रविवार, 19 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की कहानी .... रंगपुर का बांका । हमने उनकी यह कहानी ली है उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।

 


खेतों और खलिहानों के मध्य विचरण करती हुई यशोदा ने यौवन के द्वार में प्रवेश किया। उसके अप्रतिम सौंदर्य में निराली मादकता का विकास प्रारम्भ हो गया किंतु उसके हृदय और स्वभाव की शुद्धता एवं निष्कपटता में कोई अंतर नहीं आया। उसे न तो गांव भर में किसी से ईर्ष्या थी, न द्वेष और न ही किसी के प्रति विशेष आकर्षण। माता-पिता को उस पर विश्वास था और इसीलिए स्वच्छंदतापूर्वक वह कहीं भी घूम-फिर सकती थी। गांव में कोई उसका दादा था, कोई ताऊ तो कोई चाचा। समवयस्क और छोटे बच्चे सभी उसके भाई-बहन थे।


एक दिन अमराइयों में गुजरते हुए उसे किसी ने पुकारा- यशोदा!

यशोदा ठिठक गई। एक युवक उसकी ओर आ रहा था।

'जी, मैं आपको पहचानती नहीं।' यशोदा ने विनम्रतापूर्वक आगवानी की।

'अरे वाह, लखनऊ से आया हूं तुम्हारे दर्शन के लिए। जमींदार बाबू के लड़के ने तुम्हारे बारे में बताया था मुझको।'

'बताया होगा; बोलिये मैं आपको क्या सेवा कर सकती हूँ?'

’सेवा! सेवा तो मुझे करनी चाहिए तुम्हारी। भगवान ने तुम्हें कितना खूबसूरत बनाया है।’

'माफ कीजियेगा मेरे पास फिजूल की बातें करने का समय नहीं है' कहती हुई यशोदा चलने को उद्धत हो गई।

ऐसा न करो डियर! बांका युवक उसको भुजाओं में बाँधने के लिए आगे बढ़ा। यशोदा सावधान हो गई। उसके बलिष्ठ हाथों ने जोर का धक्का दिया। युवक चारों खाने चित्त जमीन पर गिर पड़ा। सिर में गहरी चोट आई।

'समझे! भविष्य में कभी ऐसी हरकत करने की कोशिश मत करना' युवक की ओर कातरतापूर्ण दृष्टि से देखती हुई यशोदा बोली 'इस गांव के सभी युवक यहाँ की समस्त युवतियों के भाई होते हैं श्रीमानजी।"

बहन!.... बांका बुदबुदाया लेकिन यशोदा तब तक बहुत दूर जा चुकी थी। युवक यशोदा के साहस और शुचिता पर अभिभूत था। बहन के रिश्ते की मर्यादा को भी वह भलीभांति जानता था।

अतः लज्जावनत मुख किये वह अपने स्थान की ओर चला गया।

विवाह के बाद यशोदा ससुराल जा रही थी।

'गाड़ियां रोक दो!' हट्टे-कट्टे, सुगठित शरीर वाले एक नकाबपोश की कर्कश आवाज से सारा जंगल गूंज उठा।

गाड़ियां रुक गईं। सारे बाराती भयभीत हो गये।

'सब लोग हाथ ऊपर करके खड़े हो जाइये' नकाबपोश का दूसरा आदेश हुआ, सभी बाराती एक ओर जाकर चुपचाप खड़े हो गये। नकाबपोश रथ की ओर बढ़ा 'सारे जेवर ईमानदारी से उतार कर सौंप दो वरना तुम्हें और तुम्हारे पति सहित सारे बरातियों को मौत के घाट उतार दिया जायेगा।'

वधू ने अपूर्व धैर्य का परिचय दिया 'ईमानदारी? सज्जनों के आभूषण का अपहरण करने वाले बेईमान! मौत? ब्रह्मा के विधान को अपने हाथ में लेने वाले दुराचारी! कौन हो तुम? निर्जन वन प्रदेश में कायरों की तरह डरा-धमका कर लूटमार करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती।'

'मैं कतई बकवास सुनना नहीं चाहता। मुझे सिर्फ तुम्हारे जेवर चाहिए।' आवेग में आकर नकाबपोश ने रथ के परदे को फाड़ डाला।

'अयं यशोदा! उसके मुँह से हल्की सी चीख निकल पड़ी 'बहन! ओह, इस गाँव के सभी

युवक....।' उसने साथियों को आदेश दिया। सबके सब देखते ही देखते नौ दो ग्यारह हो गये। यशोदा को गाँव की अमराइयों के मध्य की घटना का स्मरण हो आया।

बाराती रथ की ओर बढ़े। वधु सकुशल थी। आश्चर्य है कि डाकू उसका एक भी जेवर नहीं ले गये।

बारात थोड़ी दूर पहुंची होगी कि फिर वही नकाबपोश आता हुआ दिखाई पड़ा। उसने अपना घोड़ा रथ के पास रोक दिया। हाथ में लाई हुई पोटली को रथ के भीतर फेंक कर वह तुरंत गायब हो गया।

सम्पूर्ण घटना सुनने से पूर्व ही सास का निश्चित मत प्रसारित हो गया जरूर कोई यार रहा होगा इस कुलच्छिनी का।

मौहल्ले की स्त्रियां एकत्र होतीं। वधू के रूप की सराहना करतीं तो सास के शरीर में चैंके लग जाते- मरे इस रूप ने ही तो सारा सत्यनाश कर डाला होता, वह तो भगवान की खैर कहो, नहीं तो यह डायन तो उसी दिन सबको भख लेने पर तुली थी।

विवाहित जीवन के सुखद स्वप्नों की परिकल्पना करने वाली नववधू भाग्य को दोष देकर सबकुछ चुपचाप सहन करती रहती। उसके पति किसी दूर के शहर में सरकारी नौकरी पर थे। कुछ दिवस उपरान्त वे अपने काम पर चले गये। गृहस्थी बसाने में बड़ा खर्च बैठेगा इसलिए बहू को सास के पास ही छोड़ दिया। कभी-कभी महीने, दो महीने में एकाध चक्कर लगा जाते। उनका आना यशोदा के रेगिस्तान में सदृश जीवन में मरुउद्यान के समान होता। बाद में पुनः रेत ही रेत! सास के ताने और नन्द देवरों की झिड़कियाँ।

समय व्यतीत होता गया। इन पंद्रह वर्षों के दीर्घ काल में यशोदा ने चार संतानों के अतिरिक्त अन्य कोई सुख न माना। चारों ओर से आघात सहन करता हुआ उसका हृदय भगवत भक्ति की ओर उन्मुख हो गया।

अन्य सोमवारों को भाँति यशोदा इस सोमवार को भी गंगा स्नान करने के लिए गई। लौटते समय उसकी दृष्टि एक अत्यन्त क्षीणकाय भिखारी पर पड़ी। आकृति कुछ परिचित सी लगी। ठिठक गई।

गौर से देखा तो स्तब्ध रह गयी। गाँव की अमराइयों और लौटती हुई बारात का चित्र आँखों के सम्मुख घूम गया। वह अधिक देर स्थित न रह सकी। पुकारा भैया!

भिखारी ने अपनी आँखें ऊपर उठाई ; फिर सहसा ही अपना मुँह घुटनों के बीच में छिपा लिया।

'तुम्हारी यह दशा कैसे हुई भैया?' यशोदा से रहा न गया।

भिखारी फिर भी शान्त भाव से मुख नीचा किये हुए बैठा रहा। किंतु यशोदा के अत्यधिक आग्रह

करने पर उसने अपनी आँखें ऊपर को उठाई। और अस्फुटित शब्दों में अपने पाप-पूर्ण अतीत का वर्णन प्रारम्भ कर दिया।

बाल्यकाल में ही बुरी संगति। घर छोड़कर भाग निकलना। वासनामय जीवन का प्रारम्भ। पैसे का अभाव इसलिए चोरी डकैती। रंगे हाथों गिरफ्तार होना। संगी-साथियों का बिछुड़ जाना। पंद्रह वर्षों का सश्रम कारावास। मुक्त होने पर वर्तमान दशा। रोमांचक घटनाओं का अ‌द्भुत क्रम। यशोदा काँप गई।

उसका हृदय द्रवित हो गया। बाँह पकड़कर उठाते हुए बोली- 'चलो, मेरे घर चलो भैया। जब तक तुम पूर्ण स्वस्थ न हो जाओ मेरे घर पर चलकर आराम करो।

ग्लानिवश मुख नीचा किये हुए भिखारी यशोदा के साथ हो लिया।

सास को अच्छा मौका मिल गया। यशोदा पर बुरी तरह फटकार पड़ी यह यारों का घर नहीं है बहुरानी। गृहस्थी है गृहस्थी। करम फूट गये हमारे तो! बाप ने शादी ही क्यों की थी, किसी यार के साथ बैठा दिया होता। तनिक चैन तो मिलता इसे!

यशोदा नित्यप्रति ऐसी बातें सुनने की अभ्यस्त हो चुकी थी। अतैव उसने उस ओर कोई ध्यान ही न दिया किंतु आगंतुक इन तीक्ष्ण कटाक्षों को सहन नहीं कर सका। मन ही मन भाग्य को कोसते हुए लड़खड़ाते कदमों से वह घर से निकलने लगा। पंद्रह वर्ष के कठोर कारावास ने उसे जर्जर बना दिया था। कहीं यशोदा न देख ले, इसीलिये जल्दी से चलना शुरू कर दिया। किंतु दरवाजे की चौखट नहीं लांघी गयी। पैर अटक गया। मुँह के बल औंधा गिर पड़ा। हल्की सी चीख निकल गई। यशोदा ने ऊपर से झांककर देखा। हतप्रभ सी दौड़ी नीचे आई। भैया के शरीर को झकझोरने लगी। सास भी आ पहुँची। भैया ने आंखें खोलीं। टूटे-फूटे शब्दों में बुदबुदाने लगा 'अपने पापों का फल मैंने यहीं पा लिया बहन! तुम एक काम करना। रंगपुर का कोई आदमी मिले तो कह देना...... सेठ नवलकिशोर......... के बेटे ने बड़े पाप किये थे....... और वह भिखारी का श्वांस छूट गया।

रंगपुर। नवलकिशोर! सास चौंक पड़ीं मेरे बहनोई। उसके मुख से चीख निकल पड़ी- शंकर! बेटा शंकर! वह खूब जोर-जोर से अलाप करने लगीं। चारों दिशायें गूंज उठीं लेकिन शंकर का शरीर सदा के लिए शान्त हो चुका था।

और यशोदा, मूर्तिवत खड़ी थी।

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