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गुरुवार, 22 अगस्त 2024
सोमवार, 19 अगस्त 2024
मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी का गीत ....भैया के होते बहना की, निज शान नहीं घट सकती है
भैया के होते बहना की,
निज शान नहीं घट सकती है,
राखी के स्वर्णिम धागों की,
भी आन नहीं घट सकती है।
तेरे सुन्दरतम सपनों की,
परवान नहीं घट सकती है,
बहना-भैया के रिश्तों की,
पहचान नहीं घट सकती है!
राखी बन्धन के गीतों की,
मृदु तान नहीं घट सकती है,
भैया के सम्मुख बहना. की,
मुस्कान नहीं घट सकती है!
हो सहोदरा या मुंह बोली,
बहना तो बहना होती है,
बहना के प्रति सद्भावों की,
भी खान नहीं घट सकती है!
बहना के बिन भैया कैसा,
कैसी भैया के बिन बहना,
सन्तुलन साधने लेष कोई,
सन्तान नहीं घट सकती है!
✍️वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9719275453
मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज वर्मा मनु का गीत.... भाई-बहन की प्रीत का दर्पण रक्षाबंधन का त्यौहार .....
कितना निर्मल कितना पावन,
रक्षाबंधन का त्यौहार,
भाई-बहन की प्रीत का दर्पण
रक्षाबंधन का त्यौहार,,
कब से रीत चली दुनिया में,
इस पावन त्यौहार की,
इतने कच्चे धागे द्वारा,
इतने पक्के प्यार की
युग युग का इतिहास पुरातन,
रक्षाबंधन का त्योहार,
कितना निर्मल कितना पावन,
रक्षाबंधन का त्योहार..
दानवेंद्र बलि से प्रसन्न हरि,
जब वैकुंठ नहीं आए,
माँ लक्ष्मी ने सूत्र बांध,
श्री हरि बलि से वापस पाए,
तभी से मनता यह मनभावन,
रक्षाबंधन का त्योहार,
कितना निर्मल कितना पावन,
रक्षाबंधन का त्यौहार..
भाई जब अपनी कलाई पे,
रक्षा सूत्र बंधाता है ,
रहते प्राण बहन की रक्षा ,
के प्रण को दोहराता है,,
करने आता रिश्ते पावन,
रक्षाबंधन का त्योहार,,
कितना निर्मल कितना पावन,
रक्षाबंधन का त्यौहार,, !
✍️ मनोज वर्मा 'मनु
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी के ग़ज़ल संग्रह “धूप पर कुहरा बुना है" की प्रयागराज के साहित्यकार यश मालवीय द्वारा लिखी भूमिका.....आप माचिस की कोई तीली जलाकर देखिए । यह संग्रह श्वेतवर्णा प्रकाशन,नई दिल्ली ने वर्ष 2024 में प्रकाशित किया है।
अभी-अभी हिन्दी नवगीतों का एक भरा-पूरा प्रतिमान रचकर माहेश्वर तिवारी जी नेपथ्य में गए हैं। अभी उनके बहुत कुछ लिखे हुए की स्याही भी नहीं सूखी है। उनकी सागर मुद्राएँ याद आ रही हैं और याद आ रहा है निर्मल नदी का झरना। आत्मा का अनंत उजास याद आ रहा है। सिर पर धवलकेशी बर्फ़ सजाए हिन्दी की गीत कविता का यह पर्वत क्या कभी भुलाया जा सकेगा? अपनी सज-धज में वह एकदम कविवर सुमित्रानंदन पंत जैसे दिखने लगे थे। वैसा ही बालसुलभ अंतर्मन को भिगो देने वाला व्यवहार और वैसा ही सराबोर कर देने वाला वात्सल्य। मैं और योगेंद्र वर्मा व्योम तो उनके बेटे जैसे ही रहे, उनकी दुआओं की बारिश में तर-ब-तर रहे।
माहेश्वर जी बड़ी संजीदगी के साथ नवगीत की सर्जना करते हुए, ख़ामोशी पहने ग़ज़लें भी कहते रहे। ये ग़ज़लें उनके नवगीतों के महासागर में उग आए नन्हे-नन्हे द्वीपों जैसी हैं और हैरत में डालती हैं। भरपूर कथ्य, सामाजिक और मानवीय सरोकार, संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन से लबरेज़ यह ग़ज़लें अपने शिल्प में भी अद्भुत रूप से कसी हुई हैं। कथ्य के गहरे दबाव के बाद भी उन्होंने कहीं भी शिल्प से समझौता नहीं किया है, बल्कि उसके व्याकरण की तह में भी उतरे हैं। यह सब कुछ इसलिए हो पाया क्योंकि अधिकांश नवगीतकारों की तरह वो किसी फैशन के तहत ग़ज़लें नहीं कह रहे थे। उन्हें इन ग़ज़लों को प्रकाश में लाने की न कोई हड़बड़ी थी और न ही अधैर्य। वो इन ग़ज़लों को मद्धिम आँच में, बहुत धीरज के साथ पका रहे थे। उन्हें इनसे मंच भी नहीं लूटना था, इस काम के लिए उनके गीत ही काफ़ी थे। उन्हें यह अच्छी तरह से मालूम था कि जिस शहर में रहकर वो रचनाकर्म कर रहे हैं, वहाँ शायरे आजम जिगर मुरादाबादी भी क़याम करते थे।
कैसी प्यारी-सी बात है, आज मुरादाबाद अगर जिगर मुरादाबादी के नाम से जाना जाता है, तो माहेश्वर तिवारी भी उसकी पहचान से जुड़ते हैं। वो इस शहर के पर्याय भी हो गए थे। मुरादाबाद का नाम आने के साथ उँगली के पोरों पर सबसे पहला नाम माहेश्वर जी का ही आता है। यह बात एक बार फिर प्रमाणित हो गई, उनके महाप्रयाण से। पूरा शहर ही विह्वल हो उठा था उनके जाने पर। गलियाँ, सड़कें तक उदास लग रही थीं। समाचारपत्रों के पृष्ठ के पृष्ठ रंग उठे थे। टी.वी. चैनल, दूरदर्शन, रेडियो सभी पर माहेश्वर जी का रेशमी लेकिन मेघमंद्र स्वर गूँज रहा था। सारा शहर बिलख रहा था अपने इस लाडले कवि को खोकर। ऐसा तो होना ही था, निराला का वंशज, नवगीत का अधिष्ठाता, एक बड़ा अनुगायक मौन हो गया था, वाणी का वरदपुत्र शांत हो गया था। पीतलनगरी का स्वर्णकलश समय के जल में तिरोहित हो, कण-कण में व्याप्त हो गया था।
माहेश्वर जी जीवन भर घूमते ही रहे, कहते थे कि कवि तो आप अपने कमरे में बैठकर भी हो सकते हैं, पर छंद की कविता के लिए आपको जंगल, नदी, तालाब, पर्वत, समंदर, मरुस्थल हर जगह की आवारगी करनी होती है। स्वयं माहेश्वर जी बस्ती, इलाहाबाद, गोरखपुर, बनारस, विदिशा, होशंगाबाद होते हुए मुरादाबाद पहुँचे थे। बहुत दिनों तक उनका पता शनीचरा, होशंगाबाद वाला विनोद निगम का जो पता था, वही पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहा। वहाँ वह भवानीप्रसाद मिश्र, शलभश्रीराम सिंह, विजयबहादुर सिंह सरीखों के अन्यतम रहे। इसी बीच उनका अपने उपनाम शलभ से मोहभंग हुआ और उन्होंने उसे त्याग दिया। कवि सम्मेलनों में वो छंद की अलख जगाते रहे। पत्र-पत्रिकाओं और काव्य मंचों के बीच आवाजाही करते रहे, एक पुल की तरह ही झूलते रहे। धर्मयुग के पृष्ठों से लेकर कविता के मंचों तक उनकी धूम रही। कवि सम्मेलनों और गंगाजमुनी मुशायरों के लिए हमेशा उनकी अटैची तैयार रहती थी। शायद इसीलिए कैलाश गौतम उन्हें हिन्दी कविता का राहुल सांकृत्यायन कहा करते थे।
माहेश्वर जी अपने नवगीतों के साथ समानांतर रूप से लगातार ग़ज़लें भी कहते रहे थे। एक दिन में ही तो ये इक्यानवे ग़ज़लें हो नहीं गईं। उनके लिए हमेशा कथ्य महत्वपूर्ण रहा, फार्म भले ही कोई हो लेकिन वह समय नवगीत की स्थापना का समय था और वो फोकस भी उसी पर रखना चाह रहे थे। एक रचनाकार की छटपटाहट के चलते बस वो ग़ज़लें भी कह कहकर चुपचाप सँजोते जा रहे थे। नवगीत की स्थापना और इस विधा विशेष में अपनी सिद्धि के बाद इधर के दिनों में उन्हें लगने लगा था कि अब वो सारी ग़ज़लें भी आ ही जाएँ। बीच-बीच में मैं भी ग़ज़लें कहता था और उन्हें सुनाकर संतुष्ट हो जाता था। एक बार उन्होंने कहा था कि देखो पिचकारी दो तरह की होती है, एक तो बड़े से छिद्र वाली होती है, जिससे धार के साथ रंग निकलते हैं और एक होती है, जिसमें कई छिद्र होते हैं, उससे फुहार की शक्ल में रंग निकलते हैं। अब ये तुम्हें तय करना है कि धार बनना है कि फुहार बनकर बिखर जाना है। कितनी क़ीमती बात थी यह। वो अपने संदर्भ में भी जब नवगीत की पूरी तरह से धार बन गए तो फिर सहज ही उनका ध्यान धारदार कही गई अपनी ग़ज़लों की तरफ़ गया।
माहेश्वर जी की सृजनात्मक अनिवार्यता रही, उनकी सहधर्मिणी बालसुंदरी जी। शिव-पार्वती समान दंपति का साहित्य और संगीत का मणिकांचन योग रहा। नवगीतों की ही तरह ग़ज़लों की प्रेरणा भी बालसुंदरी जी ही रहीं। अक्सर वो ही माहेश्वर जी की रचनाओं की प्रथम श्रोता हुआ करती थीं। बहरहाल! अब उन्हें इन ग़ज़लों के माध्यम से नए सिरे से जानना, अनुभव करना और जीना एक नितान्त भिन्न आस्वाद दे रहा है। इन ग़ज़लों में प्रखर राजनैतिक तेवर के साथ, गहरी सामाजिक चिंताओं का निरूपण आंदोलित-उद्वेलित कर रहा है। हताशाओं-निराशाओं के बीच भी कवि उम्मीद की टिमटिमाती हुई लौ जगाए रखता है। उनकी बेहद मक़बूल हुई इस ग़ज़ल का मतला और यह शेर देखिए-
सिर्फ़ तिनके-सा न दाँतों में दबाकर देखिए
इस सदी का गीत हूँ मैं गुनगुनाकर देखिए
एक हरकत पर अँधेरा काँप जाएगा अभी
आप माचिस की कोई तीली जलाकर देखिए
वास्तव में माहेश्वर जी इस सदी का गीत ही हैं और अब इस ग़ज़ल संग्रह के मंज़रे-आम पर आने के बाद यह भी बेझिझक कहा जा सकता है कि इस सदी की ग़ज़ल भी उनकी क़लम में पनाह माँगती है। एक जुझारू आवाज़, एक लड़ती हुई रचना-भंगिमा ही उनकी सर्जना का सच है। एक तरफ़ यह आक्रामक तेवर है तो दूसरी तरफ़ सांद्र संवेदना की यह विरल अभिव्यक्ति भी है, सरापा ग़ज़ल ही मन की शाखें हिलाकर रख देती है-
आप भी क्या गए दिन अँधेरे हुए
काम जो थे सवेरे-सवेरे हुए
टूटती थी हमीं पर सभी बिजलियाँ
डाल के फूल-पत्ते लुटेरे हुए
रेत पर तिलमिलाती रही देर तक
याद मछली हुई दिन मछेरे हुए
एक तिनका हवा में उड़ा देर तक
रात वीरानियों में बसेरे हुए
शाम तक होंठ में बंद थीं हिचकियाँ
चाँद-तारे सवालात मेरे हुए
माहेश्वर जी के जाने से सचमुच लग रहा है जैसे दिन अँधेरे हुए लेकिन इसी भारी समय में उनके ग़ज़ल संग्रह के प्रकाशन से यह भी महसूस हो रहा है कि दबे पैरों से उजाला आ रहा है और यह भी लग रहा है जैसे तीन सवा तीन महीनों की लम्बी यात्रा से जैसे वो घर लौट रहे हैं, फूल फिर कनेरों में आ रहे हैं। नवगीतों की बिंबधर्मिता से अलग है, इन ग़ज़लों का सीधा संवाद, वैसे रेत और मछली उनके मन के बहुत करीब के बिम्ब हैं, उनके गीत का एक मुखड़ा भी याद आता है-
रेत के स्वप्न आते रहे
और हम मछलियों की तरह
नींद में छटपटाते रहे
यह सब लिखते हुए उनकी याद भी मछली हुई जा रही है। पिता उमाकांत मालवीय के जाने के बाद, माहेश्वर जी का जाना, मेरे लिए दुबारा अनाथ होने जैसा है। माहेश्वर जी के रचनाकर्म में घूम फिर कर घर आता है, अपने एक नवगीत में वो कहते हैं- ‘धूप में जब भी जले हैं पाँव, घर की याद आई’, तो ग़ज़ल में कहते हैं-
बैठे हुए नक्शे में नगर ढूँढ रहे हैं
इस दौर में हम अपना ही घर ढूँढ रहे हैं
मकते तक आते आते यह ग़ज़ल और भी मार्मिक हो उठती है, जब वो कहते हैं-
जंगल को जलाया था जिन्होंने वही सब लोग
अब झुलसी हुई चिड़िया के पर ढूँढ रहे हैं
माहेश्वर जी की ग़ज़लों में ढूँढे से भी यथार्थ का सरलीकरण नहीं मिलता, अलबत्ता वो जटिल अनुभूतियों की सरल अभिव्यक्ति ही देते आए हैं। अपने सर्जक के प्रति प्रारम्भ से ही एक वीतराग उनमें लक्षित किया जा सकता है। एक ग़ज़लगो के रूप में उन्हें देखना एक सुखद एहसास से भर देता है, अपने नवगीतकार की छाया वो अपने ग़ज़लकार पर नहीं पड़ने देते। जब वो नवगीत रचते हैं तो नवगीत रचते हैं और जब ग़ज़ल कहते हैं तो बस ग़ज़ल कहते हैं। अधिकतर नवगीतकारों की तरह वो ग़ज़ल में नवगीत नहीं रचते। अपना रचना शिल्प ही तोड़ते चलते हैं। किसी कवि के लिए अपना खांचा और सांचा तोड़ना ही बहुत दुश्वार होता है।
माहेश्वर जी ने यह काम बख़ूबी किया है। एक फ़क़ीराना ठाठ और ठेठ कवि की ठसक उनमें क्रमशः गहराती चली गई है। भाषा में एक सधुक्कड़ी मिज़ाज आता चला गया है। एक जेनुइन रचनाकार की परिभाषा अगर देनी हो तो माहेश्वर जी का नाम ही ले लेना काफ़ी होगा। वो सिर से पाँव तक कवि थे। एक कवि को कैसा लिखना चाहिए और कैसा दिखना चाहिए, इन दोनों मामलों में वो अपने आप में एक नज़ीर थे। उन्हें कोई एक नज़र देखकर ही कवि समझ लेता था, हालांकि उन्होंने कभी कवि होने का लाइसेंस नहीं लिया। वो जन्मना कवि थे। कविता ही ओढ़ते-बिछाते थे। छंदों की नई-नई गलियाँ अन्वेषित करते थे। जिस तरह उन्होंने अपने नवगीतों में छंदों के विविध प्रयोग किए हैं, उसी तरह अपनी ग़ज़लों में छोटी बड़ी-कई तरह की बहरों का इस्तेमाल किया। उनकी ग़ज़लों में रदीफें पूरी तरह से चस्पा होकर आती हैं, कहीं भी हैंग नहीं करतीं, तिलभर भी लटकती नहीं, उनका अपना जस्टिफिकेशन होता है। तुक या काफ़िए भी पूरे तर्क के साथ मौजूद मिलते हैं, तभी तो उनकी ग़ज़लों का अपना एक मुहावरा बन पाया है, वो कहते हैं-
हमको बातों से बहलाना मुश्किल है
निहुरे निहुरे ऊँट चुराना मुश्किल है
समझ गए हम क्या होता है सूरज का
हमको जगनू से बहलाना मुश्किल है
यह उस्तादना रंग संग्रह की बेशतर ग़ज़लों में है, जहाँ वह समय की एक कुशल चिकित्सक की तरह शल्य क्रिया कर रहे होते हैं, पड़ताल कर रहे होते हैं दुनिया जहान की और कविता और जीवन के बीच की खाई पाट रहे होते हैं, जीवन और जगत को नए अर्थ दे रहे होते हैं। ऐसी ही सघन अर्थवत्ता से जुड़े, उनकी ग़ज़लों के कुछ ख़ास शेर इस तरह से हैं-
भर गई है आँख रो लें हम चलो
घाव सारे आज धो लें हम चलो
आँधियों की जाँघ पर दो पल ज़रा
सिर टिकाए आज सो लें हम चलो
चिड़िया भी उनके गीतों और ग़ज़लों में रह रहकर फेरा लगाती है, यह मार्मिक शेर देखें -
ख़ून आँखों में भर गई चिड़िया
काम चुपचाप कर गई चिड़िया
फिर किसी हुक्मरां के पाँवों में
कार से दब के मर गई चिड़िया
और यह बेकली भी काबिले गौर है-
हर ओर सुलगते हुए अंगारे बिछे हैं
कोई तो मिले पानी के बरताव का हामी
तेंदुआ रदीफ़ से सजी इस ग़ज़ल का विलक्षण मतला और यह दो शेर भी देखें। पूरी ग़ज़ल, ग़ज़ल क्या एक मुकम्मल पेंटिंग है-
सरसराहट घास की पहचानता है तेंदुआ
और इकदम जिस्म अपना तानता है तेंदुआ
घनी झाड़ी में कहीं चुपचाप दुबका हो मगर
तेज़ चौकन्नी निगाहें छानता है तेंदुआ
किस तरह छिपकर कहाँ किसको दबोचा जाएगा
यह बहुत अच्छी तरह से जानता है तेंदुआ
यह कमाल अपने एक नवगीत में भी माहेश्वर जी ने पूरी शिद्दत के साथ अंजाम दिया है, वो कहते हैं-
अगले घुटने मोड़े
झाग उगलते घोड़े
जबड़ों में कसती वल्गाएँ हैं, मैं हूँ
भोपाल के नवगीत समारोह में स्वयं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कलाकार स्वामीनाथन जी ने इन पंक्तियों को एक ख़ूबसूरत पेंटिंग की संज्ञा दी थी।
निश्चित ही उनकी ग़ज़लों के संग्रह का प्रकाशन एक बड़ी परिघटना है और समकालीन ग़ज़ल विधा में एक बड़ा इज़ाफ़ा है। अफसोस कि यह कारनामा देखने के लिए स्वयं माहेश्वर जी ही अब हमारे बीच नहीं हैं। बावजूद इस तकलीफ़ के मैं प्रसिद्ध कथालेखिका कृष्णा सोबती के इस कथन पर गहरा यक़ीन रखता हूँ, जिसमें वह कहती हैं कि ‘लेखक की एक ज़िन्दगी उसकी मौत के बाद शुरू होती है।’ माहेश्वर तिवारी इस ग़ज़ल संग्रह के माध्यम से जैसे फिर हमारे बीच लौट रहे हैं, नए सिरे से ज़िन्दा हो रहे हैं। अभी तो बस यही लगता है कि कल ही शाम तो उनका फोन आया था, पूछ रहे थे- बेटा कैसे हो ? अहमद फराज़ का एक शेर बहुत देर से ज़ेहन पर दस्तक दे रहा है-
दिल धड़कने की सदा आती है गाहे-गाहे
जैसे अब भी तेरी आवाज़ मेरे कान में है
✍️ यश मालवीय
‘रामेश्वरम’
ए-111, मेंहदौरी कॉलोनी,
प्रयागराज- 211004, उ0प्र0
मोबाइल- 6307557229
रविवार, 18 अगस्त 2024
मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का आत्मकथात्मक संस्मरण (3).... यहीं से शुरू होती है आगे की कहानी
जनता राष्ट्रीय विद्यालय, सतूपुरा में अध्ययन रत मैं सन् 1966 में आठवीं कक्षा पास करके नवीं में पहुँच गया था। अब तक कुछ सहपाठी मित्र भी बन चुके थे।यह स्वाभाविक भी था, सबके साथ होता है। मेरे साथ भी हुआ। मेरी कक्षा के धर्मदेव त्यागी और मेरी गाढ़ी मित्रता हो गई थी। कभी वह मेरे साथ मेरे गाँव आ जाते थे और कभी मैं उनके साथ उनके गाँव चला जाता था।मेरा गाँव विद्यालय से पूर्व दिशा में पाँच-छ: किमी की दूरी पर स्थित है, "ततारपुर रोड" और मित्र धर्मदेव का गाँव चकिया विद्यालय से पाँच-छ: किमी की दूरी पर पश्चिम दिशा में स्थित है।उस समय हम लोगों का विद्यालय जाने का मतलब था, दस-बारह किमी की नियमित पदयात्रा। हम विद्यार्थियों का वही अच्छा-खासा व्यायाम हो जाता था। लेकिन आज ? आज आवागमन के साधन गाँव-गाँव पहुँच गए हैं। आज के बालकों को पढ़ने के लिए हमारे जैसा व्यायाम करने का अवसर कहाँ मिल पाता है। वैसे भी दुनिया बदल गई है और सुविधाओं के अंबार लग गए हैं।
अस्तु! एक दिन मैं धर्मदेव के साथ उनके गाँव चकिया चला गया। उनके गाँव में नट आए हुए थे।उन दिनों बहुत सी घुमंतू जातियाँ देश के अन्य प्रदेशों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँव-गाँव आकर जीवकोपार्जन हेतु अस्थाई रूप से बस जाती थीं। बरसात के दिनों में ये लोग महीनों एक ही गाँव में अपना ठिया बनाए रहते थे।ये लोग कई प्रकार से अपनी कला से गाँव वालों का मनोरंजन किया करते थे। चौपालों पर ढोला होता था, आल्हा-ऊदल के व्याख्यान कविता में होते थे और यह सब बड़े ही सधे हुए स्वर में होता था। बहुत से ऐतिहासिक नाटकों, किस्सों और कहानियों से चौमासा कट जाता था,उनका भी और गाँव का भी। मुझे लगता है इस माध्यम से भी हमारी ज्ञान परंपरा एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचती थी। नट समुदाय के घुमंतू लोग नाच-गाने से भी गाँव के लोगों का मनोरंजन करके अपना जीविकोपार्जन करते थे। जिस दिन मैं धर्मदेव के गाँव गया,उस रात को नटों के नाच-गाने का सांस्कृतिक कार्यक्रम एक चौपाल पर था। इसमें नटों की महिलाएँ भी भाग ले रही थीं। ऐसे कार्यक्रमों में गाँव के बड़े तो होते ही थे, बच्चे और किशोर भी पहुँच जाया करते थे। मैं और धर्मदेव भी उस कार्यक्रम में रात को खाना खाकर पहुँच गए। गाँव में रात का मतलब सात-आठ बजे ही होता था, क्योंकि सभी अपनी दिनचर्या से निपट कर छः बजे तक रोटी खाकर सात-आठ बजे तक अपने बिस्तर में चले जाते थे।उस रात क्योंकि यह कार्यक्रम था तो अधिकतर लोग चौपाल पर इकट्ठा थे। लगभग दो घंटे तक बड़ा ही सात्विक सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ। समापन पर सब अपने-अपने घर और हम भी। सुबह उठे,निवृत्त हुए मुँह-हाथ धोए,खाना खाया और बस्ता लेकर स्कूल को चल दिए।
स्कूल पहुँचे! प्रार्थना में सम्मिलित हुए और कक्षा में चले गए। उपस्थिति हुई और पढ़ाई शुरू। तीसरे घंटे में अचानक प्रिंसिपल साहब कक्षा में आ गए। कक्षा में इधर-उधर घूमते हुए उन्होंने पूछा कल चकिया कौन गया था? धर्मदेव का तो गाँव ही चकिया था। कक्षा में एक मैं ही था जो दूसरे गाँव का था और चकिया गया था। प्रिंसिपल साहब के प्रश्न के उत्तर में मैं खड़ा हुआ और विनम्रता से कहा सर मैं गया था।
उनका दूसरा प्रश्न था, किसके साथ गए थे? मैंने कह दिया सर धर्मदेव के। उन्होंने धर्मदेव को भी खड़ा कर लिया। फिर मुझसे पूछा तुम क्यों गए थे? मैंने कहा सर वैसे ही धर्मदेव के साथ में। प्रश्न था,वहाँ जाकर क्या किया? मैंने कह दिया नटों का नाच-गाना सुना।
प्रिंसिपल साहब ने पूरी कक्षा को संबोधित करते हुए कहा - "सुन रहे हैं आप सब।ये दोनों नाच-गाना सुनने
में लीन रहे हैं,रात भर।" और इतना कहते ही प्रिंसिपल साहब ने हम दोनों को सूत दिया तथा हिदायत दी कि आगे से मैंने ऐसी हरकत सुनी तो दोनों को विद्यालय से निकाल बाहर करूँगा।
उस समय विद्यालयों में विद्यार्थियों का कितना ध्यान रखा जाता था?यह घटना इसी बात को दर्शाती है। विद्यार्थी की गतिविधियों की सूचना विद्यालय में पहुँच जाने का एक स्वसंचालित तंत्र क्षेत्र में स्वत: ही विकसित होकर सक्रिय रहता था। विद्यार्थी ग़लत दिशा में न जाएँ। उनमें ग़लत आदतें न पड़े।वह हर बुराई से बचे रहें। उनका ध्यान केवल पढ़ाई में हो।उनके व्यक्तित्व का बढ़िया से बढ़िया विकास हो।इस सबके लिए सभी गाँवों के सभी व्यक्ति, विद्यालय के शिक्षक,कर्मचारी आदि सभी सतर्क और सावधान रहते थे। इससे बालक निखरते थे,बिगड़ते नहीं थे। बालकों के अभिभावक या परिवार ही उनकी निगरानी नहीं करते थे अपितु सारा सामाजिक परिवेश बालकों की हित चिंता में लगा रहता था।ऐसी परवाह करने वाला समाज आज कहीं मिलेगा? नहीं न।ढूँढने निकलोगे तो ढूँढते रह जाओगे।
मैं नवीं कक्षा से दसवीं में आ गया था। दसवीं में बोर्ड की परीक्षा होती थी। बोर्ड की परीक्षा का फार्म भरा जाता था। इस फार्म में भरी हुई सूचनाएँ ही विद्यार्थी का वास्तविक प्रमाण हुआ करती थीं।जब हम लोगों ने बोर्ड के फार्म सत्य सूचनाओं के साथ भरने शुरू किए तो प्रिंसिपल साहब द्वारा कह दिया गया कि कोई भी छात्र अपने नाम के साथ जाति नहीं लगाएगा।कारेन्द्र देव त्यागी, त्यागी नहीं लिखेंगे अपितु मात्र कारेन्द्र देव लिखेंगे। विद्यार्थी बोर्ड के इस फार्म में स्वयं से संबंधित जो सूचनाएँ देता था,पूरी ज़िन्दगी भर फिर यही सूचनाएँ दर्ज होती थीं और ये ही विद्यार्थी को प्रमाणित करने का दस्तावेज होती थीं। कमोवेश आज भी वैसा ही होता है। फिर भी मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि उस समय जातीय जंजाल से मुक्त होने की कोशिश थी और आज लगभग साठ वर्ष बाद भी फिर से जातीय जंजाल में जनगणना के बहाने फँसने और फँसाने के स्वर मुख्य रूप से उभार पर है।कहाँ से कहाँ पहुँचे हैं हम?हमारी राजनीति की इससे बड़ी दरिद्रता देखने को नहीं मिल सकती। हमारी राजनीतिक दरिद्रता हमारी मानसिक दरिद्रता में रोज़ इतनी बढ़ोत्तरी कर देती है कि हम इस दरिद्रता के फेर से निकल ही नहीं पा रहे हैं।
मेरे फूफा जी मुरादाबाद रहते थे।वह साल भर में दो-तीन बार हमारे गाँव अवश्य आते थे।वह अपने साथ अखबार भी लाते थे।हर बार अखबार को भी वापस साथ ले जाते थे। एक बार आए तो अखबार वहीं छोड़ गए। मैंने अखबार के पन्ने पलटे तो उसके एक पृष्ठ के चौथाई भाग में श्रीमती इंदिरा गाँधी का
आकर्षक चित्र छपा था। मुझे भी अच्छा लगा। मैंने उसी साइज़ के गत्ते का इंतजाम किया और उस चित्र को लेही से गत्ते पर चिपकाया।उसे दीवार पर टाँगने के लिए भी मैंने उसमें व्यवस्था बनाई और अपने स्कूल के बस्ते में रख लिया। स्कूल जाकर मैंने उस चित्र को अपनी कक्षा में ब्लैक बोर्ड के बराबर में दीवार पर टाँग दिया।इंटरवेल तक पढ़ाते हुए चार घंटों में किसी अध्यापक ने कुछ भी नहीं कहा।इंटरवेल के बाद पाँचवें घंटे में अचानक प्रिंसिपल साहब कक्षा में आ गए और उनकी दृष्टि उस पर चली गई। देखते ही उनका प्रश्न कि यह किसने लगाया है। मैंने लगाया था और मैं खड़ा हो गया। उन्होंने पूछा - "क्यों लगाया है?" मैंने कहा - "मुझे अच्छा लगा,सर।" इस पर उन्होंने जो कहा,वह बड़ा ही अटपटा था। उन्होंने कहा था कि इनसे सुन्दर तो मेरी पत्नी है,उसका लगा देते। इतना कहकर वो कक्षा से चले गए।यह कहने का उनका क्या उद्देश्य था, मुझे आज तक समझ नहीं आया।अब भी कभी-कभी सोचता हूँ तो सोचता रह जाता हूँ। मुझसे ग़लती हुई कक्षा में वह चित्र लगा कर और प्रिंसिपल साहब भी आवेश वश अपने वक्तव्य में ग़लती कर बैठे, लेकिन जब उन्हें अपनी ग़लती का आभास हुआ तो वह कक्षा से दबे पाँव बाहर चले गए। ग़लती किसी से भी हो सकती है, पर अपनी ग़लती का आभास होने पर अपने भीतर उसे स्वीकार कर लेना ही व्यक्ति का बड़प्पन है। संभवतः उन्होंने अपने भीतर-भीतर यह स्वीकार भी किया और उसका पश्चाताप भी कि उनसे ग़लती हुई है।
पढ़ते-पढ़ते हाई स्कूल की परीक्षा के दिन आ गए।हमारा सेंटर सम्भल में पड़ा था।हम सभी विद्यार्थी सम्भल में एक धर्मशाला में रुके थे। पंडित जी भोजन बनाते थे। सभी विद्यार्थी सामूहिक रूप से खाते थे।उसका अपना अलग ही आनन्द था। परीक्षा भी हो जाती थी और पता भी नहीं लगता था। परीक्षा देकर हम अपने घर आ गए। रिजल्ट की सभी को प्रतीक्षा थी। रिजल्ट आया तो मुझे अखबार में अपना अनुक्रमांक ढूँढे नहीं मिला। यानी कि मैं फेल हो गया। बहुत दुख हुआ।घर वालों के भी ताने उल्हानें सुनने को मिले। मैंने स्वयं ही निर्णय ले लिया कि अब मैं सतूपुरा नहीं पढूँगा और माता-पिता की स्वीकृति से पढ़ने के लिए अपनी बुआ जी के पास मुरादाबाद चला आया। मेरी आगे की कहानी यहीं से शुरू होती है।
✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर
काँठ रोड, मुरादाबाद -244001
मोबाइल: 9319086769
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उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान और कला भारती की ओर से 14 अगस्त 2024 को स्वतंत्रता आंदोलन में हिन्दी साहित्यकारों का योगदान विषय पर संगोष्ठी का आयोजन
उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान और कला भारती की ओर से स्वतंत्रता आंदोलन में हिन्दी साहित्यकारों का योगदान विषय पर बुधवार 14 अगस्त 2024 को संगोष्ठी का आयोजन मुरादाबाद के स्वतंत्रता सेनानी भवन में हुआ। वक्ताओं ने कहा कि आजादी के आंदोलन में मुरादाबाद मंडल के साहित्यकारों ने न केवल अपने लेखन के माध्यम से देशभक्ति की भावना का संचार किया बल्कि स्वतन्त्रता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लिया और जेल की कठोर यातनायें भी सहीं।
संगोष्ठी के संयोजक प्रख्यात कवि सौरभ कांत शर्मा ने कार्यक्रम की रूपरेखा पर प्रकाश डाला।
चर्चित नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम के संचालन में हुई संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए कला भारती के राष्ट्रीय महामंत्री बाबा संजीव आकांक्षी ने कहा कि समूचे प्रदेश में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अनेक साहित्यकारों द्वारा लिखीं रचनाएं अतीत के पन्नों में दबी हुई हैं जिन्हें खोज कर उजागर करने की आवश्यकता है। इस कार्य में भाषा संस्थान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
प्रख्यात साहित्यिक इतिहासवेत्ता डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा मुरादाबाद के सूफी अंबा प्रसाद, छदम्मी लाल विकल, पंडित शंकर दत्त शर्मा, भगवत शरण अग्रवाल मुमताज, जीवाराम एडवोकेट, चंदौसी के रामकुमार कमल, संभल के रामकुमार गुप्त, अमरोहा के दिवाकर राही और उनकी पत्नी प्रेम कुमारी दिवाकर ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने विभिन्न आंदोलनों में हिस्सा लिया और गिरफ्तार हुए।
नजीबाबाद से आए साहित्यकार अमन कुमार त्यागी ने कहा कि स्वतंत्रता आंदोलन में जनपद बिजनौर के साहित्यकार भी पीछे नहीं रहे। इन साहित्यकारों में पं रुद्रदत्त शर्मा संपादकाचार्य, पंडित पदमसिंह शर्मा, फतेहचंद शर्मा आराधक, इंद्रवाचस्पति, ठाकुर संसार सिंह, महावीर त्यागी, बाबू सिंह चौहान आदि उल्लेखनीय हैं।
तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय की असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी) डॉ पूनम चौहान ने कहा कि सन 1857 की क्रांति के उपरांत अनेक हिंदी साहित्यकार क्रांति चेतना के अग्रदूत बनकर आगे आए और तलवार के स्थान पर अपनी कलम को उठाकर भारत वासियों के हृदय में ऐसी ज्वाला भड़काई कि उनके रक्त में देश प्रेम का उबाल आ गया।
प्रख्यात साहित्यकार राहुल शर्मा ने कहा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उस समय पत्रिकाएं प्रकाशित की जो स्वाधीनता की चेतना जागृत करने में रामबाण सिद्ध हुईं।
युवा साहित्यकार मयंक शर्मा ने कहा कि जगदंबा प्रसाद मिश्र 'हितैषी', बालकृष्ण शर्मा'नवीन' , सुभद्रा कुमारी चौहान, जयशंकर प्रसाद, कामता प्रसाद गुप्त, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, प्रेमचंद, भारतेंदु हरिश्चंद्र समेत अनेक साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन को धार दी।
इस अवसर पर धवल दीक्षित, हरी प्रकाश शर्मा, डॉ कृष्ण कुमार नाज, राजीव प्रखर, दुष्यंत बाबा, मनोज कुमार मनु, श्री कृष्ण शुक्ल, फरहत अली, चंद्र हास कुमार हर्ष, अमर सक्सेना, अभिव्यक्ति सिन्हा, आकृति सिन्हा,अनुराग मेहता आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम के समन्वयक अचल दीक्षित ने इस प्रकार के आयोजनों की आवश्यकता पर बल देते हुए आभार व्यक्त किया।