बुधवार, 8 मई 2024

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी पर केंद्रित डॉ सोनरूपा विशाल का संस्मरणात्मक आलेख गहरे-गहरे से पदचिह्न


15 सितंबर 2014 की शाम थी वो।शिव मिगलानी जी जो मुरादाबाद के प्रमुख व्यवसायियों में से एक हैं,सामाजिक तौर पर काफ़ी सक्रिय।उनके स्नेह की मैं सदा से पात्र रही हूँ।आज भी पार्किंसन की बीमारी से जूझते हुए अपने अस्थिर हाथों से फोन उठाकर कंपकपाती आवाज़ में मुझे मुरादाबाद आने का न्योता देना नहीं भूलते।ऐसे ही उस शाम उन्होंने मुझे याद किया 'एक शाम सोनरूपा के नाम' कार्यक्रम रखकर।जो मेरे गायन को दृष्टिगत रखकर रखा गया था। हमेशा से मेरा संगीत की ओर झुकाव रहा ही था।संगीत में ही शिक्षा भी ली।बाद में हिन्दी से पी. एच डी की।लेकिन 2010 से लेखन भी मेरे भीतर अंगड़ाइयां लेने लगा था।ये गंभीरता वाला था,इससे पहले बचपन वाला कविता प्रेम था मात्र।

उस कार्यक्रम के साथ मिगलानी जी ने सम्मान समारोह भी रखा था।कार्यक्रम के अध्यक्ष थे नवगीत के शिखर नामों में से एक आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी।विशिष्ट अतिथि थे प्रसिद्ध शायर आदरणीय मंसूर उस्मानी जी।

आज तक बहुत कम ऐसे मंच हुए हैं जिन पर अपनी प्रस्तुति को लेकर मैं शत प्रतिशत संतुष्ट हुई होऊँ।लेकिन उस दिन मैं भीतर से आह्लादित थी।श्रोताओं की प्रतिक्रिया तो थी ही अच्छी मुझे भी स्वयं महसूस हुआ कि सब ठीक था।सबकी प्रशंसा और फोटोज़ लेने इच्छा मुझे अभिभूत तो कर रही थी लेकिन सातवें आसमान पर पहुँचने वाला भाव न पनपा पा रही थी।मेरे ज़हन में ज़मीन जो रहती है।

कार्यक्रम के बाद सम्मान समारोह हुआ,उदबोधन,फोटो सेशन इत्यादि।तिवारी जी और उस्मानी जी से भी शाबाशी मिली।

इस सब के उपरान्त डिनर टेबल पर सौभाग्य से कुछ क्षण ऐसे मिले जिसमें मैं थी,माहेश्वर जी थे और ताई जी (माहेश्वर जी की पत्नी)।

माहेश्वर जी ने बहुत ही सौम्य स्वर में मुझसे कहा - बेटा ,एक बात कहूँ यदि बुरा न मानो।

मैंने कहा - जी ताऊ जी,बिल्कुल कहिये।

वो बोले - सोनरूपा कल ही 'सरस्वती सुमन' पत्रिका का डॉ. उर्मिलेश विशेषांक मुझे मिला है।तुम्हारी संपादन क्षमता ने मुझे बहुत प्रभावित किया और तुम्हारे सम्पादकीय ने भी।इधर यदा कदा पत्रिकाओं में भी तुम्हारे गीत और ग़ज़ल पढ़ता रहता हूँ।उसे देख मुझे लगता है तुम्हें लेखन ही पहचान देगा।संगीत नहीं।फिर अपनी पूरी परम्परा को भी तुम ध्यान में रखो।

'जी ताऊ जी।बिल्कुल।आपकी बात पर मैं सिर्फ विचार ही नहीं अमल भी करने की कोशिश करूँगी।' मैंने कहा।

तभी ताई जी ने एक छोटा सा वाक्य बोला -

'बेटा स्वर तुम्हारे बहुत पक्के हैं, आवाज़ भी मधुर।लेकिन ताऊ जी की बात पर ध्यान देना।'

दोनों ने मेरे सिर पर हाथ रखा और अपने लिए तैयार खड़ी गाड़ी में बैठ कर चले गये।

उस दिन मुरादाबाद से बदायूँ आते हुए मैं लगभग सारी बातों को भूल बस इसी बात को सोचती हुई घर तक आ गयी।

इस बीच मैंने उस शाम को भी दोहरा लिया जो पापा डॉ . उर्मिलेश के नवगीत संग्रह 'बाढ़ में डूबी नदी' के लोकार्पण के अवसर पर बदायूँ क्लब में सजी थी।लोकार्पण और संग्रह पर चर्चा के साथ-साथ पापा के गीतों को गाने का भी एक सेगमेंट रखा गया था।लोकार्पणकर्ता डॉ. माहेश्वर तिवारी थे।पापा और उनका बहुत घनिष्ठ संबंध रहा।

तब मेरे विवाह को लगभग दो तीन वर्ष हुए होंगे।उन दिनों थायरॉयड ने मुझे अपना घोर शिकार बनाया हुआ था।मेरी सधी आवाज़ अब काँपने लगी थी।साँस फूलती थी।वज़न 78 किलो पर पहुँच गया था।

पिता को बेटियां अपनी इन दुविधाओं से उस समय कब अवगत करवाती थीं।सो पापा का आदेश सिर माथे पर लिया मैंने कि तुम्हें भी मेरा एक गीत गाना है।

जैसा मुझे अंदेशा था वैसा ही हुआ।मैं पापा के सुंदर गीत के साथ बिल्कुल न्याय नहीं कर पाई।मेरे साथ ही बैठीं एक और गायिका जिन्होंने पापा की ग़ज़ल गायी थी ' उम्र की धूप चढ़ती रही और हम छटपटाते रहे ' बहुत मधुर गायी।एक थर्मस में वो अपने लिए गुनगुना पानी लाई थीं।जिसको देख मैं मन ही मन सोच रही थी कि देखो ये होता है अपने गले का ध्यान और अपने पैशन की कद्र।


अब कार्यक्रम अपने अंतिम पड़ाव पर था।माहेश्वर जी के हाथों हम सभी को स्मृति चिन्ह दिये जाने थे।

उस दो पल के समय में उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा-बढ़िया गाया और मेहनत कर।


और जब सब याद आ ही रहा है तो मैं दैनिक जागरण के लिए नवगीतकार डॉ. योगेंद्र व्योम जी द्वारा माहेश्वर तिवारी जी का वो महत्वपूर्ण साक्षात्कार कैसे भूल सकती हूँ जिसमें उन्होंने तमाम प्रश्नों के उत्तरों में एक उत्तर गीत की बुनावट पर दिया है।।उनके गीत अधिकतर दो अंतरे के रहे।लेकिन उनका विस्तार असीमित था।शब्दों की मितव्यता उनके गीतों की ख़ासियत है।एक भी अतिरिक्त शब्द उनके गीतों में नहीं नज़र आता है।हर शब्द जैसे मोती सा जड़ा हुआ।बिम्ब अनूठे जो आसानी से कहीं पढ़ने में न आएं।ये साक्षात्कार आज भी मेरे संकलन में रखा हुआ है।

आज जब वो नहीं रहे तो पुन: ये सब स्मृतियाँ जीवंत हो उठी हैं।उसके बाद अनगित बार उनसे भेंट हुई।कई बार कवि सम्मेलनों के मंच पर भी।लेकिन अब ये सोनरूपा दो नावों में सवार नहीं थी।बस लिख ही रही थी वो।

उसने आईसीसीआर के इम्पेनल्ड आर्टिस्ट का रिन्युअल लेटर भी अब फाड़ कर फेंक दिया था।

मेरे गीत संग्रह के लोकार्पण पर भी आये वो।अब वो ठठा कर हँसते हुए कहते - ख़ूब लिख रही है अब।

'कोकिला कुल' किताब के उन्होंने कई लेखिकायें सुझाईं मुझे।

उनके घर का नाम हरसिंगार है।हरसिंगार जो मुझे बहुत प्रिय है उसी के चित्र से साथ स्मृतियों की ये ख़ुशबू आज पन्नों पर भी सहेज रही हूँ और यहाँ भी। दोपहर से लिखना शुरु किया अब शाम घिरने को है।सोच रही हूँ कि हमारे होने में कितने लोगों का होना शामिल होता है।


 ✍️ सोनरूपा विशाल

बदायूं

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