घर में चार बरतन होंगें तो आपस में बजेंगे ही,यह कहावत तो बहुत पुरानी है।लेकिन जो इन बरतनों को बरसों से मांँजता -घिसता आया हो उसका क्या? कभी किसी ने सोचा है उसके बारे में।
खाना बनाने के बाद फैली हुई रसोई को समेटने के बाद बरतन माँजते ऐसा लगा कि अचानक ही घर के सारे बरतन मेरी तरफ घूर घूर के देख रहे हों।मैने डरते डरते सबसे पहले कुकर जी को पानी भरकर एक ओर रखा ,तो लगा कि ससुर जी पूछ रहे हो,"बहू मेरी चाय कब बनेगी?"
मैने सहम कर साडी का पल्लू कमर में खोंसा और परात माता को उठाया और जूने से साफ करने लगीं,तभी माता जी की तली में चिपके आटे ने कहा,"बहू जरा संभलकर मांज ,देख तेरे गोरे -गोरे हाथ खुरखुरे न हो जायें।मैने परात माता को पानी भरकर ससुर जी की बगल मे बैठाया तो दोनो खीसें निपोरते मुझे यों घूरने लगे जैसे मेरे पीहर से कोई कपड़ा लत्ता घटिया आ गया हो।खैर अब टीपैन फूफा जी की बारी थी.उफ्फ्फ बच्चों के फूफा जी ,!!!चाय की पत्ती से लाल होकर यूँ मुस्कुराये जैसे अभी अभी म्हारेरे नंदोई सा बनारसी पान चबाकर पूछ रहे हों,"और जी !!साले साहब आये नहीं दफ्तर से अभी तक?,आजकल कमाई ज़्यादा हो रही है शायद?।मैने घबरा के जल्दी जल्दी टीपैन को माँजकर एक ओर रखा।
तभी मुझे फूल से नाजुक मेरे छोटे छोटे बच्चों की तरह कप गिलास नज़र आये।हाय !!कलेजा ही काँप गया।कौन इन बच्चों को यहाँ रख गया सिंक में,मैनै गुस्से मे आँखें लाल पीली कीं और हृदय में पीर दबाये अपनी मासूम सी क्राकरी मांजकर एक ओर रख दी।तभी मेरी नज़र सिंक के पानी में तैरती मेरी सखियों समान कलछी,चमची,पौनी पर पड़ी, जो न जाने कबसे मेरी ओर देख रही थीं मानो पूछ रही हों कि घर गृहस्थी तो हमारी भी है,पर तुझे तो फुरसत ही नहीं हमसे बात करने की।मैने मुस्कुराते हुए उन्हें साफ करके स्टैंड में सजा दिया।तभी देखा देवर जैसा बे पैंदी का लोटा जो कभी सास की तरफ कभी मेरी तरफ अवसर के अनुरूप होता रहता है ,मुहँ फुलाये बैठा था।चलो भाई तुम भी निकलो सिंक से।और ये देखो जिठानी की तरह मुँह फुलाये चिकनी कढ़ाई... हाय राम...बड़ी मेहनत से चमकीं ये महारानी!!और दूध का बड़ा भगोना साफ करते -करते तो पसीने छूट गये।चम्मच से मलाई खुरचते ऐसा लगा मानो जेठ जी कह रहे हों," देख 'छोटे' तेरी घरवाली की आजकल बहुत जुबान चलने लगी है।काबू में रख इसे।"
"हुँहह...मुझे क्या...?अब तो आदत पड़ गयी है सबकी सुनने की।कहते रहो..।"यही सोचकर मैं फिर से बरतन घिसने लगीं।
हाय ये क्या !!लंच बाक्स के डिब्बे- डिब्बी,ननदो और उनके बच्चों की तरह संभाले नहीं सँभल रहे थे।बड़े यत्न से साफ किया उन्हें भी उल्टा रखकर स्लैब पर लगाया।
लो जी अब बारी आयी तवा महाराज की जो पूरा दिन पूरे घर का बोझ उठा उठाकर जला भुना बैठा है,घर का मालिक...मैने मुस्कुराकर 'उन्हें' भी साफ करके फिर से गोरा चिट्टा बनाया।
अब आखिर में चाय की छलनी ...देखो सबके दोष कैसे निथारकर एक ओर फेंकती है!!अब खुद को तो बहुत ही करीने से साफ करना था।लिहाज़ा वक्त लगा ...पर चमचमा गयीं मैं...थोड़ी ही मेहनत से..।
अब.....!!अब क्या..? मैं हूँ ,मेरी रसोई!और मेरे बरतन ...अक्सर तनहाई में बाते करते हैं और कहते हैं कि चार बरतन होंगे तो बजेगें ही न....!और जो बजता नहीं वो टूट जाता है।
खैर...!!चाय बन रही है।पीकर जाइएगा।
✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
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