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शुक्रवार, 22 जनवरी 2021
मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर के एक सौ ग्यारह दोहे ------
मुरादाबाद के साहित्यकार योगेन्द्र वर्मा व्योम के चौबीस गीत - नवगीत -----
गुरुवार, 21 जनवरी 2021
मुरादाबाद मंडल के चंदौसी जनपद सम्भल (वर्तमान में अलीगढ़ निवासी ) के साहित्यकार लव कुमार प्रणय की ग़ज़ल -----लूट , हत्या , भूख से ही जो भरा, देख लो यह आज का अखबार है....
हर तरफ़ अब प्यार केवल प्यार है
इश्क जब कर ही लिया क्या सोचना
हाथ आती जीत है या हार है
दर्द आँसू और आहें अनगिनत
ये मुहब्बत में मिला उपहार है
नाम जीने का यहाँ पर कर रहा
आदमी कितना हुआ लाचार है
रूप की अब लग रही हैं बोलियाँ
आइये सब सज गया बाजार है
दूर तक दिखती नहीं कोई किरण
देखिये अँधियार ही अँधियार है
रोज कहते हो बहुत विश्वास पर
क्यों खड़ी फिर बीच में दीवार है
लूट , हत्या , भूख से ही जो भरा
देख लो यह आज का अखबार है
हर मुसीबत में दिखाते राह तुम
आपका दिल से 'प्रणय' आभार है
✍️ लव कुमार 'प्रणय'
के-17, ज्ञान सरोवर कॉलोनी, अलीगढ़ .
चलभाष - 09690042900
ईमेल - l.k.agrawal10@ gmail .Com
बुधवार, 20 जनवरी 2021
मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक की लघुकथा --उनके हिस्से की खुशियाँ
सौम्या की नौकरी एक अनजाने शहर में लगी थी ।अपने शहर से दूर कभी उसे अपनो से दूर अकेले रहना पड़ेगा ,उसने सोचा भी नही था ।खैर ,यही सोच उसकी माँ उसके साथ आयी थी ।नई जगह होने की वजह से शुरू में परेशानी तो हुई ।धीरे -धीरे सब सामान्य हो गया।सौम्या कभी अकेली नही रही थी ,माँ भी कब तक उसके साथ रहती ,वह भी सर्विस करती थीं।
माँ के जाने के बाद सौम्या को अकेला -पन खाने लगा ।वह वैसे भी कम बोलती थी ।माँ के जाने के बाद और भी अकेली हो गयी ।हालांकि उसके मकान मालिक बहुत अच्छे थे ।लेकिन फिर भी वह अकेला पन महसूस करती रहती ।सौम्या कभी पीछे की सोचती तो उसे अपने पर विश्वास नही होता ,कि क्या ये वही सौम्या है ,जो अपनी माँ के बिना एक पल भी इधर से उधर नही होती थी ।क्या यह वही सौम्या है ,जो पापा के बाद एक दम बदल गयी थी ।उसने अपनी माँ को संघर्ष करते हुए देखा था ।शायद यही कारण था ,उसने सोच लिया था ,कि जीवन में वह कभी किसी भी परिस्थिति से हार नही मानेगी ।वह माँ को वह सारी खुशियाँ देगी ,जो वह अपने संघर्ष और उन तीनों भाई-बहनों के पालन -पोषण के दौरान खो चुकी थीं ।यही सोचते -सोचते कब रात से दिन निकल गया पता ही नही चला ।एकाएक उसके मुँह से निकला, नहींं मैं दूँगी खुशियांँ ,मैं लौटाऊंंगी माँ को उनके हिस्से की खुशियांँ ।
✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद
मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ प्रीति हुंकार की लघुकथा ............ कटाक्ष
"कितनी शर्म की बात है कि कोई शादीशुदा महिला किराए के मकान में पति से अलग रहे ,,शर्मा जी ने त्योरी चढ़ा कर पड़ोसी गुप्ता जी पर व्यंग्य किया।"हाँ,लेकिन किसी पढ़ीलिखी वर्किंग महिला को रात के एक बजे लातों घूसों से पिटने की आवाज सुनके जब लोग अपने को सम्मानित समझते हैं ,तब उनकी नाक क्यों नहीं कटती ?"वालकनी में खड़ी गुप्ता जी की पुत्रवधू ने कटाक्ष करते हुए जबाव दिया ।
✍️ डॉ प्रीति हुंकार, मुरादाबाद
मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रामकिशोर वर्मा की लघुकथा ----लेखन -एक नशा
" तुम्हें तो चौबीस घंटे लेखन का नशा चढ़ा रहता है । आज कविता लिखनी है तो कल लघुकथा ।" -- पत्नी ने कुणाल से कहा-- "घर के कई काम पड़े हैं । आज नहीं, कल करूंगा । रटा-रटाया वाक्य दोहराते रहते हो । कब आयेगा वह कल? इससे नहीं कटेगी जिंदगी। दिनभर कमरे में पड़े रहते हो । न कहीं आना न जाना । समाज से कट गये हो । भरते रहो मोबाइल पर लिख-लिखकर । कुछ मिल रहा है इससे? कान पर जूंँ नहीं रेंगती कहने पर ।"
एक जोर के झटके से कमरे का किबाड़ बन्द कर के पत्नी आंँगन में तेज कदमों से चली गई ।
✍️राम किशोर वर्मा, रामपुर
सोमवार, 18 जनवरी 2021
मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का हास्य व्यंग्य --बुरे फँसे नुकती के लड्डू की तारीफ कर के-
हुआ यह कि हलवाई की दुकान पर एक ग्राहक मिठाई माँगने के लिए आया। उसने कहा " कौन सी मिठाई ज्यादा अच्छी है?"
ग्राहक क्योंकि जान पहचान का था । प्रश्न सहज रूप से किया गया था । इसलिए दुकानदार ने भी सहजता से कह दिया " नुकती के लड्डू अभी-अभी ताजा बन कर आए हैं। बहुत स्वादिष्ट हैं।"
ग्राहक बोला " एक किलो तोल दीजिए।"
दुकानदार ने डिब्बा उठाया। लड्डू तोलना शुरू कर दिया । बस यहीं से बात बिगड़ गई। जैसे ही अन्य मिठाइयों को इस घटनाक्रम का पता चला ,वह आग-बबूला हो गयीं।
मोर्चा सबसे पहले हलवे ने संभाला । उसने तुरंत अपने स्थान से उठकर काउंटर पर स्थान ग्रहण कर लिया और आँखें तरेर कर हलवाई से कहा " इतनी जल्दी बदल गए ? क्या तुम्हें वह दिन याद नहीं ,जब हमारे कारण ही तुम्हारा नाम हलवाई पड़ा था ? हलवा बेच-बेच कर तुमने अपनी दुकान में मशहूर कर ली और खुद हलवाई बन बैठे । हमें एक कोने में डाल कर आज इस लड्डू की तारीफ कर रहे हो । यह तो हर जगह गली-चौराहों पर थैलियों में बिकने वाली चीज थी ।आज तुम इसे अपने मुँह से सबसे बढ़िया मिठाई बता रहे हो ! हमारे इतिहास पर तुम्हारी निगाह नहीं गई ? "
अब बारी नुकती की थी । उसने भी परात से बाहर आकर दुकानदार को डाँट- फटकार लगाई। बोली "हम छोटे लोग हैं, इसलिए तुमने हमारी उपेक्षा कर दी । जबकि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर रैलियों में हम ही बाँटे जाते हैं और राष्ट्रीय पर्व हमारे साथ ही मिलकर मनाया जाता है।"
छोटे-छोटे पेड़े अब " हलवाई हाय - हाय "के नारे लगाने लगे । उनका कहना था " हमें तो लोग हल्का वजन होने के कारण सभी जगह खुशी-खुशी ले जाते हैं ,जबकि लड्डू इतना भारी होता है कि एक किलो में तीस-बत्तीस से ज्यादा नहीं चढ़ते। इतने भारी, आलसी और वजनदार लड्डू के मुकाबले में हम फिटफाट-पेड़ों को तुमने कोई महत्व नहीं दिया । यह तानाशाही नहीं चलेगी।"
जलेबी और इमरती उसी समय रोती हुई आ गईं। आंदोलन में उनके उतरने से रौनक आ गई । कहने लगीं " हम घी में तले जा रहे थे और चाशनी में डाले जा रहे थे। क्या हम फिर भी बासी हैं ? यह तो कोई आँख का अंधा भी देख कर बता देगा कि हम गरम-गरम कढ़ाई से निकल कर आए हैं । क्या हम ताजे नहीं हैं ? हम से ताजा भला और कौन हो सकता है ? " सोन पपड़ी अपनी जगह नाराज थी। बात यहीं तक नहीं रुकी। लड्डुओं की दूसरी वैरायटी भी नाराज होने लगीं। उनका तर्क था " नुकती के लड्डू अगर अच्छे हैं तो हम बेसन और आटे के लड्डू क्या खराब हैं ? जरा सोचो एक से एक अच्छी वैरायटी के लड्डू दुकान पर तुम्हारी मौजूद थे और तुमने इस नुकती के लड्डू की ही तारीफ क्यों कर दी ? मेवा - खजूर का लड्डू सबसे बेहतरीन कहलाता है । तुमने उसकी भी उपेक्षा कर दी । क्यों..आखिर क्यों ? "
दुकानदार अजीब मुसीबत में फँस गया था । ग्राहक घबराने लगा । बोला "साहब ! आप अपने मसले निपटाते रहो ,मैं तो जा रहा हूँ।" ग्राहक जब जाने लगा तो दुकानदार ने उसे रोका और मिठाइयों से कहा " तुम आपसी झगड़े में हमारी दुकान बंद करा दोगे।"
फिर उसे अपनी गलती का एहसास भी हुआ । बोला " ! हाँ मुझे किसी एक की तारीफ नहीं करनी चाहिए थी। मेरी नजर में तुम सब बराबर हो ।"
उसने ग्राहक से कहा "अब मसला सुलझाओ और जैसे भी हो ,दुकान से मिठाई तुलवाओ "
ग्राहक बोला " ठीक है ! मिक्स - मिठाई कर दो । सब तरह की मिठाइयाँ एक - एक दो - दो पीस कर दो ।"
दुकानदार ने ऐसा ही किया । ग्राहक और दुकानदार दोनों ने चैन की साँस ली। फिर इसके बाद ग्राहक जब घर पहुँचा तो पत्नी ने कहा " यह बताओ कि सब्जी कौन सी पसंद है । मैं जो आलू मटर की रसीली बनाती हूँ या फिर सूखी मटर की बनाती हूँ।जो कहो ,वही बना दूँगी ? "
ग्राहक बेचारा अभी-अभी हलवाई के यहाँ से सर्वोत्तम मिठाई के झगड़े को सुनकर आया था । उसने उदासीन भाव से कह दिया "जो चाहे बना लो । मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता ।"
बस सुनकर पत्नी आग बबूला हो गई। बोली " तुम्हें तो मेरे हाथ की कोई चीज पसंद ही नहीं आती । जरा सी तारीफ करते हुए मुँह घिसता है ! जाओ ,बाहर जाकर खा लो। आज घर में कुछ नहीं बनेगा ।" पतिदेव की समझ में यह नहीं आ पा रहा था कि आखिर गलती कहाँ हुई ?
✍️ रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश ) मोबाइल_ 99976 15451
मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य ---धरने, प्रदर्शन और लाठियां
लाठियों का जो इतिहास है, वो ठीक से तो नहीं पता कि कितना पुराना है, फिर भी इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि जितना पुराना भैंसों का इतिहास है, निश्चित रूप से वह उतना पुराना तो होगा ही।‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ जैसे मुहावरे भी इन तथ्यों की पुष्टि करते हैं. खुद को विद्वान् समझने वाले विद्वानों का भी यही मानना है कि भैंसों से पहले ही लाठियों ने जन्म ले लिया होगा वरना भैंसों को हांक पाना बहुत मुश्किल हो जाता । जैसे-जैसे तरक्की हुई और खाली बैठे लोगों ने यह सोचना शुरू किया कि धरने और प्रदर्शन करने से बेहतर कोई और काम नहीं है, लाठियों ने अपनी सोच बदल दी। वे अब प्रदर्शनकारियों को खदेड़ने के काम आने लगीं । बीच में अगर किसी प्रदर्शनकारी का मन हुआ कि उसका नाम और फोटो भी अखबारों में छप जाये, तो उसने लाठीचार्ज के दौरान अपने सिर को लाठी के नीचे कर दिया कि फूट जाये तो बेहतर ।
किसी लाठी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह जो सिर उसके नीचे ज़बरदस्ती आ गया है, वह किसका है ? किसी ग़ैर सत्ताधारी पार्टी के पदाधिकारी का है या उसके किसी चमचे का ? उसे तो ऊपर वाले ने जो काम सौंपा है, वह उसे पूरा कर रही है, बस । मोबाइल के ज़माने में लाठियों को अब चार्ज भी किया जाने लगा है । ‘लाठीचार्ज’ शायद उसी को कहा जाता है. इन्हें कैसे और क्यों चार्ज किया जाता है, यह पुलिस को बेहतर पता होगा । हमें तो केवल इतना ही पता है कि पुलिस ने लाठीचार्ज किया और उसमें इतने लोग काम आ गए और बाकी के हालात ऐसे हैं कि कभी भी इस ग़म से भरी दुनिया को छोड़ कर निकल लें ।
महिलाओं के उत्पीड़न के ख़िलाफ कोई ग़ैर सत्ताधारी पार्टी का प्रदर्शन हो रहा है और महिलायें उसमें सबसे आगे ना हों तो लगता नहीं कि उनके साथ कुछ हुआ है I इसीलिए सत्ताधारी पार्टी को हटाने की मुहिम के तहत इधर, महिलाओं ने अपना प्रदर्शन शुरू किया और उधर, लाठियों ने । किसी लाठी ने यह नहीं सोचा कि ये महिलायें हैं और अबला हैं । सबके साथ बराबरी का व्यवहार करते हुए लाठियां चल दीं यानि लाठीचार्ज हो गया I हर लाठी और प्रदर्शनकारी का सिर या अंग विशेष जानता है कि अब क्या होना है, मगर ‘सर फुटा सकते हैं, लेकिन सर झुका सकते नहीं’, वाले ग़ैर राष्ट्रीय गीत की तर्ज़ पर बिना झुके सिर जो हैं, वो फूट जाते हैं ।
एक शब्द होता है ‘लठियाना’ । पुलिस-अफसर चाहें दिल्ली के हों या लखनऊ के, सब इसी का इस्तेमाल करते हैं कि “ऊपर से आदेश हैं कि सबको लठियाना है” । अब यह जिनको लठियाना है, उनकी किस्मत कि वे कितने लठिया पाते हैं खुद को ? हाथ-पैरों के अलावा सिर भी इन लाठियों द्वारा लाठियाया जाता है, जिस प्रदर्शनकारी को यह महसूस हुआ कि अगर उसे नहीं लाठियाया गया तो हाईकमान की निगाहों में उसकी पोज़ीशन खराब होगी, तो उसने अपना सिर किसी चलती हुई लाठी के नीचे दे दिया और फिर उसे पकड़कर बैठ गया कि “हाय, मार डाला । ” सियासत यूं ही नहीं हो जाती । उसके लिए धरने, प्रदर्शन और लाठियां ज़रूरी होती हैं, ताकि सनद रहे और वक़्त ज़रुरत पार्टी में अपनी जगह बनाने के काम आये.
✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल