रविवार, 13 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार माहेश्वर तिवारी का नवगीत पर केंद्रित विस्तृत आलेख ----काल की सापेक्षता है नवगीत .....। यह आलेख उन्होंने वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह मुरादाबाद लिटरेरी क्लब पर नवगीत पर विमर्श के दौरान प्रस्तुत किया था ।

 


हिंदी के वरेण्य व्यंग्य कवि डॉ. मक्खन मुरादाबादी ने गीत सम्बन्धी अवस्थापना की व्याख्या करते हुए कुछ सूत्रों का हवाला दिया है ।मैंने उनकी स्थापना के मूल बिंदुओं की तलाश करने के लिए कुछ आधुनिक शब्दकोशों के पृष्ट पलटने पहले आरम्भ किये और पाया कि संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में गीत का अर्थ गाया हुआ और गीतायन का अर्थ, गीत का गायन दिया गया है यह काफी हद तक डॉ. मक्खन के निष्कर्ष की पुष्टि करता है लेकिन सामान्य रूप से गीत के व्यवहारिक स्तर पर जो अर्थ समझा जाता है गेयता अर्थात गीत वह है जो गेय हो। नालंदा अद्यतन कोश के संपादक पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार गीत वह है जो गाया जाय/गान। डॉ. फादर कामिल बुल्के ने अपने अंग्रेजी हिंदी कोश में एक तरह से गीत को अंग्रेजी के लिरिक का समानार्थक माना है और लिरिक की अर्थ स्थापना करते हुए लिखा हैं प्रगीतात्मक, गीतात्मक, गीत। चैम्बर्स अंग्रेजी हिंदी कोश के संपादक डॉ. सुरेश अवस्थी लिरिक की जगह लायर शब्द को उठाते हैं और अर्थ करते हैं गीत, गाना, गेयत्व ,गायन। इसी तरह पटल पर एक किसी टिप्पणीकार ने पाणिनि के माहेश्वर सूत्र और भरतमुनि के नाट्य शास्त्र के दिये सूत्रों की चर्चा की है। पाणिनि और भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की व्याख्याएं गीत के लिए नहीं संगीत के लिए हैं। लेकिन जब हम साहित्यिक गीत की चर्चा कर रहे हों तो पाणिनी, भरतमुनि की चर्चाएँ अप्रासंगिक लगती हैं।शब्दकोशीय अर्थ भी सिर्फ रास्ता सुझाते हैस ही आशय तक नहींपहुंचाते। 

      यह बात ध्यान देने की है कि गीत का उद्भव और विकास मानुस के जन्म के साथ नहीं हुआ बल्कि उसमें बोलने की शक्ति के विकास के साथ हुआ। यह अलग बात है कि संगीत सृष्टि के साथ हुआ। अतः यह अलग बात है कि प्रकृति में संगीत था। हवा गाती थी, झरने गाते थे, नदियां गाती थीं। पेड़ गाते रहे, पक्षी गाते रहे किन्तु वे सांगीतिक स्वरों का स्वरूप था और मूल में शब्दहीन थीं वे सांगीतिक अभिव्यक्तियाँ। 

         गीत सबसे पहले हमारे लोकजीवन, लोककंठों में मुखरित हुए और हर्ष विषाद, ऋतुएं उनकी अभिव्यक्ति के विषय रहे फिर श्रम गीत आये और धीरे धीरे जैसे जैसे समाज विकसित होता गया लोकगीतों का सीवान बड़ा होता गया और उसकी अभिव्यक्ति में त्योहार, धर्म, जाति आदि तमाम विषय समाते गये। लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि हिंदी भाषा के मानक स्वरूप में जिस गीत की चर्चा होती है उसे कला गीत की संज्ञा दी गयी है । 

      हिंदी मे गीत काव्य का प्रयोग सबसे पहले लोचन प्रसाद पाण्डे ने अपनी कृति कविता कुसुम माला के प्रथम संस्करण,(जनवरी-1909) की भूमिका में किया। वैसे प्राचीनतम प्रयोग हेमचंद, गीता गाममिमेसमे (अमरकोश) में मिलता है ।लेकिन हिंदी में लोचन प्रसाद पाण्डे की ही अवधारणा समीचीन लगती है। यह बात स्मरण रखने की जरूरत है कि लोचन प्रसाद पाण्डे और मुकुट धर पाण्डे को कुछ विद्वान छायावाद के प्रथम पुराष्कर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं जिसकी नींव द्विवेदी युग में ही पड़ गई थी ।राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के साकेत महाकाव्य के नवम सर्ग के गीत ,यशोधरा के कुछ गीत इसके प्रमाण हैं। 

          छायावाद काल को हिंदी गीतों का स्वर्णकाल कहा जाता है लेकिन इस स्वर्ण काल मे आम जन की जगह बहुत कम थी और बौद्धिक सामन्तों के वाग्विलास के लिए ज्यादा।कल्पना की अतिशयता और छाया की ओट से ऊबकर लोगों ने कविता को यथार्थ जीवन को निकट लाने की कोशिश के फलस्वरूप प्रगतिशील साहित्य में आती अतिशय सपाटता से छिटक कर कुछ लोगों ने जीवन यथार्थ की वकालत करते हुए स्वच्छंदतावादी उत्तरछायावादी काव्य की धारा शुरू की और हिंदी को कई विश्रुत गीतकवि दिए। लेकिन यहां भी अंतर्वस्तु में कामातुर रीतिकालीन भाव पूरी तरह कामातुर तो नहीं आया लेकिन श्रृंगारगीतों में देहभोग और कामातुर मुद्राओं की अभिव्यक्ति में बड़े बड़े नामधारी गीत कवि रस लेने लगे। यहाँ फिर गीतों को संस्कारित करने की आवश्यकता महसूस हुई। प्रेम वासना के कीचड़ में फंसा हिरण हो गया और नवगीत ने जन्म लिया। 

             जिस तरह गीत का हिंदी में प्रथम उल्लेख लोचन प्रसाद पाण्डे की कृति कविता कुसुम माला के प्रथम संस्करण की भूमिका में मिलता है उसी प्रकार नवगीत शब्द का प्रथम उल्लेख राजेन्द्र प्रसाद सिंह की संपादित कृति गीतांगीनि की भूमिका में मिलता है यद्यपि उसमें नवगीत के जो पाँच तत्व या प्रतिमानो का उल्लेख मिलता है वे स्वीकार्य नहीं हैं। नवगीत शब्द की प्रथम चर्चा का जिक्र डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने परिमल की इलाहाबाद की गोष्ठी में किया था ऐसा उल्लेख भी मिलता है। वीरेंद्र मिश्र का नाम भी इस संदर्भ में उल्लेख में आता है। एक अन्य वरिष्ठ गीतकार और विश्रुत साहित्यकार रहे हैं ठाकुर प्रसाद सिंह जिनकी चर्चा होती है। भइया उमाकांत मालवीय का नाम भी इस संदर्भ में याद आ रहा है। बहरहाल नवगीत के प्रथम पुरुष या पुरोहित कोई भी हों पहले जिन नामों का उल्लेख किया गया है वे सब नवगीत के उन्नयन तथा स्थापना के लिए उल्लेखनीय लोग हैं। डॉ .पी.एन. सिंह, डॉ. उमाशंकर तिवारी की चर्चा इस संदर्भ में करते हैं।सबकी मान्यताओं तथा दावों को भविष्य के शोधार्थियों के लिए छोड़ने के बाद नवगीत की पदचाप की आहट की बात करते हैं। नवगीत अपने निकट पूर्ववर्ती कुछ गीतकारों की रचनाओं में आई लिजलिजी भावुकता और कामातुर अभिव्यक्तियों और स्वाधीनता के कुछ ही समय उपजे मोहभंग से उपजा काव्यबोध है ।

           इस बात को आगे बढ़ाने से पहले  यह जान लेना भी जरूरी है कि आज़ादी से कुछ समय पूर्व से कुछ गीतकार क्या सोच और लिख रहे थे। 1953 में वीरेंद्र मिश्र के एक गीत की चर्चा जनसत्ता में हुई - दूर होती जा रही है कल्पना /पास आती जा रही है जिंदगी। 

15 जुलाई 1955 में उनका एक गीत है--

पीर मेरी कर रही गमगीन मुझको 

और उससे भी अधिक तेरे नयन का नीर रानी 

और उससे भी अधिकहर पाँव की जंजीर रानी। 

इसी तरह की पीड़ा से जुड़ा हुआ बलवीर सिंह रंग का एक गीत है-

नगर नगर बढ़ रही अमीरी 

मेरा गाँव गरीब है 

अपना गाँव गरीब है 

सबका गाँव गरीब है।।

और अब आते हैं साठोत्तर पीढ़ी पर। सपनो के टूटने को लेकर शलभ श्रीराम सिंह ने लिखा -

बादल तो आये पानी बरसा गए 

लेकिन यह क्या हुआ

 खिले हुए धानों के 

मुखड़े मुरझा गए।

एक और दर्द मन में घुमड़ता रहा। ओम प्रभाकर के शब्दों में -

जैसे जैसे घर नियराया 

बाहर बापू बैठे दीखे 

लिये उम्र की बोझिल घड़ियाँ 

भीतर अम्माँ करे रसोई 

लेकिन जलतीं नहीं लकड़ियाँ

कैसा है यह दृश्य कटखना 

जो तन से मन तक गहराया 

लेकिन मोहभंग और हताशा का यह बोध नवगीत ने छिटककर अपने से दूर किया और लिखा गया-

पत्ते फिर हरे होंगे

कोयलें उदास मगर फिर वे गाएँगी 

नये नए पत्तो से राहें भर जायेंगी।

         ठाकुर प्रसाद सिंह - 

प्रेम के नाम पर पहले पड़ोस था 

उसकी जगह घर आ गया

छोड़ो बातें दुनिया भर की

आओ कुछ बात करें घर की 

         डॉ. शम्भू नाथ सिंह 

नवगीत में वैज्ञानिक बोध को भी अभिव्यक्ति मिली शम्भूनाथ सिंह जी का एक गीत है-

बादल को बाहों में भर लो 

एक और अनहोनी कर लो।।

नवगीत में सौंदर्य बोध के खूबसूरत बिम्ब हैं --

मुँह पर उजली धूप 

पीठ पर काली बदली है 

राम धनी की बहुरि 

नदी नहाकर निकली है।

        -कैलाश गौतम

इसी तरह एक बिम्ब है देवेन्द्र कुमार की कविता में - 

आगे आगे पछुआ , पीछे पुरवाई 

बादल दो बहनों के बीच एक भाई ।

नईम एक जगह लिखते हैं-

मेरा मन घेर गये मालवा के घाघरे 

तो दूसरी ओर उन्हें बुंदेलखंड के किसानों की याद आती है।

नवगीत अपने समय के आम आदमी की पीड़ा का गायक है उसे रामगिरि के शापित यक्ष की पीड़ा का भान है तो और भी बहुत कुछ याद आता है ---

चलो न्योत आयें अपने--

           तिथि-तीजो को त्योहारों को 

महानगर,कस्बों से लेकर-

                   सारे गाँव-जवारोंको ।

कोई  किसी को नहीं पूंछता 

सब अपने में डूबे हैं।

गति की सीमाएँ लांघते

अपने में ही डूबे हैं 

खैर खबर पूंछे उठकरके 

पीछे छोड़ आये जिनको हम 

चिट्ठी पत्री लिखें लिखाएँ।  

        ढाणी घर परिवारों को 

               -  नईम

और अंत मे एक गीतांश यश मालवीय के 'समय लकड़हारा' गीत से - 

छह जाती मौसम पर

साँवली उदासी

पाँव पटकती पत्थर पर 

पूरनमासी  

रात गये लगता है 

हर दिन बेचारा। 

और अंत में, कविता-गीत-नवगीत में अंतर पर प्रकाश डालते हुए मैं अपनी बात को विराम दे रहा हूँ। 

       कविता, गीत एवं नवगीत गुनगुनाने योग्य शब्द रचना को गीत कहने से नहीं रोका जा सकता। किसी एक ढांचे में रची गयीं समान पंक्तियों वाली कविता को किसी ताल में लयबद्ध करके गाया जा सकता हो, तो वह गीत की श्रेणी में आती है, किन्तु साहित्य के मर्मज्ञों ने गीत और कविता में अन्तर करने वाले कुछ सर्वमान्य मानक तय किये हैं। छन्दबद्ध कोई भी कविता गायी जा सकती है। पर, उसे गीत नहीं कहा जाता। गीत एक प्राचीन विधा है जिसका हिन्दी में व्यापक विकास छायावादी युग में हुआ। गीत में स्थाई और अन्तरे होते हैं। स्थाई और अन्तरों में स्पष्ट भिन्नता होनी चाहिये। प्राथमिक पंक्तियांँ जिन्हें स्थाई कहते हैं, प्रमुख होती है और हर अन्तरे से उनका स्पष्ट सम्बन्ध दिखाई देना चाहिये। गीत में लय, गति और ताल होती है। इस तरह के गीत में गीतकार कुछ मौलिक नवीनता ले आये तो वह नवगीत कहलाने लगता है।

गीत एवं नवगीत में समानता-

नवगीत भी गीत की तरह दो हिस्सों में बँटा होता है-

१-‘स्थायी’/’मुखड़ा’/और अन्तरा ’टेक’/नवगीत में भी होते हैं।

गीत-नवगीत में अंतर-

    1- अंतरा/बंद- नवगीत के ‘स्थायी’ की पंक्तियों में ‘वर्ण’ या ‘मात्रा’ विधान का कोई बंधन नहीं होता, किन्तु इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि ‘स्थायी’ की या तो पहली पंक्ति या अंतिम पंक्ति के समान उत्तरदायित्व की पंक्ति ‘अन्तरे’ के अंत में अवश्य हो। यह गेयता के लिए अत्यावश्यक है। इस ‘स्थायी’ को दोहराते समय कथन में निरन्तरता और सामंजस्य तभी बनता है।  

2- नवगीत में अंतरा प्राय: दो या तीन ही होते हैं किन्तु चार से अधिक अन्तरे की मान्यता नहीं है।

3- नवगीत में विषय, रस, भाव आदि का कोई बंधन नहीं होता। नवगीत में संक्षिप्तता, मार्मिकता, सहजता एवं सरलता, बेधक शक्ति का समन्वय एवं सामयिकता का होना अति आवश्यक है।

4- नवगीत में देशज प्रचलित क्षेत्रीय बोली के शब्दों का प्रयोग मान्य है और इससे कथ्य में नयापन और हराभरापन आ जाता है। एक नवगीत में कई देशज शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। नवगीत पर संप्रेषणीयता का संकट आ सकता है।

5- नवगीत में नवगीतकार आम आदमी, मेहनत एवं मजदूर वर्ग या सरल भाषा में कहा जाये तो सार्वजनिक सामाजिक भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है।

6- नवगीत में नये प्रयोग को प्रधानता दी जाती है और लीक से हटकर कुछ कहने का प्रयास होता है। यदि आप किसी नये छंद का गठन करते हैं तो यह नवगीत की विशेषता समझी जाती है।

7- नवगीत की भाषा सांकेतिक होती है और वह कम शब्दों में अधिक बात कहने की सामर्थ्य रखता है।

8- नई कविता में  पंत जी ने खुल गये छंद के बंद, प्रास के रजत पाश की घोषणा की लेकिन पूरी तरह छंद से मुक्ति की बात नहीं थी। छंदमुक्ति का अर्थ मुक्तछंद था छंदहीनता नहीं। नवगीत में छंद से मुक्ति की बात नहीं थी बल्कि कथ्य के दबाव में लय का ध्यान रखते हुए कभी कभी छंद के बंद को कुछ लचीला बनाया जा सकता है। 

नवगीत में भी गेयता भंग नहीं होनी चाहिए। अलंकार का प्रयोग मान्य तो है किन्तु वह कथ्य की सहज अभिव्क्ति में किसी तरह बाधक न हो। अलंकार का एक पैर आकाश में है तो दूसरा पैर जमीन की सतह से ऊपर नहीं होना चाहिए। नवगीत में भाषा, शिल्प, प्रतीक, शैली, रूपक, बिम्ब, कहन, कल्पना, मुहावरा, यथार्थ आदि कथ्य के सामाजिक सरोकारों में एक बड़े सहायक के रूप में खड़े होते हैं।

9- नवगीत नवगीत होता है और अपनी गेय क्षमता के कारण ही वह गीत हो सकता है अन्य किसी अर्थ में नहीं।

10- नवगीत कथ्य प्रधान होता है। नवगीत में समुद्र एक बूँद में समाहित होता है। बूँद ही एक समुद्र होती है। नवगीत में विस्तार नहीं होता है। अभिव्यक्ति की व्याख्या से विस्तार तक पहुँचा जा सकता है।

11- नवगीत तात्कालिक समय को लिखता है, उसमें सनातनता और पारम्परिकता का कोई स्थान नहीं है। नवगीत का उद्देश्य समाज के बाधक कारकों को और उत्पन्न स्थितियों को पहचानकर उन्हें समाज को बताना, इंगित करने के साथ उचित समाधान की ओर अग्रसर करना है। नवगीत काल की सापेक्षता है।

12- नवगीत में स्पष्टता का प्रभाव है। जो भी कहा जाए वह स्पष्ट हो, आम व्यक्ति भी उसे आसानी से समझ सके और भाषा का प्रयोग आम आदमी की समझ की हो। किसी शब्द का अर्थ समझने के लिए शब्दकोश का सहारा न लेना पड़े, तो अति उत्तम।

13- नवगीत में छांदस स्वतन्त्रता है। नवगीत का कार्य कोने में छिपी किसी अनछुई सामाजिक छुईमुई अनुभूति को समाज के समक्ष लाना है। 

      14-  नवगीत न मांसल सौन्दर्य की कविता है और न संयोग-वियोग की स्मृतियाँ। नवगीत प्रथम पुरुष के जीवन की उठा-पटक, उत्पीड़न, गरीबी, साधनहीनता के संघर्ष की अभिव्यक्ति है।

15 - नवगीत हृदय प्रधान, छन्दबद्ध, प्रेम और संघर्ष का काव्य है। नवगीत की यह एक विशेषता है कि वह छंदबद्ध होकर भी किसी छंदवाद की लक्ष्मणरेखा के घेरे से नहीं लिपटा है।

नवगीत लेखन में लिए निम्न बातों का ध्यान रखें-

१. संस्कृति व लोकतत्त्व का समावेश हो।

 २. तुकान्त की जगह लयात्मकता को प्रमुखता दें। 

३. नए प्रतीक व नए बिम्बों का प्रयोग करें।

 ४. दृष्टिकोण वैज्ञानिकता लिए हो। 

५. सकारात्मक सोच हो।

६. बात कहने का ढंग कुछ नया हो और जो कुछ कहें उसे प्रभावशाली ढंग से कहें। 

७. शब्द-भंडार जितना अधिक होगा नवगीत उतना अच्छा लिख सकेंगे।

 ८. नवगीत को छन्द के बंधन से मुक्त रखा गया है, परंतु लयात्मकता की पायल उसका श्रृंगार है, इसलिए लय को अवश्य ध्यान में रखकर लिखें और उस लय का पूरे नवगीत में निर्वाह करें। 

९. नवगीत लिखने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि प्रकृति का सूक्ष्मता के साथ निरीक्षण करें और जब स्वयं को प्रकृति का एक अंग मान लेगें तो लिखना सहज हो जाएगा।

  तो अब आपको कविता, गीत एवं नवगीत में अंतर स्पष्ट हो गया होगा, ऐसा विश्वास है....।

✍️ माहेश्वर तिवारी, 'हरसिंगार', बी/1-48,

नवीन नगर, मुरादाबाद 244001

1 टिप्पणी:

  1. नवगीत लेखन में सहायक होता ये आलेख नवोदित नवगीतकारों का समुचित मार्गदर्शन करेगा दादा माहेश्वर तिवारी जी का स्वानुभव सदैव ही स
    वागतेय है ,सादर प्रणाम

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