साहब जी ,
आपके गरिमामयी गमन के बाद ,यहां आपकी कर्मशाला रूपी कार्यालय में सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया और मैं जबरदस्त आर्थिक रूप से त्रस्त हो गया हूं। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप अपने नए जिले में पहुंचकर पद पर आसीन हो चुके होंगे, क्योंकि आपके अंदर जो गुणों की खान है वह अद्वितीय है ,जिससे मैंने भी कुछ ग्रहण करने की कोशिश की थी। उन्हीं गुणों से मेरा गुजारा भी ठीक-ठाक चल रहा था लेकिन समय को कुछ और ही मंजूर था।
जब से आप गए हैं, तब से ऑफिस वाले दूसरे बाबुओं ने, मेरा जीना दुश्वार कर दिया है ,नए साहब की सेटिंग, मोटे चश्मे वाले बाबू से बन गई है क्योंकि दोनों ही हर शाम कांच की प्यालियों का स्वाद लेते हैं और आजकल सारी फाइलों पर उसी का कब्जा चल रहा है ।खैर मैं भी आपका चेला रहा हूं, निकाल लूंगा कोई बीच का रास्ता ,जिससे मेरा भी दाना पानी चलता रहे। वरना तो मेरी लक्जरी गाड़ी, मुझे मुंह चिढ़ाएंगी ,बच्चों के हॉस्टल वाले, मेरी राह ताकेंगे और घर में काम करने वाले दोनों नौकर, अपनी-अपनी पगार को तरस जायेंगे। छोटी-सी तनख्वाह में तो दाल-रोटी के सिवाय क्या खा पाऊंगा, साहब जी? आपकी छत्रछाया में तो मेरा सब-कुछ अच्छा चल रहा था, आप बहुत ही ईमानदारी से ,मेरी बाबूगिरी की कद्र करते हुए,जजिया कर के रूप में, निर्विवाद तरीके से, दस परसेंट कमीशन थमा देते थे और मैंने भी आपको कई मामलों में तो ,पूरा-पूरा हिस्सा ही दिलवाया था ।
आपकी कुर्सी की कसम, मैंने आप से छुपा कर कोई रिश्वत नहीं ली । आप ही बताओ कि आपाधापी भरे इस कलियुग में, मुझ जैसा निष्ठावान स्वामीभक्त मिल सकता हैं क्या?
और हां ! इसी बात पर याद आया कि हमारे पड़ोसी वर्मा जी ,अपने झबरीले कुत्ते की स्वामीभक्ति का बहुत रौब झाड़ते थे ,एक दिन बंदर ने उन पर हमला बोल दिया तो उनका शहंशाह कुत्ता अंदर वाले कमरे में ,खाट के नीचे घुस गया और जब तक नहीं निकला ,जब तक कि वर्मा जी को इंजेक्शन लगवाने का इंतजाम पूरा न हो गया। बहुत क्या कहना? स्वामीभक्ति का दूसरा उदाहरण मुझ जैसा आपको नहीं मिलेगा। आपको याद होगा कि आपके ट्रांसफर से चार दिन पहले ही, नियुक्ति प्रकरण में,ऑफिस में आकर नेताजी, कितनी बुरी तरह आपको डांट रहे थे और आप सर को नीचे झुका कर सुन रहे थे उनकी फटकार ।
फिर मैंने ही आपका पक्ष लिया था और नेता जी को पलक झपकते ही शांत करके, पांच परसेंट पर पटा लिया था ।
फिर भी साहब जी , मैंने तो एक बात गांठ बांध रखी है कि बेईमानी का पैसा, जितनी ईमानदारी से और जितनी जल्दी, प्रत्येक पटल पर पहुंच जाता है उसका हिसाब उतना ही साफ-सुथरा रहता है ।
और तो और ,आॅडिटर भी फाइल से पहले नामा देखता है जिस कोटि के नामा होते हैं, उतनी ही पवित्र भावना से ,उस फाइल का लेखा-जोखा देखता है।
खैर !आपसे क्या रोना, अपने मन की भड़ास निकालने के लिए आपको पाती लिखी है, क्योंकि आपका फोन उसी दिन से बंद था और सरकारी नंबर को रिसीव न करने की, आपकी पुरानी आदत जो ठहरी ।
फिर भी मुझे यह अपेक्षा रहेगी कि आप मुझसे फोन जरुर करेंगे।अब तो अपनी सांठ-गांठ में और गांठ लगने की गुंजाइश भी नहीं बची। आपको वहां भी काफी बकरे मिल जाएंगे और मैं भी अपना खर्चा चलाने को,तलाश करने में जुटूंगा -"छोटे-छोटे मुर्गे"।
अपने-अपने कद और पद के अनुसार शिकार ढूंढेंगे, आखिर पूरी करनी है जिंदगी,और काटना है यह मनहूस जीवन,इन्हीं मुर्गे और बकरों के साथ।
आपका अपना
"परेशान आत्मा"
✍️अतुल कुमार शर्मा
सम्भल, उत्तर प्रदेश, भारत
दफ्तरों में वर्तमान कार्य प्रणाली पर आधारित व्यंग्य। आशा है कि आप सभी इसे स्वीकार करेंगे।
जवाब देंहटाएंशानदार व्यंग्य है आपका । बधाई ।
हटाएंआभार आपका आदरणीय श्री मान मनोज रस्तोगी जी, आपने साहित्य की मशाल को जलाए रखने का जो संकल्प लिया है,वो बहुत ही सुन्दर, सार्थक, सराहनीय और साहसिक कदम है। ईश्वर आपको निरंतर ऊर्जा प्रदान करते रहें।
हटाएंबहुत अच्छा और सटीक व्यंग्य....बहुत सुन्दर 👌👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद भैया उज्ज्वल वशिष्ठ जी
हटाएंबहुत सुन्दर।
हटाएंबहुत सुंदर रचना
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद महमूद उल्ला जी। आभार आपका आदरणीय
हटाएंआभार उज्ज्वल जी ।
हटाएंधन्यवाद महमूद उल्ला खान जी ।
हटाएंसभी का बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार।
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत शानदार व्यंग। ये मन की भड़ास कम और दफ्तरों का काला चिट्ठा ज्यादा नज़र आ रहा है। क्या करें हर कोई चाय-पानी के नाम पर खा रहा है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय श्री मान नृपेन्द्र शर्मा जी। आभार आपका बहुत-बहुत।
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