कोई किरन अकेली करती माहेश्वर को याद
टूट गया है गीतों वाला
बरसों का संवाद
कोई किरन अकेली करती
माहेश्वर को याद
हरसिंगार के फूल से आंसू
झर झर झरते हैं
चुप रहकर भी जाने कितनी
बातें करते हैं
सब कुछ सूना लगे
इलाहाबाद, मुरादाबाद
स्वप्न रेत के गीली आंखों में
भर जाते हैं
होठों पर लेकिन मीठी
वंशी धर जाते हैं
धीरे धीरे हो जाता है
पीड़ा का अनुवाद
पोर पोर में जलती सी
समिधाएं होती हैं
एक नहीं कितनी ही
गीत कथाएं होती हैं
बदला बदला सा लगता है
छंदों का आस्वाद।
✍️ यश मालवीय
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