साधना ही सतत साथ चलती रही
भावना तो भृमित नित्य करती रही
मौन का मंत्र देती रही वेदना
छाँव बनकर सदा संग रहती रही
देव चरणों में चढ़ कर स्वयं धन्य हो
एक कलिका ह्रदय भाव भरती रही
चाँद के दर्श हित सज गई है निशा
रात जोगिन बनी और ढलती रही
वायु के पँख ले उड़ चली कल्पना
नील नभ में अकेली विचरती रही
✍️ डॉ प्रेमवती उपाध्याय, मुरादाबाद
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ओ सावन के मेघ बरस जा
प्यासा जन मन सारा है
सूरज कि गर्मी के आगे
शोख़ पवन भी हारा है
कल तक जिससे बगिया महकी
फूल वही मुरझाया है
पीड़ा का सागर भीतर तक
तन मन मैं गहराया है
यह जीवन तो क्षण भंगुर है
ज्यों बिखरा सा पारा है
आस लिये बूंदों की चातक
आसमान को ताक रहा
साथ समय के क्या कुछ बदला
यह सच्चाई आंक रहा
आँसू का भी मोल नहीं अब
पानी बस ये खारा है
इच्छाएं सिर उठा रही हैं
नये नये आकारों में
जीवन मूल्य बिके हैं अब तो
आयातित बाज़ारों में
झूठ कपट से घिरा हुआ ये
अभिमन्यु बेचारा है
✍️ डॉ पूनम बंसल, मुरादाबाद
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खुशहालपुर गाँव के
उस छोर पर
झोपड़ी नुमा मकान में
एक दीप जल रहा था।
दरिद्रता का प्रकोप
झिलमिलाते दीप की
रोशनी में
स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था।
काम करती बुढ़िया की
थकी - झुकी कमर
जाड़ों की रात में
ठंड से कांपती हुई
मेरे मस्तिष्क में
एक सिरहन की भांति
कौंध गई, तभी
मैनें सुना
एक बच्चा कह रहा था
माँ-माँ
लोकतंत्र क्या होता है ?
माँ ने यह सुन
बच्चे को कलेजे से
लगाकर,पुचकार कर
एक लम्बी सांस ली
और
अपने उंगलियों के पोरवे दीपक की
लौ पर रख दिये
तब
छा गया अंधकार
शेष रह गया,
उनके जीवन की भांति,
शून्य में तैरता
दीपक का धुआं ।।
✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद
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जिन्दगी से दर्द ये जाता नहीं
और अपना चैन से नाता नहीं।
आस की कोई किरण दिखती नहीं।
बेबसी में कुछ कहा जाता नहीं।।
जिन्दगी मजदूर की देखो जरा
दो घड़ी भी चैन वो पाता नहीं।।
रात दिन खटता है रोटी के लिये।
माल फोकट का कभी खाता नहीं।।
सत्य की जो राह पर चलने लगा,
साजिशों के भय से घबराता नहीं।।
काम आयेगी न ये दौलत तेरी,
मौत का धन से तनिक नाता नहीं।।
वो कहाँ किस हाल में है क्या पता,
यार की कोई खबर लाता नहीं।।
कृष्ण जय जयकार के इस शोर से
झुग्गियों का शोर टकराता नहीं।।
✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद
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तिरंगा शान से यूं ही,
सदा सरहद पे लहराए ।
वतन के वास्ते जी लें,
वतन पर ही ये जां जाये।
मिटी झांसी की रानी ,
लक्ष्मीबाई आन की खातिर।
किया सर्वस्व न्योछावर,
न राणा ने झुकाया सर।।
काफिले उन शहीदों के,
हैं कितने काम में आये।।
तिरंगा शान से यूं ही,
सदा सरहद पे लहराये ।।
कि मन चित्तौड़ में अग्नि ,
अभी यूं ही धधकती है।
हजारों पद्मिनियों की चीख,
क्रंदन बन सुलगती हैं ।
सजग प्रहरी बनें हम सब,
न मां पर आंच फिर आये ।।
तिरंगा शान से यूं ही,
सदा सरहद पे लहराये ।।
हुए घर में ही परदेसी,
यहां वादी के वाशिंदे ।
था गूंगा बहरा शासन और,
थे सारे भ्रष्ट कारिंदे।।
मगर दृढ़ता पराक्रम ने,
सभी वे प्रश्न सुलझाये।
तिरंगा शान से यूं ही ,
सदा सरहद पे लहराए ।
नहीं कश्मीर और बंगाल में,
फिर खून खच्चर हो।
न हों बेशर्म आंखें और,
छुपे दामन में खंजर हों।।
न खा कर अन्न जल हम,
राष्ट्र का मक्कार हो जायें।।
तिरंगा शान से यूं ही ,
सदा सरहद पे लहराए।।
विविध धर्मों का,पंथों का,
ये प्यारा देश है भारत ।।
भले हों धर्म नाना पर ,
सभी को इसकी है चाहत।
नहीं गद्दार हरगिज अब,
कहीं कोई नज़र आये।
तिरंगा शान सेयूं ही ,
सदा सरहद पे लहराए ।
वतन के बास्ते जी लें,
वतन पर ही ये जां जाये।
✍️ अशोक विद्रोही , 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद
मोबाइल फोन नम्बर 82 188 25 541
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सावन भादो तुम जरा , बरसो दिल के गाँव
तपन जरा इसकी हरो , बादल की दो छाँव
अश्कों ने बहकर हरे, थोड़े दिल के दर्द
तुम भी आ खेलो जरा , खुशियों के कुछ दाँव।।
है धरा प्यासी बुझा दे तू जरा सी प्यास।
सींच दे आकर फसल हलधर लगाये आस।
भीग जायें सुन हमारे गीत के भी बोल,
ऐ घटा ऐसे बरस,दिल में रचा दे रास।।
✍️ डॉ अर्चना गुप्ता, मुरादाबाद
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नफ़रतों के हमको फिर मंज़र नज़र आने लगे ।
रंजो गम के फिर नए मौसम नज़र आने लगे ।
दाग़ दामन के छुपाकर सामने वो आ गए ।
कल के रहज़न अब हमें रहबर नज़र आने लगे ।।
का़तिलों और जा़लिमों की सफ़ में था जिनका शुमार ।
इस नए मौसम में वो रहबर नज़र आने लगे ।।
फिर से लहजे में मोहब्बत की कमी होने लगी ।
फिर से रंजो ग़म के वो मौसम नज़र आने लगे ।।
हर कोई अपनी ही धुन में मस्त है अब दोस्तों ।
अब तो दिन में ही हमें मैकश नज़र आने लगे ।।महफिलें सजने लगीं शामो सहर हर गांव में ।
अब गरीबी मिटने के अवसर नज़र आने लगे ।।
सांप सारे बंद थे अपने बिलों में खौ़फ़ से ।
बीन की आवाज़ पर बाहर नज़र आने लगे ।।
दोस्तों को जो समझते थे फ़क़त़ अपना जहां ।
उनको अपने दोस्त अब दुश्मन नज़र आने लगे ।।
अब मुजाहिद तंग दिल दुनिया से ही उकता गया ।
ख़ून के रिश्ते उसे रसमी नज़र आने लगे ।।
✍️ मुजाहिद चौधरी , हसनपुर, अमरोहा
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(1)
सुन रहे यह साल आदमखोर है
हर तरफ चीख, दहशत, शोर है
मत कहो वायरस जहरीला बहुत
इंसान ही आजकल कमजोर है
(2)
मौतों का सिलसिला जारी है
व्यवस्था की कैसी ये लाचारी है
आप शोक संदेश पढ़ते रहिये
आपकी इतनी ही जिम्मेदारी है
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी , 8,जीलाल स्ट्रीट, मुरादाबाद 244001, उत्तर प्रदेश ,भारत
मोबाइल नंबर 945 6687 822
Sahityikmoradabad.blogspot.com
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अनसुलझे हैं रोज़गार के
बेबस प्रश्न तमाम
लुभा रहा है बेशक कब से
सपनों का बाज़ार
कामयाब हो लेकिन कैसे
कर्ज़े से व्यापार
इसी गणित को हल करने में
हुई सुबह से शाम
नौकरियों के आकर्षण का
अपना अलग तिलिस्म
जिसके सम्मुख नतमस्तक है
दिल-दिमाग़ सँग जिस्म
निष्कलंक ही बचे कहाँ अब
कम्प्टीशन एक्ज़ाम
यह है कोई खेल समय का
या फिर यह प्रारब्ध
खेतों में सपने बो कर भी
हुआ न कुछ उपलब्ध
मंडी में भी उम्मीदों का
मिला न एक छदाम
✍️ योगेन्द्र वर्मा 'व्योम', मुरादाबाद
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दंतकथा से लग रहे, झूले-गीत बहार।
बहुत अकेली हो गयी, सावन की बौछार।।
मेघयान पर प्रेम से, होकर पुनः सवार।
भू माता से भेंट को, आये सलिल कुमार।।
सम्मुख मेरे आज भी, संकट खड़े अनेक।
लेकिन दुनियां देख ले, मैं भारत हूँ एक।।
क्या संवेदनशीलता, कैसा शिष्टाचार।
लाश-सियासत-रोटियाँ, तिकड़ी सदाबहार।।
मैं भी पनघट से चली, लेकर तेरा नाम।
मटकी मेरी फोड़ दे, तब जानूँ हे श्याम।।
भूख-प्यास में घुल गये, जिस काया के रोग।
उसके मिटने पर लगे, पूरे छप्पन भोग।।
बेबस भीखू को मिली, कैसी यह सौग़ात।
दीवारों से कर रहा, अपने मन की बात।।
जन्म-मरण के खेल में, बैठा बिल्कुल मौन।
पासे दोनों ओर से, फेंक रहा है कौन।।
प्यारी कजरी साथ में, यह रिमझिम बौछार।
दोनों मिलकर कर रहीं, सावन का शृंगार।।
✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
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अायी आयी मोर नगरिया
झूठ बोलती एक बदरिया
गड़ गड़ कहती थी बरसूँगी
नहीं बरसी वो इह डगरिया ।
छायी बनकर घुँघराली सी
लगती कितनी मतवाली सी
कजरारे से नयन दिखाकर
सज घजकर वह चली सँवरिया ।
जन जन में है आस जगायी
पानी अंजुली भर न लायी
सभी को मानो मुँह चिड़ाकर
संग मेघ के उड़ी बदरिया ।
✍️ डॉ रीता सिंह, मुरादाबाद
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सारी कर लीं कोशिशें हैं घर चलाने के लिए।
कर लिया हर टोटका उसको मनाने के लिए।
जिद्द से अपनी पर ना इक पग भी वो हिल पायगा,
हरकतें सारी हैं उसकी घर जलाने के लिए।
बन्धनों में हाथ जकड़े,सिल दिया है मुँह को,
घुट रहा है दम यूँ मेरा, कुछ बचाने के लिए।
कैद मन-लाचार उलझा, माँगता आजादी है
मन का पंछी फडफ़ड़ाता,पर फैलाने के लिए।
जख्म पर मलते नमक,मरहम कहां मिलता कभी,
वैसे तो दुनिया भरी बातें बनाने के लिए।
✍️ इन्दु रानी, मुरादाबाद
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विश्व गुरु फिर से बन जाये अपना भारत देश।
मिलजुल कर प्रयास करें हम चाहे रहें विदेश।।
सारे जग को ज्ञान दीप भारत ने दिखलाया।
होकर सभ्य सामाजिक बनना सबको सिखलाया।।
सँस्कृत से उपजी हैं जग की सारी भाषाएँ।
बोली उप बोली सारी हैं इसकी ही शाखाएँ।।
भारत के भोजन से जग में नहीं कहीं भी स्वाद।
भारत के परिधानों का भी नहीं कहीं भी भेद।।
भारत भूमि में देवों ने लिए कई अवतार।
भारत के वेदों में ही है जीवन का सब सार।।
भारत भूमि के चरणों की रज सागर लेता है।
मस्तक पर हिमशिखर हिमालय मुकुट सजा देता है।।
भारत भूमि को करते हैं नमन सभी ज्ञानी।
विश्व गुरु भारत भूमि का नहीं कोई सानी।।
आओ नमन करें हम इसको ये भारत माता है।
गर्व हमें है अपना इस पावन भूमि से नाता है।।
सदा ज्ञान गङ्गा बहती है होते सत्संग भोज।
ज्ञान की इस भारत भूमि को नमन करें हर रोज।।
आओ फिर से विश्व गुरु भारत को बनाएं हम।
भेद-भाव आपस के भुलाकर साथ निभाएं हम।।
✍️ नृपेंद्र शर्मा, ठाकुरद्वारा मुरादाबाद, उत्तरप्रदेश 244601, मोबाइल 9045548008
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क्यों धर्म और मज़हब की राजनीति भाईचारा तार-तार करती है,
क्यों गीता और कुरान की राजनीति ज्ञान पर प्रहार करती है,
आंखों से देखा तो लहू का रंग एक था,
रूप रंग बनावट में कोई न भेद था,
फिर न जाने क्यों ज्ञान पर प्रहार करती है,
क्यों धर्म और मज़हब की राजनीति मित्रता में शत्रुता का निर्माण करती है,
✍️ प्रशान्त मिश्र, राम गंगा विहार, मुरादाबाद
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भीगी आँखो की कतारे तुम्हारे लिए..
बजे दिल के इकतारे तुम्हारे लिए,
प्रेम तुझसे हुआ है मेरी प्रियतमा,
बजे ह्रदय की वीणा तुम्हारे लिए..
प्रीति की ज्योति को ह्रदय मेँ जला,
गीत लिखने लगा मैँ तुम्हारे लिए..
सूरज निकलने से पहले सांझ ढलने से पहले,
मैं तुम्हारे लिए हूँ सिर्फ तुम्हारे लिए,
✍️ इशांत शर्मा, मुरादाबाद
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बोझ जीवन का हंस कर उठाते रहो
गर्दीशों से निगाहें मिलाते रहो
मंजिले तुमको देती रहेंगी दुआ
राह से पत्थरों को हटाते रहो
चाहतों के दिलों में खिलेंगे सुमन
प्यार का पाठ सबको पढ़ाते रहो
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सवालों की नुमाइश हो जिसका चेहरा
सांसों पर हो समाज का पहरा
लिपिस्टिक का रंग पल में हो फीका
कोई न समझे उसके जी का
इंद्रधनुषी कपड़ो में सब अधूरा है
सीमा रेखाओं में केवल मन पूरा है
अजीब है पैसे से दुआएं बेचता है
तालियों की गूंज में खुद को सहेजता है
चुप्पियां जब,किताबें भी ओहपोह में हो
ये स्त्रीलिंग या पुलिंग किस श्रेणी में हो
रात की चादर भी सिलवटो में तन से
ना चिपकती है ना छूती है मन से
घुंघुरू बिछुवा साड़ी....कोई नहीं इनका
अपनों से भी रिश्ता नहीं हो जिनका
अलग अलग नजरों से ताक झांक होता है
बिन हल हुए ये सवालों में रोता है
पौरुष भी है इनमें ममता भी है
तेज है, शौर्य है,इनमें क्षमता भी है
पुरुष केवल पुरुष है
स्त्री केवल स्त्री है
एक यही है जो दोनों में विद्दमान है
इनका ये गुण ही सबसे महान है
ये ना होकर भी हममें साथ रहते हैं
अलग होकर भी हमारे अंदर बसते हैं...
✍🏻 प्रवीण राही, संपर्क सूत्र 8860213526
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बाहर से जिंदा हूँ, अंदर से मर रहा हूँ,
फ़र्ज़ दोस्ती का अदा कर रहा हूँ।
गम मिल रहे हैं मिलते ही रहेंगे,
खुशियों को खुद से जुदा कर रहा हूँ।।
✍️ संजीव आकांक्षी, मुरादाबाद
::::::::प्रस्तुति:::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नम्बर 9456687822