गुरुवार, 22 जुलाई 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ----- व्याख्या एक फ़िल्मी गाने की !!!!

 


किसी भी फ़िल्मी गाने की व्याख्या हमने कभी सही ढंग से नहीं की. एक तो इन गानों के पीछे बजते हुए पार्श्व संगीत ने हमेशा परेशान किये रखा कि जंगल में, जहां आजकल जंगली जानवर भी रहने से घबराते हैं, संगीतकार अपने तान-तमूरे लेकर कैसे पहुंच जाते हैं कि हीरो या हीरोइन के गाने में कोई कमी ना रह जाये ? कई गाने तो ऐसे होते हैं कि जिनको हीरो जो है, वो हीरोइन की शान में गाता है और कई ऐसे होते हैं, जिन्हें ग़म नाम की कोई बीमारी होने की वजह से वह गाने के लिए अपने घर से दूर जंगलों में जाकर गाना ही उन्हें मुनासिब समझता है. इन गानों में बेवफाई, मिलने आने का वादा करके भी ना आना, याद का लगातार आना और दुनिया के ज़ालिम होने जैसी सूचनाएं होती हैं. इन गानों को हीरो किसी भी सुनसान लगने वाली ऐसी जगह पर जाकर गा लेता है, जहां अभी तक प्लॉटिंग नहीं हुई है और किसानों की ज़मीनें मौज़ूद है.

    साठ और सत्तर के दशक की फिल्मों के गाने तो ऐसे होते हैं कि उन्हें जितनी बार सुनो, उतनी बार कई सारे सवाल खड़े हो जाते हैं. मसलन. एक गाना है, ” लो, आ गयी, उनकी याद, वो नहीं आये ? ” गाने में कोई कमी नहीं है, मगर हम इसे जब भी सुनते हैं, तो अफ़सोस होता है कि जिसे आना चाहिए था, कम्बख्त वह तो आया नहीं, याद पहले आ गयी. अब हीरोइन याद से कब तक काम चलाएगी ? हीरो या तो किसी लोकल ट्रेन से आने की वजह से अपने निर्धारित समय से कई घंटे लेट हो गया है या फिर उसकी याद में इसी किस्म का गाना गाने वाली कोई और मिल गयी है तो उसने सोचा होगा कि चलो, इसका गाना भी सुनते चलें. कुछ भी हो सकता है. आना-जाना किसी के हाथ में है कि गाना गाकर याद किया तो हाज़िर ?

    ” लो, आ गयी उनकी याद…..” गाना अपने शबाब पर है. संगीतकार सारे साथ चल रहे हैं कि पता नहीं कौन सा सुर बदलना पड़ जाये ? गाने वाली गाये जा रही है, ” लौ थरथरा रही है, अब शम्मे-ज़िन्दगी की, उजड़ी हुई मोहब्बत, मेहमाँ है दो घड़ी की……. ” शम्मे-ज़िन्दगी की यानि वह ज़िन्दगी, जिसकी पोज़ीशन अब शम्मां की तरह की हो गयी है, उसकी लौ जो है, वह थरथरा रही है और वो जिसके एवज़ में सिर्फ़ याद ही हमेशा आ पाती है, अभी तक नहीं आ पाया है, इसलिए गाना संगीतकारों सहित अपने अगले पड़ाव पर पहुंच जाता है. जंगली जानवरों से भरे सुनसान जंगल में हीरोइन इतना नहीं थरथरा रही, जितनी उसकी ज़िन्दगी की शम्मां की लौ थरथरा रही है. आज उसके ना आ पाने की वजह से उसकी मोहब्बत बेमौसम बरसात में हुई बारिश की वजह से उजड़ी फसल की तरह उजड़ गयी है और अब सिर्फ़ दो मिनट में गाना ख़त्म होने तक की ही मेहमाँ है, उसके बाद वह अपने घर और यह अपने घर, मगर वह जो कम्बख्त हीरो है, वह अभी तक नहीं आ पाया है.

    यही नहीं, कई गाने ऐसे हैं, जिनको हम जब भी गुनगुनाते हैं तो कई किस्म के कई सवाल आ खड़े होते हैं हमारे सामने और हम उनकी व्याख्या अपने ढंग से कर डालते हैं. एक सवाल और था जो बचपन से हमारे ज़हन में कौंधता रहा है कि फिल्मों में गाने गाकर ही अपनी बात कहने की कौन सी तुक है और जब गाने गाये ही जा रहे हैं तो संगीतकार उनके साथ क्यों चल रहे होते हैं ? वे अपने गाने गायें, हमें कोई ऐतराज़ नहीं, मगर उनमें इस किस्म की बातें तो ना कहें कि ” उजड़ी हुई मुहब्बत मेहमाँ है दो घड़ी की…..” एक बार अगर महबूब नहीं आ पाया तो मुहब्बत उजड़ गयी ? आज अगर कोई महबूब ना आ पाए तो अपनी मुहब्बत को उजड़ने से बचाने के लिए महबूबा फ़ौरन किसी दूसरे महबूब को मोबाइल करके बुला लेगी. पहले ऐसी बात नहीं थी. लानत है उस ज़माने की मुहब्बत पर.

     ✍️अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

4 टिप्‍पणियां:

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  2. हास्य और व्यंग्य का दिलचस्प सम्मिश्रण । हार्दिक आभार ।

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