रविवार, 19 नवंबर 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष डॉ विश्व अवतार जैमिनी की कहानी .... आघात। हमने उनकी यह कहानी ली है उनके वर्ष 2020 में प्रकाशित आत्मकथा एवं संस्मरण ग्रंथ "बिंदु बिंदु सिंधु" से । गुंजन प्रकाशन से प्रकाशित इस ग्रंथ का संपादन किया है काव्य सौरभ रस्तोगी ने । सह संपादक हैं अम्बरीष गर्ग और डॉ मनोज रस्तोगी ।



राकेश से जब भी मेरी किसी विषय पर बातचीत हुई, उसने सदैव मुझे दकियानूसी बताया। इससे पहले वह मुझे चार वर्ष पूर्व मिला था। उस समय एक जगह से मेरे रिश्ते को बातचीत चल रही थी। राकेश मेरे घर आया। और मुझसे लड़की की पसंदगी के बारे में पूछने लगा।
    मैंने कहा, 'लड़की तो अच्छी बताते हैं लेकिन मेरे पिताजी को यह रिश्ता जंच नहीं रहा है।' 'देखो सुधीर’– राकेश यह सुनते ही उबल पड़ा,– मेरा और तुम्हारा दस वर्ष तक साथ रहा लेकिन तुमने मेरे विचारों को समझने की कभी कोशिश नहीं की। मैंने तुमसे कितनी बार कहा होगा कि विवाह शादी में लेन-देन का बंधन वैवाहिक संबंधों को सदा के लिये खोखला बना देता है। तुम्हारे पिताजी जरूर दहेज में मोटी रकम चाह रहे होंगे। नकद रुपया और माल न देने वाले किसी भी घर की लड़की उन्हें कभी पसंद आयेगी ही नहीं।
 मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि मेरे पिता जी के विचार इस प्रकार के कदापि नहीं हैं। संबंध चाहे लड़की का हो अथवा लड़कों का, वे धन को महत्व न देकर उसके शील, स्वभाव और उत्तम खानदान का ही ख्याल रखते हैं।
   राकेश की प्रगतिशील विचारधारा में विवाह संबंधों में यह बंधन भी ढकोसले थे। इसलिये उसने पुनः अपनी प्रगतिशीलता बखाननी शुरू कर दी, 'शादी विवाह व्यक्तिगत जीवन का प्रश्न है। यदि लड़की देखने-भालने में अच्छी हो और तुम्हारे विचार उसकी मान्यताओं से मेल खा रहे हों तो फिर तुम्हें उसको अपना लेने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए। कीचड़ में पड़ा हुआ सोना किसी भी व्यक्ति के लिए त्याज्य नहीं होता फिर यदि खानदान दुष्ट भी है तो उसमें से एक निरपराध कन्या को उबार कर नया जीवन दे देना क्या हमारे समाज का कर्तव्य नहीं?'
    राकेश की तर्कशक्ति से मैं भलीभांति परिचित था इसलिये मैंने बात आगे बढ़ाना उचित न समझकर यह कहकर उससे पीछा छुड़ाया 'मैं इन सब बातों को भलीभांति समझता हूं राकेश, किंतु अपने माता-पिता के आदेश का उल्लंघन करने का सामर्थ्य मेरे अंदर नहीं है।'
   और वास्तव में पिता जी की इच्छा के अनुसार मेरा संबंध वहां से नहीं हो सका बल्कि नगर के एक अच्छे खानदान की लड़की से मेरी शादी तय हो गई। भगवान ही जानता है कि मेरे विवाह में नकदी के नाम पर एक छोटा पैसा भी प्राप्त हुआ हो किंतु वधू के शील, सौंदर्य और व्यवहार की सभी देखने वालों ने प्रशंसा की।
   इसके बाद मुझे नौकरी मिल गयी। मैं आसाम चला गया और राकेश उसी नगर में रहकर अपने पिता के व्यवसाय में लग गया।
     सुदीर्घ अवधि के उपरान्त जब मैं आसाम से लौटा तो घर में घुसते ही सबसे पहले मैंने अपने मित्र राकेश की खैर-कुशलता के विषय में पूछताछ की। बड़ी भाभी जी मानों पहले से ही इस संबंध में वार्तालाप करने के लिए समुत्सुक बैठी थीं। विषय छिड़ते ही जोर से हंस पड़ीं। बोलीं- उनकी तो बड़ी दुर्दशा हुई पिछले वर्ष। निश्चिंत रहिए लालाजी, अब राकेश भाई साहब पहले जैसे नहीं रह गए हैं। उनकी समस्त मान्यतायें विपरीत हो गई हैं, विश्वास डिग गए हैं और तर्कशक्ति भी पहले जैसी नहीं रही है। आजकल तो वे बड़ा खोया खोया सा अनुभव करते रहते हैं।
    मैं असमंजस में पड़ गया। ऐसी कौन सी विचित्र शक्ति का प्रादुर्भाव हो गया मेरे पीछे, जिसके विचारों के हठात् राकेश बाबू के निश्चयों को डिगा दिया। मैं विस्मयपूर्ण दृष्टि से टकटकी लगाए हुए भाभीजी की ओर ताक रहा था कि उन्होंने स्वयं ही मेरा समाधान करने के लिए बड़े रोचक ढंग से राकेश की आपबीती सुनानी शुरू कर दी- एक दिन राकेश बाबू अकेले ही अपनी कोठी में बैठे हुए थे कि सहसा एक अपूर्व सुंदरी
नवयुवती ने उसमें प्रवेश किया। अचानक ही एक अज्ञात नवयौवना को अपने सामने देखकर वे सकपका गए लेकिन युवती संकोच रहित होकर राकेश बाबू के सामने वाले कोच पर बैठ गई। राकेश बाबू की प्रश्न सूचक दृष्टि उसके मुख पर जा टिकी।
    युवती ने कुटिलतापूर्वक होठों से मुस्कराते हुए एक बार कृत्रिम निःश्वास भरा और अपनी कहानी का बखान शुरू कर दिया- 'बाबू जी हम बाढ़ग्रस्त दक्षिणी क्षेत्र की विपदा की मारी कुलवती नारी हैं। भयंकर बाढ़ आ जाने के कारण हमारा धन, माल, जानवर, बच्चे सब कुछ बह गया। खुद हम भी पानी में बह निकले। चारों तरफ भयंकर वेग से उमड़ता हुआ जल ही जल दिखलाई पड़ता था। जानवरों की चिंघाड़ और बच्चों की चीत्कार सुनकर हम सिहर उठीं... फिर हमें होश नहीं कि क्या हुआ। सरकार के आदमियों ने हमें निकाल लिया। हम घर-बार विहीन होकर टक्करें खाने लगीं। अब हम अपने इलाके को वापस जाना चाहती हैं। बाबू, आप दो रुपए, चार रुपए देकर हमारी मदद करिएगा।
   राकेश बाबू युवती के अपरूप सौंदर्य को एक टक निहारते चले जा रहे थे। अंग-अंग से प्रस्फुटित उसके नवयौवन ने उन्हें सहज ही में विमोहित कर लिया। उनके हृदय की सुकोमल वृत्तियाँ जागृत हो उठीं। युवती की कुशल अभिव्यक्ति एवं करुण आत्म-कहानी ने भी राकेश बाबू के आदर्शवाद को एड़ लगा दी। वे मन मन बुदबुदा उठे- 'विपदा की मारी सुशिक्षित सुंदर नवयुवती। इसके द्वारा क्या अपने जीवन को सार्थक नहीं बनाया जा सकता ? वह अवश्य प्रयत्न करेगा। और इसलिए प्रकट में उन्होंने नवयुवती से प्रश्न किया-
'यहीं कहीं गृहस्थी बसाकर रहना प्रारंभ क्यों नहीं कर देतीं आप?'
युवती के अधरों पर हल्की सी मुस्कराहट बिखर उठी। उसने अपनी सलज्ज दृष्टि को राकेश बाबू के चेहरे पर टिका दिया और बोली-
 'हमारी पसंद ना पसंद का क्या मूल्य है बाबूजी? हम अज्ञात कुल वाली नारी को कौन व्यक्ति अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहेगा।'
   युवती के हावभाव से राकेश जी का धैर्य विखण्डित होता जा रहा था। तभी सहानुभूति और आकर्षण से अनुप्राणित उनका आदर्शवाद भी मुखरित हो उठा।
'ये सब दकियानूसी विचार हैं। लड़की यदि सुंदर, सुशिक्षित और सुशील हो तो केवल मात्र कुलीनता आदि की अज्ञातावस्था में उसको त्याज्य समझना बड़ा भारी अपराध माना जाना चाहिए।'
कुछ क्षण युवती की ओर टकटकी लगाकर देखते हुए भावावेश में आकर वह पुनः बोल उठे - 'यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो मैं तुम्हें इस घराने की वधू बनाने के लिए तैयार हूँ।'
'क्या यह सच है?' युवती ने सहसा आश्चर्य व्यक्त किया।
’एक दम सत्य! उतना ही जितने हम और तुम।'
'नि:संदेह आपके आदर्श महान् हैं।' लड़की बुदबुदा उठी।
'आप सदृश महान आत्मा की चरणदासी बनने के सौभाग्य से कौन अभागिन अपने को वंचित
रखना चाहेगी?'
और तबसे उस नवयुवती ने राकेश बाबू के घर में रहना प्रारम्भ कर दिया। दोनों के दिन बड़ी हंसी-खुशी से व्यतीत होने लगे। राकेश बाबू रात-दिन उसके प्रेम में सराबोर रहते और वह भी उसके प्रतिदान स्वरूप स्वयं को समस्त सौंदर्य प्रसाधनों से प्रसाधित करके नारी-सुलभ काम-कलाओं से उन्हें अपनी ओर आकृष्ट किये रहती और एक माह के अंदर ही उस नवयुवती की मनोकामना पूर्ण होने को आ गई। वह गर्भवती हो चुकी थी।
  मित्रवर राकेश की यह कहानी मैं बड़ी उत्सुकता के साथ सुन रहा था। सहसा भाभीजी सुनाते-सुनाते रुक गईं और मुस्कराने लगीं।
मैं व्यग्रतापूर्वक बोला 'फिर क्या हुआ भाभी जी?'
'वह दुखदायी घटना जो हमारे लिए हँसी मजाक थी किंतु राकेश बाबू के लिए सबक सिखाने वाली वस्तु बन गई। भाभीजी पुनः गंभीर हो चली थीं।
'एक दिन राकेश बाबू कहीं बाहर गए हुए थे। वापस लौटे तो उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को कहीं जाने के लिए तैयार पाया। वे मुस्कराते हुए ज्यों ही उसके निकट पहुंचे उसने अपनी कुटिल दृष्टि ऊपर उठाई और बोल उठी- 'मेरे लिए इसी समय बीस हजार रुपए का प्रबंध कर दीजिए राकेश बाबू!' नवयुवती के स्वर में तीखापन था।
'ओह तो आप ऐक्टिंग करने में भी अत्यन्त निपुण हैं।' राकेश बाबू मुस्करा दिये- 'सच, इस
मुद्रा में कितनी खूबसूरत लगती हो तुम!'
'बकवास बंद कीजिए, बाबू जी, शराफत इसी में है कि बीस हजार रुपया चुपचाप मेरे हवाले कर दीजिए। युवती ने रोष से आँखें तरेर दीं।
राकेश बाबू का मुख विवर्ण होने लगा। बोले- 'कहीं पागल तो नहीं हो गई हो तुम?' 'पागल मैं हूँ या आप इसका पता शीघ्र ही चल जायेगा आपको, जब में पुलिस में जाकर रिपोर्ट लिखवाऊंगी कि मेरी मजबूरी का फायदा उठाकर आपने बलात्कार किया है मेरे साथ और जब मेरी डाक्टरी परीक्षा कराई जाएगी तो दुनिया थूक उठेगी तुम्हारे मुँह पर और तुम्हारी लाखों की इज्जत क्षण मात्र में मिट्टी में लोटती दिखाई देने लगेगी.....।'
   ओफ! राकेश जी को जैसे काठ मार गया हो। उनके हृदय पर सैकड़ों बिच्छुओं ने एक साथ प्रहार कर दिया मानो। वे चीख उठे-
'धोखा? तुमने धोखा किया है मेरे साथ!'
'चीखने-चिल्लाने से कुछ नहीं बनता-बिगड़‌ता है राकेश बाबू! अच्छी तरह से सोच-समझ लीजिए। मैं आपसे अंतिम बार कह रही हूँ कि यदि आपको अपनी और अपने खानदान की इज्जत प्यारी है तो तुरंत बीस हजार रुपया लाकर मेरे हाथ पर रख दीजिए कहती हुई युवती जाने का उपक्रम करने लगी। ठहरो! राकेश बाबू चिल्ला उठे और चुपचाप तिजोरी की ओर मुड़कर उसमें से बीस हजार रुपए निकालकर उसके हाथ पर रख दिए।
रुपए हाथ में लेकर युवती ने एक बार नमस्ते किया उनको, और कुटिलतापूर्वक मुस्कराती हुई दरवाजे की ओर मुड़ गई।
   राकेश बाबू के आदर्शवादी चिंतन पर यह गहरा आघात था जिसे वे जीवनपर्यन्त विस्मृत न कर सके।

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