सृष्टि के आरंभ में जब चारो ओर मौन था, नदियों का जल मूक होकर बह रहा था. पक्षी गुनगुनाते न थे.भँवरे गुंजन न करते थे .पवन भी मौन होकर निर्विकार भाव से बहती थी, प्रकृति के सौंदर्य के प्रति मानव मन में भावनाएँ शून्य थीं , तब सृष्टि के प्रति मानव की यह उदासीनता देखकर भगवान शिव ने अपना डमरू बजाकर नाद की उत्पत्ति की, और फिर ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार माँ शारदे ने अपनी वीणा को बजाकर मधुर वाणी को जन्म दिया.जिसके फलस्वरूप नदियाँ कलकल करने लगीं ,पक्षी चहचहाने लगे. बादल गरजने लगे, पवन सनन- सनन का शोर मचाती इधर से उधर बहने लगी. हर ओर गीत - संगीत बजने लगा. मानव मन की भावनाएँ मुखरित होकर शब्दों का आलिंगन करने लगीं तथा स्वर और ताल की लहरियों पर नृत्य करते गीत का अवतरण हुआ. तबसे लेकर आज तक गीत लोकजीवन का अभिन्न अंग बने हुए हैं. गीत मानव मन की सबसे सहज व सशक्त अभिव्यक्ति है ही, इसके अतिरिक्त काव्यपुरुष की कंचन काया से उत्पन्न विभिन्न विधाओं की रश्मियों में सबसे चमकदार व अलंकृत विधा भी गीत ही है.गीत का उद्देश्य केवल मानव मन को आनंदित करना ही नहीं है,अपितु लोक कल्याण भी है. लोककल्याण हेतु ज्ञान का रूखा टुकड़ा पर्याप्त नहीं था .अतः जनमानस के स्मृति पटल पर ज्ञान को चिर स्थायी रखने हेतु , रूखे ज्ञान को विभिन्न रसों व छंदो में डुबोकर गीत के रूप में प्रस्तुत किया गया . इसी क्रम में डॉ अर्चना गुप्ता जी का यह गीत संग्रह " मेघ गोरे हुए साँवरे" इस उद्देश्य की पूर्ति मे सफल जान पड़ता है.
आपका यह गीत संग्रह ,शिल्प की कसी हुई देह में छंदो के आकर्षक परिधान पहने, पूरी सजधज के साथ आपको गीतकारों की अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर रहा है.गीतमाला का आरंभ पृष्ठ 17 पर माँ शारदे की वंदना से होता है
कर रही हूँ वंदना दिल से करो स्वीकार माँ
लाई हूँ मैं भावनाओं के सुगंधित हार मांँ
ओज भर आवाज में तुम सर गमों का ज्ञान दो
गा सकूँ गुणगान मन से भाव में भर प्रान दो
कर सकूँ अपने समर्पित मैं तुम्हें उद्धार माँ
कर रही हूँ वंदना दिल से करो स्वीकार माँ
गीत कवयित्री डॉ अर्चना गुप्ता जी अपने शीर्षक गीत पृष्ठ संख्या 21 गीत नं. 2 "मेघ गोरे हुए सांवरे" से ही पाठकों के हृदय को स्पर्श कर जाती हैं. जब एक प्रेयसी के कोरे मन पर प्रियतम की सांँवरी छवि अंकित होती है, तब मन की उमंगें मादक घटाएँ बन कर बरस- बरस कर गाने लगती हैं..
मेघ गोरे हुए सांवरे
देख थिरके मेरे पांव रे
बह रही संदली सी पवन
आज बस मे नही मेरा मन
झूमकर गीत गाने लगीं
स्वप्न अनगिन सजाने लगी
कल्पनाओं में मैं खो गयी
याद आने लगे गाँव रे
देख थिरके मेरे पाँव रे.
डॉ अर्चना गुप्ता जी की पावन लेखनी जब भावों के रेशमी धागों में शब्दों के मोती पिरोकर ,गीतों का सुकोमल हार तैयार करती है ,तब एक श्रृंगारिक कोमलता अनायास ही पाठकों के हृदय को स्पर्श कर जाती है... पृष्ठ नं.22पर "प्यार के हार फिर मुस्कुराने लगे" गीत की पंक्तियाँ देखिएगा..
पोरुओं से उन्हें हम उठाने लगे
अश्रु भी उनको मोती के दाने लगे
जब पिरोया उन्होंने प्रणय डोर में
प्यार के हार फिर मुस्कुराने लगे
संयोग और वियोग , दोनो ही परिस्थितियों में कवयित्री ने प्रेम की उत्कंठा को बड़े यत्नपूर्वक संजोया है.प्रेम की मार्मिक अभिव्यक्ति, जब होठों के स्थान पर आंखों से निकली तो दुख और बिछोह की पीड़ा के खारेपन ने आपकी लेखनी की व्यंजना शक्ति को और भी अधिक मारक बना दिया है.पृष्ठ नं. 55 पर गीत संख्या 32 के बोल इस प्रकार हैं.
बह रहा है आंख से खारा समंदर
ज़िन्दगी कुछ इस तरह से रो रही है
रात की खामोशियाँ हैं और हम हैं
बात दिल की आँसुओं से हो रही है
नींद आंखों मे जगह लेती नहीं है
स्वप्न के उपहार भी देती नहीं है
जग रहे हैं हम और दुनिया सो रही है
बात दिल की आंसुओं से हो रही है
मगर श्रृंगार लिख कर ही आप ने अपने कर्तव्य की इति श्री नहीं की है.. आपकी लेखनी जीवन की सोयी हुई आशा को झंझोड़ती है और उसे उठकर,कर्तव्य पथ पर चलने का आह्वान भी करती है . पृष्ठ संख्या 47 पर गीत सं.25 की पंक्तियाँ देखिएगा...
पार्थ विकट हालात बहुत है मगर सामना करना होगा
अपना धनुष उठाकर तुमको, अब अपनों से लड़ना होगा
समझो जीवन एक समर है, मुख मत मोड़ो सच्चाई से
लड़ना होगा आज समर में, तुमको अपने ही भाई से
रिश्ते- नाते, संगी- साथी, आज भूलना होगा सबको
और धर्म का पालन करने, सत्य मार्ग पर चलना होगा
अपना धनुष उठाकर तुमको, अब अपनो से लड़ना होगा
डॉ. अर्चना गुप्ता जी का नारी सुलभ मन कभी प्रेयसी बन कर लाजवंती के पौधे सा सकुचाया तो , कभी मां बनकर बच्चों को दुलारता दिखता है . कभी पत्नी बनकर गृहस्थी की पोथी बांँचता है, तो कभी बहन बनकर भाई के साथ बिताये पल याद कर भावुक हो उठता है और जब यही मन बेटी बना तो पिता के प्रति प्रेम, स्नेह, आदर, और कृतज्ञता की नदी बन भावनाओं के सारे तटबंधों को तोड़ , गीत बनकर बह चला.पृष्ठ संख्या 65 पर गीत संख्या 38 हर बेटी के मन को छूती रचना अति उत्कृष्ट श्रेणी में रखी जायेगी .गीत की पंक्तियाँ बेहद मार्मिक बन पड़ी हैं...
मेरे अंदर जो बहती है, उस नदिया की धार पिता
भूल नहीं सकती जीवन भर, मेरा पहला प्यार पिता
मेरी इच्छाओं के आगे, वे फौरन झुक जाते थे
मगर कभी मेरी आँखों में, आँसू देख न पाते थे
मेरे ही सारे सपनों को देते थे आकार पिता
भूल नहीं सकतीं जीवन भर मेरा पहला प्यार पिता
आपकी कलम ने जब देशभक्ति की हुंकार भरी तो भारतीय नारी के आदर्श मूल्यों का पूरा चित्र ही गीत के माध्यम से खींच दिया, जब वो अपने पति को देश सेवा के लिए हंँसते- हँसते विदा करती है..तब. पृष्ठ संख्या 113 ,गीत संख्या 76 पर ओजस्वी कलम बोल उठती है
जाओ साजन अब तुम्हे कर्तव्य है अपना निभाना
राह देखूंगी तुम्हारी शीघ्र ही तुम लौट आना
सहचरी हूँ वीर की मै , जानती हूँ धीर धरना
ध्यान देना काम पर चिंता जरा मेरी न करना
भाल तुम माँ भारती का, नभ तलक ऊंचा उठाना
जाओ साजन अब तुम्हे कर्तव्य है अपना निभाना
इसी क्रम में एक नन्ही बच्ची के माध्यम से एक सैनिक के परिवार जनो की मन: स्थिति पर लिखा गीत पढ़कर तो आंखे स्वयं को भीगने से नहीं रोक पायीं.... पृष्ठ संख्या 121 ,गीत संख्या 82..
सीमा पर रहते हो पापा, माना मुश्किल है घर आना
कितना याद सभी करते हैं, चाहूँ मै बस ये बतलाना
दादी बाबा की आंखों में, पापा सूनापन दिखता है
मम्मी का तकिया भी अक्सर मुझको गीला मिलता है
देख तुम्हारी तस्वीरों को, अपना मन बहलाते रहते,
गले मुझे लिपटा लेते ये, जब मैं चाहूँ कुछ समझाना
कितना याद सभी करते हैं, चाहूँ मैं बस ये बतलाना
इसी क्रम में आपकी लेखनी ने जब तिरंगे के रंगों को मिलाकर माँ भारती का श्रृंगार किया तो अखंड भारत की तस्वीर जीवंत हो उठी .पृष्ठ संख्या 117 पर .हिंदुस्तान की शान में लिखा ,भारत सरकार द्वारा दस हजार रूपये. की धनराशि से पुरस्कृत गीत नं. 79 आम और खास सभी पाठकों से पूरे सौ में सौ अंक प्राप्त करता प्रतीत होता है.गीत के बोल हैं...
इसकी माटी चंदन जैसी, जन गन मन है गान
जग में सबसे प्यारा है ये अपना हिंदुस्तान
है पहचान तिरंगा इसकी, सबसे ऊंची शान
जग में सबसे प्यारा है ये अपना हिंदुस्तान
सर का ताज हिमालय इसका, नदियों का आँचल है
ऋषियों मुनियों के तपबल से, पावन इसका जल है
वेद पुराणों से मिलता है, हमें यहाँ पर ज्ञान
जग में सबसे प्यारा है ये, अपना हिंदुस्तान
इसके अतिरिक्त वक्त हमारे भी हो जाना, ये सूर्यदेव हमको लगते पिता से, कुछ तो अजीब हैं हम, ओ चंदा कल जल्दी आना, पावन गंगा की धारा, मैं धरा ही रही हो गये तुम गगन. आदि गीत आपकी काव्यकला का उत्कृष्ट प्रमाण देते हैं.
डा. अर्चना जी के गीतों की भाषा -शैली सभी मानकों पर खरी उतरती हुई,आम बोलचाल की भाषा है,शब्द कहीं से भी जबरन थोपे हुए प्रतीत नहीं होते हैं. आपकी लेखनी पर- पीड़ा की सशक्त अभिव्यक्ति करने में भी सफल रही है. सांस्कृतिक मूल्यों को समेटे सभी गीत गेयता, लय, ताल व संगीत से अलंकृत हैं.प्रेम के आभूषणों से सुसज्जित, समाज में जागृति की ज्योति जलाते, उत्सवों को मनाते, प्रकृति के सानिध्य में अध्यात्म की वीणा बजाते और देश सेवा को समर्पित गीतों का यह संग्रह , सुंदर छपाई, जिल्द कवर पर छपे मनभावन वर्षा ऋतु के चित्र के साथ रोचक व प्रशंसनीय बन पड़ा है . मेरा विश्वास है कि डा. अर्चना गुप्ता जी के ये साँवरे सलोने गीत हर वर्ग के पाठकों का मन मोह लेंगे.
कृति : मेघ गोरे हुए सांँवरे (गीत संग्रह)
कवयित्री : डॉ अर्चना गुप्ता
प्रकाशक : साहित्यपीडिया पब्लिशिंग, नोएडा 201301
प्रकाशन वर्ष : 2021
मूल्य : 299₹
समीक्षक: मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
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