस-तीस रुपये पड़े हैं और खूब सारे कागज जिनकी वजह से ये मोटा हो रहा है; और तो इसमें कुछ नहीं है साहब।" पुलिस वाला उस लाल पर्स को पलटकर समान निकालते हुए बोला।

"लेकिन आपका पर्स तो काला था, और उसमें आठ सौ.." दूसरा आदमी याद करने का नाटक करते हुए बोला।

"हम समझते हैं आपकी परेशानी, आपका पर्स कहीं और गिर गया होगा। आप ऐसा करिए अपने पर्स का  ब्यौरा और अपना ऐड्रेस लिखकर दे दीजिए हम कल दिन में ढूंढकर देखेंगे और लोगों से पूछताछ करेंगे, अगर मिल गया तो आपके घर भिजवा देंगे", पुलिस वाला सहानुभुति दिखाते हुए बोला।

"वैसे आप कहीं जा रहे हैं या आ रहे हैं", दूसरे व्यक्ति ने पूछा।
"मैं जा रहा हूँ इसी गाड़ी से", सुरेश पता बताते हुए बोला।

"अरे  तब तो गाड़ी जाने वाली है, टिकट तो होगी आपके पास? अरे कहाँ से होगी आपका तो पर्स ही खो गया आप ये लीजिये ये सौ रुपये रखिये और जाइये, हम आपका सामान मिलते ही पोस्ट कर देंगे", पुलिस वाले ने अपनी जेब से सौ रुपये निकाल कर उसे देते हुए कहा।

गाड़ी जाने वाली थी इसलिए सुरेश भी कुछ ना कह सका और सौ रुपये पकड़कर धन्यवाद बोलते हुए टिकट खिड़की की तरफ बढ़ गया।

"पर्स तो उसके पास ही था मेरा, मेरे हाथ अपने पर्स को खूब पहचानते हैं, लेकिन वह बदल कैसे गया और फिर उस लड़की ने कोई भी मर्दाना पर्स अपने सीने पर क्यों छिपाया हुआ था।
और ये पुलिस.. पुलिस वाले ने मुझे अपने पास से सौ रुपए दिए....
वह लड़की भी उसके आने पर ज्यादा ही अकड़ने लगी थी... कहीं ये सब मिले हुए??", सुरेश भागती हुई ट्रेन में विचार दौड़ा रहा था।
इधर ये दोनों लोग, तीन सौ रुपये लड़की को देकर दो-दो सौ अपनी जेब में रख चुके थे और अब बेशर्मी से लड़की के जिस्म को आपस में बांट रहे थे।
लड़की के चेहरे पर मजबूरी और बेबसी का दर्द साफ झलक रहा था।

 ✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा
मुरादाबाद
मोबाइल फोन नंबर ९०४५५४८००८

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी ---दावत


ठाकुर संग्राम सिंह बहुत उदार जमींदार थे।
सारे गांव में उनको बहुत आदर सम्मान मिलता था।संग्राम सिंह जी भी सारे गांव के सुख दुख में विशेष ध्यान रखते।

उसी गांव के बाहर कुछ दिन से एक गरीब परिवार आकर ,झोंपडी बना कर रह रहा है ,पता नहीं कहाँ से किन्तु बहुत दयनीय अवस्था मे थे सब।
परिवार में एक बीमार आदमी रग्घू उसकी पत्नी रधिया , दो बेटियां छुटकी और झुमकी।
बेचारी रधिया गांव के कूड़े से प्लास्टिक धातु ओर अन्य बेचने योग्य बस्तुएं बीन कर कबाड़ी को बेचती थी।
बामुश्किल एक समय का बाजरा, जुआर अथवा संबई कोदो जुटा पाती और उसे उबालकर पीकर सभी परिवार सो जाता।
बच्चों ने कभी पकवानों के नाम भी नहीं सुने थे ,चखने की तो बात ही स्वप्न थी।
आज संग्राम सिंह जी के घर उनका वंश दीप जन्मा था उनका पोता।
उसके जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में उन्होंने सारे गांव को दावत दी थी।
उन्होंने वारी(न्योता देने वाला) से कहा था कि, ध्यान रहे आज गांव में किसी के भी घर चूल्हा न जले सब हमारे घर ही भोजन करेंगे।
तो वारी इस परिवार में भी न्योता दे आया।
दावत का नाम भी बेचारे बच्चों ने कभी नही सुना था, अतः उन्होंने सवाल पूछ पूछ रधिया को हलकान कर दिया,,,,

अम्मा, यो दावत क्या होवे है? छोटी छुटकी ने पूछा।
अम्मा लोग कहते हैं हुँआ पकवान बनेगा ,,यो पकवान क्या होवे है ,,?
झुमकी ने दूसरी तरफ से उसका आँचल खींचा।
दावत में बहोत सारा खाना बनेगा जितना मन करे खाओ कोई रोकेगा नई लल्ली।
रधिया ने जबाब दिया,, पर हमारी दावत कैसे कर दी जमींदार ने।
अर्रे अम्मा सारा गाम उनके घर जावेगा खाने हम तो जरुरी जानगे अम्मा ।
अम्मा पकवान बहोत मीठा होवे है का?
गुड़ से भी जादा मिट्ठा?? झुमकी ने चहक कर पूछा।
उन वेचारे बच्चों ने लड्डू पूड़ी रायता के नाम भी नहीं सुने थे।

अगले दिन डरते डरते रधिया दोनो बच्चियों को लेकर दावत में गई और एक कोने में ज़मीन पर बैठ गई ।

तभी संग्राम सिंह उधर आये उन्हें यूं नीचे बैठे देख बोले अरे आप लोग ऐंसे कैसे बैठ गए??
रधिया बेचारी डर गई कि कहीं जमींदार उसे घुड़क कर भगा न दे।
वह अपने फटे मैले कपड़े समेटते हुए आदर से उन्हें नमस्ते करके बोली ,मालिक कोनो भूल हुई गई हो तो माफ करदो।
आपका आदमी दावत कर आया था तो,,,, कह कर बड़ी कातर दृष्टि से उनकी ओर देखने लगी।
अरे नही कोई भूल नहीं हुई बेटा लेकिन यूं सबसे अलग ज़मीन पर कियूं??
उधर बिछावन पर बैठ कर आराम से खाना खाओ।
और कोई रह तो नही गया घर?
मालिक इनके बापू हैं बीमार हैं तो,,,,, रधिया रोनी सी हो गई।
ठीक है खाना खाकर उनके लिए बंधवा लेना ।

ठीक है मालिक आपका जस बना रहे, कह कर रधिया सबके साथ खाना खाने बैठ गई,

पत्तल में दो सब्जी पूड़ी दोने में रायता और लड्डू परोसे गए।

झुमकी ने लड्डू हाथ मे लेकर फिर राधिया से पूछा यो के है अम्मा।??
चुप कर खाले लड्डू है।
पहले बाकी सब चीज़े खा इसे बाद में खाइयो यो मीठा है खाने के बाद खाया जाबे है।
सब खाना खाने लगे। बच्चीयों ने ऐंसे पकवान कभी नही खाये थे अतः वह जल्दी जल्दी पूड़ी तोड़ने लगीं।

उनके पीछे बैठा कोई कह रहा था ,,
साहब जमींदार ने इतना सब गांव नोत दिया और खाने में कंजूसी कर गया, सब्जी में मसाला पता नहीं लग रहा और लड्डू इतना मीठा की एक में ही मन भर जाए।
खर्च बचाने के लिए स्वाद से समझौता कर लिया ठाकुर ने।

इधर छुटकी रधिया से कह रही थी ,,
अम्मा लड्डू इतने बढिया इतने मीठे होबे है।
गुड़ से भी अच्छे और पूड़ी कितनी स्वाद, अम्मा जमींदार के घर रोज़ पोता कियूं नही पैदा होतता।

रोज़ कियूं?? रधिया ने मुस्कुरा कर पूछा।

अम्मा रोज़ होगा तो रोज दावत मिलेगी ना।

अरे तो रोज़ किसी के घर बच्चा थोड़ो होवे है ,झुमकी ने अपना मासूम ज्ञान बखाना।

तो अम्मा ओर दावत कब कब होवे है??

जब कोई खुशि होबे है किसी के घर।

छुटकी और झुमकी एक साथ आंख बंद कर हाथ जोड़ बैठ गईं।

अरे क्या करने लगीं तुम दोनों।
अम्मा भगवान से दुआ मना रई हैं कि, जमींदार जी के घर रोज़ कोई ना कोई खुशी आवे ओर हमे रोज़ ऐंसे अच्छी दावत खाने कु मिले।
ये सुनकर रधिया ने भी ऊपर की ओर हाथ जोड़ कर सर झुका लिया।

संग्राम सिंह जी दोनो ओर की बात सुन रहे थे और सोच रहे थे  कि असली दावत किसकी हुई।
दावत के बाद संग्राम सिंह जी ने रधिया को अगले दिन घर आकर मिलने को कहा।
अगले दिन जब रधिया हवेली पर आई तो उन्होंने उस से पूछा ,, कियूं रधिया अपनी मालकिन की सेवा करेगी ??
बदले में खाना कपड़े बच्चियों की पढ़ाई के साथ एक हज़ार रुपये भी मिलेंगे।
बदले में घर की साफ सफाई और अपनी मालकिन की सेवा।
ये सुनते ही रधिया उनके पैरों में पड़ गई,, मालिक ईश्वर आपका भला करे सारे सुख पहले आपके कदम चूमे।
काम कब से शुरू करना है मालिक।
अभी से। संग्राम सिंह ने संक्षिप्त उत्तर दिया ।
और राधिया ने फिर ऊपर की ओर हाथ जोड़ कर सिर झुका लिया।
और मन ही मन कहने लगी।
हे ईश्वर! आज हुई मेरी असली दावत।।

✍️नृपेंद्र शर्मा "सागर"
रतुपुरा, ठाकुरद्वारा 244601
जिला- मुरादाबाद
उत्तरप्रदेश, भारत
Mobie-9045548008

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी ...

#मज़बूरी

नन्ही रौनक गुब्बारे को देख कर मचल उठी, "अम्मा अम्मा हमें भी गुब्बारा दिलाओ ना.. दिलाओ ना अम्मा, हम तो लेंगे वो लाल बाला, दिलाओ ना अम्मा।"
"भइया कितने का है ?" कांता ने गुब्बारे वाले से पूछा।
"दस रुपए का है बहन जी, ले लीजिए बच्ची का दिल बहल जाएगा।" गुब्बारे वाले ने आशा भरी निगाह से देखकर कहा।

" द..स रुपया", कांता के मुंह से जैसे उसकी निराश उसकी मजबूरी निकली हो।

"रहने दो भय्या बाद में दिला दूंगी , अभी (पैसे,, )खुल्ले नहीं है भय्या", वह अपने चेहरे के भावों को छिपाती हुई बोली।

"चल रौनक हमें तेरे पापा की दवाई भी लेनी है ना",
कांता रौनक का हाथ पकड़े लगभग घसीटते हुए चल पड़ी।

कांता एक पच्चीस छब्बीस वर्ष की आकर्षक महिला है, लेकिन शायद गरीबी के चलते उसका रूप कुछ दब सा गया है।
वह चलते चलते सोचने लगती है :- सात साल पहले उसकी शादी हुई थी, साधारण से समारोह में मोहन के साथ।

गरीबी के चलते उसके पिता उसके लिए बहुत अच्छा घर-वर तो नहीं ढूंढ पाए फिर भी अपनी हैसियत से बढ़कर उन्होंने मोहन से इसकी शादी की।
मोहन गांव का सीधा सादा नौजवान था, सांवला रंग, मजबूत बदन, आकर्षक चेहरा, ऊपर से गोरी, छरहरी, अप्सरा सी कांता से उसे प्रेम भी बहुत था।
कांता खुश थी अपनी किस्मत पर।

मोहन का गांव में पक्का मकान था, जो उसने अपनी मेहनत की कमाई से बनाया था।
कांता अपने जीवन में बहुत खुश थी, मोहन कारखाने में काम करता था और इतने पैसे कमा लेता था कि उनकी जिंदगी आराम से चल रही थी।
 शादी के दो साल के अंदर ही उनके घर 'रौनक' ने जन्म लिया, दोनों ने बहुत उत्सव मनाया मिठाइयां बांटी।
जिंदगी बहुत अच्छी चल रही थी लेकिन शायद उनके सुख को किसी की नज़र लग गयी।

रौनक का पांचवा जन्मदिन था, मोहन ने ठेकेदार से बता दिया था कि वह आज जल्दी जाएगा, लेकिन ठेकेदार ने उसे काम का ढेर बता कर कहा, "इसे खत्म करके चले जाना बाकी तुम देखलो।"

कुछ काम का दबाब, कुछ घर जाने की जल्दी, इसी हड़बड़ाहट में मोहन चूक कर गया और मशीन में माल की जगह उसके हाथ चले गए.....।
जब अस्पताल में उसे होश आया वह अपने दोनों हाथ कोहनी से नीचे, खो चुका था।
कांता का रो रोकर बुरा हाल था, ठेकेदार  उसकी मरहम पट्टी करा कर पांच हजार रुपए और आठ सौ का उसका हिसाब देकर कर्तव्य मुक्त हो गया ।
मोहन के हाथों में सेप्टिक हो गया था डॉक्टरों ने कहा कि मोहन को बचाना मुश्किल है।
 सारी जमापूंजी, अपने सारे जेवर जो मोहन ने बड़े प्यार से इसके लिए बनाए थे और मकान बेचकर मिले सारे पैसे लगाकर कांता ने मोहन की जिंदगी तो खरीद ली, लेकिन उसके पास रहने और खाने को कुछ नहीं बचा।

हार कर कांता ने शहर में किराए से एक झोंपड़ी ली है, जहां वह लोगों के घरों में साफ सफाई का काम करती है।
रौनक को वह ज्यादातर अपने साथ ही रखती है।
उसकी कमाई का ज़्यादातर हिस्सा तो मोहन की दवाइयों पर ही खर्च हो जाता है और खाने कपड़े की उसकी चिंता हमेशा बनी रहती है।
यूँ तो शहर में कई लोगों ने उसकी खूबसूरती को देखकर उसकी मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिशें की, उसे बड़ा लालच भी दिया लेकिन उसने कभी अपनी मज़बूरी को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया, उसने कभी अपनी मजबूरी को जरूरत नहीं बनाया।
वह अपनी जिंदगी से समझौता कर चुकी है लेकिन कभी अपनी मज़बूरी से समझौता नहीं किया उसने।

आज भी अपनी मजबूरी के चलते वह रौनक को गुब्बारा नहीं दिला पाई जिसका पछतावा आँसू बनकर उसकी  आंख से ढलक गया जिसे उसने सफाई से रौनक की नज़र बचाकर पोंछ दिया...।

©नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा
जिला मुरादाबाद
उत्तर प्रदेश, भारत