रविवार, 19 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की कहानी .... शिकस्त । हमने उनकी यह कहानी ली है उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।

मुझे उसमें कोई उद्दण्डता दिखाई नहीं दी।

सेठ साटनवाला ने जब मुझे अपनी एकमात्र सन्तान रेखा को ट्यूशन पढ़ाने का निमंत्रण दिया तो सारे दफ्तर की आंखें करुणाद्र होकर मेरे ऊपर इस प्रकार जा टिकीं मानो मैं कोई मासूम कैदी हूँ जिसे बिना किसी अपराध के बलपूर्वक बलिवेदी की ओर ले जाया जा रहा है।

      छत्तीसगढ़ के छोटा नागपुर क्षेत्र की सुरम्य किन्तु सुनसान पहाड़ियों पर अभ्रक की खानों में सुपरवाइजर पद पर मेरी नई-नई नियुक्ति हुई थी। खानों के स्वामी सेठ साटनवाला से मेरे एक मित्र के व्यक्तिगत संबंध थे। उन्हीं के आधार पर अपने नगर से सैकड़ों मील दूर हजारीबाग जिले के डोमचांच नामक स्थान पर मुझे यह काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। सेठ साटनवला भले ही तीखे स्वभाव के व्यक्ति रहे हों लेकिन मेरे साथ उनकी आत्मीयता प्रारम्भ से ही बढ़ गई थी। कह नहीं सकता मेरे अच्छे कार्य और स्वभाव के कारण अथवा मेरी सिफारिश से प्रभावित होकर। एक दिन जैसे ही सेठ जी को यह पता चला कि विगत वर्षों में मैं एक अध्यापक का जीवन व्यतीत कर चुका हूँ, उन्होंने तुरंत अपनी इकलौती बेटी रेखा को घंटा भर के लिए घर पर पढ़ाने का प्रस्ताव मेरे सामने रख दिया। इस प्रस्ताव से मुझे प्रसन्नता ही हुई। एक तो शिक्षण कार्य मुझे स्वभाव से ही प्रिय है दूसरे इस निर्जन पहाड़ी प्रदेश में रहकर कुछ ही दिनों में मैं पारिवारिक स्नेह पाने के लिए छटपटा उठा था। छोटी उम्र के नेक और मिलनसार व्यक्ति को यह स्नेह भले घर का ट्यूशन करने पर प्रायः मिल ही जाता है।

     मैंने रेखा को पढ़ाने का समय निर्धारित कर लिया लेकिन मेरे इस निश्चय से दफ्तर के बाबू लोगों में एक विचित्र सी हलचल प्रारम्भ हो गई। उनका विचार था कि सेठ जी के प्रस्ताव को स्वीकार करके स्वयं को फंसाने के लिए मैंने एक जाल अपने आप ही तैयार कर लिया है जिसमें पड़कर सहज में ही मेरी भावी उन्नति के मार्ग अवरुद्ध हो जाने की प्रबल सम्भावना है। हो सकता है एक दिन मुझे अपनी नौकरी से ही हाथ धोना न पड़ जाये।

     सभी लोगों की आंखों में मुझे ईर्ष्या के स्थान पर भय का भाव ही दृष्टिगोचर हुआ इसलिए उनकी बातों में मुझे कोई न कोई तथ्य अवश्य प्रतिभासित होने लगा था। उस दिन बड़े ही असमंजस में पड़कर मैंने सेठ जी के बंगले में प्रवेश किया, उनको एकमात्र संतान रेखा को पढ़ाने के लिए। एक वर्ष में आठ अध्यापक आये और शिकस्त खाकर वापस चले गए। कोई भी उसे दो माह से अधिक नहीं पढ़ा सका लेकिन मुझे रेखा में कोई उद्दण्डता दिखाई नहीं दी। मेरे पहुँचते ही दोनों हाथ जोड़कर उसने मुझे 'प्रणाम, सर!' कहा और मेरे बैठ जाने पर बड़ी शालीनता और तरीके के साथ उसने अपना स्थान ग्रहण कर लिया। उत्सुकता मिटाने के लिए सर्वप्रथम मैंने उसे अपना परिचय देना प्रारम्भ कर दिया। मैं एक अच्छा कवि भी हूँ- यह बात जानकर वह चौकी। उसके चेहरे के भाव-परिवर्तन से मुझे बल मिला और मैंने अपनी कविताओं की दो-एक पंक्तियाँ उसे सुनानी प्रारम्भ कर दीं। सहसा उसको त्योरियों में बल पड़ गए। वह चिल्ला उठी 'बस करिये, मुझे कविता से सख्त नफरत है।"

'कविता? निष्क्रियता की निकम्मी संतान!'

'कवि? आलसी, निकम्मा और दरिद्र जीव!'

   मेरे सम्मान के लिये यह एक ठेस थी लेकिन उसकी बात में एक तथ्य था, एक स्वतंत्र धारणा जो कटु भले ही हो, लेकिन आंशिक सत्य भी थी। थोड़ी प्रशंसा के अतिरिक्त और कौन सा वैभव है एक कवि के पास? इसलिये रेखा की बात में मुझे कोई उदडण्ता दिखायी नहीं दी, कोई ऐसी शोखी जिसके कारण एक वर्ष में आठ अध्यापक आये और शिकस्त खाकर वापस चले गए। कोई भी उसे दो माह से अधिक नहीं पढ़ा सका।

    तीन-चार दिन बीत गए। मैंने पढ़ाया। उसने पढ़ा। पूर्ण व्यवस्था के साथ। पांचवें दिन बैठते ही मैंने उससे प्रश्न किया 'तुम्हारे कोई भाई नहीं है न?'

उसने उपेक्षा से सर हिला दिया नहीं।

बहिन?

नहीं।

दूर की या निकट की?

नहीं। यह भी नहीं उसके स्वर में गंभीरता थी।

मेरे मन में करुणा जागृत हुई। सहानुभूति के स्वर में उससे पूछा- 'कोई भी ऐसा प्राणी है

जिससे तुम्हें प्यार हो?'

'जी हां, मेरा कुत्ता' और वह खिलखिलाकर हँसने लगी।

एक सहृदय की सहानुभूति का यह उत्तर। मेरे सम्मान के लिये यह एक ठेस थी लेकिन उसकी

बात में एक तथ्य था, एक स्वतंत्र धारणा, जो कटु भले ही हो लेकिन सत्य अवश्य थी। एक पूंजीपति के लिये इंसान की कीमत ही क्या है? दस-बीस रुपए में खरीदा हुआ एक कमजोर जानवर, जो कुत्ते से भी अधिक पूंछ हिलाता है और फटकारे जाने पर भी भौंकता नहीं, खीसें निपोर देता है। एक दिन पहुंचते ही अपनी मेज को मैंने नाना प्रकार के फलों और पकवानों से भरा पाया।

श' आर्यावर्त' की एक प्रति हाथ में लिए हुए रेखा इठलाती हुई वहाँ आ पहुंची। प्रसन्नता के उन्माद में झूम उठी थी वह-'सर.... मेरे नाम से छपा यह गीत कॉलेज जीवन में मेरी सबसे बड़ी जीत है.....। सर, मैं आपकी बड़ी कृतज्ञ हूँ।'

मेरी श्वासों में कुछ-कुछ उष्णता का स्पन्दन होने लगा। रेखा बेहद प्रसन्न थी। आज पहली बार सारे कॉलेज में उसकी प्रतिभा की धाक जम गई। सुनीता, संध्या या कल्पना, परीक्षा में किसी से भी अधिक अंक वह आज तक नहीं पा सकी। उसके स्वभाव में खोटापन निकालकर लड़‌कियों ने उससे बोलना तक छोड़ दिया किंतु आज उन सभी के चेहरे फीके पड़ गए। 'आर्यावर्त' में छपे हुए कु. रेखा साटनवाला के मनोहर गीत ने क्या शिक्षक, क्या शिक्षिका; लड़के और लड़‌कियों सभी के मन को जीत लिया और आज सैकड़ों के मुँह से सुना-

'रेखा? एक छिपी हुई काव्य प्रतिभा।'

'रेखा? अपने कॉलेज की गौरव गरिमा।'

रेखा का रोम-रोम प्रसन्न था। वह चहक उठी 'सर आपने मुझे नई जिंदगी दी है। एक और ऐसी ही कविता छपवा दीजिये मेरे लिए, प्लीज... सर। मैं आपका अहसान नहीं भूलूंगी।'

कविता? निष्क्रियता की निकम्मी संतान।

मेरे ओंठों पर व्यंग्य मुस्करा रहा था।

कवि? आलसी, निकम्मा और दरिद्र जीव।

वेदना ने व्यंग्य को झकझोर डाला-

'नहीं-नहीं रेखा, यह ठीक नहीं है। यह तो मेरी भूल थी।

सहसा मुझे लगा कि पुष्प मुरझा गए। पक्षियों का कलरव शांत हो गया। पादपों पर कुहरा छाने

लगा। चारों ओर सन्नाटा पसर गया। फलों और पकवानों से भरी मेज, मामूली सा अध्यापक और सामने बैठी हुई मिस साटनवाला। मुझे उसमें कोई उद्दण्डता दिखायी नहीं दी।


रेखा के चेहरे पर एक मासूमी सी व्याप रही थी। मकड़ियों का जाला। मुझे बाबुओं की बात

याद आ गई वह जाल, जो स्वयं को फंसाने के लिए मैंने अपने आप ही तैयार कर लिया था। सहसा मैं चौंक उठा। मेघ उमड़ने लगे। वर्षा प्रारंभ हो गई। मूसलाधार। मुझे कंपकंपी हो आई। रेखा के नेत्रों से अश्रुओं को अविरल धारा प्रवाहित हो चली थी।

    मेरा हृदय द्रवित हो उठा तो मैंने उसे धैर्य का बांध बंधाया मैं छपवाऊंगा, एक नहीं दो नहीं सैकड़ों गीत, तब तक जब तक कि रेखा अपने आप लिखकर स्वयं ही न छपवाने लगे।

     आसमान साफ हो गया। प्रभातकालीन समीरण के मस्त झोंके का मादक स्पर्श प्राप्त कर वृन्त झूम उठे। वातावरण नितांत शान्त, शीतल और स्निग्ध हो चला था। उल्लास की मिठास पकवानों के व्याज मेरे मुख में अनायास ही समाहित होने लगी।सहसा रेखा को स्मरण हो आया।

'सर, साथ में चाय लेंगे या शरबत?'

'चाय'- मैंने कहा। मैं अपने हृदय की समस्त कालिमा को जला डालना चाहता था।

रेखा ने खानसामा को बुलाया और तुरंत चाय बना लाने का आदेश दिया।

खानसामा सकपका गया। डरते-डरते बोला- 'दूध खत्म हो गया है मैडम। सिर्फ कुत्तों के लिए बचा रखा है थोड़ा सा।'

'नानसैन्स!'- रेखा चीख उठी 'तुम्हें चाय बनाकर लानी ही होगी। दूध बचाकर क्यों नहीं रखा गया? कुत्तों के लिए दूध और मास्टर जी के लिये नहीं। नालायक कहीं का। मैं कहती हूँ तुझे चाय बनाकर लानी होगी अभी, इसी वक्त।'

रेखा गुस्से से पागल हो उठी थी लेकिन मुझे उसमें कोई उद्दण्डता दिखाई नहीं दी।

कुत्ता, कवि, अध्यापक और इन्सान।

मैं गंभीरतापूर्वक मनन करने लगा। किंतु दो क्षण में ही मेरे होंठों पर मुस्कराहट आ गई- 'रेखा, तुम्हें सबसे अधिक कुत्तों से प्रेम है न?'

रेखा की आंखें झुक गई 'मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ सर!'

दूसरे ही क्षण रेखा फफक-फफक कर रो रही थी और अगले वर्ष भी रेखा को मैं ही पढ़ा रहा हूं।


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