सोमवार, 14 जून 2021

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की 14 जून 2021 को आयोजित मासिक काव्य गोष्ठी

 मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति की 14 जून 2021 को  मासिक काव्य गोष्ठी लाइनपार स्थित श्री जंभेश्वर धर्मशाला में संपन्न हुई। गोष्ठी की अध्यक्षता योगेंद्र पाल विश्नोई ने की मुख्य अतिथि रमेश चंद्र गुप्त, विशिष्ट अतिथि  रघुराज सिंह निश्चल रहे। संचालनअशोक विद्रोही* ने किया । सरस्वती वंदना  रामसिंह निशंक ने की। 

काव्य गोष्ठी में योगेंद्र पाल विश्नोई ने पढ़ा-

दया इतनी करना विधाता, दुख दूर हो ,सुख पास रहे 

तेरा गुण गाने वाला ,यह भक्त कभी ना उदास रहे।

अशोक विद्रोही ने कहा- 

"तेरी हस्ती को मिटा दे ,

ऐसी कोई शह नहीं।

रब की इस दुनिया में ,

कोई तेरे जैसा है नहीं।"

बाद जाने के भी बन के 

गीत तुम गुंजा करो।।

बढ़ रहा बेशक कोरोना 

पर न तुम इस से डरो।

रघुराज सिंह निश्चल ने पढ़ा-

रक्त से दीजिए ,

जीवन का उपहार।

कितनों की मुस्कान है,

 दिया रक्त एक बार।।

राम सिंह निशंक ने कहा 

आई ऋतु पावस की 

छाए हैं काले धन ।

वर्षा की फुहार में,

 प्रमुदित हैं सबके मन।

प्रशांत मिश्र ने कहा-

 जिंदगी एक शाम बनती जा रही है ।

जो सवेरा होने के इंतजार में ढलती जाती है।

इंदु रानी ने कहा-

देखो जरा आंखों से यह चश्मा उतार के 

हालात देश के दिखेंगे आर पार के।

मनोज वर्मा मनु ने पढ़ा-

सिर पर छांव पिता की ,

कच्ची दीवारों पर छप्पर।

कृपाल सिंह धीमान ने पढ़ा-

वायु जीवन जल आज मेरे हाथ में है।

मैं प्रदूषण हूं क्या कर लोगे मेरा।

काव्य गोष्ठी में श्रीमती इंदुबाला विश्नोई को उनके सामाजिक कार्यों के लिए सम्मानित किया गया।

योगेंद्र पाल विश्नोई एवं रामेश्वर प्रसाद वशिष्ठ ने आभार अभिव्यक्त किया ।










✍️ अशोक विद्रोही 

उपाध्यक्ष

राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति मुरादाबाद

साहित्यिक मुरादाबाद की ओर से स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर दो दिवसीय ऑन लाइन आयोजन



 मुरादाबाद के प्रख्यात साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर  वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद' की ओर से 11 एवं 12 जून 2021 को दो दिवसीय ऑन लाइन आयोजन किया गया। चर्चा के दौरान साहित्यकारों ने कहा कि बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी दयानन्द गुप्त का मुरादाबाद के हिन्दी कहानी साहित्य में उल्लेखनीय योगदान रहा । उनकी कहानियां जहां सामाजिक व राजनीतिक विसंगतियों पर पैने प्रहार करती हैं वहीं नैतिक मूल्यों के पतन, दोहरे चरित्र और मानवीय सम्वेदनाओं को भी बखूबी अभिव्यक्त किया है ।


मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तंभ के तहत संयोजक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ मनोज रस्तोगी ने  स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त का परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा कि 12 दिसम्बर 1912 को जन्में दयानन्द गुप्त की कहानियों का पहला संग्रह 'कारवां ' वर्ष 1941 में प्रकाशित हुआ । इस संग्रह की भूमिका सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने लिखी थी।  सन 1943 में उनके 52 गीतों का संग्रह 'नैवेद्य' नाम से प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष उनका दूसरा कहानी संग्रह 'श्रंखलाएं' प्रकाशित हुआ। वर्ष 1956 में 'मंजिल' कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ । वर्ष 1946 में आपका एक नाटक 'यात्रा का अन्त कहाँ' प्रकाशित हुआ। 'माधुरी', 'सरस्वती', 'वीणा', 'अरुण' आदि उच्च कोटि की मासिकों में आपकी रचनाएँ विशेष सम्मान के साथ छपती रहीं । दयानन्द गुप्त की रूझान पत्रकारिता की ओर भी था। वर्ष 1952 में उन्होंने 'अभ्युदय' साप्ताहिक का प्रकाशन व संपादन भी किया । 25 मार्च 1982 की अपराह्न वह इस संसार से महाप्रयाण कर गये।

   

उनके सुपुत्र एवं दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय के प्रबंधक उमाकान्त गुप्त ने उनके अनेक संस्मरण, चित्र  तथा रचनाएं प्रस्तुत कीं । उन्होंने कहा कि दयानन्द गुप्त एक साहित्यकार होने के साथ-साथ स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे ।अपनी किशोरावस्था में आपने महात्मा गाँधी के आह्वान पर हाई स्कूल पास करने के उपरान्त वर्ष 1930 में आन्दोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया था। सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल रहे। सन 1945 में मजदूर आंदोलन में भाग लिया। अनेक श्रमिक संगठनों से आप जुड़े रहे। सन् 1951 में जिनेवा में हुए अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। वर्ष 1972 से 1980 तक मुरादाबाद नगर की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद पर भी रहे।

     

 दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की पूर्व प्राचार्या डॉ स्वीटी तलवाड़ ने उनके गीत संग्रह नैवेद्य का विश्लेषण करते हुए कहा कि गुप्त जी छायावादी कवियों की ही तरह व्यक्तिवादी कवि हैं, जिन्होंने भाव, कला और कल्पना के माध्यम से अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्ति इन गीतों में की है। “तुम क्या”, “स्मृति”, “प्रेयसी” जैसी रचनाओं में गुप्त जी के प्रेमी का उसकी प्रियतमा के प्रति  प्रेम स्थूल नहीं, बल्कि सूक्ष्म है, इनमें बाह्य  सौंदर्य की नहीं बल्कि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर भावनाओं की अभिव्यक्ति की गयी है। गुप्त जी के प्रकृति चित्रण पर भी छायावाद का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है, चाहे प्रकृति का मानवीकरण हो या कोमलकान्त पदावली का प्रयोग या ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग या सूक्ष्म के लिए स्थूल उपमान या स्थूल के लिए सूक्ष्म उपमान। वह प्रकृति में नारी रूप देखते हैं और उसमें सम्भवतः प्रेयसी के रूप-सौंदर्य का भी अनुभव करते हैं। प्रकृति के विभिन्न क्रियाकलापों में उन्हें किसी नवयौवना की विभिन्न चेष्टायें दृष्टिगत होती हैं।     

दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की प्राचार्या डॉ० अनुपमा मेहरोत्रा ने कहा कि दयानन्द गुप्त  बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, उनका जीवन संघर्ष ही इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। समाजसेवी व साहित्यकार के रूप में उन्होंने समाज का मार्गदर्शन किया है। शिक्षा जगत में गुप्त जी का योगदान अविस्मरणीय है। खासकर स्त्रियों के लिए विद्यालय, महाविद्यालय की स्थापना करना, स्त्री शिक्षा की ओर बढ़ाया गया चुनौतीपूर्ण कदम है जो उनके प्रगतिशील व्यक्तित्त्व को इंगित करता है। साहित्य उनके अंतर्मन में रचा-बसा था। 

केजीके महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ मीरा कश्यप ने कहा कि हिंदी साहित्य की दृष्टि से देखा जाय तो गुप्त जी का लेखन काल छायावाद ,प्रगतिवाद से गुजरते हुए प्रयोगवाद के समानांतर चलता रहा है जबकि उनका स्पष्ट मानना था कि मुझे किसी वाद में न बाँधा जाये ,परन्तु इन सभी रूपों का प्रभाव उनके साहित्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । ' नेता' कहानी राजनीतिक परिपेक्ष्य को लेकर लिखी गयी कहानी है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि राजनीति के पंकिल जीवन में व्यक्ति देश सेवा के नाम पर कितना स्वार्थी हो सकता है, वह राष्ट्र ,समाज और यहां तक कि परिवार के साथ भी छल करता रहता है।  , ' विद्रोही ' कहानी में  गुप्त जी ने एक कलाकार की सौंदर्यात्मक दृष्टि पर प्रकाश डाला है।'नया अनुभव ' कहानी लेखक के गांधीवादी विचारधारा को स्पष्ट करती है , 'न मंदिर न मस्जिद ' कहानी  के माध्यम से गुप्त जी के विचार हिंदू-मुस्लिम एकता के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए देखे जा सकते हैं,वर्तमान में इस कहानी की प्रासंगिकता सिद्ध होती दिखती है, क्योंकि आज धर्म के नाम पर ओछी राजनीति समाज की एक बहुत बड़ी समस्या है ।' परीक्षा ' कहानी भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक छाप छोड़ती है।

   

दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. कंचन सिंह ने कहा कि श्री दयानंद गुप्त जी की कहानियां मानव मूल्य, संघर्ष और चेतना के विविध स्तरों से पाठक को परिचित कराती है। उनके लेखन का वैशिष्ट्य है कि वह समाज केंद्रित है इसीलिए ये हमारा आज भी मार्ग दर्शन करने में समर्थ हैं। इनकी प्रासंगिकता इतने वर्षों के अंतराल के बाद भी आज भी वैसी ही हैं जैसी तत्कालीन समय में थीं। ये कहानियां लेखक के आधुनिक प्रगतिशील सोच एवं प्रबुद्ध व्यक्तित्व को पाठक के समक्ष विभिन्न स्तरों पर प्रतिबिंबित करती हैं।

वरिष्ठ कवयित्री डॉ पूनम बंसल ने कहा दयानन्द गुप्त के लेखन में जहाँ मानवीय संवेदनाएं झंकृत होती हैं वहीं सामाजिक विसंगतियों पर भी तीखा व्यंग और प्रहार परिलक्षित है। धार्मिक मान्यताओं को पीछे छोड़ते हुए वो जहाँ एक समाज सुधारक की भूमिका निभाते हैं तो वहीं धीरे धीरे आध्यात्मिक यात्रा की राह पर चलते हुए एक दर्शानिक के रूप में नज़र आते हैं। उनका समृद्ध साहित्य समाज को दिशा देने वाली एक अमूल्य धरोहर है। इस अवसर पर उन्होंने श्री गुप्त को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कहा----

जीवन में जो दे गए, नये नये प्रतिमान।

समय करे चर्चा यही, उन पर है अभिमान।।


दयानन्द था नाम सरीखा। पूत पाँव पलने में दीखा।।

माता ने थी नज़र उतारी। दादा दादी सब बलिहारी।।


बचपन बीता खाते पीते। खेल खेल में हँसते जीते।।

शिक्षा को झोली में भरकर। नहीं रहे विघ्नों से डरकर।।


मेहनत ने था रंग दिखाया। धीरे धीरे सब कुछ पाया।।

दिनकर से ये ओज मिला था। सपनों का फिर सुमन खिला था।।


आकर्षक व्यक्तित्व धनी थे। अधिवक्ता वे सुधी जनी थे।।

पौरुष हर दम साथ हुआ था। अभिलाषा ने गगन छुआ था।।


इंसा को मिलता सदा, यश वैभव सम्मान।

पर सेवा का साथ में, जब चले अभियान।।

ईश्वर से जो कुछ मिला, समझा उसे उधार।

वापस किया समाज को, बहा प्रेम रस धार।।


राजनीति को भी अजमाया। उसमे भी था नाम कमाया।।

न्याय प्रक्रिया के थे ज्ञाता। देख देख हर्षित थीं माता।।


शिक्षा की थी अलख जगाई। करी समाज की देख भलाई।।

नारि शक्ति को और बढ़ाया। स्वाभिमान का पाठ पढ़ाया।।


सदभावों की राह दिखाई। लेखन में भी कलम चलाई।।

जीवन का दर्शन करवाते। पद्य, गद्य में थे समझाते।।


नाटक, कथा कहानी कविता। प्रखर बही भावों की सविता।।

शारद का वरदान अपारा। नाम ईश का एक अधारा।।

महक रहा है देखिये, शिक्षा का संसार।

संवर रही हैं बेटियां, है अनुपम उपहार।।

साँसों का दर्शन लिखा, लिखा हास परिहास।

जीत लिया मानव हृदय, मिला अटल विश्वास।।


कुशल प्रबंधक प्रखर विचारक, राजनीति प्रतिमान।

सामाजिक समरसता लेकर, शिक्षा का अभियान।

अति कानूनी ज्ञान साहित था, वाणी पर अधिकार

सजा हुआ साहित्य सृजन से, जीवन था गतिमान।।


उमाकांत से पुत्र मिले, पुण्य किये हज़ार।

पिता विरासत सींच रहे, फर्ज करें साकार।।

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय में अंग्रेजी विभागाध्यक्ष डॉ रीना मित्तल ने कहा उनकी साहित्यिक रचनाओं का अगर हम अवलोकन करें तो साफ पता चलता है कि उनका कविता संग्रह नैवेद्य, कहानी संग्रह 'मंजिल' की रचनाऐं उनको एक मानव से ऊपर का दर्जा देती है। सभी साहित्यिक रचनाऐं धर्म, कर्म, जाति व रंगभेद से ऊपर उठकर समाज के उत्थान का सन्देश देती हैं। उन्होंने उनकी कहानी 'परीक्षा' का अंग्रेजी अनुवाद भी प्रस्तुत किया।

रामपुर के साहित्यकार रवि प्रकाश ने कहा कविताओं को दयानंद गुप्त  अपने हृदय के उद्गारों को अभिव्यक्त करने का माध्यम मानते थे । वह न छायावाद के फेर में पड़े ,न प्रगतिवाद के बंधन में बंधना उन्हें स्वीकार था । वह स्वतंत्र थे।कहानीकार के रूप में उन्होंने जहां विभिन्न समस्याओं की ओर  समाज का ध्यान आकृष्ट किया वहीं जीवन की जटिलताओं को भी उजागर किया।

हिंदू कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी विभाग, डॉ. उन्मेष कुमार सिन्हा ने दयानंद गुप्त की कहानी नेता की समीक्षा करते हुए कहा कि कहानी के नायक सेठ दामोदर दास के माध्यम से कहानीकार ने नेताओं के पाखंड पूर्ण व्यक्तित्व  को उजागर किया है । 

कवयित्री
हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि उनकी कहानियाँ निरे उपदेश या निरी मनोरंजन या कला के लिए कला जैसे किसी एक उद्देश्य के सांचे में नहीं ढलती बल्कि उनकी कहानियाँ विविध विषयों,विविध सरोकारों या उद्देश्यों का एक बुके हैं,जहाँ कई रंग हमें नजर आते हैं।उनकी कहानियों में जहाँ संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली का बाहुल्य है तो वहीं आम जन जीवन की भाषा और पात्र के अनुरूप उर्दू शब्दों का प्रयोग भी उन्होंने किया है। चित्रकारिता,संगीत,राजनीति अथवा किसी भी विषय पर उनकी गहरी समझ व पकड़ उनकी कहानियों को जीवन्त बना देती है।

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ शोभा गुप्ता ने कहा श्रद्धेय श्री दयानंद गुप्त जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।आपकी रचनाएं पढ़कर मुझे लगा कि आप ने उस समय की सामाजिक समस्याओं को अपनी रचनाओं में भली भांति उकेरा  तथा समाज में व्याप्त समस्याओं का समाधान भी समाज के समक्ष रखा। आपकी रचनाएं आज भी हमारा मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं।

कवयित्री मीनाक्षी ठाकुर का कहना था दयानन्द गुप्त सच्चे अर्थों में माँ वीणापाणि के उपासक रहे हैं। आपकी कहानियों में अनेक विम्बों से अलंकृत वाक्य व भाषा शैली के धागों से , किसी सुघड़ बुनकर की तरह कथानक को बुनते हुए जब आप आगे बढ़ते हैं तो दृश्यों का सजीव ताना- बाना बनकर तैयार हो जाता है। वे समाज के  दोहरे आवरण की परत उधेड़ते  हैं। कल्पना और यथार्थ दोनो के चित्रण में आपको  महारथ हासिल थी।समाज में होती उथल पुथल व बदलाव भी आपकी कहानियों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। आप समाज की संकीर्णता पर भी प्रहार करने से नहीं चूकते।

युवा साहित्यकार राजीव प्रखर ने कहा कि उनके कहानी-संग्रह 'मंज़िल' में संगृहीत कहानियां  तत्कालीन परिस्थितियों के साथ-साथ वर्तमान एवं भविष्य की सुगबुगाहट को भी स्वयं में समेटे हुए है। सत्य-असत्य के संघर्ष को सार्थक अभिव्यक्ति देती 'वे पत्र', सहानुभूति  का आवरण ओढ़ कर एक आम व्यक्ति के साथ किये जाने वाले खिलवाड़ का चित्र 'पागल', राह भटकती राजनीति को दर्शाती 'नेता', मानवीय मूल्यों को विभिन्न कोणों से देखती 'तोला', सामाजिक एकता और सद्भाव को अभिव्यक्ति देती 'न मन्दिर न मस्ज़िद' एवं इसी क्रम में विभिन्न संवेदनाओं व परिस्थितियों के संघर्ष को साकार करती हुई 'नारी हॄदय', 'परीक्षा', 'अर्ध परिणीता', 'शोभा', 'दर्पण की कथा', 'विद्रोही' व 'तुम्हारा प्रेम' तक आते-आते यह अनमोल कहानी-संग्रह, वर्तमान समाज के सम्मुख अनेक प्रश्न छोड़ता हुआ उसे यह सोचने पर भी बाध्य कर देता है कि स्वयं में अपेक्षित सुधार न करने पर उसके भविष्य की तस्वीर क्या होगी। भले ही हम आधुनिक युग में जी रहे हो परन्तु यह कड़वा सत्य है कि आज भी सामाजिक असमानता, रसातल में जाती नैतिकता, वर्ग-संघर्ष जैसी अनेक समस्याएं नये स्वरूप में हमारे समाज के सम्मुख बनी हुई हैं। आज की तथाकथित प्रगतिशीलता के सामने इसी तथ्य को रखता यह कहानी-संग्रह 'मंज़िल' निश्चित रूप से प्रत्येक आयु वर्ग के पाठक को विचार शीलता के साथ सोचने पर विवश कर देने में सक्षम है।

     

दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय की एसोसिएट प्रोफेसर गृह विज्ञान विभाग, डॉ शुभा गोयल ने कहा कि दयानन्द गुप्त का पेशे से वकील होना तथा साहित्य में अभिरुचि होना एक अनूठा संगम था। उनकी रचनाओं में विविधता के दर्शन होते हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक  विसंगति एवं विषमताओ  का चित्रण मिलता है।

     

उनकी पुत्रवधु सन्तोष रानी गुप्ता ने कहा वर्ष 1952 में आपने नगर में वर्षों से बन्द चली आ रही बल्देव आर्य संस्कृत पाठशाला को पुनः आरम्भ किया। जिसमें संस्कृत की निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था थी। उसी वर्ष बल्देव आर्य कन्या विद्यालय की स्थापना की जो बाद में बल्देव आर्य कन्या इंटर कालेज हो गया। वर्ष 1960 में दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की स्थापना की। इसके अतिरिक्त आपने अपने पैतृक ग्राम सैदनगली में उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की भी स्थापना की। उन्होंने उनका गीत भी प्रस्तुत किया।

दयानन्द आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की असिस्टेंट प्रोफेसर स्नेहा कुमारी ने  उनकी कहानी तोला के संदर्भ में कहा कि इस कहानी के माध्यम से लेखक दयानंद गुप्त ने पारिवारिक संबंधों में व्याप्त आपसी प्रेम, सौहार्द, द्वेष, ईर्ष्या की ही बात नहीं की,अपितु सामंती समाज में पिस रहे समाज, कृषक जीवन में व्याप्त गरीबी, भुखमरी, ऋण, गुलाम भारत में असमान, महंगी न्याय व्यवस्था का दारुण वर्णन किया है।

वरिष्ठ साहित्यकार श्री कृष्ण शुक्ल ने कहा कि  दयानन्द गुप्त की अनेक कहानियाँ  वर्तमान परिस्थितियों में भी प्रासंगिक है। विद्रोही का कथानक भी स्वयं में विशेषता रखता है और समाज के दोहरे मापदंड को दर्शाता है। 

साहित्यकार फरहत अली खान ने कहा कि दयानंद गुप्त मुरादाबाद के श्रेष्ठ कहानीकार थे। इन की कहानियों में जुज़यात-निगारी(डिटेलिंग) बे-जोड़ है और सब से ज़्यादा आकर्षित करती है। संवाद सहजता के साथ आते हैं।  इस ख़ूबी से वातावरण की तस्वीर खींचते हैं, ऐसे ऐसे बिंब बनाते हैं कि पढ़ने वाला मुरीद हो जाए। भाषा संस्कृतनिष्ठ है, जो आम बोलचाल की भाषा से कुछ अलग होने की वजह से कहानी की पहुँच और मक़बूलियत को सीमित करती है। फिर भी ये कोई ख़ामी नहीं, हर लेखक की भाषा की अपनी विशिष्टता होती है। 

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ अजय अनुपम ने कहा   गुप्त जी की कहानी 'न मन्दिर न मस्जिद' लिखे जाने के समय भी समकालीन थी और आज भी समकालीन है।इसकी सार्थकता आज भी बनी हुई है। आदरणीय श्री उमा कान्त गुप्त जी के पास मुरादाबाद के साहित्य की अमूल्य धरोहर संरक्षित है, आने वाला कल इसका मूल्यांकन करेगा।     

वरिष्ठ साहित्यकार अशोक विश्नोई ने कहा भाई मनोज जी  को एक अच्छे कार्य हेतु बहुत बहुत साधुवाद। साहित्यिक मुरादाबाद के माध्यम से स्मृति शेष दयानंद गुप्ता जी के विषय में सारगर्भित जानकारी प्राप्त हुई है।जो मुझे ज्ञात नहीं थी। उनकी कहानी भी पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त कर सका।

   

वरिष्ठ कवयित्री डॉ इंदिरा रानी ने कहा कि स्मृति शेष श्रद्धेय श्री दयानंद गुप्त एक प्रतिष्ठित एडवोकेट होने के साथ-साथ वह साहित्यकार, शिक्षाविद और समाज सेवक थे. उनकी बहुमुखी प्रतिभा आश्चर्य जनक है। गुप्त जी के कहानी संग्रह 'कारवां' में संकलित कहानी 'विद्रोही' को पढ़ कर अंग्रेजी के रोमान्टिक कवि कीट्स की याद आ गयी। विद्रोही कहानी में भी कलाकार की सौंदर्य चेतना अद्भुत है।    

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ कृष्ण कुमार नाज ने कहा  गुप्त जी की रचनाओं में तत्कालीन समाज का स्पष्ट चित्रण दिखाई देता है। मैं सौभाग्यशाली हूं कि श्रद्धेय दयानंद गुप्त जी के सुपुत्र आदरणीय श्री उमाकांत गुप्ता जी का स्नेह और आशीर्वाद मुझे निरंतर प्राप्त होता रहता है। 

   

वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि दयानन्द गुप्त बहुआयामी व्यक्तित्व और प्रतिभा के धनी थे। जाने-माने प्रतिष्ठित एडवोकेट तो थे ही, साथ ही साहित्यिक कर्म में भी निर्लिप्त थे। शिक्षा के क्षेत्र में कई संस्थाएं नगर-देहात को उन्होंने दी हैं। इसके इतर भी समाज को दिशा देने वाले उल्लेखनीय कार्य भी उन्होंने अपनी प्रतिबद्धताओं से आगे जाकर किए हैं।

साहित्यकार दुष्यन्त बाबा ने कहा कि  गुप्त जी स्त्री शिक्षा के प्रति उतने ही जागरूक और संवेदनशील थे जितने  अपने समय में श्री राजराम मोहनराय। आपने बालिकाओं के लिए बलदेव  आर्य कन्या इंटर कॉलेज तथा दयानंद आर्य कन्या महाविद्यालय की स्थापना का सराहनीय कार्य किया। साथ अमरोहा जनपद के सैदनगली में भी एक इंटर कॉलेज का निमार्ण कराया। 

   

वरिष्ठ अधिवक्ता मुहम्मद जुनैद एजाज ने कहा कि दयानंद गुप्त ने अपनी व्यावसायिक प्रतिबद्धता के बावजूद सामाजिक सरोकारों से अपना गहरा रिश्ता कायम किया। शिक्षा व साहित्य के क्षेत्र में उनका गहरा योगदान है जब देश लंबी गुलामी के बाद गहरे अंधकार से प्रकाश के लिए  लालायित था तब उन्होंने शिक्षा की ज्योति से मुरादाबाद  को आलोकित किया। उनकी रचनाओं में मानवता के प्रति उनकी  संवेदना  गहराई से झलकती है ।

दयानंद आर्य कन्या डिग्री कॉलेज की असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी डॉ छाया रानी ने कहा की मंजिल कहानी संग्रह में संग्रहित कहानी 'न मंदिर न मस्जिद' सर्व धर्म समन्वय की भावना को पोषित करने वाली है। यह कहानी एक विलक्षण कहानी है इस के लिखने के पीछे उनका  उद्देश्य  वसुधैव कुटुंबकम की भावना को लेकर था आज उसकी बहुत आवश्यकता है। यदि सब इसे समझ जाएं तो सब लड़ाई झगड़े छोड़ कर एक सूत्र में बंध कर सुखचैन से जीवन जी सकते हैं।

साहित्यकार डॉ शोभना कौशिक ने कहा कि  श्रद्धेय कीर्तिशेष श्री दयानंद गुप्त जी वे साहित्य जगत के ऐसे चमकते हुए सूर्य के समान थे ,जिसके प्रकाश से साहित्य जगत एक नई व अलौकिक रोशनी से प्रकाशित हुआ । उन्होंने हिंदी साहित्य का इतनी गहनता से अवलोकन किया ,कि उसकी हर दिशा को अपनी लेखनी का अंग बनाया ।चाहे मानवीय संवेदना हो या सामायिक विसंगतियाँ उन्होंने अपनी रचनाओं में तत्कालीन समाज की बहुत ही स्पर्श तस्वीर उकेरी है । इसके साथ ही उन्होंने श्रृंगार ,वियोग एवं प्राकृतिक सौंदर्य को बड़ी दक्षता से अपनी रचनाओं में दर्शाया है ।यद्दपि वे पेशे से वकील थे ,तथा राजनीति बहुत निकटता से जानते थे ,परंतु उन्होंने अपनी अभिरुचि साहित्य की ओर ही रखी ,और यथार्थ का आँचल पकड़ समसामयिक स्थितियों ,परिस्थितियों का इतना विषद चित्रण किया है ,जो आज के समय में भी प्रासंगिक है ।

साहित्यकार एवं दयानन्द आर्य कन्या डिग्री महाविद्यालय की पूर्व छात्रा मीनाक्षी वर्मा ने काव्यमय श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा -------

 नाम से ही परिलक्षित होते गुण अनंत,

दया के अवतार शिरोमणि श्री दयानन्द गुप्त, 

शिक्षा की ज्योति जलाकर किया सर्व उद्धार , 

जनमानस में किया प्रकाशित ज्ञान शक्ति का पुंज, 

श्री गुप्त जी की कृतियां बता रही मानवता का मर्म, 

सभी जाति,प्राणी समान,समान है सभी पंथ,

नैवेद्य, श्रृंखलाये,मंजिल संग्रह देती सीख अनन्त,

प्राणिमात्र से प्रेम करो मानवता का करो न अंत,

स्वतंत्रता के लिये भी किये कितने ही प्रयत्न,

 ऐसे थे महान श्री दयानंद गुप्त, 

श्रमिक वर्ग के मर्म को समझ किया उत्थान, 

हर क्षण जिनके बसा था दयासिन्धु कर्म प्रधान,

 दीप सा जीवन उत्तम मृत्यु जीवन का मेल,

तम हरण करते रहे सदा जला प्राणों का तेल,

 सामाजिक,प्राकृतिक रंग,श्रृंगार वियोग भाव उन्मुक्त,

जीवन के मूल्य व संवेदना की सरल भाषा में व्यक्त, 

आशीर्वाद रूपी अमृत सी कृतियां दे रही जीने का मर्म 

अक्षर अक्षर में है बसें चैतन्य श्री दयानंद चंदन

अर्णव के अद्भुत मोती, पारसमणि व्योम अनन्त,

दयानन्द आर्य कन्या महाविद्यालय की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ अर्चना राठौर ने उनकी कहानी न मस्जिद न मंदिर का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा कि उनकी कहानियों में यह कहानी उन्हें सर्वाधिक प्रिय है।

साहित्यकार इंदु रानी ने स्मृति शेष दयानंद गुप्ता को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए कविता प्रस्तुत की --------

 है धन्य भाग्य धरती पीतल की नगरी के

फिर गुप्त दयानंद जना क्यों नही देते


हम धन्य हुए जान के अमृत है ये शहर

इक बार हमे फिर से जता क्यों नही देते


श्री गुप्त दयानंद की जय बोलता जगत

शिक्षा की फिर से ज्योत जगा क्यों नही देते


ये भाग्य मेरा शिक्षा मिली आपकी शरण

भटकूं न फिर से राह दिखा क्यों नही देते


नारी की राहें रौशनी से सींचते हुए

एक बार फिर अलख को जगा क्यों नही देते


इतरा रहा मन सोच के सब आपकी उपज

ऐसे ही पौध और लगा क्यों नही देते


व्यक्तित्व-कृत्य आपका चमकेगा सूर्य सम

छाए हैं जो बादल वो हटा क्यों नही देते


सक्षम नही कलम जो करे आपका बखान

बाधाओं को फिर इसकी मिटा क्यों नही देते


दूषित हुई है राजनीती, विद्या नगरी भी

अच्छाइयों की धूप लगा क्यों नही देते

साहित्यकार अशोक विद्रोही ने कहा कि  कीर्तिशेष परम श्रद्धेय दयानंद गुप्त जी के दर्शन करने का मुझे भी सौभाग्य 1970 में आर्यकन्या इंटर कॉलेज बुद्धबाजार में संभाषण करते हुए प्राप्त हुआ  तब मैं हाईस्कूल का छात्र था । अद्भुत व्यक्तित्व के स्वामी  डॉ मनोज रस्तोगी जी जिनके अथक प्रयासों से परम श्रद्धेय दयानंद गुप्त जी के विशाल और विराट व्यक्तित्व की जानकारी  साहित्यिक मुरादाबाद पटल के माध्यम से हम सभी को प्राप्त हुई है यही नही हमें वे कहानियां पढ़ने को मिली जो हमारे लिए दुर्लभ थीं । इसके लिए वह बधाई के पात्र हैं।

गजरौला की साहित्यकार रेखा रानी ने कहा कि कीर्ति शेष आदरणीय दयानंद गुप्त जी  के साहित्य में जब डूबना प्रारम्भ किया तब मन डूबता ही गया और मन उनके प्रति श्रद्धा से भर गया।  आपके द्वारा नया अनुभव और  विद्रोही कहानी बहुत ही बेहतरीन हैं और स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है कि आप की कल्पना शक्ति गजब की है।

अमरोहा की साहित्यकार मनोरमा शर्मा ने कहा कि मुरादाबाद के साहित्यिक आलोक स्तम्भ के अंतर्गत स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त जी व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आयोजित इस कार्यक्रम में सभी की प्रस्तुतियां सराहनीय हैं । इससे हमें बहुत कुछ जानकारी मिली ।

साहित्यकार विवेक आहूजा ने कहा कि दयानन्द जी के गीतों में  हमें जीवन दर्शन मिलता है। सुख दुःख, आशा निराशा , अपना पराया, छल ,उत्पीड़न ,धोखा  सभी भावो को वह अपने गीतों में अभिव्यक्त करते हैं । मै इस मंच के माध्यम से ऐसी महान विभूति श्रद्धेय  दयानंद गुप्त जी को नमन करता हूँ  ।

दयानन्द गुप्त की पुत्री अम्बाला निवासी श्रीमती इला गुप्ता ने कहा कि साहित्यिक मुरादाबाद  पटल पर  आयोजित इस कार्यक्रम मेंमेरे पिता के बहु-आयामी व्यक्तित्व की झलक देखने को मिली, साथ ही उनकी कहानियों व कविताओं का सुन्दर विश्लेषण भी पढ़ने को मिला।  पिताजी की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ मेरे स्मृति पटल पर आज भी अंकित हैं:

शबनम से  कहो  धीरे से गिरे ,

कलियों की आंख न खुल जाये !


मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन की कृति -मुरादाबाद में ग़ज़ल का सफ़र (नवल राय 'वफ़ा' से 'जिगर' तक । इस कृति का प्रकाशन वर्ष 2020 में गुंजन प्रकाशन मुरादाबाद से हुआ था । इस कृति की भूमिका डॉ रामानन्द शर्मा, डॉ अजय अनुपम, मंसूर उस्मानी और डॉ कृष्ण कुमार नाज ने लिखी है ।



क्लिक कीजिए और पढ़िये पूरी कृति
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:::::::::प्रस्तुति::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

रविवार, 13 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी का नवगीत पर केंद्रित विस्तृत आलेख ----काल की सापेक्षता है नवगीत .....। यह आलेख उन्होंने वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह मुरादाबाद लिटरेरी क्लब पर नवगीत पर विमर्श के दौरान प्रस्तुत किया था ।

 


हिंदी के वरेण्य व्यंग्य कवि डॉ. मक्खन मुरादाबादी ने गीत सम्बन्धी अवस्थापना की व्याख्या करते हुए कुछ सूत्रों का हवाला दिया है ।मैंने उनकी स्थापना के मूल बिंदुओं की तलाश करने के लिए कुछ आधुनिक शब्दकोशों के पृष्ट पलटने पहले आरम्भ किये और पाया कि संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में गीत का अर्थ गाया हुआ और गीतायन का अर्थ, गीत का गायन दिया गया है यह काफी हद तक डॉ. मक्खन के निष्कर्ष की पुष्टि करता है लेकिन सामान्य रूप से गीत के व्यवहारिक स्तर पर जो अर्थ समझा जाता है गेयता अर्थात गीत वह है जो गेय हो। नालंदा अद्यतन कोश के संपादक पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार गीत वह है जो गाया जाय/गान। डॉ. फादर कामिल बुल्के ने अपने अंग्रेजी हिंदी कोश में एक तरह से गीत को अंग्रेजी के लिरिक का समानार्थक माना है और लिरिक की अर्थ स्थापना करते हुए लिखा हैं प्रगीतात्मक, गीतात्मक, गीत। चैम्बर्स अंग्रेजी हिंदी कोश के संपादक डॉ. सुरेश अवस्थी लिरिक की जगह लायर शब्द को उठाते हैं और अर्थ करते हैं गीत, गाना, गेयत्व ,गायन। इसी तरह पटल पर एक किसी टिप्पणीकार ने पाणिनि के माहेश्वर सूत्र और भरतमुनि के नाट्य शास्त्र के दिये सूत्रों की चर्चा की है। पाणिनि और भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की व्याख्याएं गीत के लिए नहीं संगीत के लिए हैं। लेकिन जब हम साहित्यिक गीत की चर्चा कर रहे हों तो पाणिनी, भरतमुनि की चर्चाएँ अप्रासंगिक लगती हैं।शब्दकोशीय अर्थ भी सिर्फ रास्ता सुझाते हैस ही आशय तक नहींपहुंचाते। 

      यह बात ध्यान देने की है कि गीत का उद्भव और विकास मानुस के जन्म के साथ नहीं हुआ बल्कि उसमें बोलने की शक्ति के विकास के साथ हुआ। यह अलग बात है कि संगीत सृष्टि के साथ हुआ। अतः यह अलग बात है कि प्रकृति में संगीत था। हवा गाती थी, झरने गाते थे, नदियां गाती थीं। पेड़ गाते रहे, पक्षी गाते रहे किन्तु वे सांगीतिक स्वरों का स्वरूप था और मूल में शब्दहीन थीं वे सांगीतिक अभिव्यक्तियाँ। 

         गीत सबसे पहले हमारे लोकजीवन, लोककंठों में मुखरित हुए और हर्ष विषाद, ऋतुएं उनकी अभिव्यक्ति के विषय रहे फिर श्रम गीत आये और धीरे धीरे जैसे जैसे समाज विकसित होता गया लोकगीतों का सीवान बड़ा होता गया और उसकी अभिव्यक्ति में त्योहार, धर्म, जाति आदि तमाम विषय समाते गये। लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि हिंदी भाषा के मानक स्वरूप में जिस गीत की चर्चा होती है उसे कला गीत की संज्ञा दी गयी है । 

      हिंदी मे गीत काव्य का प्रयोग सबसे पहले लोचन प्रसाद पाण्डे ने अपनी कृति कविता कुसुम माला के प्रथम संस्करण,(जनवरी-1909) की भूमिका में किया। वैसे प्राचीनतम प्रयोग हेमचंद, गीता गाममिमेसमे (अमरकोश) में मिलता है ।लेकिन हिंदी में लोचन प्रसाद पाण्डे की ही अवधारणा समीचीन लगती है। यह बात स्मरण रखने की जरूरत है कि लोचन प्रसाद पाण्डे और मुकुट धर पाण्डे को कुछ विद्वान छायावाद के प्रथम पुराष्कर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं जिसकी नींव द्विवेदी युग में ही पड़ गई थी ।राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के साकेत महाकाव्य के नवम सर्ग के गीत ,यशोधरा के कुछ गीत इसके प्रमाण हैं। 

          छायावाद काल को हिंदी गीतों का स्वर्णकाल कहा जाता है लेकिन इस स्वर्ण काल मे आम जन की जगह बहुत कम थी और बौद्धिक सामन्तों के वाग्विलास के लिए ज्यादा।कल्पना की अतिशयता और छाया की ओट से ऊबकर लोगों ने कविता को यथार्थ जीवन को निकट लाने की कोशिश के फलस्वरूप प्रगतिशील साहित्य में आती अतिशय सपाटता से छिटक कर कुछ लोगों ने जीवन यथार्थ की वकालत करते हुए स्वच्छंदतावादी उत्तरछायावादी काव्य की धारा शुरू की और हिंदी को कई विश्रुत गीतकवि दिए। लेकिन यहां भी अंतर्वस्तु में कामातुर रीतिकालीन भाव पूरी तरह कामातुर तो नहीं आया लेकिन श्रृंगारगीतों में देहभोग और कामातुर मुद्राओं की अभिव्यक्ति में बड़े बड़े नामधारी गीत कवि रस लेने लगे। यहाँ फिर गीतों को संस्कारित करने की आवश्यकता महसूस हुई। प्रेम वासना के कीचड़ में फंसा हिरण हो गया और नवगीत ने जन्म लिया। 

             जिस तरह गीत का हिंदी में प्रथम उल्लेख लोचन प्रसाद पाण्डे की कृति कविता कुसुम माला के प्रथम संस्करण की भूमिका में मिलता है उसी प्रकार नवगीत शब्द का प्रथम उल्लेख राजेन्द्र प्रसाद सिंह की संपादित कृति गीतांगीनि की भूमिका में मिलता है यद्यपि उसमें नवगीत के जो पाँच तत्व या प्रतिमानो का उल्लेख मिलता है वे स्वीकार्य नहीं हैं। नवगीत शब्द की प्रथम चर्चा का जिक्र डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने परिमल की इलाहाबाद की गोष्ठी में किया था ऐसा उल्लेख भी मिलता है। वीरेंद्र मिश्र का नाम भी इस संदर्भ में उल्लेख में आता है। एक अन्य वरिष्ठ गीतकार और विश्रुत साहित्यकार रहे हैं ठाकुर प्रसाद सिंह जिनकी चर्चा होती है। भइया उमाकांत मालवीय का नाम भी इस संदर्भ में याद आ रहा है। बहरहाल नवगीत के प्रथम पुरुष या पुरोहित कोई भी हों पहले जिन नामों का उल्लेख किया गया है वे सब नवगीत के उन्नयन तथा स्थापना के लिए उल्लेखनीय लोग हैं। डॉ .पी.एन. सिंह, डॉ. उमाशंकर तिवारी की चर्चा इस संदर्भ में करते हैं।सबकी मान्यताओं तथा दावों को भविष्य के शोधार्थियों के लिए छोड़ने के बाद नवगीत की पदचाप की आहट की बात करते हैं। नवगीत अपने निकट पूर्ववर्ती कुछ गीतकारों की रचनाओं में आई लिजलिजी भावुकता और कामातुर अभिव्यक्तियों और स्वाधीनता के कुछ ही समय उपजे मोहभंग से उपजा काव्यबोध है ।

           इस बात को आगे बढ़ाने से पहले  यह जान लेना भी जरूरी है कि आज़ादी से कुछ समय पूर्व से कुछ गीतकार क्या सोच और लिख रहे थे। 1953 में वीरेंद्र मिश्र के एक गीत की चर्चा जनसत्ता में हुई - दूर होती जा रही है कल्पना /पास आती जा रही है जिंदगी। 

15 जुलाई 1955 में उनका एक गीत है--

पीर मेरी कर रही गमगीन मुझको 

और उससे भी अधिक तेरे नयन का नीर रानी 

और उससे भी अधिकहर पाँव की जंजीर रानी। 

इसी तरह की पीड़ा से जुड़ा हुआ बलवीर सिंह रंग का एक गीत है-

नगर नगर बढ़ रही अमीरी 

मेरा गाँव गरीब है 

अपना गाँव गरीब है 

सबका गाँव गरीब है।।

और अब आते हैं साठोत्तर पीढ़ी पर। सपनो के टूटने को लेकर शलभ श्रीराम सिंह ने लिखा -

बादल तो आये पानी बरसा गए 

लेकिन यह क्या हुआ

 खिले हुए धानों के 

मुखड़े मुरझा गए।

एक और दर्द मन में घुमड़ता रहा। ओम प्रभाकर के शब्दों में -

जैसे जैसे घर नियराया 

बाहर बापू बैठे दीखे 

लिये उम्र की बोझिल घड़ियाँ 

भीतर अम्माँ करे रसोई 

लेकिन जलतीं नहीं लकड़ियाँ

कैसा है यह दृश्य कटखना 

जो तन से मन तक गहराया 

लेकिन मोहभंग और हताशा का यह बोध नवगीत ने छिटककर अपने से दूर किया और लिखा गया-

पत्ते फिर हरे होंगे

कोयलें उदास मगर फिर वे गाएँगी 

नये नए पत्तो से राहें भर जायेंगी।

         ठाकुर प्रसाद सिंह - 

प्रेम के नाम पर पहले पड़ोस था 

उसकी जगह घर आ गया

छोड़ो बातें दुनिया भर की

आओ कुछ बात करें घर की 

         डॉ. शम्भू नाथ सिंह 

नवगीत में वैज्ञानिक बोध को भी अभिव्यक्ति मिली शम्भूनाथ सिंह जी का एक गीत है-

बादल को बाहों में भर लो 

एक और अनहोनी कर लो।।

नवगीत में सौंदर्य बोध के खूबसूरत बिम्ब हैं --

मुँह पर उजली धूप 

पीठ पर काली बदली है 

राम धनी की बहुरि 

नदी नहाकर निकली है।

        -कैलाश गौतम

इसी तरह एक बिम्ब है देवेन्द्र कुमार की कविता में - 

आगे आगे पछुआ , पीछे पुरवाई 

बादल दो बहनों के बीच एक भाई ।

नईम एक जगह लिखते हैं-

मेरा मन घेर गये मालवा के घाघरे 

तो दूसरी ओर उन्हें बुंदेलखंड के किसानों की याद आती है।

नवगीत अपने समय के आम आदमी की पीड़ा का गायक है उसे रामगिरि के शापित यक्ष की पीड़ा का भान है तो और भी बहुत कुछ याद आता है ---

चलो न्योत आयें अपने--

           तिथि-तीजो को त्योहारों को 

महानगर,कस्बों से लेकर-

                   सारे गाँव-जवारोंको ।

कोई  किसी को नहीं पूंछता 

सब अपने में डूबे हैं।

गति की सीमाएँ लांघते

अपने में ही डूबे हैं 

खैर खबर पूंछे उठकरके 

पीछे छोड़ आये जिनको हम 

चिट्ठी पत्री लिखें लिखाएँ।  

        ढाणी घर परिवारों को 

               -  नईम

और अंत मे एक गीतांश यश मालवीय के 'समय लकड़हारा' गीत से - 

छह जाती मौसम पर

साँवली उदासी

पाँव पटकती पत्थर पर 

पूरनमासी  

रात गये लगता है 

हर दिन बेचारा। 

और अंत में, कविता-गीत-नवगीत में अंतर पर प्रकाश डालते हुए मैं अपनी बात को विराम दे रहा हूँ। 

       कविता, गीत एवं नवगीत गुनगुनाने योग्य शब्द रचना को गीत कहने से नहीं रोका जा सकता। किसी एक ढांचे में रची गयीं समान पंक्तियों वाली कविता को किसी ताल में लयबद्ध करके गाया जा सकता हो, तो वह गीत की श्रेणी में आती है, किन्तु साहित्य के मर्मज्ञों ने गीत और कविता में अन्तर करने वाले कुछ सर्वमान्य मानक तय किये हैं। छन्दबद्ध कोई भी कविता गायी जा सकती है। पर, उसे गीत नहीं कहा जाता। गीत एक प्राचीन विधा है जिसका हिन्दी में व्यापक विकास छायावादी युग में हुआ। गीत में स्थाई और अन्तरे होते हैं। स्थाई और अन्तरों में स्पष्ट भिन्नता होनी चाहिये। प्राथमिक पंक्तियांँ जिन्हें स्थाई कहते हैं, प्रमुख होती है और हर अन्तरे से उनका स्पष्ट सम्बन्ध दिखाई देना चाहिये। गीत में लय, गति और ताल होती है। इस तरह के गीत में गीतकार कुछ मौलिक नवीनता ले आये तो वह नवगीत कहलाने लगता है।

गीत एवं नवगीत में समानता-

नवगीत भी गीत की तरह दो हिस्सों में बँटा होता है-

१-‘स्थायी’/’मुखड़ा’/और अन्तरा ’टेक’/नवगीत में भी होते हैं।

गीत-नवगीत में अंतर-

    1- अंतरा/बंद- नवगीत के ‘स्थायी’ की पंक्तियों में ‘वर्ण’ या ‘मात्रा’ विधान का कोई बंधन नहीं होता, किन्तु इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि ‘स्थायी’ की या तो पहली पंक्ति या अंतिम पंक्ति के समान उत्तरदायित्व की पंक्ति ‘अन्तरे’ के अंत में अवश्य हो। यह गेयता के लिए अत्यावश्यक है। इस ‘स्थायी’ को दोहराते समय कथन में निरन्तरता और सामंजस्य तभी बनता है।  

2- नवगीत में अंतरा प्राय: दो या तीन ही होते हैं किन्तु चार से अधिक अन्तरे की मान्यता नहीं है।

3- नवगीत में विषय, रस, भाव आदि का कोई बंधन नहीं होता। नवगीत में संक्षिप्तता, मार्मिकता, सहजता एवं सरलता, बेधक शक्ति का समन्वय एवं सामयिकता का होना अति आवश्यक है।

4- नवगीत में देशज प्रचलित क्षेत्रीय बोली के शब्दों का प्रयोग मान्य है और इससे कथ्य में नयापन और हराभरापन आ जाता है। एक नवगीत में कई देशज शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। नवगीत पर संप्रेषणीयता का संकट आ सकता है।

5- नवगीत में नवगीतकार आम आदमी, मेहनत एवं मजदूर वर्ग या सरल भाषा में कहा जाये तो सार्वजनिक सामाजिक भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है।

6- नवगीत में नये प्रयोग को प्रधानता दी जाती है और लीक से हटकर कुछ कहने का प्रयास होता है। यदि आप किसी नये छंद का गठन करते हैं तो यह नवगीत की विशेषता समझी जाती है।

7- नवगीत की भाषा सांकेतिक होती है और वह कम शब्दों में अधिक बात कहने की सामर्थ्य रखता है।

8- नई कविता में  पंत जी ने खुल गये छंद के बंद, प्रास के रजत पाश की घोषणा की लेकिन पूरी तरह छंद से मुक्ति की बात नहीं थी। छंदमुक्ति का अर्थ मुक्तछंद था छंदहीनता नहीं। नवगीत में छंद से मुक्ति की बात नहीं थी बल्कि कथ्य के दबाव में लय का ध्यान रखते हुए कभी कभी छंद के बंद को कुछ लचीला बनाया जा सकता है। 

नवगीत में भी गेयता भंग नहीं होनी चाहिए। अलंकार का प्रयोग मान्य तो है किन्तु वह कथ्य की सहज अभिव्क्ति में किसी तरह बाधक न हो। अलंकार का एक पैर आकाश में है तो दूसरा पैर जमीन की सतह से ऊपर नहीं होना चाहिए। नवगीत में भाषा, शिल्प, प्रतीक, शैली, रूपक, बिम्ब, कहन, कल्पना, मुहावरा, यथार्थ आदि कथ्य के सामाजिक सरोकारों में एक बड़े सहायक के रूप में खड़े होते हैं।

9- नवगीत नवगीत होता है और अपनी गेय क्षमता के कारण ही वह गीत हो सकता है अन्य किसी अर्थ में नहीं।

10- नवगीत कथ्य प्रधान होता है। नवगीत में समुद्र एक बूँद में समाहित होता है। बूँद ही एक समुद्र होती है। नवगीत में विस्तार नहीं होता है। अभिव्यक्ति की व्याख्या से विस्तार तक पहुँचा जा सकता है।

11- नवगीत तात्कालिक समय को लिखता है, उसमें सनातनता और पारम्परिकता का कोई स्थान नहीं है। नवगीत का उद्देश्य समाज के बाधक कारकों को और उत्पन्न स्थितियों को पहचानकर उन्हें समाज को बताना, इंगित करने के साथ उचित समाधान की ओर अग्रसर करना है। नवगीत काल की सापेक्षता है।

12- नवगीत में स्पष्टता का प्रभाव है। जो भी कहा जाए वह स्पष्ट हो, आम व्यक्ति भी उसे आसानी से समझ सके और भाषा का प्रयोग आम आदमी की समझ की हो। किसी शब्द का अर्थ समझने के लिए शब्दकोश का सहारा न लेना पड़े, तो अति उत्तम।

13- नवगीत में छांदस स्वतन्त्रता है। नवगीत का कार्य कोने में छिपी किसी अनछुई सामाजिक छुईमुई अनुभूति को समाज के समक्ष लाना है। 

      14-  नवगीत न मांसल सौन्दर्य की कविता है और न संयोग-वियोग की स्मृतियाँ। नवगीत प्रथम पुरुष के जीवन की उठा-पटक, उत्पीड़न, गरीबी, साधनहीनता के संघर्ष की अभिव्यक्ति है।

15 - नवगीत हृदय प्रधान, छन्दबद्ध, प्रेम और संघर्ष का काव्य है। नवगीत की यह एक विशेषता है कि वह छंदबद्ध होकर भी किसी छंदवाद की लक्ष्मणरेखा के घेरे से नहीं लिपटा है।

नवगीत लेखन में लिए निम्न बातों का ध्यान रखें-

१. संस्कृति व लोकतत्त्व का समावेश हो।

 २. तुकान्त की जगह लयात्मकता को प्रमुखता दें। 

३. नए प्रतीक व नए बिम्बों का प्रयोग करें।

 ४. दृष्टिकोण वैज्ञानिकता लिए हो। 

५. सकारात्मक सोच हो।

६. बात कहने का ढंग कुछ नया हो और जो कुछ कहें उसे प्रभावशाली ढंग से कहें। 

७. शब्द-भंडार जितना अधिक होगा नवगीत उतना अच्छा लिख सकेंगे।

 ८. नवगीत को छन्द के बंधन से मुक्त रखा गया है, परंतु लयात्मकता की पायल उसका श्रृंगार है, इसलिए लय को अवश्य ध्यान में रखकर लिखें और उस लय का पूरे नवगीत में निर्वाह करें। 

९. नवगीत लिखने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि प्रकृति का सूक्ष्मता के साथ निरीक्षण करें और जब स्वयं को प्रकृति का एक अंग मान लेगें तो लिखना सहज हो जाएगा।

  तो अब आपको कविता, गीत एवं नवगीत में अंतर स्पष्ट हो गया होगा, ऐसा विश्वास है....।

✍️ माहेश्वर तिवारी, 'हरसिंगार', बी/1-48,

नवीन नगर, मुरादाबाद 244001