मंगलवार, 14 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की आठ शिशु व बाल कविताएं । ये कविताएं हमने ली हैं उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।

 


1. तोते राजा

तोते राजा, तोते राजा। 

सोने के पिंजड़े में आजा। 

तुझे बनाऊंगा मैं राजा ।।


मिर्च और अमरूद खिलाऊं। 

राम-राम कहना सिखलाऊं। 

सारी दुनिया तुझे घुमाऊं ॥


तोता: सोना-चांदी मुझे न भाता। 

मेरा है कुदरत से नाता। 

जो भी मिल जाये वह खाता ।


हम पक्षी हैं गगन बिहारी। 

है स्वतंत्रता हमको प्यारी । 

पराधीनता है दुख भारी ।।


2. मछली रानी

मछली रानी, मछली रानी। 

वैसे तो तुम बड़ी सयानी। 

धारण करतीं रूप सलौना ।

जल में जैसे चांदी सोना ।।


उछल-कूद कर कला दिखातीं। 

बच्चों के मन को हर्षातीं। 

लेकिन तुमको लाज न आती- 

छोटी मछली को खा जातीं।।


मछली-मछली को नहिं खाये । 

भय और भूख सभी मिट जाये। 

रंग - बिरंगी छवि छा जाये । 

हम हर्षित हों, जग हर्षाये।।


3. कबूतर

श्वेत-श्याम और लाल कबूतर। 

करते खूब धमाल कबूतर । 

तनिक हिला दी डाल, कबूतर। 

उड़ जाते तत्काल कबूतर ।।


हम लेते हर साल कबूतर । 

खुश होते हैं पाल कबूतर । 

करते नहीं वबाल कबूतर। 

मुदित रहें हर हाल कबूतर।।


जब खाते तर माल कबूतर। 

खूब फुलाते गाल कबूतर।

चलते मोहक चाल कबूतर। 

हमको भाते बाल कबूतर।।


4. बादल 

उमड़-घुमड़ कर आते बादल। 

आसमान में छाते बादल । 

हम सबको हर्षाते बादल ।

गर्मी दूर भगाते बादल ।।


बरसा करने आते बादल। 

हमको हैं नहलाते बादल। 

छुट्टी करवा जाते बादल। 

हमको हैं अति भाते बादल ।।


पोखर को भर जाते बादल। 

खेती को सरसाते बादल । 

मोरों को मदमाते बादल । 

सबको खुश कर जाते बादल।।


हम भी बादल से बन जायें- 

सबको सुख दें, खुद हर्षायें।


5. अच्छे-अच्छों से अच्छे हम!

भारत माता के बच्चे हम ।

सीधे-साधे हैं सच्चे हम। 

हैं नहीं अकल के कच्चे हम। 

अच्छे-अच्छों से अच्छे हम।।


यह भारत देश हमारा है। 

यह सब देशों से न्यारा है। 

बह रही प्रेम की धारा है।

यह तारों में ध्रुवतारा है।।


यह राम-कृष्ण की धरती है। 

इसमें मर्यादा पलती है। 

वीरता मचल कर चलती है। 

बैरी की दाल न गलती है।।


दुश्मन की नजर निराली है। 

हमको भड़काने वाली है। 

रिपु-सैन्य अकल से खाली है। 

पिटती उसकी नित ताली है।।


अति वीर हमारी सेना है। 

हथियारों का क्या कहना है? 

दुश्मन तो चना- चबैना है। 

पर हमें शांति से रहना है।।


यदि हम अपनी पर आ जाएं। 

चिबड़े की तरह चबा जाएं। 

घुड़की यदि दे दें दुश्मन को- 

भागें, पाताल समा जाएं।।


6. नेकी का अंजाम

ऊधमपुर में एक बेचारी, 

विधवा बसती, थी कंगाल। 

किसी तरह थी दिवस बिताती- 

बेच पुराना घर का माल।


एक दिवस वह ज्यों ही निकली, 

लेकर टूटे-फूटे थाल। 

तभी द्वार पर देखा उसने- 

घायल एक विहग बदहाल।


हृदय हो गया द्रवित, 

देखकर- बहती हुई खून की धार। 

किया तुरत उपचार, स्वस्थ हो- 

चला गया अपने घर-द्वार।


कुछ दिन बाद एक दिन आया, 

वह पक्षी ले दाना लाल। 

पा उसका संकेत माई ने- 

क्यारी में बोया तत्काल।


हर्षित होकर उस वृद्धा ने- 

समझ इसे विधना का खेल। 

देखभाल की उसकी निशिदिन- 

तो उसमें उग आई बेल।


उगा एक तरबूज बेल पर 

समझ उसे पक्षी का प्यार। 

तोड़ लिया वृद्धा ने उसको 

ज्यों ही पक कर हुआ तैयार।


लगी काटने बड़े चाव से, 

वृद्धा मन में भर उल्लास । 

स्वर्ण मुहर उसमें से निकलीं- 

जब माई ने दिया तराश।


हुई प्रसन्न अकिंचन वृद्धा, 

पाकर स्वर्ण मुहर अनमोल। 

देन समझकर परमेश्वर की, 

उसने वे सब रखीं बटोर।


नेकी करने का दुनिया में, 

कैसा अच्छा है अंजाम। 

उन्हें बेच करके वृद्धा ने 

चुका दिये निज कर्ज तमाम


7. हमको खूब सुहाती रेल

छुक-छुक करके आती रेल, 

हमको है अति भाती रेल,

प्लेटफार्म पर आकर रुकती, 

कोलाहल कर जाती रेल।


हलचल खूब मचाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


तीर्थ और मंदिर दिखलाती, 

गौरवमय इतिहास बताती, 

गिरि-कानन, नादियों-झरनों पर 

खुशी-खुशी सबको ले जाती।


सुखमय सैर कराती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


बिजली, तेल, कोयला खाती, 

पानी पी-पी शोर मचाती, 

भीमकाय इंजन से लगकर, 

आती, ज्यों बौराया हाथी।


हमको खूब डराती रेल। 

हमको नहीं सुहाती रेल।


हरिद्वार की हर की पैरी, 

या प्रयाग की संगम लहरी, 

शहर बनारस की धारा या, 

कलकत्ता की गंगा गहरी।


सबको स्नान कराती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


कोई चना, चाट ले आता, 

कोई गर्म पकौड़े खाता, 

चाय गर्म की आवाजों से- 

सोया प्लेटफार्म जग जाता।


तंद्रा दूर भगाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


कितनी सुंदर है, अति प्यारी, 

सभी रेल पर हैं बलिहारी, 

रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर 

चहक रहे सारे नर-नारी।


मंजिल पर पहुंचाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


इंजन कुछ डिब्बे बन जायें, 

हम बच्चों को सैर करायें, 

दीन-दुखी दिव्यांगों को हम- 

खूब घुमायें, खूब रिझायें।


हमको यह सिखलाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।


सीमाओं पर विपदा आती, 

फ़ौजों को रण में पहुंचाती, 

आयुध और खाद्य सामग्री- 

सैनिक शिविरों में ले जाती।


हमको विजय दिलाती रेल। 

हमको खूब सुहाती रेल।।


8. गौरैया

सुबह-सुबह छत पर आ जाती गौरैया,

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


रात हुई जाकर सो जाती। 

प्रातः कलरव खूब मचाती, 

चीं-चीं, चीं-चीं, चीं-चीं करके 

हमें लुभाती, तुम्हें लुभाती।


धरती पर ऐश्वर्य लुटाती गौरैया! 

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया ?


पंखों में स्वर्णिम रंग भरा, 

वाणी में मृदुल मृदंग भरा, 

है रति के बच्चों सी लगती, 

अंगों में मुदित अनंग भरा।


यह कितना मीठा राग सुनाती गौरैया !

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


नीलगगन में उड़कर आती, 

शिशुओं का भोजन है लाती, 

चीं-चीं करते बच्चों को वह- 

खूब खिलाती, खूब पिलाती।


थपक-थपककर उन्हें सुलाती गौरैया।

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


नन्हीं परियों जैसी भाती, 

कलरव करती मन हर्षाती, 

छोटे बच्चों की खेल सखी, 

पल में आती पल में जाती ।


घर में उत्सव सा कर जाती गौरैया! 

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?


जनम जनम का इससे नाता, 

इसे न देखे मन अकुलाता, 

देख अलिन्दों या वृक्षों पर 

अपना मन हर्षित हो जाता।


आती फिर फुर से उड़ जाती गौरैया।

चहक-चहक करके क्या गाती गौरैया?

सोमवार, 6 नवंबर 2023

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की ओर से 5 नवंबर 2023 को आयोजित काव्य-गोष्ठी

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम की मासिक काव्य-गोष्ठी रविवार 5 नवंबर  2023 को मिलन विहार स्थित आकांक्षा विद्यापीठ इंटर कॉलेज में हुई। कवि नकुल त्यागी द्वारा प्रस्तुत माॅं सरस्वती की वंदना से आरंभ हुए कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि रामदत्त द्विवेदी ने की। मुख्य अतिथि वरिष्ठ गजलकार ओमकार सिंह ओंकार एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में वरिष्ठ कवि रघुराज सिंह निश्चल एवं नकुल त्यागी उपस्थित रहे। 

रचना-पाठ करते हुए वरिष्ठ गजलकार ओंकार सिंह ओंकार ने गजल पेश की- 

किस तरह घर को बनाते हैं बनाने वाले। 

क्या समझ पाएंगे यह आग लगाने वाले।। 

नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने दोहे प्रस्तुत किए- 

मानवता की देह ही, होती लहूलुहान।

 युद्ध समस्या का कभी, होते नहीं निदान।। 

आशाएँ मन में न अब, होतीं कभी अधीर। 

इच्छाएँ सूफ़ी हुईं, सपने हुए कबीर।। 

वरिष्ठ कवि रघुराज सिंह निश्चल ने सुनाया- 

सोचिए आकर जगत में क्या किया। 

किस तरह बहुमूल्य यह जीवन जिया। 

जिंदगी भर बस यही करते रहे। 

सोचिए फिर उठ गए खाया पिया।। 

नकुल त्यागी ने कहा - 

जगमग जगमग दीप जले हैं दिवाली आई। 

मार दशानन राम लखन संग अवध जानकी आई।। 

रामदत्त द्विवेदी ने सुनाया- 

यादों में ना रहते जग की दौलत के रखवारे लोग। 

केवल दिल पर लिखे जाते धर्मशास्त्र के प्यारे लोग।। 

कवि केपी सरल ने सुनाया- 

चलत रही रस्साकसी, हम दोनों के बीच। 

हल्का हम को देख कर, रहा बुढापा खींच।। 

गई जवानी बीत अब, बिगड़़े तन मन खेल।  

वृद्धापन बीमारियाँ, मुझ पर रहा धकेल।। 

कवि अशोक विद्रोही ने वीररस की कविता सुनाई- 

भारत मां की रक्षा खातिर, हमको आज बदलना होगा।

 सेज छोड़कर मखमल की, अब अंगारों पर चलना होगा। 

आस्तीन में छिपे हुए जो, बिषधर जहर उगलते हैं। 

उन जहरीले नागों के फन, हमको आज कुचलना होगा। 

पदम सिंह बेचैन ने कहा- 

और कितनी बेरुखी माधव हमें दिखलाओगे। पाओगे हमको वही जहां कहीं तुम जाओगे।। 

कार्यक्रम का संचालन नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने किया। राजीव प्रखर द्वारा आभार-अभिव्यक्ति के साथ कार्यक्रम समापन पर पहुॅंचा ।