बुधवार, 21 जून 2023

मुरादाबाद मंडल के अफजलगढ़ (जनपद बिजनौर) के साहित्यकार डॉ अशोक रस्तोगी की कहानी..... दावानल

     


अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के मानव अंग पुनर्स्थापन विभाग में नेत्र प्रत्यारोपण के उपरांत जब मंजरी जोशी ने आंखें खोलीं तो हृदय में फूट रहे उल्लास के नवांकुर अधरों से प्रस्फुटित होने को अधीर हो उठे। दृष्टि चारों ओर घुमाकर उसने वातावरण के सौंदर्य को विस्मय से निहारा और संस्थान के चिकित्सक अनंत चतुर्वेदी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए बोली –"आप मेरे लिए देवदूत बनकर अवतरित हुए हैं सर! आपने मेरे नेत्रों को जीवन दान देकर मेरे जीवन को पुनर्प्रकाशित किया है। मेरा यह जीवन सदैव आपका ऋणी रहेगा। आपका यह उपकार मैं कभी नहीं भुला पाऊंगी कि आपने मुझे विश्व का सौंदर्य पुनः देखने की सामर्थ्य प्रदान की  है।"

      डॉक्टर चतुर्वेदी ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फिराया–" बेटी तुम्हें मेरा नहीं अपितु उस व्यक्ति का ऋणी होना चाहिए जिसके नेत्रों को हमने तुम्हारे नेत्रों में प्रत्यारोपित किया है। आज के इस स्वार्थवादी युग में ऐसा महान धर्मात्मा होना असंभव नहीं तो कम से कम कठिन और दुर्लभ अवश्य है। एक ओर जहां इस युग में लोग अपने छोटे से स्वार्थ के वशीभूत होकर दूसरों का जीवन लेने से भी नहीं हिचकते, वहीं उस बेचारे ने पांच-पांच लोगों को नवजीवन प्रदान कर मानवता का अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया है। धन्य है उसका यह प्रेरणादाई त्याग।" 

      मंजरी जोशी चौंकी–"पांच-पांच लोगों को किस प्रकार सर? मैंने तो मात्र नेत्रदान के विषय में ही सुना है। और वह भी केवल मृत्यु उपरांत ही।" 

      डॉक्टर चतुर्वेदी बताने लगे–"पिछले सप्ताह संस्थान में बुरी तरह दुर्घटनाग्रस्त एक ऐसा व्यक्ति आया था जिसके दोनों पैर और एक हाथ कुचला जा चुका था। रक्त भी बहुत बह चुका था। उसके बचने की आशा बहुत क्षीण थी। फिर भी संस्थान के चिकित्सकों ने कई दिनों तक अथक परिश्रम कर उसे जीवनदान दे दिया था। उसकी चेतना जब वापस लौटी तो हाथ-पैरों की दुर्दशा देखकर वह बहुत रोया। बिलख-बिलखकर बार-बार यही प्रार्थना करता रहा कि ऐसे जीवन से भी क्या लाभ जो पराश्रित होकर जिया जाए। इससे तो मौत अच्छी। डॉक्टर मुझे जहर का कोई ऐसा इंजेक्शन दे दो जो सरलता से मृत्यु की नींद सो सकूं।…

     "हमने उसे समझाया कि यदि तुम मृत्यु का आलिंगन करना ही चाहते हो तो अपने अंगों के दान से जीवन को अमरत्व प्रदान करते जाओ! उसकी आंखों में खुशी की लौ चमक उठी। तुरंत दानपत्र पर उसने अपने परिजनों के हस्ताक्षर करा दिए।… इस प्रकार उसके नेत्र तुम्हारे चेहरे पर हैं तथा यकृत, गुर्दे और हृदय अन्य ऐसे लोगों को प्रत्यारोपित किए गए हैं जिनके लिए अन्य कोई विकल्प शेष नहीं बचा था। वह मरकर भी अमर हो गया। धन्य है उसका जीवन, तुम्हें उसी का ऋणी होना चाहिए बेटी!"

      "क्या आप मुझे उसके घर परिवार का पता दे सकते हैं ताकि मैं वहां जाकर उसके परिजनों का आभार व्यक्त कर सकूं?"

      "नहीं बेटी संस्थान के नियमानुसार यह संभव नहीं है। हम दानकर्ता का पता किसी को नहीं देते। हां इतना अवश्य कहेंगे कि इस धरा पर राक्षस तो बहुत विचरण करते फिरते हैं, लेकिन ऐसा धर्मात्मा कभी-कभी ही अवतरित होता है। जो हजारों लाखों की भीड़ में अकेला होता है। तुलना करो बेटी! वह एक राक्षस भी इसी धरती का जीव था जिसने तुम्हारे नेत्रों की ज्योति छीनकर तुम्हारे जीवन में घोर अमावस जैसा अंधकार व्याप्त कर दिया था। और यह धर्मात्मा भी इसी धरती पर जन्मा था जिसने तुम्हारे जीवन के अंधकार को अपना बलिदान देकर प्रकाशपुंज में परिवर्तित कर दिया। धरती और आसमान जैसा कितना विशाल अंतर है दोनों के व्यक्तित्व में।"

      मंजरी को लगा कि डॉक्टर चतुर्वेदी ने अनजाने में उसके रोपित व्रण को छील दिया …ऐसा व्रण जिसके रोपण में इतना लंबा समय निकल गया था… यकायक उसके प्रत्यारोपित नेत्रों में उस राक्षस का वीभत्स चेहरा उभर आया, जिसने एक प्रकार से उसे मृत्यु के आगोश में ही धकेल दिया था… उसके प्रकाशपुंज सदृश जीवन को तिमिराच्छादित कर दिया था…और वर्तमान छोड़कर वह अतीत से जा जुड़ी…….

     पत्रकारिता का पाठ्यक्रम कर रही थी वह उन दिनों। प्रतिदिन बस से आना-जाना पड़ता था। अनेक राक्षसी आंखों का सामना होता था। जिसे भी देखो वही उसके नैसर्गिक सौंदर्य को ऐसे निहारता प्रतीत होता जैसे क्षणिक अवसर मिलते ही समूचा निगल जाएगा। पर ऐसी काकदृष्टियों की अभ्यस्त हो चली मंजरी कांव-कांव करने वाले इन कव्वों से लेश मात्र भी तो भयभीत नहीं होती थी। कोई दुष्ट छींटाकशी करता भी तो वह मक्खी- मच्छर की भांति झटक देती। ऐसी अशोभनीय प्रक्रियाओं का प्रायः उसे नित्य प्रति ही सामना करना पड़ता था। अतएव किसी भी मनचले को उसने कभी गंभीरता से नहीं लिया था।

      बस कुछ इसी तरह से गंगा नदी की भांति कभी चट्टानों से टकराती, कभी पत्थरों को धकेलती, चकनाचूर करती जिंदगी अनवरत रूप से बही चली जा रही थी।

      लेकिन अकस्मात् अप्रत्याशित रूप से एक भारी-भरकम चट्टान ने उसकी राह में आकर उसके प्रवाहक्रम को बाधित कर दिया। उसे क्या पता था कि प्रतिदिन पूरे रास्ते पीछा करने वाला वह राक्षस उसके जीवन को अंधकारमय बनाकर रख देगा? उसे न जीता छोड़ेगा न मरता। 

     सड़क पर बने यात्री प्रतीक्षालय से उसकी गतिविधियां प्रारंभ हो जातीं… हर पल में उसे खा जाने वाली निगाहों से घूरता रहता और पलार्द्ध को भी दृष्टि टकराती तो दुष्ट विषाक्त हंसी हंस पड़ता। बस में चढ़ती तो साथ-साथ चढ़ता, सटकर बैठने अथवा खड़े होने की दुष्चेष्टा करता, उसके समीप अपना खुरदरा मुंह करके कोई भी फब्ती कस देता। उसकी दुष्चेष्टाएं जब असह्य हो उठतीं तो वह उसे आग्नेय नेत्रों से घूर देती। लेकिन अद्भुत  साहस का धनी था वह भी। नेत्रों से निकलती चिंगारियों से भी लेशमात्र भयभीत नहीं होता। अपितु दाईं आंख दबाकर धीरे से हंस पड़ता।

      कभी इतनी व्याकुल नहीं हुई थी मंजरी, जितना इस राक्षस के कारण हुई थी…हृदय की व्यथा कहे भी तो किससे कहे?… परिवार वालों से कहेगी तो तत्काल उसका विद्यालय जाना रोक देंगे… वे तो पहले से ही इस संघर्षभरे पाठ्यक्रम के विरोधी थे। मंजरी शैशव से ही संघर्षों से टकराना सीख गई थी। उसकी हठधर्मिता के समक्ष परिवार वालों को झुकना पड़ता था… थाने में शिकायत करने जाए तो पुलिस वाले चटखारे लेकर परिहास उड़ाएंगे, कई तरह के सुझाव देकर पीछे छुड़ा लेंगे। और थाने से निकलते ही हृदयोद्गार व्यक्त करने से भी नहीं चूकेंगे –'जालिम है भी तो इतनी खूबसूरत कि देखते ही दिल बेलगाम हो जाता है।'

     वह स्वयं ही कई दिनों तक आत्ममंथन करती रही…सोचती रही…विचारती रही… और आखिर में स्वयं ही उस राक्षस को सीख देने का  वज्र निर्णय  मन ही मन ले बैठी।

      एक सुबह को जब वह यात्री प्रतीक्षालय पहुंची तो उसका स्वयंभू प्रेमी पहले से ही वहां खड़ा था। उसके पहुंचते ही वह आगे बढ़कर बोला–'भगवान ने तुम्हें इतना भरपूर सौंदर्य प्रदान किया है कि तुम्हें देखते ही मेरा दिल बेकाबू हो जाता है। तुम नहीं जानतीं मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं। सच-सच बताओ क्या तुम भी मुझे उतना ही प्यार करती हो?'

      क्रोध की पराकाष्ठा में मंजरी का अंग-अंग कंपकंपाने लगा। ढेर सारा झागदार थूक मुख से निकालकर उसने दुष्ट  के मुंह पर उछाल दिया। साथ ही दाएं पंजे में शरीर की संपूर्ण ऊर्जा सन्निहित कर तड़ाक से उसके गाल पर छापते हुए बोली–'ले यह है मेरा जवाब!'

      विस्मित नेत्रों से तमाशा देख रहे लोग रोमांचित होकर उपहास की हंसी हंस पड़े। और थोथी सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए उसकी बहादुरी की प्रशंसा करने लगे। परंतु चूड़ियां पहने कायर पुरुषों के वक्तव्य सुनने के लिए वह रुकी नहीं। तेज-तेज कदमों से घर पर वापस लौट आई। परिजनों ने वीरता भरा वृतांत सुना तो पीठ थपथपाने के बजाय उसी को डांटने लगे–'क्या जरूरत थी उस गुंडे मवाली से पंगा लेने की? कल को वह प्रतिशोध लेने पर उतर आया तो न जाने क्या परिणाम सहना पड़े? हमें नहीं करवानी ऐसी पत्रकारिता जिस की राह में कांटे ही कांटे बिछे पड़े हों।'

      साथ ही उसे कर्कश आदेश भी सुनना पड़ा था–'कल से तू कॉलेज नहीं जाएगी।घर पर रहकर ही पढ़ाई करेगी।'

      मंजरी पलांश में आकाश से धरती पर गिर पड़ी। उसे लगा उसका अस्तित्व शून्य में विलीन हो गया है। नेत्रों से अश्रु टपककर पैरों पर गिर पड़े। स्वर में आक्रोश का पुट उभर आया–'क्या समझते हैं आप नारी को? मोम की गुड़िया या हाड़मांस का निष्प्राण शरीर?… जैसे उसका कोई अस्तित्व ही न हो, जैसे उसकी कोई महत्ता ही न हो… क्या ईश्वर ने नारी को मात्र पुरुषों का अत्याचार सहने के लिए ही बनाया है? क्या उसे सिर उठाकर जीने का कोई अधिकार नहीं?… कैसी दयनीय स्थिति बना दी है इस पुरुष समाज ने नारी की… घर के लोग ईंटों की दीवारों में कैद रखना चाहते हैं तो बाहर के लोग जीवित निगल जाने को तैयार … लेकिन मंजरी को ऐसा कातर जीवन कदापि स्वीकार नहीं… वह जिएगी तो स्वाभिमान पूर्वक सिर उठाकर जिएगी, अन्यथा हंसते-हंसते सहर्ष मृत्यु का आलिंगन कर लेगी'…

     निकृष्ट छद्म प्रेमी से वह लेशमात्र भी भयभीत नहीं हुई थी। अपितु एक नए उत्साह से भरकर फिर से विद्यालय जाने लगी थी।

      कुछ दिनों तक उस बर्बर की छाया भी कहीं दिखाई नहीं दी तो वह हर ओर से निश्चिंत हो गई थी। शायद अपमान दंश से लज्जित होकर वह कहीं किसी विवर में जा घुसा था।

      लेकिन वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन भी शीघ्र ही आ पहुंचा जब उसके जीवन के चंद्रमा जैसे प्रकाश को राहु ने ग्रसकर अमावस जैसा घोर अंधकार व्याप दिया।

      संध्या के झुरमुटे में जब वह एक दिन घर वापस लौट रही थी तो एक संकरी गली में किसी गुरिल्ले की भांति वह यकायक मंजरी के सामने प्रकट हुआ और लोहे के शिकंजे जैसा हाथ उसके मुंह पर चिपकाकर कंधे पर डाल समीपस्थ सुनसान खंडहर में ले गया। और लगा पाशविक कामुक चेष्टाएं करने। मंजरी ने पूरी शक्ति के साथ उसकी हर कुचेष्टा का प्रतिकार किया। परंतु एक कोमल कमनीय काया कब तक उस बलिष्ठ पशु का सामना कर पाती? शीघ्र ही उससे परास्त होने लगी। उसे लगा कि यदि शीघ्र ही कुछ नहीं किया गया तो वह उसकी अस्मत तार-तार कर देगा।

     अतएव अपने दांत उसने ऊपर पड़े राक्षस के वक्ष में पूर्ण शक्ति से चुभा दिए। असह्य वेदना से तिलमिलाकर वह उसके ऊपर से तो हट गया, परंतु क्रोधावेश में थरथरा उठा। दोनों हाथों से मंजरी का सिर पकड़कर उसने पूर्ण वेग के साथ दीवार में दे मारा। मंजरी की आंखों के सामने तारे से झिलमिलाए तथा मस्तक बड़ी तीव्रता से घूमने लगा। दोनों हाथों से सिर को थामकर वह एक और गिर पड़ी। और कुछ ही पलों में संज्ञाशून्य होती चली गई। फिर कुछ भी तो उसके संज्ञान में नहीं आ पाया कि निकृष्ट राक्षस ने उसकी अचेत देह के साथ  क्या-क्या किया?

      चेतना वापस लौटी तो उसने स्वयं को चिकित्सालय में परिजनों व चिकित्सकों से घिरा पाया। उन लोगों के पारस्परिक वार्तालाप से ही उसे आभास हुआ कि मस्तिष्काघात के कारण उसका रेटिना नष्ट हो चुका है। नेत्रों की ज्योति सदा-सदा के लिए समाप्त हो चुकी है।

     सन्न रह गई जलधारा सी सहज मंजरी जोशी… और वह केवल सन्न ही नहीं हुई थी अपितु ऐसे पथरा गई थी जैसे किसी ने उसके भावनामृत युवा शरीर से सारी शक्ति खींच ली हो… जीवन हीन कर डाला हो। उसके अधरों पर पाषाणी जड़ता चिपक गई।अंत:करण शोक और निराशा से परिपूर्ण हो उठा… लगा कि जैसे कोंपल जैसे बसंत पर यकायक पतझड़ टूट पड़ा है। मन हुआ कि चीत्कार कर उठे …इतनी जोर से रोए कि अपना ही सीना फट जाए… सावन की घनघोर काली घटाओं की तरह हृदय की पीड़ा सघन हो उठी… कालचक्र ने यह कैसा अंधकार व्याप्त कर दिया था उसके सद्यप्रकाशित जीवन में…

      फिर भी दु:खाग्नि में जलते अपने हृदय पर उष्ण घृतवत आ गिरे इस भयावह वृतांत को पचाने में उसने समूची संयम शक्ति लगा दी। शांतभाव से समूचे घटनाक्रम को भीतर ही भीतर पी गई वह। असंतोष और क्षोभभरा एक भी शब्द मुख से बाहर नहीं निकलने दिया। लाभ भी क्या था कुछ कहने से? चंद्रमा पर लगा कलंक का टीका और भी काला हो सकता था।

      घृणा  लावे की तरह तन-मन को जलाकर राख करती रही… चुप रहकर भीतर ही भीतर वह जलती रही…बस जलती रही।

      परिजन उसे लेकर कहां-कहां नहीं घूमें-फिरे थे? किस-किस ख्याति प्राप्त नेत्र चिकित्सक के पास नहीं गए थे? परंतु हर किसी का एक ही निराशा भरा उत्तर होता था–'अफसोस नेत्र ज्योति वापस नहीं आ सकती। नेत्र प्रत्यारोपण के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं।'

      लेकिन नेत्र भी किसी दुकान पर बिकते हैं क्या कि खरीदो और प्रत्यारोपित करा लो?

      थक-हारकर निराश से सभी घर बैठ गए थे। और मंजरी को उसके भाग्य और परिस्थितियों पर छोड़ दिया था।

     परंतु मंजरी जोशी उस मृत्तिका से नहीं बनी थी जिससे निर्मित लोगों के लिए लाचारी और विवशता जैसे शब्द ज्यादा अर्थमय होते हैं। नेत्र ज्योति खोकर भी वह लाचार अथवा असहाय बनकर शांत नहीं बैठी। अपनी इस अपंगता को उसने चुनौती के रूप में स्वीकार किया। और परिजनों की इच्छा के विपरीत एक सहायिका के माध्यम से विभिन्न समाचारपत्रों व पत्रिकाओं में छिपे हुए पहलुओं को उजागर करना उसका मुख्य शौक बन गया।काले चश्में से नेत्रों को ढके अपनी सहायिका को साथ लेकर चर्चाओं के वृत्त में कैद पुरुषों को प्रश्नों के जाल में ऐसा उलझाती कि शीर्ष पुरुष पिंजरे में बंद पक्षी की तरह छटपटाने लगता। ऐसे साक्षात्कार लोग चटखारे ले-लेकर पढ़ते।

        परंतु विगत की तिक्त स्मृतियां हर पल उसके मस्तिष्क में लोहशस्त्र जैसा प्रहार करती रहतीं। बलात् किए गए कामुक स्पर्शों की विषाक्त पीड़ा देह में वृश्चिक दंश जैसी चुभन का एहसास कराती रहती। जीवन को अंधकारमय बनाने वाले उस निकृष्ट राक्षस का वीभत्स चेहरा भयानक अट्टहास करता हुआ कभी भी उसके अवचेतन में उभर आता। तब आवेश में शरीर की शिराएं झनझना उठतीं। क्रोध की अधिकता में मुट्ठियां कस जातीं। मन करता कि कहीं सामने आ जाए तो उसका चेहरा नोंच डाले…

      लेकिन अगले ही पल अपने असामर्थ्यबोध पर तिलमिला उठती… सामने आ भी गया तो पहचानेगी कैसे?… उफ्फ!उसने तो न जीता छोड़ा और न मरता… इससे तो अच्छा था मार ही डालता… इस प्रकार घुट-घुटकर तो न मरना पड़ता… एक जीवित लाश बनकर तो न जीना पड़ता।

     उन्हीं दिनों उसने कहीं सुना कि आयुर्विज्ञान संस्थान में डॉ अनंत चतुर्वेदी अपने सहयोगी चिकित्सकों के साथ उन रोगियों को उचित अंग प्रत्यारोपित कर नवजीवन प्रदान करने के महान कार्य में जुटे हुए हैं जिनके लिए अन्य कोई विकल्प शेष नहीं बचा रह जाता।

      बस वह पहुंच गई उनका साक्षात्कार शब्दांकित करने… डॉक्टर चतुर्वेदी उसे शांत, गंभीर, परोपकारी और त्यागी-तपस्वी से लगे। साक्षात्कार के मध्य ही डॉक्टर चतुर्वेदी उसकी काले चश्मे के पीछे से झांकती आंखों की असामर्थ्यता पहचान गए। उन्होंने स्वयं ही उसके सामने नेत्र प्रत्यारोपण का प्रस्ताव रख दिया। हर्षातिरेक में मंजरी का झरने की तरह झनझनाता हुआ मृदुल स्वर भर्रा उठा–'सर क्या मैं पूर्व की भांति फिर से विश्व के सौंदर्य का आनंद ले सकती हूं? क्या मेरी खोई हुई नेत्रज्योति पूरी तरह वापस लौट सकती है?'

     'हां-हां क्यों नहीं? हमारे नेत्र शल्यकर्म के कुछ ही दिनों बाद तुम विश्व की रंगीनियों का सौंदर्यपान अपनी आंखों द्वारा कर सकती हो!' डॉ चतुर्वेदी ने उसे विश्वास दिलाया तो वह सतरंगी सपनों की वादियों में विचरण करने पहुंच गई।

"बेटी! तुम्हारा ऑपरेशन सफल रहा, चाहो तो घर जा सकती हो!"  डॉक्टर चतुर्वेदी ने उसकी आंखों पर बंधी पट्टियां खोलते हुए कहा तो उसका स्वप्निल संसार ऐसे छिन्न-भिन्न हो गया जैसे किसी ने शांत और स्थिर जल में ऊपल फेंक दिया हो।

      घर वापस लौटते ही पुनः संघर्षमई पत्रकारिता में जुटने में उसने पल भर का भी विलंब नहीं किया। अपने कार्य में वह स्वयं को इस तरह उलझाए रखती कि स्मृतियां उद्वेलित न करें। लेकिन जब कभी विगत से जुड़ जाती तो हृदय में आकाश तक को धुंधला देने वाले रेतीले बवंडर उठ खड़े होते…विगत की कष्टकारी अनुभूतियां उसे अनंत रेगिस्तान जैसी झुलसन का एहसास करातीं तो वर्तमान के आनंददाई पल तन-मन को पुलकित करके रख देते। एक ओर वह नेत्रदान जैसा पुण्यकर्म करने वाले उस महान धर्मात्मा के चेहरे को अज्ञात रेखाओं द्वारा पहचानने का प्रयास करती रहती जिसका वह नाम तक नहीं जान सकी थी…कितना पवित्रात्मा था वह जो मरकर भी अमर हो गया… उसका तो किसी प्रकार ऋण भी नहीं चुकाया जा सकता।

     तो दूसरी ओर एकांतिक अवसर पाते ही वह विगत से जुड़ जाती। तब उसे अपने जीवन की सुख-शांति हर लेने वाले उस राक्षस का वीभत्स चेहरा चिढ़ाता हुआ सा दिखाई देता…घृणा तन-मन को जलाकर राख कर देने को उतावली हो उठती…

     और जब-जब भी उसके प्रत्यारोपित नेत्रों में उस राक्षस की भयावह आकृति उभरकर आती तब-तब उसकी देह में एक दावानल सुलगने लगता… ऐसा दावानल जिसकी प्रचंड लपटें आसमान तक की हर वस्तु को भस्मीभूत करने को आतुर हो उठतीं…दुःख और अपमान की चिंगारियां  उसके अंग-प्रत्यंग को झुलसाने लगतीं…सारे शरीर में उत्तेजना व्याप्त हो जाती।मन करता कि कहीं मिल जाए तो कुचल-मसलकर रख देगी…समाज के सामने ऐसा नंगा करेगी उसे कि पश्चात्ताप और घृणा की अग्नि में स्वयं ही तिल-तिल जल मरेगा।

     कैसी विचित्र सी स्थिति हो गई थी उसकी…कभी तो मन वर्तमान के आनंददाई क्षणों को महसूस कर चांदनी भरे आकाश की तरह निर्मल तथा शांतिमय हो जाता तो कभी अगले ही पल दुःख और अपमान के भारी बोझ से वर्षा के घटाटोप मेघ सा घिर आता। पाशविक दुराचरण और सामाजिक अवमानना का स्मरण होते ही उसके भीतर प्रतिशोध की वह भावना बलवती हो उठती जो ध्वंश की प्रलय लाती है।

     दैवयोग से ऐसा अवसर भी शीघ्र ही हाथ आ गया जब उस दुष्टात्मा तक पहुंचने का सूत्र उसके हाथों तक स्वत: चला आया।

     पिछले वर्षों के आपराधिक आंकड़ों का तुलनात्मक ग्राफ तैयार करते समय एक पुराने समाचारपत्र में उस राक्षस का सचित्र विवरण उसे अकस्मात् ही दिखाई दे गया…हूबहू वही था…वही बिज्जू जैसी चमक बिखेरती छोटी-छोटी आंखें, खुरदरा चेहरा और मोटे से भद्दे होंठ, दैत्यों वाली मोटी नाक और अस्त व्यस्त उलझे हुए बाल…छायाचित्र में भी कितना वीभत्स लग रहा था दुष्ट…जैसे अभी छायाचित्र से बाहर निकलकर पुनः पाशविक आचरण करने लगेगा।

     क्रोधाधिकता में जबड़े भिंच गए उसके और मुट्ठियां कस गईं, शिराएं झनझना उठीं…लगा जैसे खौलता हुआ तरल लोह पदार्थ उसकी नस-नस में प्रवाहित होकर ज्वालाएं उगल रहा है। तीव्र अपमान का एहसास और भयंकर वेदना ने एक बार पुनः उसके भावनामृत शरीर को झकझोरकर रख दिया…प्रतिशोध लेकर रहेगी उससे…दुर्भाग्य का जैसा काला डरावना बादल उस पिशाच ने जीवन के निर्मल आकाश पर आच्छादित कर दिया था उससे भी ज्यादा गहरी कालिमा वह उसके पूरे जीवन पर पोतकर रहेगी…ऐसा पंगु बना देगी उसे कि धूर्त मृत्यु की भिक्षा मांगने को विवश हो जाएगा।

     कंधे पर बैग लटका तत्काल सहायिका को साथ ले वह समाचारपत्र में दिग्दर्शित पते की खोज में निकल पड़ी। 

     और जब वह झुग्गी झोपड़ी जैसे उसके घर में प्रविष्ट हुई तो सामने की दीवार पर शीशे के आवरण में कैद उस निकृष्ट राक्षस की छायाकृति टंगी देखकर क्रोध की ज्वाला में दहक उठी। नेत्रों से चिंगारियां सी झड़ने लगीं… जैसे सर्वप्रथम उसी छायाचित्र को भस्मीभूत करेगी… संपूर्ण बदन में विद्युत लहरियों जैसी तेज लपटें सुलग  आईं… क्रोधावेश में उसे यह भी तो ध्यान नहीं रहा की छायाकृति पर तो पुष्पमाल टंगी है। सहायिका ने  भ्रू संकेत से उसका ध्यान आकृष्ट किया तो वह चौंक पड़ी… यथार्थ का बोध होते ही आवेश किसी तरल पदार्थ की भांति बहकर शिराओं से बाहर निकलने लगा। क्रोध का ज्वार भी नीचे गिरने लगा। देह शीतल होने लगी।

      असमंजस के से भाव नेत्रों में लिए वहां खड़ी एक युवती दो अजनबी युवतियों को घर में यकायक प्रविष्ट हुआ देखकर कुछ समझ नहीं पाई तो उसने मंजरी से पूछ लिया–" बहन जी! क्या आप इन्हीं के बारे में कोई जानकारी लेने आई हैं या कोई और प्रयोजन है ?"

      मंजरी की गर्दन स्वीकृति में हिलते ही उस युवती के नेत्रों में दर्द का समंदर उमड़ पड़ा और कंठ भर्रा गया–" बहन जी! मेरे पति की स्मृति है यह। बेचारे मरकर भी अमर हो गए। जीते जी तो मुझे कुछ सुख दिया या नहीं वह तो अलग की बात है, परंतु मरते समय जो पुण्य कार्य वह कर गए हैं उससे मेरा भी मस्तक गर्व से ऊंचा उठ गया …दुर्घटना में दोनों पैर और एक हाथ कुचल गए थे उनके। जीने का कोई प्रयोजन भी नहीं रह गया था उनकी सोच में। अपंग और पराश्रित होकर जीना उन्हें कदापि स्वीकार नहीं था। अपना एक जीवन खोकर पांच-पांच जिंदगियों को नया जीवन प्रदान कर गए हैं वह।अब आप ही बताइए बहन जी! क्या आपने ऐसे महान धर्मात्मा के विषय में कहीं सुना है जिसने पांच-पांच जिंदगियों को सुख पहुंचाने के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया हो? वरना जिंदगी किसे प्यारी नहीं होती? क्या प्रेरणापुंज सदृश नहीं  है उनका यह कृत्य?"

      लंबी-लंबी सिसकियों के बीच उसका स्वर अटककर रह गया। अंगुलियों के पोरों से आंसुओं को पोंछकर वह पुनः भावनाओं में बह गई–" ऐसी श्रेष्ठ पुण्यात्मा के प्रति किसका मस्तक श्रद्धा से नहीं झुक जाएगा बहनजी? शायद आप भी इसी परोपकारी को शीश झुकाने आई होंगी? श्रद्धांजलि अर्पित करने आई होंगी इन्हें जैसे कि अन्य बहुत से लोग नित्यप्रति आते रहते हैं। प्रेरणादायक है ऐसे दानवीर का महान व्यक्तित्व।"

      मंजरी प्रस्तर प्रतिमा सी अवाक् खड़ी रह गई। उसके कर्णद्वय युवती के हृदयोद्गारों को बड़ी तन्मयता से सुन रहे थे। और विस्फारित सी दृष्टि उसी छायाकृति को अपलक निहारे जा रही थी। परंतु जिह्वा जैसे लकवाग्रस्त हो गई थी अथवा शब्दकोश ही समाप्त हो गया था… कोई भी तो शब्द मुख से बाहर नहीं निकल पा रहा था। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे निकृष्ट राक्षस कहे या धर्मात्मा की उपाधि प्रदान करे?… अथवा धर्मात्मा-राक्षस कहकर पुकारे?…

     उसकी अपनी आंखों में उसी की आंखों की रोशनी जगमगा रही थी जिसने किन्हीं दुर्भाग्यपूर्ण क्षणों में उसे विवेकशून्यता से ग्रसित होकर नेत्रांधता प्रदान की थी।

      वर्षों से सुलगता आया दावानल इस तरह कभी स्वत: ही पलांश भर में शांत हो जाएगा जैसे किसी ने यकायक ढेर सारा जल उछाल दिया हो… उसने कभी सोचा भी नहीं था…न ही कभी कल्पित कर सकी थी।

  ✍️ डॉ अशोक रस्तोगी

अफजलगढ़, बिजनौर

उत्तर प्रदेश, भारत

2 टिप्‍पणियां:

  1. फॉण्ट बहुत बड़े हो रहे हैं | १२ /१४ प्रयोग कीजिये | पाठको को स्क्रोल करने में परेशानी हो रही होगी|

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    1. 12/14 करने पर मोबाइल फोन पर पढ़ने में पाठकों को असुविधा हो रही थी ।

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