अभी-अभी हिन्दी नवगीतों का एक भरा-पूरा प्रतिमान रचकर माहेश्वर तिवारी जी नेपथ्य में गए हैं। अभी उनके बहुत कुछ लिखे हुए की स्याही भी नहीं सूखी है। उनकी सागर मुद्राएँ याद आ रही हैं और याद आ रहा है निर्मल नदी का झरना। आत्मा का अनंत उजास याद आ रहा है। सिर पर धवलकेशी बर्फ़ सजाए हिन्दी की गीत कविता का यह पर्वत क्या कभी भुलाया जा सकेगा? अपनी सज-धज में वह एकदम कविवर सुमित्रानंदन पंत जैसे दिखने लगे थे। वैसा ही बालसुलभ अंतर्मन को भिगो देने वाला व्यवहार और वैसा ही सराबोर कर देने वाला वात्सल्य। मैं और योगेंद्र वर्मा व्योम तो उनके बेटे जैसे ही रहे, उनकी दुआओं की बारिश में तर-ब-तर रहे।
माहेश्वर जी बड़ी संजीदगी के साथ नवगीत की सर्जना करते हुए, ख़ामोशी पहने ग़ज़लें भी कहते रहे। ये ग़ज़लें उनके नवगीतों के महासागर में उग आए नन्हे-नन्हे द्वीपों जैसी हैं और हैरत में डालती हैं। भरपूर कथ्य, सामाजिक और मानवीय सरोकार, संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन से लबरेज़ यह ग़ज़लें अपने शिल्प में भी अद्भुत रूप से कसी हुई हैं। कथ्य के गहरे दबाव के बाद भी उन्होंने कहीं भी शिल्प से समझौता नहीं किया है, बल्कि उसके व्याकरण की तह में भी उतरे हैं। यह सब कुछ इसलिए हो पाया क्योंकि अधिकांश नवगीतकारों की तरह वो किसी फैशन के तहत ग़ज़लें नहीं कह रहे थे। उन्हें इन ग़ज़लों को प्रकाश में लाने की न कोई हड़बड़ी थी और न ही अधैर्य। वो इन ग़ज़लों को मद्धिम आँच में, बहुत धीरज के साथ पका रहे थे। उन्हें इनसे मंच भी नहीं लूटना था, इस काम के लिए उनके गीत ही काफ़ी थे। उन्हें यह अच्छी तरह से मालूम था कि जिस शहर में रहकर वो रचनाकर्म कर रहे हैं, वहाँ शायरे आजम जिगर मुरादाबादी भी क़याम करते थे।
कैसी प्यारी-सी बात है, आज मुरादाबाद अगर जिगर मुरादाबादी के नाम से जाना जाता है, तो माहेश्वर तिवारी भी उसकी पहचान से जुड़ते हैं। वो इस शहर के पर्याय भी हो गए थे। मुरादाबाद का नाम आने के साथ उँगली के पोरों पर सबसे पहला नाम माहेश्वर जी का ही आता है। यह बात एक बार फिर प्रमाणित हो गई, उनके महाप्रयाण से। पूरा शहर ही विह्वल हो उठा था उनके जाने पर। गलियाँ, सड़कें तक उदास लग रही थीं। समाचारपत्रों के पृष्ठ के पृष्ठ रंग उठे थे। टी.वी. चैनल, दूरदर्शन, रेडियो सभी पर माहेश्वर जी का रेशमी लेकिन मेघमंद्र स्वर गूँज रहा था। सारा शहर बिलख रहा था अपने इस लाडले कवि को खोकर। ऐसा तो होना ही था, निराला का वंशज, नवगीत का अधिष्ठाता, एक बड़ा अनुगायक मौन हो गया था, वाणी का वरदपुत्र शांत हो गया था। पीतलनगरी का स्वर्णकलश समय के जल में तिरोहित हो, कण-कण में व्याप्त हो गया था।
माहेश्वर जी जीवन भर घूमते ही रहे, कहते थे कि कवि तो आप अपने कमरे में बैठकर भी हो सकते हैं, पर छंद की कविता के लिए आपको जंगल, नदी, तालाब, पर्वत, समंदर, मरुस्थल हर जगह की आवारगी करनी होती है। स्वयं माहेश्वर जी बस्ती, इलाहाबाद, गोरखपुर, बनारस, विदिशा, होशंगाबाद होते हुए मुरादाबाद पहुँचे थे। बहुत दिनों तक उनका पता शनीचरा, होशंगाबाद वाला विनोद निगम का जो पता था, वही पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहा। वहाँ वह भवानीप्रसाद मिश्र, शलभश्रीराम सिंह, विजयबहादुर सिंह सरीखों के अन्यतम रहे। इसी बीच उनका अपने उपनाम शलभ से मोहभंग हुआ और उन्होंने उसे त्याग दिया। कवि सम्मेलनों में वो छंद की अलख जगाते रहे। पत्र-पत्रिकाओं और काव्य मंचों के बीच आवाजाही करते रहे, एक पुल की तरह ही झूलते रहे। धर्मयुग के पृष्ठों से लेकर कविता के मंचों तक उनकी धूम रही। कवि सम्मेलनों और गंगाजमुनी मुशायरों के लिए हमेशा उनकी अटैची तैयार रहती थी। शायद इसीलिए कैलाश गौतम उन्हें हिन्दी कविता का राहुल सांकृत्यायन कहा करते थे।
माहेश्वर जी अपने नवगीतों के साथ समानांतर रूप से लगातार ग़ज़लें भी कहते रहे थे। एक दिन में ही तो ये इक्यानवे ग़ज़लें हो नहीं गईं। उनके लिए हमेशा कथ्य महत्वपूर्ण रहा, फार्म भले ही कोई हो लेकिन वह समय नवगीत की स्थापना का समय था और वो फोकस भी उसी पर रखना चाह रहे थे। एक रचनाकार की छटपटाहट के चलते बस वो ग़ज़लें भी कह कहकर चुपचाप सँजोते जा रहे थे। नवगीत की स्थापना और इस विधा विशेष में अपनी सिद्धि के बाद इधर के दिनों में उन्हें लगने लगा था कि अब वो सारी ग़ज़लें भी आ ही जाएँ। बीच-बीच में मैं भी ग़ज़लें कहता था और उन्हें सुनाकर संतुष्ट हो जाता था। एक बार उन्होंने कहा था कि देखो पिचकारी दो तरह की होती है, एक तो बड़े से छिद्र वाली होती है, जिससे धार के साथ रंग निकलते हैं और एक होती है, जिसमें कई छिद्र होते हैं, उससे फुहार की शक्ल में रंग निकलते हैं। अब ये तुम्हें तय करना है कि धार बनना है कि फुहार बनकर बिखर जाना है। कितनी क़ीमती बात थी यह। वो अपने संदर्भ में भी जब नवगीत की पूरी तरह से धार बन गए तो फिर सहज ही उनका ध्यान धारदार कही गई अपनी ग़ज़लों की तरफ़ गया।
माहेश्वर जी की सृजनात्मक अनिवार्यता रही, उनकी सहधर्मिणी बालसुंदरी जी। शिव-पार्वती समान दंपति का साहित्य और संगीत का मणिकांचन योग रहा। नवगीतों की ही तरह ग़ज़लों की प्रेरणा भी बालसुंदरी जी ही रहीं। अक्सर वो ही माहेश्वर जी की रचनाओं की प्रथम श्रोता हुआ करती थीं। बहरहाल! अब उन्हें इन ग़ज़लों के माध्यम से नए सिरे से जानना, अनुभव करना और जीना एक नितान्त भिन्न आस्वाद दे रहा है। इन ग़ज़लों में प्रखर राजनैतिक तेवर के साथ, गहरी सामाजिक चिंताओं का निरूपण आंदोलित-उद्वेलित कर रहा है। हताशाओं-निराशाओं के बीच भी कवि उम्मीद की टिमटिमाती हुई लौ जगाए रखता है। उनकी बेहद मक़बूल हुई इस ग़ज़ल का मतला और यह शेर देखिए-
सिर्फ़ तिनके-सा न दाँतों में दबाकर देखिए
इस सदी का गीत हूँ मैं गुनगुनाकर देखिए
एक हरकत पर अँधेरा काँप जाएगा अभी
आप माचिस की कोई तीली जलाकर देखिए
वास्तव में माहेश्वर जी इस सदी का गीत ही हैं और अब इस ग़ज़ल संग्रह के मंज़रे-आम पर आने के बाद यह भी बेझिझक कहा जा सकता है कि इस सदी की ग़ज़ल भी उनकी क़लम में पनाह माँगती है। एक जुझारू आवाज़, एक लड़ती हुई रचना-भंगिमा ही उनकी सर्जना का सच है। एक तरफ़ यह आक्रामक तेवर है तो दूसरी तरफ़ सांद्र संवेदना की यह विरल अभिव्यक्ति भी है, सरापा ग़ज़ल ही मन की शाखें हिलाकर रख देती है-
आप भी क्या गए दिन अँधेरे हुए
काम जो थे सवेरे-सवेरे हुए
टूटती थी हमीं पर सभी बिजलियाँ
डाल के फूल-पत्ते लुटेरे हुए
रेत पर तिलमिलाती रही देर तक
याद मछली हुई दिन मछेरे हुए
एक तिनका हवा में उड़ा देर तक
रात वीरानियों में बसेरे हुए
शाम तक होंठ में बंद थीं हिचकियाँ
चाँद-तारे सवालात मेरे हुए
माहेश्वर जी के जाने से सचमुच लग रहा है जैसे दिन अँधेरे हुए लेकिन इसी भारी समय में उनके ग़ज़ल संग्रह के प्रकाशन से यह भी महसूस हो रहा है कि दबे पैरों से उजाला आ रहा है और यह भी लग रहा है जैसे तीन सवा तीन महीनों की लम्बी यात्रा से जैसे वो घर लौट रहे हैं, फूल फिर कनेरों में आ रहे हैं। नवगीतों की बिंबधर्मिता से अलग है, इन ग़ज़लों का सीधा संवाद, वैसे रेत और मछली उनके मन के बहुत करीब के बिम्ब हैं, उनके गीत का एक मुखड़ा भी याद आता है-
रेत के स्वप्न आते रहे
और हम मछलियों की तरह
नींद में छटपटाते रहे
यह सब लिखते हुए उनकी याद भी मछली हुई जा रही है। पिता उमाकांत मालवीय के जाने के बाद, माहेश्वर जी का जाना, मेरे लिए दुबारा अनाथ होने जैसा है। माहेश्वर जी के रचनाकर्म में घूम फिर कर घर आता है, अपने एक नवगीत में वो कहते हैं- ‘धूप में जब भी जले हैं पाँव, घर की याद आई’, तो ग़ज़ल में कहते हैं-
बैठे हुए नक्शे में नगर ढूँढ रहे हैं
इस दौर में हम अपना ही घर ढूँढ रहे हैं
मकते तक आते आते यह ग़ज़ल और भी मार्मिक हो उठती है, जब वो कहते हैं-
जंगल को जलाया था जिन्होंने वही सब लोग
अब झुलसी हुई चिड़िया के पर ढूँढ रहे हैं
माहेश्वर जी की ग़ज़लों में ढूँढे से भी यथार्थ का सरलीकरण नहीं मिलता, अलबत्ता वो जटिल अनुभूतियों की सरल अभिव्यक्ति ही देते आए हैं। अपने सर्जक के प्रति प्रारम्भ से ही एक वीतराग उनमें लक्षित किया जा सकता है। एक ग़ज़लगो के रूप में उन्हें देखना एक सुखद एहसास से भर देता है, अपने नवगीतकार की छाया वो अपने ग़ज़लकार पर नहीं पड़ने देते। जब वो नवगीत रचते हैं तो नवगीत रचते हैं और जब ग़ज़ल कहते हैं तो बस ग़ज़ल कहते हैं। अधिकतर नवगीतकारों की तरह वो ग़ज़ल में नवगीत नहीं रचते। अपना रचना शिल्प ही तोड़ते चलते हैं। किसी कवि के लिए अपना खांचा और सांचा तोड़ना ही बहुत दुश्वार होता है।
माहेश्वर जी ने यह काम बख़ूबी किया है। एक फ़क़ीराना ठाठ और ठेठ कवि की ठसक उनमें क्रमशः गहराती चली गई है। भाषा में एक सधुक्कड़ी मिज़ाज आता चला गया है। एक जेनुइन रचनाकार की परिभाषा अगर देनी हो तो माहेश्वर जी का नाम ही ले लेना काफ़ी होगा। वो सिर से पाँव तक कवि थे। एक कवि को कैसा लिखना चाहिए और कैसा दिखना चाहिए, इन दोनों मामलों में वो अपने आप में एक नज़ीर थे। उन्हें कोई एक नज़र देखकर ही कवि समझ लेता था, हालांकि उन्होंने कभी कवि होने का लाइसेंस नहीं लिया। वो जन्मना कवि थे। कविता ही ओढ़ते-बिछाते थे। छंदों की नई-नई गलियाँ अन्वेषित करते थे। जिस तरह उन्होंने अपने नवगीतों में छंदों के विविध प्रयोग किए हैं, उसी तरह अपनी ग़ज़लों में छोटी बड़ी-कई तरह की बहरों का इस्तेमाल किया। उनकी ग़ज़लों में रदीफें पूरी तरह से चस्पा होकर आती हैं, कहीं भी हैंग नहीं करतीं, तिलभर भी लटकती नहीं, उनका अपना जस्टिफिकेशन होता है। तुक या काफ़िए भी पूरे तर्क के साथ मौजूद मिलते हैं, तभी तो उनकी ग़ज़लों का अपना एक मुहावरा बन पाया है, वो कहते हैं-
हमको बातों से बहलाना मुश्किल है
निहुरे निहुरे ऊँट चुराना मुश्किल है
समझ गए हम क्या होता है सूरज का
हमको जगनू से बहलाना मुश्किल है
यह उस्तादना रंग संग्रह की बेशतर ग़ज़लों में है, जहाँ वह समय की एक कुशल चिकित्सक की तरह शल्य क्रिया कर रहे होते हैं, पड़ताल कर रहे होते हैं दुनिया जहान की और कविता और जीवन के बीच की खाई पाट रहे होते हैं, जीवन और जगत को नए अर्थ दे रहे होते हैं। ऐसी ही सघन अर्थवत्ता से जुड़े, उनकी ग़ज़लों के कुछ ख़ास शेर इस तरह से हैं-
भर गई है आँख रो लें हम चलो
घाव सारे आज धो लें हम चलो
आँधियों की जाँघ पर दो पल ज़रा
सिर टिकाए आज सो लें हम चलो
चिड़िया भी उनके गीतों और ग़ज़लों में रह रहकर फेरा लगाती है, यह मार्मिक शेर देखें -
ख़ून आँखों में भर गई चिड़िया
काम चुपचाप कर गई चिड़िया
फिर किसी हुक्मरां के पाँवों में
कार से दब के मर गई चिड़िया
और यह बेकली भी काबिले गौर है-
हर ओर सुलगते हुए अंगारे बिछे हैं
कोई तो मिले पानी के बरताव का हामी
तेंदुआ रदीफ़ से सजी इस ग़ज़ल का विलक्षण मतला और यह दो शेर भी देखें। पूरी ग़ज़ल, ग़ज़ल क्या एक मुकम्मल पेंटिंग है-
सरसराहट घास की पहचानता है तेंदुआ
और इकदम जिस्म अपना तानता है तेंदुआ
घनी झाड़ी में कहीं चुपचाप दुबका हो मगर
तेज़ चौकन्नी निगाहें छानता है तेंदुआ
किस तरह छिपकर कहाँ किसको दबोचा जाएगा
यह बहुत अच्छी तरह से जानता है तेंदुआ
यह कमाल अपने एक नवगीत में भी माहेश्वर जी ने पूरी शिद्दत के साथ अंजाम दिया है, वो कहते हैं-
अगले घुटने मोड़े
झाग उगलते घोड़े
जबड़ों में कसती वल्गाएँ हैं, मैं हूँ
भोपाल के नवगीत समारोह में स्वयं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कलाकार स्वामीनाथन जी ने इन पंक्तियों को एक ख़ूबसूरत पेंटिंग की संज्ञा दी थी।
निश्चित ही उनकी ग़ज़लों के संग्रह का प्रकाशन एक बड़ी परिघटना है और समकालीन ग़ज़ल विधा में एक बड़ा इज़ाफ़ा है। अफसोस कि यह कारनामा देखने के लिए स्वयं माहेश्वर जी ही अब हमारे बीच नहीं हैं। बावजूद इस तकलीफ़ के मैं प्रसिद्ध कथालेखिका कृष्णा सोबती के इस कथन पर गहरा यक़ीन रखता हूँ, जिसमें वह कहती हैं कि ‘लेखक की एक ज़िन्दगी उसकी मौत के बाद शुरू होती है।’ माहेश्वर तिवारी इस ग़ज़ल संग्रह के माध्यम से जैसे फिर हमारे बीच लौट रहे हैं, नए सिरे से ज़िन्दा हो रहे हैं। अभी तो बस यही लगता है कि कल ही शाम तो उनका फोन आया था, पूछ रहे थे- बेटा कैसे हो ? अहमद फराज़ का एक शेर बहुत देर से ज़ेहन पर दस्तक दे रहा है-
दिल धड़कने की सदा आती है गाहे-गाहे
जैसे अब भी तेरी आवाज़ मेरे कान में है
✍️ यश मालवीय
‘रामेश्वरम’
ए-111, मेंहदौरी कॉलोनी,
प्रयागराज- 211004, उ0प्र0
मोबाइल- 6307557229
संतुलित और संपूर्ण आत्मीय आकलन
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