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बुधवार, 22 जून 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ....नेतावीर


"नेतावीर" योजना अगर शुरू की जाए तो कैसा रहेगा ? योजना का उद्देश्य जैसा कि नाम से प्रकट हो रहा है, देश को अच्छे नेता प्रदान करना है । आजकल जिसे देखो विधायक और सांसद बनने के लिए खड़ा हो जाता है । चुनाव भी जीत जाता है और जनता से झूठे वायदे करके अथवा उसकी भावनाओं को भड़का कर पद प्राप्ति के बाद तिकड़म बाजी में जुट जाता है । नेतावीर योजना में ऐसा नहीं हो पाएगा ।

             सर्वप्रथम जिन लोगों को नेता बनना है अर्थात सांसद और विधायक आदि का चुनाव लड़ना है, उन्हें पॉंच वर्ष तक नेतावीर के कठिन प्रशिक्षण से गुजरना होगा। नेतावीर बनने के लिए आवेदन-पत्र प्राप्त किए जाएंगे । यह केवल 25 वर्ष से 60 वर्ष आयु के व्यक्तियों के लिए होंगे अर्थात बूढ़े और ढल चुके व्यक्तियों का नेताओं के रूप में कोई भविष्य नहीं होगा । इन्हें जबरन राजनीति से रिटायर कर दिया जाएगा । 

       नेतावीर के लिए उन युवकों को प्रशिक्षण हेतु चुना जाएगा जो किसी गुंडा-बदमाशी के चलते जेल में सजा काटकर नहीं आए होंगे अर्थात अच्छे चाल-चलन वाले लोगों को राजनीति में प्रश्रय मिलेगा ।

     नेतावीर बनना कोई मामूली बात नहीं होगी । इसके लिए 5 वर्षों तक किसी प्रकार का कोई भत्ता या वेतन नहीं मिलेगा बल्कि उल्टे अपनी आमदनी का 10% देश को दान के रूप में देना पड़ेगा। जब आप देश की सेवा करने के इच्छुक हैं तो अपनी आमदनी का 10% देश को पहले दिन से देना शुरू कर दें ।  फिर उसके बाद 5 साल तक जनता के सुख और दुख में निरंतर भागीदारी निभानी होगी । 

        अंतिम संस्कार में कंधा देना पड़ेगा और विवाह आदि के कार्यों में आपकी सहभागिता नोट की जाएगी । सुबह से शाम तक आप कितने लोगों के सुख-दुख में हिस्सेदार बने, उनका हालचाल पूछने के लिए अस्पताल अथवा घर पर गए, यह भी देखा जाएगा। गली-मोहल्लों के चक्कर आपको प्रतिदिन लगाने होंगे तथा उसका विवरण भेजना पड़ेगा । इन सब को देखते हुए कुछ लोगों को नेतावीर का सर्टिफिकेट दिया जाएगा तथा बाकी लोगों को नेता बनने के लिए चुनाव में खड़े होने का अवसर मिलेगा । चुनाव में खड़े होने के बाद भी तथा चुनाव जीतकर सांसद और विधायक बनने के बाद भी यह पद देश की सेवा के लिए ही सुरक्षित रहेगा अर्थात नेतावीर बनने की प्रक्रिया के दौरान जो 10% अपनी आमदनी देश को देते थे, वह आपको सारी जिंदगी देनी पड़ेगी।  विधायक और सांसद बनने के बाद कोई वेतन भत्ता तो दूर की बात रही, आपको अपने पास से अपनी आमदनी का 10% देना पड़ेगा । 

      इतनी कठिन प्रक्रिया के बाद सांसद और विधायक बनने के लिए केवल अच्छे, भले और ईमानदार लोग ही आएंगे।  जिनका उद्देश्य राजनीति में पैसा कमाना है, वह तो दूर से ही राजनीति को प्रणाम करेंगे । वह लोग नेता तो दूर की बात रही नेतावीर भी नहीं बन पाएंगे । एक बार जो सांसद और विधायक बन गया, वह कभी भूल कर भी इस्तीफा देने की नहीं सोचेगा।  इतने पापड़ बेलकर जब पद मिलेगा, तो कौन उसे गॅंवाने की सोच सकता है ?

✍️रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा

 रामपुर ,उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल 99976 15451

शुक्रवार, 17 जून 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का व्यंग्य _----कारण के आगे कारण


कारण के आगे भी कारण होते हैं। कारण के पीछे  भी कारण होते हैं। कारण कभी कारण नहीं होता। कारण कभी अकारण नहीं होता। कारण न जानने के लिए कितने कारण होते हैं। कारण को न जानने के भी कई कारण होते हैं। कारण करुणा है। यह हर हृदय में पाई जाती है। पूरा जीवन कारण जानने में निकल जाता है। हम क्यों आये? किसलिए आये? क्या किया? यही सवालों का उत्तर हमको नहीं मिल पाता। इसके पीछे भी दो कारण हैं। एक-या तो घर में जरूरत थी। या हमारे बिना संसार नहीं चल रहा था। तीसरा कारण अज्ञात है। यानी हम जबरदस्ती आये। घर में चाह नहीं थी। उमंग नहीं थी। लेकिन हमारा धरती पर अवतार हो गया। हम बड़े हुए, फिर इसी खोज में लग गये, हम क्यों आये। स्कूल गये तो कारण ही कारण थे। हजारों सपने थे। ये बनेगा...वो बनेगा। यानी कारण ही कारण थे। नौकरी लगी तो कारण ही कारण थे। अकारण प्रश्न थे और हम उनका कारण  जानने के लिए सिर धुन रहे थे। जिनका हमसे मतलब नहीं। उनका कारण जानने में जुटे थे। यानी कारण के पीछे कारण थे। घर चलाना था। पेट भरना था। सो कारण ढूंढने में जुट गये। सेंसेक्स से लेकर सांसों तक के कारण हमारी टिप्स पर थे। हाथों में मोबाइल था। हमारी आंखों में सपने थे। उत्सुकता थी। हम कारण जानने में जुटे थे।

कारण न होता तो क्या होता। कारण तलाश करने के लिए पूरी मशीनरी काम करती है। सरकारी महकमे तो इसी वजह से चलते हैं। हजारों कर्मचारियों-अधिकारियों को पगार इसलिए ही मिलती है। पूरी सर्विस में कारण अज्ञात ही रहते हैं। जैसे किसी की हत्या हुई। कारण अज्ञात थे। यह बरसों तक अज्ञात रहते हैं। फिर केस होता है। पैरोकारी होती है। अधिवक्ता अपने बुद्धि-विवेक-तर्क से कारण का कारण जानने का प्रयास करते हैं। कभी कारण का कारण पता लग जाता है। कभी नहीं। कारण पता भी लग जाये तो कारण अंतिम नहीं होता। उसके पीछे और भी कारण होते हैं। तह में जाकर अनेक कारण मिलते हैं। अणुओं की मानिंद। सूर्य की किरणों की मानिंद। सिर में इतने बाल क्यों हैं? नाक का बाल भी अकारण नहीं है। नाक में बाल का भी कारण है। यह कारण आज तक अज्ञात है। यानी कितने आये और चले गये...मुहावरा बन गया लेकिन नाक का बाल नाक में रहा। यह कान तक नहीं आया। तफ्तीश भी नहीं हुई। हुक्मरान ने कभी नहीं विचारा...यह मुहावरा क्यों रचा गया। न आयोग बना। न जांच समिति बनी। न रिपोर्ट आई। सरकारी मशीनरी भी बिना कारण, कारण नहीं ढूंढती। उसके पीछे भी कारण होते हैं। कारण का पता करने के लिए बाकायदा एक पीठ काम करती है। वह यह पता करती है कि कारण क्यों कारण है? कारण पता भी चल जाये तो इसके क्या कारण होंगे। शोध पीठ न जाने कितने कारण रोज ढूंढती है। पीएचडी अवार्ड उनको मिलता है जो शोध करते हैं कि यह कारण पता नहीं लगा। यह शोध यहीं पूरा नहीं होता। जहां पर बात खत्म मान ली जाती है, उससे आगे बढ़ती है। दूसरा शोध करता है। फिर तीसरा। यानी शोधकर्ता कारण-दर-कारण बढते जाते हैं और कारण के पीछे कारण चलते रहते हैं।

हम अपने इर्द-गिर्द देखें। रोजाना कारण ही कारण हैं। सुबह हम कारण जानने निकलते हैं। शाम को मुंह लटकाए आ जाते हैं। पत्नी पूछती है...कारण पता लगा? हम क्या जवाब दें। कारण तो अकारण है। कारण ने एक बार कारण से पूछा...तुम कारण क्यों हो। तुममें ऐसा क्या है जो कोई नहीं जान सका। कारण बोला...मैं ही सच हूं। सत्य सनातन हूं। आगे-पीछे मेरे कोई नहीं। अर्जुन को श्रीकृष्ण ने कारण बताये। अर्जुन ने किसी को नहीं बताये। वह युद्ध लड़ा। कारण....? यही तो कारण था जो इतने साल से चला आ रहा है। हमारे नेता, अफसर, पत्रकार, कर्मचारी,कवि, लेखक सब इसी में जुटे हैं...कारण को कारागार में डालो। कोई क्या बताये...हर चीज का कारण नहीं होता। कारण अकारण भी होता है। ठीक वैसे ही, जैसे घर में पत्नी ही भूल जाती है कि हम क्यों लड़ रहे थे। नेता भूल जाते हैं कि हम फलां क्यों आये हैं। वहां क्या कहना है। क्या बोलना है। कारण अनेक होते हैं। कारण स्वतंत्र होते हैं। यह एक फाइल की तरह है। लाल फाइल। हरी फाइल। पीली फाइल। इन सभी में कारण अनेक होते हैं। फाइल क्यों लौटी...इसके पीछे भी कारण होते हैं। फाइल स्वीकृत हुई, इसके पीछे भी कारण होते हैं। कारण एक बांध की तरह हैं। बह जाते हैं। कारण एक सतत प्रक्रिया है। जब तक सांस है। चलती रहती है। कारण कभी अकारण नहीं होते। कारण के पीछे भी कारण होते हैं। लिखने के पीछे भी कारण होते हैं। बिकने के पीछे भी कारण होते हैं। आने के भी कारण होते हैं। जाने के पीछे भी कारण होते हैं। कारण नाक का बाल है। जो हर इंसान में पाया जाता है। चूंकि अरबों की आबादी है। आबादी की गणना में यह निकले नहीं। पता नहीं....क्या कारण रहे????

✍️सूर्यकांत द्विवेदी, मेरठ

शनिवार, 7 मई 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ---आवारा कुत्तों की समस्या


 आपने कभी आवारा कुत्तों को ध्यान से देखा है ? यह बिना मतलब के इधर-उधर घूमते रहते हैं । न मंजिल का पता ,न रास्तों का ज्ञान । जिधर भाग्य ले गया ,उधर चल दिए । न चलने का सलीका है ,न बैठने की सभ्यता है । इनके पास कोई जीवन दर्शन है, इसकी तो आशा ही नहीं की जा सकती । इसके विपरीत पालतू कुत्तों को देखिए ! घर से निकलते हैं तो नहा-धोकर बाल काढ़ कर कितने सलीके से सड़क पर उतरते हैं ! देखो तो दूर से पता चल जाता है कि कोई पालतू कुत्ता आ रहा है । ऐसा नहीं कि केवल गले में पट्टा और हाथ में पकड़ी हुई चेन ही इनकी पहचान है । वास्तव में अगर सभ्यता है ,तो केवल पालतू कुत्तों में ही है । वरना आवारा कुत्तों ने तो सभ्यता का नाम-निशान मिटा देने का ही मानो संकल्प ले रखा है ।

         आवारा कुत्ते एक समस्या के रूप में सभी जगह हैं। क्या गाँव ,क्या शहर ,क्या गली-मोहल्ले और क्या सड़क ! जिधर से गुजर जाओ ,यह  दिखाई पड़ जाते हैं । अच्छा-भला आदमी प्रसन्नचित्त होकर कहीं जा रहा है और देखते ही देखते उदासी और भय से ग्रस्त हो जाता है ।

             आमतौर पर आवारा कुत्ते झुंड में मिलते हैं । इकट्ठे होकर चार-पाँच आवारा कुत्ते टहलना शुरू करते हैं । इन्हें कोई फिक्र नहीं होती । दुनिया में सबसे ज्यादा मस्ती इनको ही छाती है । चाहे जिधर को मुड़ गए।  जिसको देखा ,मुँह फैला लिया। दाँत दिखाने लगे और वह बेचारा इस सोच में पड़ जाता है कि इन से अपनी जान कैसे बचाई जाए ?

            कुछ आवारा कुत्ते जरूरत से ज्यादा आवारा होते हैं । यह जब देखो तब मनचले स्वभाव के साथ विचरण करते नजर आते हैं। इनको देखकर आदमी की हालत पतली हो जाती है । कई बार यह लोगों को दौड़ा देते हैं लेकिन आदमी की रफ्तार से आवारा कुत्ते की रफ्तार ज्यादा तेज होती है । यह छलांग लगाकर उसे पकड़ लेते हैं। कई बार काट खाते हैं । 

       आवारा कुत्ते हमेशा कटखने नहीं होते । कुछ बेचारे इतने सीधे-साधे होते हैं कि बच्चे तक उन्हें कंकड़-पत्थर मार देते हैं और वह रोते हुए चले जाते हैं । कुछ आवारा कुत्तों को लोग प्रेमवश भोजन भी कराते हैं । कुछ लोग बिस्कुट खिलाते हैं। अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार लोग आवारा कुत्तों से प्रेम करते हैं लेकिन किसी के अंदर यह हिम्मत नहीं आती है कि वह आवारा कुत्ते को गोद में उठाकर अपने घर पर ले जाकर पाल ले । वह पंद्रह मिनट के लिए आवारा कुत्ते से प्रेम करेंगे और बाकी पौने चौबीस घंटे आम जनता को परेशान करने के लिए आवारा छोड़ देंगे ।

        यह तो मानना पड़ेगा कि पालतू कुत्ता शरीफ होता है हालांकि जिन घरों में कुत्ता पाला जाता है ,उसके गेट के भीतर कोई आदमी घुसना पसंद नहीं पड़ता क्योंकि मालिक से पहले कुत्ता अतिथि की आवभगत के लिए आकर खड़ा हो जाता है। यद्यपि मालिक का कहना यही रहता है कि हमारा कुत्ता काटेगा नहीं । लेकिन कुत्ता तो कुत्ता है । अगर काट ले तो कोई क्या कर सकता है ? मालिक को नहीं काटेगा , इसके मायने यह नहीं है कि वह किसी को नहीं काटेगा । जब पालतू कुत्ता किसी मेहमान को काट लेता है ,तब भी मालिकों के पास बड़ा सुंदर-सा जवाब रहता है कि हमारे कुत्ते के काटने से घबराने की कोई बात नहीं है । इससे कोई खतरा नहीं है । 

            मगर समस्या यह है कि पालतू कुत्तों से तो बचा जा सकता है मगर आवारा कुत्तों से कैसे बचा जाए ? क्या आदमी सड़कों पर निकलना बंद कर दे या गलियों-मोहल्लों में न जाए ?

                   कई बार लोग दो-चार का झुंड बनाकर उन गलियों से जाते हैं जहां आवारा कुत्तों के पाए जाने की संभावना अधिक होती है । लेकिन यह भी समस्या का कोई समाधान नहीं है । कई बार आवारा कुत्ता जब दो-तीन लोगों को एक साथ देखता है तो और भी ज्यादा खुश हो जाता है तथा सोचता है कि आज थोक में काटने के लिए लोग मिल गए । वह इकट्ठा दो-तीन को काट लेता है ।

         नगरपालिका वाले अगर चाहें तो कुत्तों को पकड़कर एक "कुत्ता जेल" नामक स्थान पर ले जाकर बंद कर सकते हैं । कुत्ता-जेल में कुत्तों को खाना मुफ्त दिया जाता रहेगा लेकिन फिर वह किसी मनुष्य को नहीं काट पाएंगे । इस तरह आवारा कुत्तों की समस्या पूरी तरह हल हो जाएगी । दुर्भाग्य से न कुत्ता-जेल बन पाती है और न आवारा कुत्तों को पकड़ने की योजना क्रियान्वित हो पाती है । आवारा कुत्ते गलियों में आवारागर्दी करते हुए टहलते रहते हैं और शरीफ आदमी अपने घरों में बंद रहने के लिए मजबूर हो जाता है ।

✍️  रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा 

रामपुर (उत्तर प्रदेश)

 मोबाइल 99976 15451

गुरुवार, 17 मार्च 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का हास्य-व्यंग्य -- अपमान समारोह


महोदय

होली के उपलक्ष्य में एक अपमान – समारोह का आयोजन किया जा रहा है , जिसमें आप अपमान सहित आमंत्रित हैं । समारोह निर्धारित समय के कम से कम दो घंटे बाद शुरू होगा । लेकिन आपको अगर अपमानित होना है ,तो समय से कम से कम पंद्रह मिनट पहले आकर स्टूल पर बैठना पड़ेगा । जब आपका नंबर आएगा ,तब आप लाइन में लगिए और मंच पर जाकर अपना अपमान – पत्र ग्रहण कर लीजिए । अगर आने में आपने देर की या लाइन में ढंग से नहीं लगे ,तो फिर उसी समय आपका नाम अपमानित होने वाले व्यक्तियों की सूची से काट दिया जाएगा ।

फूलों की माला कम बजट के कारण छोटी रखी गई है । अगर आपके गले में आ जाए तो पहन लेना वरना ज्यादा नखरे दिखाने की जरूरत नहीं है । हाथ में लेकर काम चला लेना ।

शाल मँहगा है। चालीस रुपए में आजकल नहीं मिल रहा है। वैसे भी आपने अपमानित होने के लिए जो सुविधा- शुल्क दिया है ,वह इतना कम है कि उसमें शाल तो छोड़िए, रुमाल भी कहाँ से खरीद कर लाया जा सकता है !

आपका कोई प्रशस्ति पत्र पढ़कर नहीं सुनाया जाएगा ,क्योंकि आपके जीवन में ऐसा कुछ है ही नहीं, जिसे समाज के सामने प्रेरणा के तौर पर रखा जा सके या आपकी तारीफ की जा सके।आपको भी यह बात पता ही है तथा आप जानते हैं कि आपको अपमानित केवल जुगाड़बाजी के आधार पर किया जा रहा है ।अपमान- पत्र के साथ आपको चार सौ बीस रुपए का चेक भेंट किया जाएगा । यह चेक उसी दशा में दिया जाएगा ,जब आप आयोजकों को पहले से रुपए नगद पेमेंट कर देंगे ।

नोट : अगर मोटी धनराशि का सुविधा शुल्क देने के लिए कोई तैयार हो और पहले से पेमेंट करे तो हाथों-हाथ उसका भी अपमान- समारोह में अपमान कर दिया जाएगा।

निवेदक : अपमान समारोह समिति 

✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा

रामपुर (उत्तर प्रदेश), भारत

*मोबाइल 999 7615 451*


बुधवार, 19 जनवरी 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल निवासी साहित्यकार अतुल कुमार शर्मा का व्यंग्य ---एक स्वामीभक्त का पत्र


साहब जी ,

आपके गरिमामयी गमन के बाद ,यहां आपकी कर्मशाला रूपी कार्यालय में सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया और मैं जबरदस्त आर्थिक रूप से त्रस्त हो गया हूं। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप अपने नए जिले में पहुंचकर पद पर आसीन हो चुके होंगे, क्योंकि आपके अंदर जो गुणों की खान है वह अद्वितीय है ,जिससे मैंने भी कुछ ग्रहण करने की कोशिश की थी। उन्हीं गुणों से मेरा गुजारा भी ठीक-ठाक चल रहा था लेकिन समय को कुछ और ही मंजूर था।

 जब से आप गए हैं, तब से ऑफिस वाले दूसरे बाबुओं ने, मेरा जीना दुश्वार कर दिया है ,नए साहब की सेटिंग, मोटे चश्मे वाले बाबू से बन गई है क्योंकि दोनों ही हर शाम कांच की प्यालियों का स्वाद लेते हैं और आजकल सारी फाइलों पर उसी का कब्जा चल रहा है ।खैर मैं भी आपका चेला रहा हूं, निकाल लूंगा कोई बीच का रास्ता ,जिससे मेरा भी दाना पानी चलता रहे। वरना तो मेरी लक्जरी गाड़ी, मुझे मुंह चिढ़ाएंगी ,बच्चों के हॉस्टल वाले, मेरी राह ताकेंगे और घर में काम करने वाले दोनों नौकर, अपनी-अपनी पगार को तरस जायेंगे। छोटी-सी तनख्वाह में तो दाल-रोटी के सिवाय क्या खा पाऊंगा, साहब जी? आपकी छत्रछाया में तो मेरा सब-कुछ अच्छा चल रहा था, आप बहुत ही ईमानदारी से ,मेरी बाबूगिरी की कद्र करते हुए,जजिया कर के रूप में, निर्विवाद तरीके से, दस परसेंट कमीशन थमा देते थे और मैंने भी आपको कई मामलों में तो ,पूरा-पूरा हिस्सा ही दिलवाया था ।

आपकी कुर्सी की कसम, मैंने आप से छुपा कर कोई रिश्वत नहीं ली । आप ही बताओ कि आपाधापी भरे इस कलियुग में, मुझ जैसा निष्ठावान स्वामीभक्त मिल सकता हैं क्या?

 और हां ! इसी बात पर याद आया कि हमारे पड़ोसी वर्मा जी ,अपने झबरीले कुत्ते की स्वामीभक्ति का बहुत रौब झाड़ते थे ,एक दिन बंदर ने उन पर हमला बोल दिया तो उनका शहंशाह कुत्ता अंदर वाले कमरे में ,खाट के नीचे घुस गया और जब तक नहीं निकला ,जब तक कि वर्मा जी को इंजेक्शन लगवाने का इंतजाम पूरा न हो गया। बहुत  क्या कहना?  स्वामीभक्ति का दूसरा उदाहरण मुझ जैसा आपको नहीं मिलेगा। आपको याद होगा कि  आपके ट्रांसफर से चार दिन पहले ही, नियुक्ति प्रकरण में,ऑफिस में आकर नेताजी, कितनी बुरी तरह आपको डांट रहे थे और आप सर को नीचे झुका कर सुन रहे थे उनकी फटकार ।

 फिर मैंने ही आपका पक्ष लिया था और नेता जी को पलक झपकते ही शांत करके, पांच परसेंट पर पटा लिया था ।

फिर भी साहब जी , मैंने तो एक बात गांठ बांध रखी है कि बेईमानी का पैसा, जितनी ईमानदारी से और जितनी जल्दी, प्रत्येक पटल पर पहुंच जाता है उसका हिसाब उतना ही साफ-सुथरा रहता है ।

और तो और ,आॅडिटर भी फाइल से पहले नामा देखता है जिस कोटि के नामा होते हैं, उतनी ही पवित्र भावना से ,उस फाइल का लेखा-जोखा देखता है।

 खैर !आपसे क्या रोना, अपने मन की भड़ास  निकालने के लिए आपको पाती लिखी है, क्योंकि आपका फोन उसी दिन से बंद था और सरकारी नंबर को रिसीव न करने की, आपकी पुरानी आदत जो ठहरी ।

फिर भी मुझे यह अपेक्षा रहेगी कि आप मुझसे फोन जरुर करेंगे।अब तो अपनी सांठ-गांठ में और गांठ लगने की गुंजाइश भी नहीं बची। आपको वहां भी काफी बकरे मिल जाएंगे और मैं भी अपना खर्चा चलाने को,तलाश करने में जुटूंगा -"छोटे-छोटे मुर्गे"।

अपने-अपने कद और पद के अनुसार शिकार ढूंढेंगे, आखिर पूरी करनी है जिंदगी,और काटना है यह मनहूस जीवन,इन्हीं मुर्गे और बकरों के साथ।


आपका अपना

"परेशान आत्मा"


✍️अतुल कुमार शर्मा 

सम्भल, उत्तर प्रदेश, भारत

मंगलवार, 18 जनवरी 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य -- चुनाव के मौसम में नाराज फूफा


इधर चुनाव का मौसम आया ,उधर फूफा नाराज होने लगे । एक शादी में दूल्हे के मुश्किल से दो-चार फूफा होते हैं । उनको मनाने में जो पसीने छूटते हैं ,वह तो दूल्हे का बाप ही जानता है । फूफा भी समझते हैं कि इस समय नाराज हो गए तो मनाने के लिए ससुराल से चार जनों का प्रतिनिधिमंडल जरूर आएगा । फिर उसके सामने मांगपत्र रखा जाएगा । फूफा नाक चौड़ी करके कहेंगे कि हमारा कोई मान-सम्मान ही नहीं रहा । हमारा भी तो एक एजेंडा है । हमें भी तो समुचित आदर मिलना चाहिए । यह क्या कि शादी हो रही है और हमारे लिए न नया सूट सिलवाया गया ,न हमें मफलर दिया गया और न जूते खरीदवाए गए । कुछ फूफा गले में सोने की चेन की मांग करते हैं । कहते हैं, हम शादी में तब तक भाग नहीं लेंगे, जब तक हमारे गले में सोने की मोटी चेन ससुर जी नहीं पहना देंगे !

         कुछ ऐसा ही हाल चुनाव के समय हो जाता है । सबसे ज्यादा बड़े वाले फूफा जी नाराज हैं । बड़े वाले फूफा अर्थात वह महारथी जिन्होंने चुनाव लड़ने के लिए पार्टी का टिकट मांगा था, मगर नहीं मिला । अब फूफा बिखरे पड़े हैं । किसी की आँख से आँसू बह रहे हैं, किसी की आँखें अंगारे बरसा रही हैं। कोई अपने समर्थकों के साथ घिरा हुआ षड्यंत्र रच रहा है ,तो कोई अकेले में आत्ममंथन करने में व्यस्त है । कुछ लोग माइक के सामने हैं । कुछ माइक को देखकर  छह फीट पीछे हट जाते हैं । मगर मुंह खुले हुए हैं । यह तो जरूर कहते हैं कि हमारी ससुराल का मसला है , हम आपस में निपटा लेंगे। मगर कैसे निपटेगा, यह नहीं बताते।

         उधर बुआ सबसे ज्यादा दुखी दिखती हैं । उन्हें डर है कि कहीं रूठे हुए फूफा अपना गुस्सा उनके ऊपर न उतार दें अर्थात चालीस साल पुरानी शादी का समझौता टूट न जाए । बारात चलने को है । बैंड बाजे वाले आ चुके हैं लेकिन फूफा टस से मस नहीं हो रहे । कहते हैं ,हमारा मान-सम्मान दो कौड़ी का हो गया । ससुराल पक्ष उनकी आवभगत में लगा हुआ है । भैया ! मान जाओ । शादी के समय इतना नखरा नहीं करते । बहुत कर चुके ! अब रस्म पूरी हो गई ! तुम्हें रूठना था ,थोड़ी देर रूठे। अब ढंग के कपड़े पहनो ,दाढ़ी बनाओ ,बालों में तेल-कंघी करो और सज-संवर कर दूल्हे के बराबर में खड़े हो । नकली मुस्कान ही सही लेकिन फोटो में मुस्कुराते हुए नजर आओ !

                    कई लोग फूफा की समस्या से जूझने के लिए कुछ अलग क्रांतिकारी प्रकार के विचार रखने लगे हैं । उनका कहना है कि फूफाओं को चुनाव के समय मनाने की कोई जरूरत नहीं है । इन्हें इनके हाल पर छोड़ देना चाहिए । जब देखो तब कोई न कोई समस्या लेकर खड़े हो जाते हैं । जैसे कि दूसरी पार्टी वालों की सरकार बन जाएगी तो धरती पर स्वर्ग उतर आएगा ? तुम्हारा सांसद या विधायक अगर किसी दूसरी पार्टी का बन भी गया तो कौन से आसमान से तारे तोड़ कर ले आएगा ? अब तक किसी ने क्या कर लिया जो अब कर लेगा ? 

       लेकिन फूफा को तो सारा गुस्सा अपनी ससुराल पर ही उतारना है । हमारी पार्टी, हमारी सरकार ,हमारे नेता ,हमारा उम्मीदवार जब तक नाक न रगड़े ,तब तक हम वोट डालने नहीं जाएंगे । मतदाताओं में जो मठाधीश बैठे हुए हैं ,वह भी किसी फूफा से कम नहीं हैं। बहुत से मुद्दे हैं ,जिन पर आग जलाकर फूफागण खाना पका रहे हैं। कुछ फूफाओं को विरोधी पार्टी के लोग हवा दिए हुए हैं । इन्हें घर का विभीषण समझा जाता है । इन विभीषण-टाइप फूफाओं का संबंध अपनी ससुराल से ज्यादा दूसरों की ससुराल से है । विरोधी पक्ष की ससुराल वाले उनका भाव रोजाना बढ़ाते हैं । कहते हैं कि आपसे ज्यादा महान आदमी तो इस संसार में आज तक पैदा ही नहीं हुआ ! खेद का विषय है कि आपकी पार्टी ने आपके "फूफत्व" को कभी नहीं पहचाना ! 

          कुछ फूफाओं को सीधे-सीधे दूसरी शादी करने का निमंत्रण विरोधी पक्ष की ससुराल से मिल जाता है । कुछ फूफा नाराज होने के चक्कर में अपनी नाराजगी दिखाते-दिखाते जनता की निगाह में विदूषक की भूमिका निभाने लगते हैं । उनका खूब मजाक बनता है । लेकिन वह पहचान नहीं पाते । लोग कहते हैं कि फूफा ! अपने सिर पर दूल्हे की एक पगड़ी तुम भी पहन लो और फूफा सचमुच यह समझते हुए पड़ोसी द्वारा उपलब्ध कराई गई दूल्हे की पगड़ी पहनकर खड़े हो जाते हैं मानो वह पच्चीस साल के नवयुवक हों। पड़ोसी खूब मजे ले रहे हैं । कहते हैं वाह फूफा ! हाय फूफा ! डटे रहो फूफा ! कोई कहीं से एक मरियल सी घोड़ी ले आया है । फूफा उस पर बैठ जाते हैं । चार-छह लड़के ड्रम बजाते हुए उनका जुलूस निकाल देते हैं।

 ✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश), भारत

 मोबाइल 99976 15451

सोमवार, 10 जनवरी 2022

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य --मामूली आदमी और आम चुनाव

 


 हमारे मित्र ने एक सज्जन की ओर इशारा करके हमें बताया-" जानते हो इनके ब्रीफकेस में कितने रुपए हैं ? "

     हमने कहा "हम क्या जानें ! आप ही बताइए ?"

      उन्होंने कहा "पूरे चालीस लाख रुपए हैं । अब बताओ, किस काम के लिए यह लिए-लिए घूम रहे हैं ?"

      हमने फौरन अपनी बुद्धि दौड़ाई और जवाब दिया "विधानसभा के चुनाव में खर्च की अधिकतम सीमा चालीस लाख रुपए है। अतः जरूर यह सज्जन चालीस लाख रुपए लेकर घूम रहे होंगे । ताकि टिकट-प्रदाताओं को यह संतुष्ट किया जा सके कि उनकी जेब में चालीस लाख रुपए रहते हैं ।"

                  हमारे मित्र हमारा उत्तर सुनकर व्यंग्यात्मक दृष्टि से हँस पड़े । बोले "आप अभी तक चुनाव का गणित नहीं समझ पाए ?"

       हमने कहा "आप ही समझा दीजिए ।"

वह बोले "यह चालीस लाख रुपए तो टिकट-प्रदाताओं को टिकट देने के लिए प्रसन्न करने हेतु हैं । इन चालीस लाख रुपयों से जब टिकट-प्रदाता प्रसन्न हो जाएंगे ,तब खर्चे का काम आगे बढ़ेगा।"

      हमने चौंक कर कहा "अगर टिकट मांगने में ही चालीस लाख रुपए खर्च हो जाएंगे तब तो विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए अस्सी लाख रुपए चाहिए ? क्या कोई व्यक्ति इतना मूर्ख है कि अस्सी लाख रुपए खर्च करके चुनाव लड़ने का जुआ खेले ? अगर हार गया ,तब तो बर्बाद हो जाएगा ! क्या बैंक से लोन मिल जाता है ?"

          अब हमारे मित्र बुरी तरह हमारे ऊपर क्रुद्ध होने लगे । बोले "जब राजनीति की चर्चा चले ,तब 40 और 80 लाख जैसी छोटी रकम पर अटकना नहीं चाहिए। यह तो इसी प्रकार से तुच्छ धनराशि है ,जैसे कोई व्यक्ति गुटखा खाता है और थूक देता है। थोड़ी देर का आनंद है । अगर दाँव लग गया तो पाँच साल तक सितारा बुलंद रहेगा और अगर हार गए तो कोई खास नुकसान नहीं होता ।"

      हमने पुनः प्रश्न किया "आप अस्सी लाख रुपए को तुच्छ धनराशि कह रहे हैं ?"

     वह कहने लगे " अस्सी लाख रुपए तो कुछ भी नहीं , एक-दो करोड़ रुपये कहिए। चुनाव में हमारे और आपके जैसे मामूली आदमी थोड़े ही खड़े होते हैं । न ही उनको पार्टियाँ टिकट देती है । यह तो धनपतियों का खेल है । हमें और आपको तो केवल वोट डालना है । जो अच्छा लगे ,उसे वोट डाल देना । "

     हमने कहा "यह भी आप सही कह रहे हैं। यह चुनाव भी बड़ी ऊँची चीज है । कहलाता आम चुनाव है ,लेकिन आम आदमी की पहुँच से बाहर है ।"

✍️ रवि प्रकाश 

बाजार सर्राफा

 रामपुर, उत्तर प्रदेश, भारत

 मोबाइल 99976 15451

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----दूध की धुली चयन प्रक्रिया

 


मंत्री जी दूध के धुले थे।  सभी मंत्री दूध के धुले होते हैं लेकिन हम जिन मंत्री जी की बात कर रहे हैं वह एक बाल्टी के स्थान पर दो बाल्टी दूध से प्रतिदिन स्नान करते थे। अतः वह विशेष रूप से दूध के धुले हुए कहलाएंगे । जब मंत्री जी दूध के धुले हैं तो स्पष्ट है कि उनके उच्च अधिकारी भी दूध के धुले ही थे अर्थात वह भी एक बाल्टी दूध से प्रतिदिन स्नान करते थे । दूध से स्नान करने में समय ज्यादा लगता है । आम आदमी पानी की बाल्टी से नहा लेता है । इसमें दो - चार मिनट लगते हैं लेकिन दूध से स्नान करने में कम से कम तीन घंटे लगते हैं। इसीलिए जो लोग दूध के नहाए हुए होते हैं, उनको जब भी फोन करो अथवा उनके दरवाजे की कुंडी खटखटाओ तो उत्तर यही मिलता है कि साहब बाथरूम में हैं अर्थात दूध से स्नान कर रहे हैं ।

        खैर ,विषय सरकारी नौकरी में नियुक्ति की चयन प्रक्रिया का है । मंत्री जी की हार्दिक इच्छा थी कि चयन प्रक्रिया दूध की धुली हुई हो अर्थात पूरी तरह निष्पक्ष और पारदर्शी हो । अधिकारियों के सामने उन्होंने अपना विचार रखा कि सरकारी भर्ती में चयन प्रक्रिया पारदर्शी कैसे हो ?

          सर्वप्रथम मंत्री जी ने लिखित परीक्षा का विचार प्रस्तुत किया। तुरंत अधिकारियों ने आपत्ति लगा दी । कहने लगे "आजकल पेपर लीक होने का मौसम चल रहा है । ऐसे में लिखित परीक्षा आयोजित करने का जोखिम उठाना ठीक नहीं है । इसके अलावा लिखित परीक्षा में इस बात की भी संभावना रहती है कि अभ्यर्थी के स्थान पर कोई अन्य व्यक्ति आकर पेपर दे जाए और मामला गड़बड़ी युक्त हो जाए । सॉल्वर गैंग चारों तरफ घूम रहे हैं ।"

     अधिकारियों की बात मंत्री जी के समझ में आ गई । फिर पूछने लगे कि अब क्या किया जाए ?

     अधिकारियों ने कहा " साहब ! हम लोग साक्षात्कार के माध्यम से अगर सरकारी नौकरी में नियुक्तियां करें तो इसमें गड़बड़ी की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती । अभ्यर्थी हमारे अधिकारियों के सामने बैठा होगा और हमारे अधिकारी उस से सामने से प्रश्न करेंगे । इसमें धांधली नहीं हो सकती ।"

        मंत्री जी कुछ सोचने लगे तो अधिकारी समझ गए कि मंत्री जी के मन में क्या प्रश्न चल रहा है । तुरंत उन्होंने उत्तर दिया "सर ! घबराने की कोई बात नहीं है । आज हमारे पास दूध के धुले हुए अधिकारी प्रत्येक तहसील स्तर पर बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। दूध से नहाने की प्रवृत्ति चारों तरफ फैली हुई है । साक्षात्कार के द्वारा निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया से चयन करने में कोई दिक्कत नहीं आएगी । हमारे दूध से धुले हुए अधिकारी सारी स्थिति संभाल लेंगे ।"

       अब पुनः सोचने की बारी मंत्री जी की थी । कहने लगे "क्या सभी अधिकारी अब दो - दो बाल्टी दूध से नहाते हैं ?"

       "नहीं सर ! केवल एक बाल्टी दूध से नहाते हैं । दो बाल्टी दूध से तो केवल आप ही नहा सकते हैं ।"

       "लेकिन एक बाल्टी दूध भी तो बहुत महंगा है ! कहां से आता है ?"

       "वहीं से जहां से आपका दो बाल्टी दूध आता है ।"

      सुनकर मंत्री जी झेंप गए । उन्होंने फिर दूध के बारे में कोई सवाल नहीं किया । मंत्री जी का अगला प्रश्न था-" साक्षात्कार में क्या पूछोगे ?"

       अधिकारियों ने उन्हें समस्त योजना से अवगत कराया । कहा " साक्षात्कार बहुत उच्च कोटि का रहेगा । हम इसी में प्रैक्टिकल परीक्षा भी ले लेंगे।"

       " प्रैक्टिकल परीक्षा कैसी ? "-मंत्री जी का अगला सवाल था ।

         "सर ! प्रैक्टिकल परीक्षा बहुत जरूरी है । हम अभ्यर्थी के सामने सेब ,केला, अमरूद और अनार रखेंगे तथा उससे पूछेंगे कि चारों फलों के नाम बताओ । जो जितनी जल्दी जवाब  दे देगा वह उतना ही कार्यदक्ष माना जाएगा ।"

        मंत्री जी सुनकर खुश हो गए । कहने लगे "यह तो बहुत अच्छी प्रैक्टिकल परीक्षा होगी । साक्षात्कार में क्या पूछोगे ?"

        अधिकारियों ने कहा "प्रत्येक अभ्यर्थी से उसका नाम ,माता-पिता का नाम ,जिले, तहसील का नाम, घर का पता पूछा जाएगा । ऐसा करते समय हम अभ्यर्थी की बॉडी-लैंग्वेज को नोट करेंगे तथा उसके आधार पर साक्षात्कार के अंक दिए जाएंगे ।"

      मंत्री जी अधिकारियों की बात से खुश हुए। कहने लगे "ठीक है ! दूध के धुले अफसरों की तलाश करो और उन्हें इंटरव्यू कमेटी में शामिल करके साक्षात्कार तथा प्रैक्टिकल परीक्षा पर आधारित दूध की धुली चयन प्रक्रिया संपन्न की जाए ।"

✍️ रवि प्रकाश , बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश), भारत,

मोबाइल 99976 15451

शनिवार, 30 अक्तूबर 2021

मुरादाबाद मंडल के चंदौसी (जनपद सम्भल) के साहित्यकार डॉ मूलचन्द्र गौतम का व्यंग्य ---- सोना उछ्ला चांदी फिसली


 आज भी आम आदमी की समझ में सेंसेक्स और निफ्टी के बजाय प्याज , टमाटर की तरह सोने-चांदी की कीमतों से ही महंगाई का माहौल पकड़ में आता है। उसके लिये डालर और पौंड से रुपये की कीमत के बजाय सोने-चांदी का भाव ज्यादा प्रामाणिक है।सरकार भी जनता के मन में अपनी साख जमाने के लिये लगातार बताती रहती है कि उसके पास विदेशी मुद्रा के अलावा कितना सोना जमा है।

      पुराने जमाने के आदमियों के पास सोने का भाव ही भूत और वर्तमान को नापने का पैमाना होता है।घी,दूध,गेहूँ,चना,गाय ,बैल और भैंस का नम्बर इनके बाद आता है।आजकल चाय का रेट भी इस दौड़ में शामिल हो गया है। कारण सबको मालूम है।

       सोने पर अमीरों का एकाधिकार है बर्तन भले उन्हें चांदी के पसंद आते हों।उनके मंदिरों में भगवान भी अष्टधातु के बजाय  शुद्ध सोने के होते हैं क्योंकि वहाँ उन्हें किसी सीबीआई और ईडी के छापों का डर नहीं होता।गरीबों का सपना भी हकीकत में न सही लोकगीतों में सोने के लोटे में गंगाजल पानी का होता था और मेहमानों के लिये भोजन भी सोने की थाली में परोसा जाता था।अब तो स्टील के बर्तनों ने गरीब पीतल और ताँबे के बर्तनों को प्रतियोगिता से आउट कर दिया है और दावतें भी पत्तलों के बजाय प्लास्टिक के बर्तनों पर होने लगी हैं ।

    खरे सोने के नाम पर रेडीमेड जेवरों में मिलावट का पता ही नहीं चलता।जबसे सरकार ने हालमार्क छाप जेवरों की बिक्री अनिवार्य की है तब से मिलावटखोरों की नींद हराम है।ज्यादा अमीरों ने सफेद सोने के नाम पर प्लेटिनम खरीदना शुरु कर दिया है लेकिन पीले सोने को मार्केट में पीट नहीं पाये हैं।दो नम्बर का पैसा आज भी सोने में ज्यादा सुरक्षित रहता है भले बैंक के लाकरों में बंद पडा रहता हो ।

     जबसे सोने के जेवरों की छीन झपट शुरु हुई है तबसे नकली गहनों ने जोर पकड़ लिया है।अब झपट मार भी पछताते हैं कि क्या उनकी मति मारी गयी थी जो इस धंधे में आये।इसलिये उन्होंने हथियारों की तस्करी शुरू कर दी है।

नोटबंदी के बाद रियलिटी मार्केट डाऊन है जबकि सोने में निरंतर उछाल है। सौ दो सौ कम होते ही सोना अपने प्रेमियों के लिये धड़ाम हो जाता है। सटोरियों के चक्कर में शुगर और ब्लड प्रेशर की तरह सोना थोडा ऊपर नीचे होता रहता है लेकिन आयात में आज भी वह नम्बर वन है। एयर पोर्टों पर ड्रग्स के मुकाबले सोने की तस्करी की खबरें ज्यादा आती हैं।तस्कर भाई बहिन पता नहीं शरीर के किन किन गुप्तांगों में सोना छिपाकर ले आते हैं। सोना आखिर सोना है।


✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम 

शक्ति नगर,चंदौसी, सम्भल 244412

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल  8218636741

शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ---- गृहस्वामी का सहायता प्राप्त घर


       "एतद् द्वारा आपको सूचित किया जाता है कि अनेक बार वाट्स एप द्वारा आप को नोटिस देने के बाद भी आपने समुचित उत्तर नहीं दिया । अतः आपके घर का प्रबंध अपने हाथ में लेते हुए नियंत्रक नियुक्त किया जाता है ।" अधिकारी का पत्र पढ़ने पर गृहस्वामी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ । यह बात तो सात-आठ साल से चल ही रही थी कि एक दिन सरकार हमारा घर हड़प लेगी । 

      "आपने तो हमें कोई वाट्स एप नहीं किया ? "-गृह स्वामी ने अधिकारी से पत्र लेते हुए प्रश्न किया ।

      "हमने आपके सहायताप्राप्त कर्मचारी को वाट्स एप  कर दिया था। क्या आप उस से सूचना प्राप्त नहीं करते ? यह आपका दोष है कि आप अच्छे संबंध नहीं रखते ।"-अधिकारी का दो टूक जवाब था । गृहस्वामी ने अधिकारी से न उलझने में ही खैरियत समझी ।

               वह कितनी सुहानी घड़ी थी जब सरकार ने योजना बनाई थी कि बेरोजगारी हटाने के लिए , श्रमिकों को उनके परिश्रम का उचित मूल्य देने के लिए तथा साथ ही साथ सभी के घरों के सुचारू संचालन के लिए हर घर में एक कर्मचारी का वेतन सरकार अपने खजाने से देगी । पूरी कॉलोनी सरकार की इस योजना के अंतर्गत देखते ही देखते सहायता प्राप्त घर वाली कॉलोनी बन गई । अब हर घर में एक सहायता प्राप्त कर्मचारी था । उस कर्मचारी को सरकार से वेतन मिलता था । वेतन भी ऐसा कि मकान मालिक ललचा उठे कि काश उसकी भी उतनी ही आमदनी होती ! वास्तव में सब मकान मालिक धनवान नहीं थे । कुछ की आर्थिक स्थिति खराब थी  लेकिन सबके घरों में एक-एक कर्मचारी पहले से था । अब उसका वेतन सरकार देती थी । इस निर्णय से मकान मालिक भी खुश थे और कर्मचारी तो खुश होना ही चाहिए थे ।आखिर वेतन वृद्धि उनकी ही हुई थी । उनकी ही नौकरी में स्थायित्व भी आया था । 

       बात यहाँ तक रहती तो ठीक थी लेकिन अधिकारियों की नजरें बदल गईं। अब उनकी नजर इस बात पर थी कि सहायता प्राप्त घरों की कालोनियों को किस प्रकार हड़पा जाए ?  व्यक्तिगत बातचीत में अधिकारी खुलकर कहने लगे कि जब हमारे द्वारा प्रदत्त वेतन से आपके कर्मचारी का खर्चा चल रहा है तो घर भी हमारा ही हुआ ? गृह स्वामी इस तर्क का विरोध करते थे और कहते थे कि वेतन देने का मतलब यह नहीं है कि घर सरकार का हो गया ? आप वेतन दे रहे हैं ,यह अच्छी बात है। हम विरोध नहीं करते , लेकिन हमारे घर को हड़पने की योजना अगर आप बनाते हैं तो यह अमानत में खयानत वाली बात होगी । यह विश्वासघात होगा । यह अधिकारों का दुरुपयोग होगा ..आदि आदि । अधिकारियों के कान में जूँ तक नहीं रेंगी। वह चिकने घड़े थे । योजनाएं और षड्यंत्र रचते रहे । 

      प्रारंभ में कर्मचारी का वेतनबिल मकान मालिक को सरकार के पास भेजना होता था। इस कार्य के लिए सरकार ने हर जिले में एक "सहायता प्राप्त गृह-अधिकारी" नियुक्त किया हुआ था । गृह-अधिकारी वेतनबिल के अनुसार चेक काट कर गृह स्वामी को भेज देता था । गृहस्वामी उसे बैंक में कर्मचारी के खाते में जमा कर देते थे । उसके बाद गृह स्वामी का कार्य बढ़ने लगा । उसे कर्मचारी की वेतन-वृद्धि ,अवकाश-विवरण तथा योग्यता में वृद्धि संबंधी अनेकानेक सूचनाएं समय पर जिला गृह अधिकारी को भेजनी पड़ती थीं। अगर एक दिन की भी भेजने में देर हो जाए जो गृह-अधिकारी कुपित हो जाता था । गृह स्वामी के अधिकारों का बुरा हाल यह था कि अगर कर्मचारी को कोई छुट्टी लेनी होती थी तो वह अब तक गृह स्वामी से पूछता था लेकिन अब उसे गृह स्वामी से पूछने की आवश्यकता नहीं थी । वह जब चाहे ,जितनी चाहे छुट्टियाँ ले सकता था ।उसके वेतन में कटौती करने का कोई अधिकार गृह स्वामी को नहीं रहा। कारण वही था कि वेतन सरकार द्वारा दिया जाता है । अब स्थिति यह थी कि कर्मचारी जब चाहे छुट्टी लेकर घर बैठ जाए और जब चाहे काम पर लौट आए । काम पर लौट आने के बाद भी घर का काम आधा-अधूरा पड़ा रहता था । 

            सरकार ने एक नियम बना दिया था कि गृहस्वामी कर्मचारी को डाँट नहीं सकता था। कार्य न करने के लिए उसके वेतन से कटौती भी नहीं कर सकता था। कर्मचारी का अधिकार था कि वह चाहे तो काम करे, चाहे तो न करे । 

           एक बार एक गृहस्वामी ने अपने सहायता-प्राप्त कर्मचारी से कहा कि मेरे लिए एक कप चाय बना दो । कर्मचारी ने साफ इंकार कर दिया। बोला "मैं इस समय उदास हूँ। चाय नहीं बनाऊंगा ।"

     गृह स्वामी ने पूछा " उदासी किस बात की है ?"

     कर्मचारी बोला "मेरी पत्नी हाई स्कूल में फेल हो गई हैं ।अतः मैं उदास हूँ। "

        "मगर यह तो दस दिन पुरानी बात हो चुकी है । अब उदासी छोड़ो और चाय बनाना शुरू कर दो ।"

      कर्मचारी बोला " इतना बड़ा झटका अगर आपको लगा होता तो दर्द होता ।लेकिन आप लोग तो निर्मम,शोषक और उत्पीड़क हो। आपको कर्मचारी की भावनाओं का कोई ख्याल ही नहीं है ।"

           बेचारा गृहस्वामी अपना सा मुँह लेकर रह गया । उसके बाद से उसने कर्मचारी से कभी भी चाय बनाना तो दूर की बात रही ,एक गिलास पानी भी लाने के लिए नहीं कहा। पता नहीं एक गिलास पानी को कहा जाए और कितनी बाल्टी पानी गृहस्वामी के ऊपर लाकर उड़ेल दी जाए। वह कुछ कर भी तो नहीं सकता था ।

        धीरे-धीरे गृहस्वामी के हाथ से घर का प्रशासन फिसलता जा रहा था । एक दिन सरकारी अधिकारी घर पर आया और कहने लगा " यह सुनने में आया है कि आप अपने कर्मचारी का शोषण और उत्पीड़न करते हैं ? "

    सुनकर गृहस्वामी दंग रह गया । बोला "हम तो इनसे कोई काम भी नहीं लेते ! इनके किसी कार्य पर दखलअंदाजी भी नहीं करते।"

      लेकिन अधिकारी नहीं माना । बोला "घर का प्रशासन सही प्रकार से चलाने के लिए हमने एक "सहायक मकान मालिक" नियुक्त किया है । अब आप घर अपने तथा "सहायक मकान मालिक" के साथ बैठकर आपसी सलाह-मशवरे के बाद चलाया करेंगे।"

       गृह स्वामी ने उदासीन होकर कहा "अब घर चलाने के लिए रह ही क्या गया है ? दीवारों पर धूल है । छतों पर मकड़ी के जाले हैं । न कोई आता है, न जाता है । हम भी अपने वित्तविहीन मकान में ही दिन काट रहे हैं ।"

     अधिकारी ने कहा " आपको मुझसे या मेरे आदेश से जो शिकायत हो ,अपील कर सकते हैं ।"-कहकर आदेश थमा कर चला गया । गृहस्वामी और सहायक-गृहस्वामी दोनों के लिए मकान में एक-एक कमरा अब रिजर्व था । सहायक गृहस्वामी क्योंकि सरकार के द्वारा मनोनीत था ,अतः वह अत्यंत प्रसन्नता के साथ अपने रिजर्व कमरे में रहता था । कर्मचारी क्योंकि सरकार से वेतन लेता था ,अतः उसे गृह स्वामी से ज्यादा सहायक गृहस्वामी के आदेश को मानने में रुचि थी। उसे मालूम था कि अब सहायक-गृहस्वामी ही घर का वास्तविक मालिक है । 

     समय बीतता गया । घर न रिश्तेदारों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा और न मिलने -जुलने वाले घर में आना पसंद करते थे। सहायताप्राप्त घर को सबने आकर्षण विहीन घोषित कर दिया था । पूरी कॉलोनी में सहायता प्राप्त घरों के होने के कारण कॉलोनी  ही उदासीन नजर आने लगी थी।

        अधिकारी फिर भी कॉलोनी के घरों पर बुरी नजर रखे हुए था । वह किसी प्रकार से गृह स्वामी को उसके एकमात्र कमरे में से भी निकालने की कोशिश कर रहा था । एक दिन उसके हाथ में नियमावली की एक धारा आ गई । यह नियमावली सहायताप्राप्त घरों के सुचारू संचालन के लिए सरकार ने बनाई थी । नियमावली की एक धारा यह थी कि अगर अधिकारी को यह विश्वास हो जाए कि गृहस्वामी सही प्रकार से घर का संचालन नहीं कर पा रहा है तो वह नियंत्रक बैठा सकता है और गृहस्वामी को घर से बेदखल कर सकता है । अधिकारी ने वस्तुतः इसी धारा का उपयोग करते हुए आखिर गृहस्वामी के सहायताप्राप्त घर को हड़प ही लिया। 

      अब गृह स्वामी यह कह रहा है कि जिस कर्मचारी को सरकार वेतन दे रही है उसके क्रियाकलापों से मेरा कोई संबंध नहीं रहेगा। बस केवल मुझे मेरे घर में चैन से रहने का अधिकार दे दो। सरकार मानने को तैयार नहीं है । कहती है जब तुम्हारे घर के कर्मचारी को सरकार वेतन दे रही है तब तुम घर के अंदर चैन से कैसे बैठ सकते हो ? 

 ✍️ रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा , रामपुर ,उत्तर प्रदेश, भारत , मोबाइल 99976 15451

शनिवार, 28 अगस्त 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----अधिकारी की जय हो


बिना अधिकारी के मंत्री की क्या मजाल कि एक फाइल भी तैयार करके आगे बढ़ा दे ! जब मंत्री पदभार ग्रहण करता है तब अधिकारी उसे अपने कंधे का सहारा देकर मंत्रालय की कुर्सी  पर बिठाता है । झुक कर प्रणाम करता है और कहता है "माई बाप ! आप जो आदेश करेंगे ,हमारा काम उसका पालन सुनिश्चित करना है ।"

     मंत्री इतनी चमचामय भाषा को सुनकर अपने आप को डोंगा समझने लगता है और इस तरह अधिकारी चमचागिरी करके मंत्री रूपी डोंगे के भीतर तक अपनी पहुँच बना लेता है । 

           मंत्रियों की टोपी का रंग नीला , पीला ,हरा ,लाल बदलता रहता है लेकिन अधिकारी का पूरा शरीर गिरगिटिया रंग का होता है । जो मंत्री की टोपी का रंग होता है, वैसा ही अधिकारी के पूरे शरीर का रंग हो जाता है । पार्टी में दस-बीस साल तक धरना - प्रदर्शन - जिंदाबाद - मुर्दाबाद कहने वाला कार्यकर्ता भी अधिकारी के मुकाबले में नौटंकी नहीं कर सकता । कार्यकर्ता ज्यादा से ज्यादा टोपी पहन लेगा लेकिन अधिकारी का तो पूरा शरीर ही टोपी के रंग में रँगा होता है । अधिकारी मंत्री को यह विश्वास दिला देता है कि हम आप की विचारधारा के सच्चे समर्थक हैं और हम आपकी पार्टी को अगले चुनाव में विजय अवश्य दिलाएंगे । 

             मंत्री को क्या पता कि कानून कैसे बनता है ? वह तो केवल फाइल के ऊपर लोक-लुभावने नारे का स्टिकर चिपकाने में रुचि रखता है । भीतर की सारी सामग्री अधिकारी बनाता है । मंत्री के सामने मंत्री के मनवांछित स्टिकर के साथ फाइल प्रस्तुत करता है । इसलिए फाइलों में स्टिकर बदल जाते हैं ,नारे नए गढ़े जाते हैं ,महापुरुषों के चित्रों में फेरबदल हो जाती है लेकिन सभी नियमों का प्रारूप अधिकारियों की मनमानी को पुष्ट करने वाला ही बनता है । अधिकारी अपने बुद्धि चातुर्य से कानून का ऐसा मकड़ी का जाल बनाते हैं कि जनता रूपी ग्राहक उनके पास शरण लेने के लिए आने पर मजबूर हो जाता है और फिर उनकी मनमानियों का शिकार बन ही जाता है। मंत्रियों को तो केवल उस झंडे से मतलब है जो अधिनियम की फाइल के ऊपर लहरा रहा होता है । अधिकारी घाट-घाट का पानी पिए हुए होता है । उसे मालूम है कि यह झंडे -नारे सब बेकार की चीजें हैं । इन में क्या रखा है ? 

      असली चीज है अधिनियम की ड्राफ्टिंग अर्थात प्रारूप को बनाना । उसमें ऐसे प्रावधानों को प्रविष्ट कर देना कि लोग अफसरशाही से तौबा-तौबा कर लें । अधिकारियों की तानाशाही और उनकी मनमानी के सम्मुख दंडवत प्रणाम करने में ही अपनी ख़ैरियत समझें । परिणाम यह होता है कि मंत्री जी समझते हैं कि रामराज्य आ गया ,समाजवाद आ गया ,सर्वहारा की तानाशाही स्थापित हो गई । लेकिन दरअसल राज तो अधिकारी का ही चलता है । अधिनियम में जो घुमावदार मोड़ उसने बना दिए हैं , वहाँ रुक कर अधिकारी को प्रसन्न किए बिना सर्वसाधारण आगे नहीं बढ़ सकता। अधिकारी इस देश का सत्य है । मंत्री अधिक से अधिक अर्ध-सत्य है । अर्धसत्य फाइल का कवर है । सत्य फाइल के भीतर की सामग्री है ,जो अंततः विजयी होती है । इसी को "सत्यमेव जयते" कहते हैं ।

✍️ रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) भारत, मोबाइल 99976 15451

मंगलवार, 27 जुलाई 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का व्यंग्य ---बर्तन पुराणःएक व्यथा


घर में चार बरतन होंगें तो आपस में बजेंगे ही,यह कहावत तो बहुत पुरानी है।लेकिन जो इन बरतनों को बरसों से मांँजता -घिसता आया हो उसका क्या? कभी किसी ने सोचा है उसके बारे में। 

      खाना बनाने के बाद फैली हुई रसोई को समेटने के बाद बरतन माँजते ऐसा लगा कि  अचानक ही घर के सारे बरतन मेरी तरफ घूर घूर के देख रहे हों।मैने डरते डरते सबसे पहले कुकर जी को पानी भरकर एक ओर रखा ,तो लगा कि  ससुर जी पूछ  रहे हो,"बहू मेरी चाय कब बनेगी?"

मैने सहम कर साडी का पल्लू कमर में खोंसा और परात माता को उठाया और जूने से साफ करने लगीं,तभी माता जी की तली में चिपके आटे ने कहा,"बहू जरा संभलकर मांज ,देख तेरे गोरे -गोरे हाथ खुरखुरे न हो जायें।मैने परात माता को पानी भरकर ससुर  जी की बगल मे बैठाया तो दोनो खीसें निपोरते मुझे यों घूरने लगे जैसे मेरे पीहर से कोई कपड़ा लत्ता घटिया आ गया हो।खैर अब टीपैन फूफा जी की बारी थी.उफ्फ्फ बच्चों के फूफा जी ,!!!चाय की पत्ती से लाल होकर यूँ मुस्कुराये जैसे अभी अभी म्हारेरे नंदोई सा बनारसी पान चबाकर  पूछ रहे हों,"और जी !!साले साहब आये नहीं दफ्तर से अभी तक?,आजकल  कमाई ज़्यादा  हो रही है शायद?।मैने घबरा के जल्दी जल्दी टीपैन को  माँजकर एक ओर रखा।

तभी मुझे फूल से नाजुक मेरे छोटे छोटे बच्चों की तरह  कप गिलास  नज़र आये।हाय !!कलेजा ही काँप गया।कौन  इन बच्चों को यहाँ रख गया सिंक में,मैनै गुस्से मे आँखें लाल पीली कीं और  हृदय में पीर दबाये अपनी मासूम सी क्राकरी मांजकर एक ओर रख दी।तभी मेरी नज़र सिंक के पानी में तैरती मेरी सखियों समान कलछी,चमची,पौनी  पर पड़ी, जो न जाने कबसे मेरी ओर देख रही थीं मानो पूछ रही  हों कि घर गृहस्थी तो हमारी भी है,पर तुझे तो फुरसत ही नहीं हमसे बात करने की।मैने मुस्कुराते हुए उन्हें साफ करके स्टैंड में सजा दिया।तभी देखा देवर जैसा बे पैंदी का लोटा जो कभी सास की तरफ कभी मेरी तरफ  अवसर के अनुरूप होता  रहता है ,मुहँ फुलाये बैठा था।चलो भाई तुम भी निकलो सिंक से।और ये देखो जिठानी की तरह मुँह फुलाये चिकनी कढ़ाई... हाय राम...बड़ी मेहनत से चमकीं ये महारानी!!और दूध का बड़ा भगोना साफ करते -करते तो पसीने छूट गये।चम्मच से मलाई खुरचते ऐसा लगा मानो जेठ जी कह रहे हों," देख 'छोटे' तेरी घरवाली की आजकल बहुत जुबान चलने लगी है।काबू में रख इसे।"


"हुँहह...मुझे  क्या...?अब तो आदत पड़ गयी है सबकी सुनने की।कहते रहो..।"यही सोचकर  मैं फिर से बरतन घिसने लगीं।

हाय ये क्या !!लंच बाक्स के डिब्बे- डिब्बी,ननदो और उनके बच्चों की तरह संभाले नहीं सँभल रहे थे।बड़े यत्न से साफ किया उन्हें भी उल्टा रखकर स्लैब पर लगाया।

 लो जी अब बारी आयी  तवा  महाराज की जो पूरा दिन  पूरे घर का बोझ उठा उठाकर जला भुना बैठा है,घर का मालिक...मैने मुस्कुराकर 'उन्हें' भी साफ करके फिर से गोरा चिट्टा बनाया।

अब आखिर में चाय की छलनी ...देखो सबके दोष कैसे निथारकर एक ओर फेंकती है!!अब खुद को तो बहुत ही करीने से साफ करना था।लिहाज़ा वक्त लगा ...पर चमचमा गयीं मैं...थोड़ी ही मेहनत से..।

 अब.....!!अब क्या..? मैं हूँ  ,मेरी रसोई!और  मेरे बरतन ...अक्सर तनहाई में बाते करते हैं और कहते हैं कि  चार बरतन होंगे तो बजेगें ही न....!और जो बजता नहीं वो  टूट  जाता है।

खैर...!!चाय बन रही है।पीकर जाइएगा।

✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

गुरुवार, 22 जुलाई 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ----- व्याख्या एक फ़िल्मी गाने की !!!!

 


किसी भी फ़िल्मी गाने की व्याख्या हमने कभी सही ढंग से नहीं की. एक तो इन गानों के पीछे बजते हुए पार्श्व संगीत ने हमेशा परेशान किये रखा कि जंगल में, जहां आजकल जंगली जानवर भी रहने से घबराते हैं, संगीतकार अपने तान-तमूरे लेकर कैसे पहुंच जाते हैं कि हीरो या हीरोइन के गाने में कोई कमी ना रह जाये ? कई गाने तो ऐसे होते हैं कि जिनको हीरो जो है, वो हीरोइन की शान में गाता है और कई ऐसे होते हैं, जिन्हें ग़म नाम की कोई बीमारी होने की वजह से वह गाने के लिए अपने घर से दूर जंगलों में जाकर गाना ही उन्हें मुनासिब समझता है. इन गानों में बेवफाई, मिलने आने का वादा करके भी ना आना, याद का लगातार आना और दुनिया के ज़ालिम होने जैसी सूचनाएं होती हैं. इन गानों को हीरो किसी भी सुनसान लगने वाली ऐसी जगह पर जाकर गा लेता है, जहां अभी तक प्लॉटिंग नहीं हुई है और किसानों की ज़मीनें मौज़ूद है.

    साठ और सत्तर के दशक की फिल्मों के गाने तो ऐसे होते हैं कि उन्हें जितनी बार सुनो, उतनी बार कई सारे सवाल खड़े हो जाते हैं. मसलन. एक गाना है, ” लो, आ गयी, उनकी याद, वो नहीं आये ? ” गाने में कोई कमी नहीं है, मगर हम इसे जब भी सुनते हैं, तो अफ़सोस होता है कि जिसे आना चाहिए था, कम्बख्त वह तो आया नहीं, याद पहले आ गयी. अब हीरोइन याद से कब तक काम चलाएगी ? हीरो या तो किसी लोकल ट्रेन से आने की वजह से अपने निर्धारित समय से कई घंटे लेट हो गया है या फिर उसकी याद में इसी किस्म का गाना गाने वाली कोई और मिल गयी है तो उसने सोचा होगा कि चलो, इसका गाना भी सुनते चलें. कुछ भी हो सकता है. आना-जाना किसी के हाथ में है कि गाना गाकर याद किया तो हाज़िर ?

    ” लो, आ गयी उनकी याद…..” गाना अपने शबाब पर है. संगीतकार सारे साथ चल रहे हैं कि पता नहीं कौन सा सुर बदलना पड़ जाये ? गाने वाली गाये जा रही है, ” लौ थरथरा रही है, अब शम्मे-ज़िन्दगी की, उजड़ी हुई मोहब्बत, मेहमाँ है दो घड़ी की……. ” शम्मे-ज़िन्दगी की यानि वह ज़िन्दगी, जिसकी पोज़ीशन अब शम्मां की तरह की हो गयी है, उसकी लौ जो है, वह थरथरा रही है और वो जिसके एवज़ में सिर्फ़ याद ही हमेशा आ पाती है, अभी तक नहीं आ पाया है, इसलिए गाना संगीतकारों सहित अपने अगले पड़ाव पर पहुंच जाता है. जंगली जानवरों से भरे सुनसान जंगल में हीरोइन इतना नहीं थरथरा रही, जितनी उसकी ज़िन्दगी की शम्मां की लौ थरथरा रही है. आज उसके ना आ पाने की वजह से उसकी मोहब्बत बेमौसम बरसात में हुई बारिश की वजह से उजड़ी फसल की तरह उजड़ गयी है और अब सिर्फ़ दो मिनट में गाना ख़त्म होने तक की ही मेहमाँ है, उसके बाद वह अपने घर और यह अपने घर, मगर वह जो कम्बख्त हीरो है, वह अभी तक नहीं आ पाया है.

    यही नहीं, कई गाने ऐसे हैं, जिनको हम जब भी गुनगुनाते हैं तो कई किस्म के कई सवाल आ खड़े होते हैं हमारे सामने और हम उनकी व्याख्या अपने ढंग से कर डालते हैं. एक सवाल और था जो बचपन से हमारे ज़हन में कौंधता रहा है कि फिल्मों में गाने गाकर ही अपनी बात कहने की कौन सी तुक है और जब गाने गाये ही जा रहे हैं तो संगीतकार उनके साथ क्यों चल रहे होते हैं ? वे अपने गाने गायें, हमें कोई ऐतराज़ नहीं, मगर उनमें इस किस्म की बातें तो ना कहें कि ” उजड़ी हुई मुहब्बत मेहमाँ है दो घड़ी की…..” एक बार अगर महबूब नहीं आ पाया तो मुहब्बत उजड़ गयी ? आज अगर कोई महबूब ना आ पाए तो अपनी मुहब्बत को उजड़ने से बचाने के लिए महबूबा फ़ौरन किसी दूसरे महबूब को मोबाइल करके बुला लेगी. पहले ऐसी बात नहीं थी. लानत है उस ज़माने की मुहब्बत पर.

     ✍️अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

शनिवार, 17 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता का व्यंग्य -- माँग

 


भारत में शताब्दियों से विवाह की एक बहुत ही महत्वपूर्ण रस्म माँग भराई चली आ रही है . विवाह तब तक पूरा नहीं माना जाता है जब तक पति अपने सारे रिश्ते दारों और परिचितों के सामने अपनी पत्नी की माँग सिंदूर से न भर दे . 

जिस तरह से एक सिख होने के लिए पाँच पहचान  केश , कृपाण , कच्छा , कंघा, कड़ा होनी ज़रूरी हैं ठीक इसी तरह से विवाहिता स्त्री की मुख्य पहचान उसकी भरी हुई माँग है .

बॉलीवुड ने विवाहिता की इस पहचान को ‘माँग भरो सजना’से ले कर ‘खून भरी माँग’ तक ख़ूब दिखाया और भुनाया है. 

पति विवाह संस्कार के समय जो पत्नी की माँग भरता है उसके बाद यह माँग ससुरी  सुरसा की तरह बढ़ती जाती है पूरी होने का नाम ही नहीं लेती , पति नाम का निरीह प्राणी कमाता जाता है और ज़िंदगी भर पत्नी की माँग भरता रहता है . 

सिन्दूर से भरी माँग कुछ कुछ टायलेट के बाहर जलने वाले ऑक्युपायड संकेत जैसा प्रभाव भी पैदा करती है . यानि यह महिला किसी और की अमानत है बिना मतलब इधर अपना टाइम बर्बाद न करें . इसीलिए पुराने जमाने में शोहदों के घटिया रिमार्क्स और उनकी बुरी नज़र से बचने के लिए कुँवारी लड़कियाँ भी सड़क पर निकलते समय अपनी माताओं और बड़ी बहनों की तरह माँग में सिंदूर डाल के निकल पड़ती थीं और अपने आप को सुरक्षित महसूस करती थीं. पर पिछले कुछ बरसों में शोहदे लड़कों की क्वालिटी ज़बरदस्त तरीक़े से गिरी है , अब उन्हें माँग भरे होने या न होने से कोई ख़ास फ़रक नहीं पड़ता है , इसका अंदाज़ा आप सविता भाभी वाले कार्टूनों , इंटर्नेट की निचली परत में छिपे वीडियो क्लिप्स से भी लगा सकते हैं . 

मांग को लेकर एक और बड़ा संकट इन दिनों पैदा हो गया है . आधुनिकता की लहर के कारण कपड़ों के साथ ही साथ बाल भी संक्षिप्त होते गए हैं . इस कारण अब माँग निकालने और उसे भरने का स्कोप बचा ही नहीं है . फिर भी जिन महिलाओं को अपने पति और परम्परा में थोड़ी बहुत आस्था बची है वे होंठों पे लिपस्टिक लगाने के बाद थोड़ा सा लिपस्टिक माथे पर झूलने वाले बालों 

के आसपास लगा कर औपचारिकता पूरी कर लेती हैं . इस का एक उद्देश्य अपने पति को यह एहसास दिलाना भी रहता है कि उसे पत्नी की माँग पूरी करने के दायित्व का निर्वहन करते रहना है !

✍️ प्रदीप गुप्ता                                                    B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद बिजनौर निवासी साहित्यकार भोलानाथ त्यागी का व्यंग्य - " विसंगतियों का कालखंड "

   


 जब विसंगतियां , जीवन   में संगत देने लगती हैं , तब आगे चलकर  यह  समुचा कालखंड  "विसंगतियों का कालखंड " सिद्ध हो  , इतिहास का हिस्सा बन जाता है । वर्तमान में भी यही सब चल रहा है ।

     लकड़हारे अपनी कुल्हाडियां  संभाले ऑक्सीजन उत्पादन पर बहस करने में व्यस्त हैं , वेश्याएं चरित्र के अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में सहभागिता सुनिश्चित कर रही हैं , अपराधी , समाज को अपराध मुक्त बनाने हेतु , गठित आयोग का अध्यक्ष पद पाने  हेतु आतुर हैं । और इन सब के बीच चिर कुवारें  "सफल दांपत्य " पर लिखित , अपनी पुस्तक का विमोचन करा रहे हैं । सत्ता शब्द को शुद्ध ना लिख सकने वाले जीव , सत्तारूढ़ हैं । जिन आंदोलन जीवियों  की अक्ल सिर्फ , बक्कल उतारने तक सिमटी हो , वह अपने बक्कल बचाने की जुगत में हैं ।

      जिनका अपना कोई इतिहास नहीं रहा है , वह इतिहास संरक्षण के पुरोधा बने बैठे हैं , दूसरों के द्वारा पकाई गई खीर की हांडी , अपने चूल्हे पर रख तस्माई  स्वाद पर प्रवचन करने वाला वर्ग ,पाक कला का विशेषज्ञ मान लिया जाता है । 

इस गांधारी युग में विदुर का  बथुआ और  अर्जुन की छाल का अनोखा सामंजस्य ऐसा लगता है जैसे विवेकी राय के ललित निबंध और रविंद्र नाथ त्यागी के व्यंग्य एक ही चाशनी में घोट दिए गए हों और फिर इस चाशनी से बाहर जो पदार्थ निकलता है , उसे चख कर सभी चहक उठते हैं । 

खंड खंड भोगे जा रहे  कोरोना कालखंड में दवाई हेतु तरसाव  व्याप्त है और दारू की होम डिलीवरी का प्रबंध वाहवाही बटोर रहा है । दवा - दारू का यह मणिकांचन संयोग , कल्पनातीत  है ।

देश का प्रथम नागरिक, अपनी सैलरी और कराधान व्यवस्था से व्यथित है ,  जनपद के प्रथम नागरिक की पदवी प्राप्त करने हेतु, किए गए कर्मकांड समुचे  प्रांत में गूंज रहे हैं। इस व्यवस्था में जिस अलोकतांत्रिक ढंग से , लोकतंत्र भरतनाट्यम कर रहा है , वह सीता के स्वर्ण मृग प्राप्त करने की लालसा को सही सिद्ध कर देता है ।

सत्तान्नोमुख प्रशासन हमेशा अपने आकाओं के फरमान , बजाने में सिद्धहस्त माना जाता है । डंडा प्रत्येक कालखंड में वही रहता है बस आस्थाओं के साथ झंडा मात्र बदलना होता है , और इस प्रक्रिया में ब्यूरोक्रेसी का कभी कोई सानी नहीं रहा है । वाहन चलाने हेतु लुंगी को वैधानिक पोशाक नहीं माना गया है , लेकिन शासन लुंगी धारण कर बखूबी चलाया जा सकता है । जहां तक चित्रपट जगत का सवाल है तो वहां लुंगी डांस काफी पहले से प्रतिष्ठित है । अब लुंगीडांस  समाज को अपने आगोश में ले चुका है । कोई भी सक्षम अधिकारी कभी भी त्वरित निर्णय लेने की भूल नहीं करता , यदि पीड़ित जनसामान्य उसे अपनी समस्याओं से अवगत कराते हुए , कोई आवेदन देता है - तो उसे वह अपने अधीनस्थ को जांच उपरांत आख्या और उचित कार्रवाई हेतु थमा देता है । और बस इसी के साथ समस्या की अंतिम क्रिया संपन्न हो जाती है । उच्च अधिकारी अधीनस्थ को फाइल पर 'देखें की टिप्पणी देता है और  अधीनस्थ  फाइल  पर  'देखा ' टीप देता  है । और इस देखें और देखा के बीच फाइल में दबी समस्या , स्वयं शांत हो जाती है । ईमानदारी और सिद्धांत , गुजरे जमाने की बात हो चुकी है , अब तो जिसे बेईमानी का मौका नहीं मिलता वह ईमानदारी का मुखौटा धारण कर लेता है तथा सिद्धांतहीन होना ही , आज का सिद्धांत हो गया है ।

न्यायाधीश ,सत्ता हेतु किसी भी समस्या के निस्तारण हेतु समय सीमा निर्धारित करते हैं, लेकिन न्याय प्रदान करने  में स्वयं के लिए कोई समय सीमा नहीं होती । यही विरोधाभास न्यायहंता बन जाता है । सेवानिवृत्ति के उपरांत मलाई चाटने की आकांक्षा में तथाकथित न्यायालय , सत्ता के इशारे पर मुजरा करने लगते हैं और बस यहीं से कोठागिरी आरंभ हो जाती है । सत्ता के दलाल बरबस खीसें दिखाने लगते हैं । शिक्षा व्यवस्था संकटग्रस्त हो स्वयं को , निशंक सिद्ध करने में लगी है । शिक्षा की  मूल भावना को स्ववित्तपोषित व्यवस्था के माध्यम से , भ्रूण हत्या कर , आगामी सभी आशंकाओं को समाप्त कर दिया जाता है । सत्ता को हमेशा खतरा शिक्षित समाज से होता है , अपने गंभीर प्रयासों द्वारा सत्ता,  अशिक्षा के प्रसार में कभी कोई कसर नहीं छोड़ती । रही सही कमी , कोरोना  पूरी कर देता है ।

परिवार को विस्तारित ना कर पाने की कसक, अपने  मंत्रिमंडल को विस्तारित कर पूरा करने का प्रयास किया जाता है । हमारे देश को ठगने में सिद्धहस्त लॉर्ड विलियम बेंटिग ने अपने समय में ठगों का समापन कर दिया बताते थे । लेकिन यह विद्या आज समूची राजनीति में व्याप्त हो चुकी है , बनारस के ठग इतिहास प्रसिद्ध रहे हैं । वर्तमान भी इसका सहज  साक्षी है  । जनता को ठगने की संपूर्ण कला , बरास्ता  बनारस ही फलती फूलती है । इस विद्या में निष्णात होने हेतु किसी को भी बनारसी बाबू बनना ही पड़ता है , और बस समूचा देश इसकी जद में आ जाता है ।

विसंगतियों के इस कालखंड पर कुछ लिख पाना भी एक विसंगति से कम नहीं है , क्योंकि अधिकांश कलम  गिरवी रखी हैं और अपने आकाओं की आवश्यकता /  निर्देशानुसार , स्याही को रोशनाई सिद्ध करने का असफल प्रयास करती है।  आसमान से बरसती चैनल संस्कृति , इसी तथ्य का एक सार्थक और सटीक उदाहरण है ।

पहले लोग बाग  सठिया जाते थे , लेकिन आजकल जन्म लेते ही कुर्सियां जाते हैं । एक कुर्सी पाने की लालसा में बुद्धिबल के अलावा सभी कुछ इस्तेमाल किया जाता है , यथा- धनबल ,बाहुबल । बलबलाती राजनीति के इस रेगिस्तान में , कारूं का खजाना पा लेने की होड़ किसी मृगतृष्णा  से कम नहीं मानी जाती । साहित्य  भी  इससे इतर कुछ नहीं है । 

इस संदर्भ में , अंत में यह पंक्तियां देखिएगा -

रहने और ना रहने के बीच ,

जो रहता है - 

वही तो जीवन है ,

वरना तो एक कलश 

घूमता रहता है -

दधीचि की अस्थियों को , 

अपने में समेटे 

मुंगेरीलाल के सपनों सहित , 

चुनावी वज्र बनने की कामना लिए 

घाट घाट , तीरे तीरे ,

धीरे धीरे -

स्वार्थ  साधते रहते हैं , 

राजनीति के समर में 

नरो वा कुंजरो वा के - 

उद्घोष  / जयघोष के 

सनातन कोलाहल सहित ।


✍️भोलानाथ त्यागी, 49 / इमलिया परिसर,  सिविल  लाइन , बिजनौर (उ. प्र.), मोबा - 7017261904


मुरादाबाद मंडल के चंदौसी ( जनपद सम्भल ) निवासी साहित्यकार डॉ मूलचंद्र गौतम का व्यंग्य विमर्श ---- तथाकथित व्यंयकारों को सादर सप्रेम--- नख दंत विहीन सरकारी और असरकारी व्यंग्य

 


जब से सत्ता की चाल ,चरित्र और चेहरे मोहरे में बदलाव हुआ है व्यंग्य की जमीन बंजर हो गयी है ।पता नहीं कब किस बात पर व्यंग्यकार और कार्टूनिस्ट को नक्सली बताकर उसकी सरकारी हत्या कर दी जाये ।अच्छा हुआ परसाईजी व्यंग्य की एवज में टाँग तुड़वाकर मामूली सी गुरुदक्षिणा देकर समय से विदा हो गये अन्यथा उनकी सद्गति कलबुर्गी जैसी ही होती ।

सत्ताधारी ताकतवर व्यक्ति और कट्टरपंथी समूह के पास व्यंग्य को बर्दाश्त करने की सहनशक्ति प्रायः नहीं होती ।तानाशाह को तो कतई नहीं ।हिटलर और चार्ली चैपलिन का द्वंद्व जगजाहिर है ।शार्ली एब्दो का उदाहरण तो एकदम समकालीन है ।

व्यंग्य वैसे भी व्यवस्था की विसंगतियों और बिडम्बनाओं से उपजता है जो शिकार में प्रतिहिंसा को जन्म देता है ,जिसका कोई भी दुष्परिणाम हो सकता है।जेल जाने से तथाकथित लेखक और बुद्धिजीवी भी नहीं डरता क्योंकि उसके बाद बाजार में उसकी कीमत कई गुना बढ़ जाती है ,सत्ता के बदलने से तो  पदम् सम्भावना भी ।

अमूमन हास्य व्यंग्य साथ साथ चलते हैं इसलिए उनके बीच का फर्क नजरअंदाज किया जाता है ।कविसम्मेलन तो अब हास्य व्यंग्य के ही पर्याय हो गये हैं जबकि दोनों के बीच बड़ा फर्क है ।हास्य जहाँ अपने हर रूप में गुदगुदाता है वहाँ व्यंग्य नश्तर चलाता है ,कई बार ख़ंजर भी ।कई बार व्यंग्य जब कटु उपहास और कटाक्ष का रूप ले लेता है तो उसके परिणाम भयंकर होते हैं ।इसीलिए व्यंग्य को केवल नकारात्मक न होकर सकारात्मक और सुधारात्मक होना चाहिए ।  हल्के फुल्के हास्य को लोग हँसकर झेल जाते हैं जबकि व्यंग्य को दुर्योधन की तरह दिल पर ले लेते हैं और मौका मिलते ही बदले की फ़िराक में रहते हैं।कितना ही लोग ऊपरी मन से  निंदक को नियरे रखने की उदारता दिखाएं लेकिन आलोचक की तरह व्यंग्यकार भी अझेल है।उसे हर जगह गालियां ही मिलती हैं ।यही उसका दुर्भाग्य है ।

जिन महापुरुषों ने साहित्य को सत्ता का स्थायी विपक्ष बताया था उन्हीं को बाकी कलाएँ गोल मोल नजर आती थीं, जिनकी न कोई प्रतिबद्धता थी ,न जोखिम।हर समय राग दरबारी जिसका नया नामकरण गोदी मीडिया हो गया है ।नख दंत विहीन कला की तुलना शालिग्राम से होती थी जिसमें कोई काँटा ही नहीं होता ।एकदम आशुतोष।उनकी स्प्रिंगदार जीभ इतनी घुमावदार थी कि उसमें अनेकान्तवाद की अपार संभावनाएं थीं ।वे ब्रह्म की तरह सर्वकालिक, होने के साथ ही कालातीत कला के पुरोधा थे ।वे साक्षात विरुद्धों के सामंजस्य थे ।उनके इशारों पर कलाओं के भूगोल खगोल बदलते थे ।प्रकाशकों की बत्ती जलती बुझती थी ।

व्यंग्य तो वैसे भी क्षत्रिय विधा है जो दीन हीन हो ही नहीं सकती ।व्यापारियों ने इसे भी सरकार की चापलूसी में लगा दिया है ।पता ही नहीं चलता कि व्यंग्यकार जूते चाट रहा है या जूते मार रहा है ।वह विषहीन डिंडिभ सर्प की तरह है जिसका अचार डाला जा सकता है ।सत्ता जब ऐसी कटु सत्यवाचक विधा को भी अपनी जरखरीद दासी बना ले तो फिर कहने को बचता ही क्या है ? एक वक्त था जब सत्ताधीश कार्टूनों के आप्तवाक्यों के पीछे जनमत के कूटार्थ बाँचते थे ।अब तो वे दम ही तोड़ चुके हैं ।

सरकारी ठप्पा लगते ही लेखक की हर रचना विज्ञापन और क्रांति विरोधी हो जाती है।तब क्या रचना के लिये जेल जाये बिना क्रांति सम्भव ही नहीं ?पुरस्कार वापसी गैंग इसीलिए अब प्रतिक्रान्तिकारी होने का लाभ नहीं उठा सकता ।यानी राष्ट्रवादी होने की सारी सम्भावनाएं हमेशा के लिये समाप्त।अब सरकार बदलने पर ही शहर की सम्भावना सम्भव है ।गाँव का जीवन यों भी कष्टकारी है ।अतीत में चिरगांव से  राज्यसभा जाना सम्भव था लेकिन अब वहाँ सिर्फ मनरेगा की मजदूरी मिल सकती है ।उसमें भी पत्ती तय है ।

जब से मीडिया में सम्पादक की जगह मालिक ने जबरिया छीन ली है तब से वह सरकारोन्मुख हो चुका है ।मालिक का शुभ लाभ सरकार से ही सधता है तो उसके विरुद्ध कौन मतिमन्द जाना चाहेगा? अब हर जगह सम्पादक नाम का एक रीढ़हीन जीव दिखावे के लिये रख लिया जाता है जो मालिक की इच्छा के अनुसार कठपुतली की तरह नाचता रहता है ।थोड़ी सी आजादी उसे मालिक दे देता है ताकि उसे जीवित होने का अहसास बचा रहे ।वह इतना आत्मानुशासित हो जाता है कि सत्ता विरोधी लोकतांत्रिक आलोचना और रचना को विमर्श से बाहर रखने में ही पूरी ताकत लगा देता है ।यही ऑटो दिमागी कंडीशनिंग बाकी व्यक्तित्वहीन पुतलियों की हो जाती है जो उसको सन्तुष्ट रखती हैं।कहीं से कोई संकट या आपत्ति आती है तो सबसे पहले इसी निरीह प्राणी की बलि चढ़ाई जाती है ।अपवादस्वरूप किसी के कुछ कील कांटे बचे हैं तो उन्हें सीबीआई और आईडी के छापों ने झाड़ दिया है और वह चुपचाप मुख्यधारा में घिस और घुस चुका है ।जिंदा रहने की शर्त ही जब सरकारी विज्ञापन हो तो विकल्प भी क्या हो सकता है ।यानी राजनीति की तरह विकल्पहीनता का संकट यहाँ भी है ।ऐसे में न असरकारी पत्रकारिता की गुंजाइश है ,न साहित्य की ।सब कुछ तात्कालिक  उत्पादन में बदल चुका है आदतन कि इसके सिवा कुछ कर नहीं सकते।

अब सबसे बड़ा संकट उन पत्रकारों ,रचनाकारों के सामने है जो अपने औज़ारों से क्रांतिकारी काम लेना चाहते हैं।उन्हें कोई मीडिया समूह झेलने को तैयार नहीं।पार्टियों की अपनी शर्तें हैं।सब कुछ ऐसे छद्म में तब्दील हो चुका है जहाँ कोई पहचान ही नहीं बची है ।कुल मिलाकर यह विचार और विचारधारा की निराशा का दौर है ।ईश्वर के साथ इतिहास की मौत काफी पहले हो चुकी है ।ऐसी उच्च नैतिकता में केवल शुध्द धंधा सम्भव है और कोई रास्ता नजर नहीं आता ।जो यह नहीं कर सकते वे मरने के लिये आजाद हैं।

प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के बाद की खाली जगह को सोशल मीडिया ने भर दिया है ।मोबाइल के डिजिटल कैमरे के वीडियो ने प्रत्यक्ष साक्षी की भूमिका अदा की है ।उसके आधार पर कार्रवाई  हो रही है और निर्णय भी दिये जा रहे हैं।दुष्कर दुनिया अब इतनी नजदीक हो चुकी है कि वाकई वह मुट्ठी में है ।अफवाहों और फेकन्यूज ने मीडिया का एक नया ही रूप खोल दिया है।साइबर क्राइम ने पारम्पिक अपराध को पीछे छोड़ दिया है ।अब तकनीक में पिछड़ा हुआ ही सही मायने में पिछड़ा है ।

साहित्य की दुनिया में साहित्यकारों की छवि का कोई ठिकाना नहीं ।उनके मूल्यांकन के लचीले अवसरवादी मूल्य कब बदल जाएंगे कोई ठिकाना नहीं ।एवरेस्ट पर बैठी महानता कब भूलुंठित हो जायेगी कह नहीं सकते।उसे गिराने उठाने में सम्पूर्ण पुरुषार्थ की इतिश्री हो रही है ।

साहित्य के राष्ट्रवादी उभार में आये बदलाव में यह देखा जा सकता है कि कैसे पुराने दौर में कीड़े मकोडों में शुमार लेखकों पर लक्ष्मी बरसने लगी है ।उनके अभिनंदन ,वंदन और चंदन की चर्चा चहुं ओर है ,जबकि पुराने प्रतिष्ठित महामानवों पर मक्खियाँ भी नहीं भिनक रहीं ।हां ,अचूक अवसरवादियों के दोनों हाथों में लड्डू हैं।

✍️ डॉ मूलचंद्र गौतम, शक्तिनगर, चंदौसी (जनपद सम्भल ) -244412, उत्तर प्रदेश,भारत , मोबाइल फोन नम्बर 9412322067


मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य -----हमारे पूर्वजों पर एक स्कूली बहस

   


 “चलो बच्चो, बताओ कि हमारे पूर्वज कौन थे ?” मास्टर साहब ने प्राचीन इतिहास का एक ऐसा सवाल छात्रों से पूछ लिया, जिसको लेकर छात्रों में अक्सर मतभेद होता था और जो वानर-जाति से खुद को जोड़े जाने कि वजह से था!

“सर, हमारे पूर्वज तो हमेशा से ही ग्राम-प्रधान रहे हैं! और लोगों के या आपके पूर्वजों के बारे में हमें जानकारी नहीं है कि वे कौन थे?” देहात के एक खुराफाती इतिहास-छात्र ने इतिहास-सिद्ध जानकारी को नज़रअंदाज करते हुए जबाव दिया!

    “मैं तुम्हारी वंशावली नहीं पूछ रहा! तमाम इंसानों कि बात कर रहा हूं कि उनके पूर्वज कौन थे?” मास्टर साहब ने बन्दर की शक्ल से मिलते-जुलते एक ऐसे छात्र से सवाल किया, जिसको लेकर वह अपने चिंतन के क्षणों में डार्विन की थ्योरी पर अपनी प्रमाणिकता की मोहर लगा दिया करते थे कि उसने कुछ सोचकर ही इंसानों को ‘वानरों की औलादें’ कहा होगा!“सर, आप यह सवाल मुझसे ही क्यों पूछते हैं? मैं तो कई मर्तबा बता चुका हूं हमारे और आपके पूर्वज बन्दर थे और पेड़ों पर ही रहा करते थे!” वानरमुखी छात्र ने अपनी मुखाकृति को ‘पूर्वज गिफ्टेड’ सिद्ध करते हुए निस्संकोच मास्टर साहब को याद दिलाया!“………..फिर भी……. तुम सही जवाब देते हो, इसलिए तुमसे पूछ लेता हूं!” वानर-वंश के नवनिर्मित दस्तावेज़ के तौर पर वानारमुखी छात्र को प्रोत्साहित करते हुए मास्टर साहब ने कहा!

    “मेरे पिताजी बुरा मानते हैं कि इतिहास का यह सवाल तुमसे ही क्यों पूछते हैं तुम्हारे मास्टर साहब?” ऐतिहासिक धरोहर सिद्ध होते छात्र ने अपनी पारिवारिक समस्या की ओ़र ध्यान खींचते हुए मास्टर साहब के सामने अपनी बात रखने की कोशिश की!“मैं तुम्हारे माताजी और पिताजी की समस्या को बखूबी समझ सकता हूं! डार्विन का नाम सूना है तुमने? वो भी यही सोचते थे,जो मैं सोचता हूं कि आदमी के पूर्वज बन्दर रहे होंगे!” सार्वजनिक तौर पर बंदरों द्वारा की जाने वाली अश्लील हरकतों का स्मरण करते हुए इतिहास के मास्टर साहब ने छात्र से भविष्य में ऐसे सवाल न पूछने के लिए आश्वस्त किया और ब्लैक बोर्ड पर बन्दर और बंदरियानुमा कुछ अजीब से चित्र बनाने में व्यस्त हो गए!

    ✍️अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य -हम दो हमारे एक

     


लोगों ने "हम दो हमारा एक" की नीति को गंभीरता से नहीं लिया । खुद सरकार ने जो ड्राफ्ट बनाया तो उसमें उसे गरीबी के साथ जोड़ दिया गया । जैसे "हम दो हमारा एक" योजना की आवश्यकता केवल गरीबों को हो ! 

       यह बात सही है कि गरीब लोग खुद एक से ज्यादा बच्चे कैसे पालेंगे ? उनका तो एक बच्चा भी सरकार की सब्सिडी पर पलेगा और सरकार अपनी सब्सिडी से किसी के दस बच्चे पाले ,इसमें घाटा सरकार का ही है । इसलिए गरीबों के मामले में "हम दो हमारा एक" की नीति लागू करने में सरकार का दीर्घकालिक फायदा है । यह दूरंदेशी से भरी हुई नीति है । पता नहीं क्यों कुछ लोग इसका विरोध कर रहे हैं ? 

        जहां तक समृद्ध वर्ग का प्रश्न है ,उसको तो आंख मीच कर "हम दो हमारा एक" की नीति स्वीकार कर लेनी चाहिए । जितनी ज्यादा संपन्नता होगी ,उतना ही इस नीति को अपनाने से परिवार को लाभ पहुंचेगा। ज्यादातर परिवारों में जहां जमीन-जायदाद है, सिर-फुटव्वल इसी बात पर हो रही है कि किस भाई को कितना मिले ,किस बहन को कितना दिया जाए ? बड़े संपन्न घराने जमीन-जायदाद के बंटवारे को लेकर कोर्ट-कचहरी में उलझे हुए हैं । अगर "हम दो हमारा एक" की नीति पर वह लोग चले होते ,तो आज घरों में दीवारें खड़ी होने तथा अदालतों में चक्कर काटने की नौबत नहीं आती । क्या किया जाए ? जो गलती हो गई तो हो गई । अब दस बच्चे अगर परदादा ने परंपरा के अनुसार पैदा किए हुए हैं तो वह तो समस्या भुगतनी ही पड़ेगी । मगर आगे के लिए तो सीख ली जा सकती है ।

        पुराने जमाने में राजा महाराजाओं ने "हम दो हमारा एक" की नीति को अप्रत्यक्ष रूप से अपनाया था । अप्रत्यक्ष रूप से इसलिए कह रहा हूं कि उन्होंने अपने बड़े बेटे को रियासत का उत्तराधिकारी मान लिया। अब उसके बाद दस,बारह,पंद्रह जितने भी बच्चे होंगे ,वह सब उत्तराधिकार की लाइन से हट कर खड़े रहेंगे । इससे फायदा यह हुआ कि राजमहल दस टुकड़ों में बँटने से बच गया । अब रियासतें खत्म हो गईं और भूतपूर्व राजा - महाराजाओं की संपत्तियों को लेकर मुकदमेबाजी चल रही है । इन मुकदमेबाजियों के मूल में "हम दो हमारे अनेक" की गलती ही है । न एक से ज्यादा बच्चे होते ,न आपस में झगड़ते ,न अदालत में मुकदमे जाते और न राजमहल के बंटवारे होते ! 

               अब बेचारा एक राजमहल है । सौ कमरे हैं । दस उत्तराधिकारी हैं । अदालतों में सब चक्कर काट रहे हैं । किसी को दस साल हो गए ,किसी को बीस साल ,कोई पचास साल से तारीखों पर जा रहा है । अब अगर बँटवारा हो भी जाता है तो दस उत्तराधिकारियों में से हर एक के हिस्से में दस-दस कमरे आएंगे । दस कमरे तो फिर भी ठीक रहेंगे। लेकिन अब आप उन दस कमरों वालों के दस-दस उत्तराधिकारियों के बारे में सोचिए । उन्हें तो अपने हिस्से के राजमहल में फ्लेट बनाने की नौबत आ जाएगी।  साठ-सत्तर साल बाद राजमहल में जो राजपरिवार रहेंगे ,उनके "राजतिलक"- संदेश का कुछ इस प्रकार लोगों के पास मैसेज जाएगा :-

       *" महोदय ,अत्यंत हर्ष के साथ सूचित किया जा रहा है कि भूतपूर्व रियासत के भूतपूर्व राजकुमार का राज्याभिषेक अमुक तिथि को राजमहल के फ्लैट संख्या पिचहत्तर ( नौवीं मंजिल )पर किया जाएगा। सूक्ष्म जलपान अर्थात चाय और समोसे का भी प्रबंध है ।"* 

          क्या किया जाए ? अगर "हम दो हमारा एक" की नीति पर लोग नहीं चले तो भूतपूर्व  राजा-महाराजा और बड़े खानदानों तक में हालत खस्ता होने वाली है । एक बड़े उद्योगपति की तीन फैक्ट्रियां थीं। बेटे चार थे। चालीस साल से मुकदमा चल रहा है। कैसे बँटे ? अगर बच्चे चार की बजाए तीन किए होते तो कम से कम एक-एक फैक्टरी तो बांट लेते ! संपन्न लोगों को "हम दो हमारे एक" पर अत्यंत गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए । जमीन - जायदाद वाले संपन्न लोगों को एक बच्चा रखने की ज्यादा जरूरत है । उनका शांतिमय भविष्य इसी में निहित है।

✍️  रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश) मोबाइल 99976 15451

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुम्बई निवासी) प्रदीप गुप्ता का व्यंग्य ---- चारण और भाट के नए अवतार


हमारे देश में पुराने जमाने में राज दरबारों में राजा के इर्द गिर्द चारण और भाट रहा करते थे , जिनका बुनियादी काम राजा की स्तुति और चरण वंदना होता था . वे राजा को रोज़ नए नए विशेषणों से नवाजते थे . राजा की वीरता , दयानतदारी और शौर्य के ऐसे ऐसे क़िस्से बना कर प्रस्तुत करते थे कि पूरा  का पूरा दरबार तालियों  से गूंजने लगता था . देखा जाए तो इस क़वायद का यही मूल उद्देश्य भी होता था . 

एक नमूना देखिए ये चारण राजा को किस तरह खुश करते थे . एक दिन राजा लंच में बैंगन की सब्ज़ी खा कर आया था , पता नहीं ख़ानसामे ने बहुत ही घटिया तरीक़े से पकाई थी , राजा ने इस बारे में दरबार में चर्चा की . चारण फ़ौरन बोल उठा , साहब इसी लिए बैंगन  को हमारे तरफ़ के गावों में बैगुन बोलते हैं . और साहब प्रकृति ने इसे एक दम बदसूरत काला कलूटा बनाया है . तालियाँ बजीं और चारण का दिन बन गया. इस घटना के कुछ महीने बाद ख़ानसामे ने फिर से बैंगन की सब्ज़ी बनाई , इस बार राजा को बहुत पसंद आयी . राजा ने इस बारे में दरबार में ज़िक्र किया . चारण दरबार में मौजूद था , उसने राजा से कहा ,’बैंगन की बात ही कुछ अलग है , प्रकृति ने इसे सब्ज़ियों  का राजा बनाया है . हुज़ूर आपने गौर किया होगा कि इसके सिर पर सुंदर मुकुट भी होता है .’ इस बात पर दरबार में ख़ूब तालियाँ बजीं .

अचानक राजा को ख़्याल आया कि कुछ महीने तो यह बन्दा बैंगन  को काला कलूटा और बैगुन बता रहा था . राजा ने जम के चारण की क्लास ली . लेकिन चारण ठहरे चिकने घड़े , कहने लगा ,’ साहब हम तो आपके चाकर हैं बैंगन के नहीं !’

धीरे धीरे राजवंश ख़त्म होते गए , जिसके कारण चारण भाट के अस्तित्व को ही संकट खड़ा हो गया , इन्होंने अपने आप को रि-इंवेंट किया और इनके नए अवतार धन कुबेरों और साहूकारों  से जुड़ गए . अजेंडा वही का वही था बस लक्ष्य बदल गए .  अब वे सेठ साहूकारों को महिमामंडित करने के लिए छंद, दोहे और कविताएँ भी लिखने लगे . 

चलते चलते आपको एक नए गेम चेंजर के बारे बतायेंगे. जिस के कारण  चारणों की संख्या अब लाखों करोड़ों में पहुँच गयी है . ये लोग पूरे सोशल मीडिया पर छाए हुए हैं . वाट्स एप, फ़ेसबुक आदि पर आजकल तीन क़िस्म के लोग हैं . एक तो वो हैं जो अपने सहकर्मियों , रिश्तेदारों और मित्रों से ज़रूरी बातचीत करने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं . दूसरी श्रेणी उनकी है जो अपने अपने आकाओं के महिमामंडन और उनके विरोधियों के खिलाफ  ऐसी ऐसी पोस्ट तैयार करते हैं कि पढ़ के लगता है कि पुराने जमाने के चारण भाट अर्थहीन हैं , ये हिस्ट्री और जियोग्राफ़ी सभी कुछ बदलने की अकूत क्षमता रखते हैं . तीसरी श्रेणी ग़ज़ब की है , इनकी संख्या अब करोड़ों में है , इन लोगों के पास समय ही समय है दिमाग़ में काफ़ी सारा स्पेस ब्लैंक है , इनका काम सोशल मीडिया पर पहले से ही तैर रही तैयार पोस्ट अपने इष्ट मित्रों को उछालना है . यह सोशल मीडिया पोस्ट उछालना अब राष्ट्रीय खेल बन चुका है . कई बार तो पत्रकार भी सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर समाचार लगा देते हैं और बाद में सही तथ्य की ओर ध्यान दिलाए जाने के  बाद माफ़ी माँग लेते हैं , कुछ तो इसकी ज़रूरत भी नहीं समझते हैं .

✍️ प्रदीप गुप्ता

 B-1006 Mantri Serene

 Mantri Park, Film City Road ,   Mumbai 400065