गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार नृपेंद्र शर्मा सागर की कहानी ---- जेबकतरी


अप्रैल का महीना था, शाम हो चली थी लेकिन अभी पर्याप्त प्रकाश था। सुदूर ग्रामीण इलाके के उस छोटे से रेलवे स्टेशन पर बस इक्का दुक्का ही लोग नज़र आ रहे थे।
सुरेश ने अपनी पेंट की पिछली जेब से अपना पर्स  निकालकर उसमें से एक पचास रुपए का नोट निकाला और पर्स वापस जेब में रखकर टिकट खिड़की की तरफ बढ़ गया।

"बीस रुपये और दीजिये", टिकट बाबू ने उसके बताये स्टेशन को कम्प्यूटर में फीड करते हुए कहा।

"अच्छा सर अभी देता हूँ", कहते हुए सुरेश ने अपनी जेब में हाथ डाला लेकिन ये क्या उसकी जेब में तो उसका पर्स था ही नहीं!!!
सुरेश ने जल्दी-जल्दी अपनी सारी जेबें टटोल लीं लेकिन उसका पर्स कहीं नहीं था।

"अभी तो मैने पैसे निकाल कर पर्स मेरी जेब में...?",  याद करते हुए सुरेश ने फिर अपनी पैंट की पिछली जेब को झाड़ा।

"जल्दी कीजिये भाई", तब तक खिड़की से फिर टिकट बाबू की आवाज आयी।

"ज..जी..जी सर अभी लाता हूँ", कहकर सुरेश परेशान होता हुआ उस जगह आकर खड़ा हो गया जहां उसने पर्स निकाला था और वह इधर-उधर देखने लगा कि शायद कहीं गिर गया हो जेब में रखते वक्त, लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी।

"कहाँ गया मेरा पर्स??!!?", वह आँखें बंद करके कुछ सोचता हुए बुदबुदाया।

"ओह्ह!!" तभी अचानक उसे कुछ याद आया और वह एक तरफ दौड़ गया।

जल्दी उसने दौड़कर एक भिखारिन जैसी दिखने वाली लड़की को पकड़ा और उसे हाथ पकड़कर खींचता हुआ स्टेशन पर ले आया जो पटरी के सहारे अँधेरे में लगभग भागी हुई चली जा रही थी।
अब तक स्टेशन पर लाइट्स जल चुकी थीं और वहां अच्छा- खासा उजाला हो रहा था।

"ऐ लड़की कहाँ है मेरा पर्स? जो तूने मेरी जेब से निकाला था जब मैं टिकट लेने के लिए बढ़ रहा था", सुरेश चिल्लाकर उस लड़की से बोला।

"कौनसा पर्स साहब? मैंने तो कोई पर्स नहीं लिया", वह लड़की डरते हुए बोली।

"अच्छा झूठ बोलती है...! उस समय तू मेरे पास नहीं खड़ी थी",  सुरेश के तेवर और कड़े हो गए।

"मैं कब खड़ी थी साहिब मैं.. मैं तो.." उस लड़की की आवाज में अब सिसकियां सुनाई पड़ी, सुरेश उस लड़की को ध्यान से देखने लगा।

वह चेहरे से बहुत मासूम सी कोई तेरह-चौदह साल की लग रही थी, सांवला रँग, बड़ी आँखें, लंबे खुले बाल; उसने एक गन्दा सा फ्रॉक पहन रखा था,जो घुटनों के बस थोड़ा ही नीचे पहुंच रहा था। उसके पैरों में दो मेल की पुरानी चप्पल थीं।

किन्तु चेहरे से बच्ची लगने वाली ये लड़की जिस्म से किसी अठारह-बीस साल की महिला जैसी लग रही थी।
जी हाँ महिला क्योंकि उसके शरीर के कटाव समय से पहले ही उभर आये थे और उसका पेट... उसका पेट तो कुछ अलग ही संकेत दे रहा था।
सुरेश उसे देखकर चौंका की इतनी कम उम्र में ये...।

किन्तु अगले ही पल फिर सुरेश के मन मे पर्स का ख्याल आया और उसने फिर कड़क कर पूछा, बताती है या बुलाऊँ पुलिस को।

"बुला लो साहब जब हमने कुछ किया ही नहीं तो डरें क्यों", वह लड़की अब तन कर बोली और झपट्टा मार कर भागने लगी।
उसे सुबकते सुनकर उसे देखने के चक्कर में सुरेश की पकड़ उसके हाथ पर ढीली हो गयी थी और उसी का फायदा उठाकर वह भागने लगी।

"नहीं लिया तो फिर भागती क्यों है सा.. जेबकतरी", सुरेश ग़ुस्से गली देता हुआ उसके पीछे झपटा और कुछ ही कदम पर उसे पकड़ लिया।
इस बार सुरेश ने जब उस पर झपट्टा मारा तो उसका हाथ उस लड़की की छाती पर पड़ा और उसके हाथ में उसके फ्रॉक के साथ ही कुछ और भी चीज या गयी।

ये छोटी सी चीज बिल्कुल सुरेश के पर्स जैसी ही थी।
सुरेश का पर्स हमेशा कुछ पेपरों की वजह से बहुत मोटा हुआ रहता था और अब उसे अपना वही मोटा पर्स उसकी फ्रॉक के अंदर छिपा हुआ महसूस हो रहा था।

"तूने नहीं चुराया तो तेरे पास मेरा पर्स क्या कर रहा है? चोट्टी कहीं की, चल निकाल मेरा पर्स", सुरेश फिर से उसे झिड़कते हुए बोला, लेकिन इस बार उनसे इस 'जेबकतरी' को मजबूती से पकड़ा हुआ था।
इस सुनसान स्टेशन पर अभी तक इन दोनों के बीच अभी तक कोई नहीं आया था।

"मैंने कहा ना कि मैंने नहीं चुराया तुम्हारा पर्स साहब, ये तो मेरे पास मेरा कुछ समान है", इस बार वह लड़की कुछ तेज़ चीखकर बोली।
इतना तेज जैसे वह किसी दूर के व्यक्ति से बात कर रही हो या दूर खड़े किसी को सुनाना चाह रही हो।

"तेरे पास ही है मेरा पर्स, मैं अपना पर्स खूब पहचानता हूं; चल निकाल इसे", सुरेश फिर उस पर चिल्लाया।

"देखो साहब आपने मुझे गलत जगह पकड़ा हुआ है, आप छोड़ो मुझे नहीं तो..", अब वह लड़की सुरेश से डरने के स्थान पर लड़ने पर उतर आई थी।

"नहीं तो क्या? क्या करेगी तू... ", सुरेश उसकी बात सुनकर अपने हाथ को देखते हुए बोला, लेकिन उसने पर्स को नहीं छोड़ा।

अभी ये उलझ ही रहे थे तब तक एक पुलिस वाला सीटी बजाता इधर आता दिखाई पड़ा, उसके साथ ही एक व्यक्ति और था जो रेलवे का ही कोई कर्मचारी लग रहा था।
उन्हें आता देखकर लड़की की आंखों में खुशी की चमक आ गयी थी जिसे सुरेश नहीं देख पाया।

"क्या हुआ साहब, आपने इस भिखारन को ऐसे क्यों पकड़ रखा है?" पुलिस वाले ने आकर सुरेश से पूछा।

"हाँ- हाँ बताओ क्या बात है और किसी लड़की को ऐसे, इस तरह पकड़ना क्या आपको अच्छा लगता है? आप तो देखने में बहुत शरीफ लग रहे हैं तो फिर किसी लड़की के साथ ऐसे अंधेरे में छेड़छाड़...", वह दूसरा आदमी भी बोल पड़ा।

"इसने मेरा पर्स चुराया है हवलदार साहब, ये मेरे हाथ में मेरा पर्स है जो इसने अपने कपड़ों में..", सुरेश भी पुलिस के आने से सुरक्षित ही महसूस कर रहा था।
उसे पूरा विश्वास था कि पर्स बरामद होने पर पुलिस वाला उसकी बात जरूर समझेगा।

"अच्छा आप छोड़िए हम देखते हैं", पुलिस वाले ने उस लड़की का हाथ पकड़ते हुए कहा।

सुरेश ने उसका गिरेबान छोड़ दिया।

"क्यों बे साली मेरे इलाके में जेब काटती है??, चल निकाल क्या है तेरे पास", सिपाही उस लड़की को डाँटते हुए बोला।

"नहीं साहब, मैंने नहीं लिया कुछ भी; मेरे पास बस मेरा ही सामान है", वह लड़की अब पूरे आत्मविश्वास से बोल रही थी।
"अच्छा साली झूठ भी बोलती है, मैं खूब जनता हूँ तुम जे  जैसियों को, अभी चार डण्डे पड़ेंगे तो सब कुछ निकाल देगी",  सिपाही फिर उसे हड़काने लगा।
"चल तलाशी दे, अभी पता लग जाएगा क्या है-क्या नहीं तेरे पास", कहकर सिपाही ने उसे अपनी तरफ घुमाया जिससे सुरेश की तरफ उसकी पीठ हो गयी।
और सिपाही घुटनों पर बैठकर उसकी तलाशी लेने लगा।

"वैसे कितने रुपये होंगे आपके पर्स में और क्या-क्या सामान होगा?रंग क्या है आपके पर्स का? वो क्या है ना पता रहेगा तभी तो मिलान हो पायेगा की वह आपका पर्स है या इसका", तभी वह दूसरा आदमी सुरेश से बोला।

"कोई आठ सौ रुपए और कुछ कागज, मेरा कार्ड और एटीएम हैं मेरे काले पर्स में", सुरेश ने उसकी ओर देखकर जबाब दिया।

"मिल गया, तब तक पुलिस वाला हाथ में पर्स लेकर खड़ा हुआ। लेकिन ये तो लाल पर्स है साहब और इसमें तो कोई बीस-तीस रुपये पड़े हैं और खूब सारे कागज जिनकी वजह से ये मोटा हो रहा है; और तो इसमें कुछ नहीं है साहब।" पुलिस वाला उस लाल पर्स को पलटकर समान निकालते हुए बोला।

"लेकिन आपका पर्स तो काला था, और उसमें आठ सौ.." दूसरा आदमी याद करने का नाटक करते हुए बोला।

"हम समझते हैं आपकी परेशानी, आपका पर्स कहीं और गिर गया होगा। आप ऐसा करिए अपने पर्स का  ब्यौरा और अपना ऐड्रेस लिखकर दे दीजिए हम कल दिन में ढूंढकर देखेंगे और लोगों से पूछताछ करेंगे, अगर मिल गया तो आपके घर भिजवा देंगे", पुलिस वाला सहानुभुति दिखाते हुए बोला।

"वैसे आप कहीं जा रहे हैं या आ रहे हैं", दूसरे व्यक्ति ने पूछा।
"मैं जा रहा हूँ इसी गाड़ी से", सुरेश पता बताते हुए बोला।

"अरे  तब तो गाड़ी जाने वाली है, टिकट तो होगी आपके पास? अरे कहाँ से होगी आपका तो पर्स ही खो गया आप ये लीजिये ये सौ रुपये रखिये और जाइये, हम आपका सामान मिलते ही पोस्ट कर देंगे", पुलिस वाले ने अपनी जेब से सौ रुपये निकाल कर उसे देते हुए कहा।

गाड़ी जाने वाली थी इसलिए सुरेश भी कुछ ना कह सका और सौ रुपये पकड़कर धन्यवाद बोलते हुए टिकट खिड़की की तरफ बढ़ गया।

"पर्स तो उसके पास ही था मेरा, मेरे हाथ अपने पर्स को खूब पहचानते हैं, लेकिन वह बदल कैसे गया और फिर उस लड़की ने कोई भी मर्दाना पर्स अपने सीने पर क्यों छिपाया हुआ था।
और ये पुलिस.. पुलिस वाले ने मुझे अपने पास से सौ रुपए दिए....
वह लड़की भी उसके आने पर ज्यादा ही अकड़ने लगी थी... कहीं ये सब मिले हुए??", सुरेश भागती हुई ट्रेन में विचार दौड़ा रहा था।
इधर ये दोनों लोग, तीन सौ रुपये लड़की को देकर दो-दो सौ अपनी जेब में रख चुके थे और अब बेशर्मी से लड़की के जिस्म को आपस में बांट रहे थे।
लड़की के चेहरे पर मजबूरी और बेबसी का दर्द साफ झलक रहा था।

 ✍️ नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा
मुरादाबाद
मोबाइल फोन नंबर ९०४५५४८००८

1 टिप्पणी: