जब विसंगतियां , जीवन में संगत देने लगती हैं , तब आगे चलकर यह समुचा कालखंड "विसंगतियों का कालखंड " सिद्ध हो , इतिहास का हिस्सा बन जाता है । वर्तमान में भी यही सब चल रहा है ।
लकड़हारे अपनी कुल्हाडियां संभाले ऑक्सीजन उत्पादन पर बहस करने में व्यस्त हैं , वेश्याएं चरित्र के अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में सहभागिता सुनिश्चित कर रही हैं , अपराधी , समाज को अपराध मुक्त बनाने हेतु , गठित आयोग का अध्यक्ष पद पाने हेतु आतुर हैं । और इन सब के बीच चिर कुवारें "सफल दांपत्य " पर लिखित , अपनी पुस्तक का विमोचन करा रहे हैं । सत्ता शब्द को शुद्ध ना लिख सकने वाले जीव , सत्तारूढ़ हैं । जिन आंदोलन जीवियों की अक्ल सिर्फ , बक्कल उतारने तक सिमटी हो , वह अपने बक्कल बचाने की जुगत में हैं ।
जिनका अपना कोई इतिहास नहीं रहा है , वह इतिहास संरक्षण के पुरोधा बने बैठे हैं , दूसरों के द्वारा पकाई गई खीर की हांडी , अपने चूल्हे पर रख तस्माई स्वाद पर प्रवचन करने वाला वर्ग ,पाक कला का विशेषज्ञ मान लिया जाता है ।
इस गांधारी युग में विदुर का बथुआ और अर्जुन की छाल का अनोखा सामंजस्य ऐसा लगता है जैसे विवेकी राय के ललित निबंध और रविंद्र नाथ त्यागी के व्यंग्य एक ही चाशनी में घोट दिए गए हों और फिर इस चाशनी से बाहर जो पदार्थ निकलता है , उसे चख कर सभी चहक उठते हैं ।
खंड खंड भोगे जा रहे कोरोना कालखंड में दवाई हेतु तरसाव व्याप्त है और दारू की होम डिलीवरी का प्रबंध वाहवाही बटोर रहा है । दवा - दारू का यह मणिकांचन संयोग , कल्पनातीत है ।
देश का प्रथम नागरिक, अपनी सैलरी और कराधान व्यवस्था से व्यथित है , जनपद के प्रथम नागरिक की पदवी प्राप्त करने हेतु, किए गए कर्मकांड समुचे प्रांत में गूंज रहे हैं। इस व्यवस्था में जिस अलोकतांत्रिक ढंग से , लोकतंत्र भरतनाट्यम कर रहा है , वह सीता के स्वर्ण मृग प्राप्त करने की लालसा को सही सिद्ध कर देता है ।
सत्तान्नोमुख प्रशासन हमेशा अपने आकाओं के फरमान , बजाने में सिद्धहस्त माना जाता है । डंडा प्रत्येक कालखंड में वही रहता है बस आस्थाओं के साथ झंडा मात्र बदलना होता है , और इस प्रक्रिया में ब्यूरोक्रेसी का कभी कोई सानी नहीं रहा है । वाहन चलाने हेतु लुंगी को वैधानिक पोशाक नहीं माना गया है , लेकिन शासन लुंगी धारण कर बखूबी चलाया जा सकता है । जहां तक चित्रपट जगत का सवाल है तो वहां लुंगी डांस काफी पहले से प्रतिष्ठित है । अब लुंगीडांस समाज को अपने आगोश में ले चुका है । कोई भी सक्षम अधिकारी कभी भी त्वरित निर्णय लेने की भूल नहीं करता , यदि पीड़ित जनसामान्य उसे अपनी समस्याओं से अवगत कराते हुए , कोई आवेदन देता है - तो उसे वह अपने अधीनस्थ को जांच उपरांत आख्या और उचित कार्रवाई हेतु थमा देता है । और बस इसी के साथ समस्या की अंतिम क्रिया संपन्न हो जाती है । उच्च अधिकारी अधीनस्थ को फाइल पर 'देखें की टिप्पणी देता है और अधीनस्थ फाइल पर 'देखा ' टीप देता है । और इस देखें और देखा के बीच फाइल में दबी समस्या , स्वयं शांत हो जाती है । ईमानदारी और सिद्धांत , गुजरे जमाने की बात हो चुकी है , अब तो जिसे बेईमानी का मौका नहीं मिलता वह ईमानदारी का मुखौटा धारण कर लेता है तथा सिद्धांतहीन होना ही , आज का सिद्धांत हो गया है ।
न्यायाधीश ,सत्ता हेतु किसी भी समस्या के निस्तारण हेतु समय सीमा निर्धारित करते हैं, लेकिन न्याय प्रदान करने में स्वयं के लिए कोई समय सीमा नहीं होती । यही विरोधाभास न्यायहंता बन जाता है । सेवानिवृत्ति के उपरांत मलाई चाटने की आकांक्षा में तथाकथित न्यायालय , सत्ता के इशारे पर मुजरा करने लगते हैं और बस यहीं से कोठागिरी आरंभ हो जाती है । सत्ता के दलाल बरबस खीसें दिखाने लगते हैं । शिक्षा व्यवस्था संकटग्रस्त हो स्वयं को , निशंक सिद्ध करने में लगी है । शिक्षा की मूल भावना को स्ववित्तपोषित व्यवस्था के माध्यम से , भ्रूण हत्या कर , आगामी सभी आशंकाओं को समाप्त कर दिया जाता है । सत्ता को हमेशा खतरा शिक्षित समाज से होता है , अपने गंभीर प्रयासों द्वारा सत्ता, अशिक्षा के प्रसार में कभी कोई कसर नहीं छोड़ती । रही सही कमी , कोरोना पूरी कर देता है ।
परिवार को विस्तारित ना कर पाने की कसक, अपने मंत्रिमंडल को विस्तारित कर पूरा करने का प्रयास किया जाता है । हमारे देश को ठगने में सिद्धहस्त लॉर्ड विलियम बेंटिग ने अपने समय में ठगों का समापन कर दिया बताते थे । लेकिन यह विद्या आज समूची राजनीति में व्याप्त हो चुकी है , बनारस के ठग इतिहास प्रसिद्ध रहे हैं । वर्तमान भी इसका सहज साक्षी है । जनता को ठगने की संपूर्ण कला , बरास्ता बनारस ही फलती फूलती है । इस विद्या में निष्णात होने हेतु किसी को भी बनारसी बाबू बनना ही पड़ता है , और बस समूचा देश इसकी जद में आ जाता है ।
विसंगतियों के इस कालखंड पर कुछ लिख पाना भी एक विसंगति से कम नहीं है , क्योंकि अधिकांश कलम गिरवी रखी हैं और अपने आकाओं की आवश्यकता / निर्देशानुसार , स्याही को रोशनाई सिद्ध करने का असफल प्रयास करती है। आसमान से बरसती चैनल संस्कृति , इसी तथ्य का एक सार्थक और सटीक उदाहरण है ।
पहले लोग बाग सठिया जाते थे , लेकिन आजकल जन्म लेते ही कुर्सियां जाते हैं । एक कुर्सी पाने की लालसा में बुद्धिबल के अलावा सभी कुछ इस्तेमाल किया जाता है , यथा- धनबल ,बाहुबल । बलबलाती राजनीति के इस रेगिस्तान में , कारूं का खजाना पा लेने की होड़ किसी मृगतृष्णा से कम नहीं मानी जाती । साहित्य भी इससे इतर कुछ नहीं है ।
इस संदर्भ में , अंत में यह पंक्तियां देखिएगा -
रहने और ना रहने के बीच ,
जो रहता है -
वही तो जीवन है ,
वरना तो एक कलश
घूमता रहता है -
दधीचि की अस्थियों को ,
अपने में समेटे
मुंगेरीलाल के सपनों सहित ,
चुनावी वज्र बनने की कामना लिए
घाट घाट , तीरे तीरे ,
धीरे धीरे -
स्वार्थ साधते रहते हैं ,
राजनीति के समर में
नरो वा कुंजरो वा के -
उद्घोष / जयघोष के
सनातन कोलाहल सहित ।
✍️भोलानाथ त्यागी, 49 / इमलिया परिसर, सिविल लाइन , बिजनौर (उ. प्र.), मोबा - 7017261904
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