जनता राष्ट्रीय विद्यालय, सतूपुरा में अध्ययन रत मैं सन् 1966 में आठवीं कक्षा पास करके नवीं में पहुँच गया था। अब तक कुछ सहपाठी मित्र भी बन चुके थे।यह स्वाभाविक भी था, सबके साथ होता है। मेरे साथ भी हुआ। मेरी कक्षा के धर्मदेव त्यागी और मेरी गाढ़ी मित्रता हो गई थी। कभी वह मेरे साथ मेरे गाँव आ जाते थे और कभी मैं उनके साथ उनके गाँव चला जाता था।मेरा गाँव विद्यालय से पूर्व दिशा में पाँच-छ: किमी की दूरी पर स्थित है, "ततारपुर रोड" और मित्र धर्मदेव का गाँव चकिया विद्यालय से पाँच-छ: किमी की दूरी पर पश्चिम दिशा में स्थित है।उस समय हम लोगों का विद्यालय जाने का मतलब था, दस-बारह किमी की नियमित पदयात्रा। हम विद्यार्थियों का वही अच्छा-खासा व्यायाम हो जाता था। लेकिन आज ? आज आवागमन के साधन गाँव-गाँव पहुँच गए हैं। आज के बालकों को पढ़ने के लिए हमारे जैसा व्यायाम करने का अवसर कहाँ मिल पाता है। वैसे भी दुनिया बदल गई है और सुविधाओं के अंबार लग गए हैं।
अस्तु! एक दिन मैं धर्मदेव के साथ उनके गाँव चकिया चला गया। उनके गाँव में नट आए हुए थे।उन दिनों बहुत सी घुमंतू जातियाँ देश के अन्य प्रदेशों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँव-गाँव आकर जीवकोपार्जन हेतु अस्थाई रूप से बस जाती थीं। बरसात के दिनों में ये लोग महीनों एक ही गाँव में अपना ठिया बनाए रहते थे।ये लोग कई प्रकार से अपनी कला से गाँव वालों का मनोरंजन किया करते थे। चौपालों पर ढोला होता था, आल्हा-ऊदल के व्याख्यान कविता में होते थे और यह सब बड़े ही सधे हुए स्वर में होता था। बहुत से ऐतिहासिक नाटकों, किस्सों और कहानियों से चौमासा कट जाता था,उनका भी और गाँव का भी। मुझे लगता है इस माध्यम से भी हमारी ज्ञान परंपरा एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचती थी। नट समुदाय के घुमंतू लोग नाच-गाने से भी गाँव के लोगों का मनोरंजन करके अपना जीविकोपार्जन करते थे। जिस दिन मैं धर्मदेव के गाँव गया,उस रात को नटों के नाच-गाने का सांस्कृतिक कार्यक्रम एक चौपाल पर था। इसमें नटों की महिलाएँ भी भाग ले रही थीं। ऐसे कार्यक्रमों में गाँव के बड़े तो होते ही थे, बच्चे और किशोर भी पहुँच जाया करते थे। मैं और धर्मदेव भी उस कार्यक्रम में रात को खाना खाकर पहुँच गए। गाँव में रात का मतलब सात-आठ बजे ही होता था, क्योंकि सभी अपनी दिनचर्या से निपट कर छः बजे तक रोटी खाकर सात-आठ बजे तक अपने बिस्तर में चले जाते थे।उस रात क्योंकि यह कार्यक्रम था तो अधिकतर लोग चौपाल पर इकट्ठा थे। लगभग दो घंटे तक बड़ा ही सात्विक सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ। समापन पर सब अपने-अपने घर और हम भी। सुबह उठे,निवृत्त हुए मुँह-हाथ धोए,खाना खाया और बस्ता लेकर स्कूल को चल दिए।
स्कूल पहुँचे! प्रार्थना में सम्मिलित हुए और कक्षा में चले गए। उपस्थिति हुई और पढ़ाई शुरू। तीसरे घंटे में अचानक प्रिंसिपल साहब कक्षा में आ गए। कक्षा में इधर-उधर घूमते हुए उन्होंने पूछा कल चकिया कौन गया था? धर्मदेव का तो गाँव ही चकिया था। कक्षा में एक मैं ही था जो दूसरे गाँव का था और चकिया गया था। प्रिंसिपल साहब के प्रश्न के उत्तर में मैं खड़ा हुआ और विनम्रता से कहा सर मैं गया था।
उनका दूसरा प्रश्न था, किसके साथ गए थे? मैंने कह दिया सर धर्मदेव के। उन्होंने धर्मदेव को भी खड़ा कर लिया। फिर मुझसे पूछा तुम क्यों गए थे? मैंने कहा सर वैसे ही धर्मदेव के साथ में। प्रश्न था,वहाँ जाकर क्या किया? मैंने कह दिया नटों का नाच-गाना सुना।
प्रिंसिपल साहब ने पूरी कक्षा को संबोधित करते हुए कहा - "सुन रहे हैं आप सब।ये दोनों नाच-गाना सुनने
में लीन रहे हैं,रात भर।" और इतना कहते ही प्रिंसिपल साहब ने हम दोनों को सूत दिया तथा हिदायत दी कि आगे से मैंने ऐसी हरकत सुनी तो दोनों को विद्यालय से निकाल बाहर करूँगा।
उस समय विद्यालयों में विद्यार्थियों का कितना ध्यान रखा जाता था?यह घटना इसी बात को दर्शाती है। विद्यार्थी की गतिविधियों की सूचना विद्यालय में पहुँच जाने का एक स्वसंचालित तंत्र क्षेत्र में स्वत: ही विकसित होकर सक्रिय रहता था। विद्यार्थी ग़लत दिशा में न जाएँ। उनमें ग़लत आदतें न पड़े।वह हर बुराई से बचे रहें। उनका ध्यान केवल पढ़ाई में हो।उनके व्यक्तित्व का बढ़िया से बढ़िया विकास हो।इस सबके लिए सभी गाँवों के सभी व्यक्ति, विद्यालय के शिक्षक,कर्मचारी आदि सभी सतर्क और सावधान रहते थे। इससे बालक निखरते थे,बिगड़ते नहीं थे। बालकों के अभिभावक या परिवार ही उनकी निगरानी नहीं करते थे अपितु सारा सामाजिक परिवेश बालकों की हित चिंता में लगा रहता था।ऐसी परवाह करने वाला समाज आज कहीं मिलेगा? नहीं न।ढूँढने निकलोगे तो ढूँढते रह जाओगे।
मैं नवीं कक्षा से दसवीं में आ गया था। दसवीं में बोर्ड की परीक्षा होती थी। बोर्ड की परीक्षा का फार्म भरा जाता था। इस फार्म में भरी हुई सूचनाएँ ही विद्यार्थी का वास्तविक प्रमाण हुआ करती थीं।जब हम लोगों ने बोर्ड के फार्म सत्य सूचनाओं के साथ भरने शुरू किए तो प्रिंसिपल साहब द्वारा कह दिया गया कि कोई भी छात्र अपने नाम के साथ जाति नहीं लगाएगा।कारेन्द्र देव त्यागी, त्यागी नहीं लिखेंगे अपितु मात्र कारेन्द्र देव लिखेंगे। विद्यार्थी बोर्ड के इस फार्म में स्वयं से संबंधित जो सूचनाएँ देता था,पूरी ज़िन्दगी भर फिर यही सूचनाएँ दर्ज होती थीं और ये ही विद्यार्थी को प्रमाणित करने का दस्तावेज होती थीं। कमोवेश आज भी वैसा ही होता है। फिर भी मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि उस समय जातीय जंजाल से मुक्त होने की कोशिश थी और आज लगभग साठ वर्ष बाद भी फिर से जातीय जंजाल में जनगणना के बहाने फँसने और फँसाने के स्वर मुख्य रूप से उभार पर है।कहाँ से कहाँ पहुँचे हैं हम?हमारी राजनीति की इससे बड़ी दरिद्रता देखने को नहीं मिल सकती। हमारी राजनीतिक दरिद्रता हमारी मानसिक दरिद्रता में रोज़ इतनी बढ़ोत्तरी कर देती है कि हम इस दरिद्रता के फेर से निकल ही नहीं पा रहे हैं।
मेरे फूफा जी मुरादाबाद रहते थे।वह साल भर में दो-तीन बार हमारे गाँव अवश्य आते थे।वह अपने साथ अखबार भी लाते थे।हर बार अखबार को भी वापस साथ ले जाते थे। एक बार आए तो अखबार वहीं छोड़ गए। मैंने अखबार के पन्ने पलटे तो उसके एक पृष्ठ के चौथाई भाग में श्रीमती इंदिरा गाँधी का
आकर्षक चित्र छपा था। मुझे भी अच्छा लगा। मैंने उसी साइज़ के गत्ते का इंतजाम किया और उस चित्र को लेही से गत्ते पर चिपकाया।उसे दीवार पर टाँगने के लिए भी मैंने उसमें व्यवस्था बनाई और अपने स्कूल के बस्ते में रख लिया। स्कूल जाकर मैंने उस चित्र को अपनी कक्षा में ब्लैक बोर्ड के बराबर में दीवार पर टाँग दिया।इंटरवेल तक पढ़ाते हुए चार घंटों में किसी अध्यापक ने कुछ भी नहीं कहा।इंटरवेल के बाद पाँचवें घंटे में अचानक प्रिंसिपल साहब कक्षा में आ गए और उनकी दृष्टि उस पर चली गई। देखते ही उनका प्रश्न कि यह किसने लगाया है। मैंने लगाया था और मैं खड़ा हो गया। उन्होंने पूछा - "क्यों लगाया है?" मैंने कहा - "मुझे अच्छा लगा,सर।" इस पर उन्होंने जो कहा,वह बड़ा ही अटपटा था। उन्होंने कहा था कि इनसे सुन्दर तो मेरी पत्नी है,उसका लगा देते। इतना कहकर वो कक्षा से चले गए।यह कहने का उनका क्या उद्देश्य था, मुझे आज तक समझ नहीं आया।अब भी कभी-कभी सोचता हूँ तो सोचता रह जाता हूँ। मुझसे ग़लती हुई कक्षा में वह चित्र लगा कर और प्रिंसिपल साहब भी आवेश वश अपने वक्तव्य में ग़लती कर बैठे, लेकिन जब उन्हें अपनी ग़लती का आभास हुआ तो वह कक्षा से दबे पाँव बाहर चले गए। ग़लती किसी से भी हो सकती है, पर अपनी ग़लती का आभास होने पर अपने भीतर उसे स्वीकार कर लेना ही व्यक्ति का बड़प्पन है। संभवतः उन्होंने अपने भीतर-भीतर यह स्वीकार भी किया और उसका पश्चाताप भी कि उनसे ग़लती हुई है।
पढ़ते-पढ़ते हाई स्कूल की परीक्षा के दिन आ गए।हमारा सेंटर सम्भल में पड़ा था।हम सभी विद्यार्थी सम्भल में एक धर्मशाला में रुके थे। पंडित जी भोजन बनाते थे। सभी विद्यार्थी सामूहिक रूप से खाते थे।उसका अपना अलग ही आनन्द था। परीक्षा भी हो जाती थी और पता भी नहीं लगता था। परीक्षा देकर हम अपने घर आ गए। रिजल्ट की सभी को प्रतीक्षा थी। रिजल्ट आया तो मुझे अखबार में अपना अनुक्रमांक ढूँढे नहीं मिला। यानी कि मैं फेल हो गया। बहुत दुख हुआ।घर वालों के भी ताने उल्हानें सुनने को मिले। मैंने स्वयं ही निर्णय ले लिया कि अब मैं सतूपुरा नहीं पढूँगा और माता-पिता की स्वीकृति से पढ़ने के लिए अपनी बुआ जी के पास मुरादाबाद चला आया। मेरी आगे की कहानी यहीं से शुरू होती है।
✍️ डॉ. मक्खन मुरादाबादी
झ-28, नवीन नगर
काँठ रोड, मुरादाबाद -244001
मोबाइल: 9319086769
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