"अरे भाई ऐसे कैसे दे दूँ अंतिम संस्कार में पन्द्रह लोगों को जाने की परमिशन? आपको पता है ना पूरी दुनिया में महामारी फैली हुई है।
लॉक डाउन में पाँच से ज्यादा लोग अलाउ ही नहीं हैं।
साहब ने तो भीड़ लगाने को बिल्कुल मना किया हुआ है। लेकिन फिर भी मैं आपको पाँच आदमी अलाउड कर रहा हूँ।" पेशकार साहब ने चश्मा थोड़ा नीचे सरकाकर सामने बैठे उन दो उदास चेहरों को देखा।
"और फिर आपको पता नहीं ऐसे सीधे-सीधे किसी को कोई परमिशन नहीं मिलती?" पेशकार ने कुछ पल रूककर धीरे से कहा।
"क्या हुआ? किस काम से आये थे आप लोग?" बाहर बैठे अर्दली ने इन्हें रोनी सूरत लिए बाहर निकलते देखकर पूछा।
"परमिशन लेने आये थे सर लेकिन..." सामने वाला बस इतना ही कह सका। आगे के शब्द जैसे उसके आँसुओ के साथ उसके लगे में उतर गए।
"ऐसे थोड़े ही मिलती है परमिशन साहब!!" अर्दली ने धीरे से एक पेपर इनकी मुट्ठी में थमा दिया।
"बात कर लेना", अर्दली मुस्कुराते हुए बोला।
बाहर आकर इन्होंने देखा, उस कागज के टुकड़े पर कोई मोबाइल नम्बर लिखा था।
"हेल्लो.. हेल्लो सर...सर बो हम परमिशन के लिए...क्या??! हाँ सर हाँ हम यहीं एस. डी. एम. कोर्ट के बाहर... जी ...जी..! हाँ ठीक है पेड़ के नीचे।", उनमें से एक ने फोन पर बात की और दोनों चलकर इस बड़े पेड़ के नीचे जाकर खड़े हो गए।
"हाँ यो बताइये किस काम के लिए परमिशन चाहिए आपको? और कितने लोग सम्मिलित होंगे?" एक वकील ने आकर इनसे पूछा।
"घबराइए मत हमीं सबको परमिशन दिलाते हैं यहाँ से, देखिये :- दाह संस्कार दस आदमी का पाँच सौ, बीस आदमी का पन्द्रह सौ।
शादी दस आदमी का दो हजार, पच्चीस से तीस आदमी का दस हज़ार।
बाकी कोई छोटा पार्टी, बीस आदमी तक पाँच हज़ार।
बॉर्डर पार जॉब या बिज़नेस का डेली अप-डाउन एक महीने का तीन हज़ार।"
अब आप लोग जल्दी बताइये किस काम की परमीशन दिलानी है, मुझे और भी काम है।
वकील अपनी रेट लिस्ट बता रहा था लेकिन उस आदमी के कानों में तो बार-बार पेशकार के वही शब्द गूँज रहे थे, "ऐसे सीधे-सीधे किसी को परमिशन नहीं मिलती।"
✍️ नृपेन्द्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
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